क्या धर्म सिखाता है स्त्रियों का शोषण? || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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क्या धर्म सिखाता है स्त्रियों का शोषण? || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। आचार्य जी, जहाँ से मैं आती हूँ उस समाज में जनमानस के बीच ऐसी धारणा हैं कि एक स्त्री को पुरुष की अधीनता में रहकर जीना चाहिए। स्त्री के अस्तित्व को पूरे तरीक़े से एक कोने में रख दिया जाता है। यह समझा जाता है कि जैसे वह कुछ है ही नहीं, कोई महत्व ही नहीं है उसका। मेरे मन में ये सवाल उठता है कि स्त्री को लेकर यह सब लिखा कहाँ है। फिर देखती हूँ कि धार्मिक प्रवचनों में तो ऐसा ही बताया जाता है कि स्त्री को जब तक मातृत्व प्राप्त न हो तब तक वो संपूर्ण नहीं है।

मैं भगवद्गीता पढ़ती हूँ, परंतु उसमें तो ऐसा कहीं नहीं लिखा है। हो सकता है किन्हीं अन्य शास्त्रों में ऐसा कुछ लिखा हो, मुझे उनसब की उतनी जानकारी नहीं है। तो मैं यही जानना चाहती हूँ कि कहाँ से यह चीज़ धार्मिक प्रवचनों में आ गई। किसी भी शास्त्र में ऐसा कैसे लिखा हो सकता है? हमारे ऋषि-मुनि कैसे ऐसी बात कह सकते हैं स्त्री के बारे में? क्योंकि एक स्त्री भी तो वैसा ही सामान्य जीवन जीना चाहती है जैसे कोई पुरुष। और अगर ऐसा कहीं लिखा नहीं है तो कैसे ये चीज़ें इतने लंबे समय से चली आ रही हैं?

आचार्य प्रशांत: सनातन धर्मी हैं आप, जिनको आम भाषा में हिंदू कहा जाता है। सनातन धर्म वैदिक मूल का है इसीलिए हिंदू-धर्म को वैदिक-धर्म भी कहा जाता है। आस्तिक का मतलब ही होता है जो वेदों में आस्था रखता हो। आस्तिक माने कौन? जो वेदों में आस्था रखता हो।

भारत में धर्म की, दर्शन की कुछ ऐसी शाखाएँ भी निकली, जो वेदों में आस्था नहीं रखती थी। उन्होंने भी धर्म को बड़ा योगदान दिया। पर अधिकांशतः बहुसंख्यक हिंदू वही हैं जो वेदों में आस्था रखते हैं। तो श्रुति माने क्या? वेद और मात्र वेद। वेदों का शिखर है वेदांत। वेदांत वेदों से अलग नहीं है। वेदों के ही उत्कृष्टतम, स्वर्णिम शिखर को, अंत को, ऊँचाई को वेदांत कहा जाता है, और वेदांत माने उपनिषद्।

आपने कहा कि आपने बहुत शास्त्र पढ़े नहीं हैं; बहुत शास्त्र पढ़ने की ज़रूरत भी होती नहीं है। भगवद्गीता का नाम आपने लिया ही। उसके अतिरिक्त ग्यारह प्रमुख उपनिषद् और कुछ अन्य महत्वपूर्ण उपनिषद् अगर आपने पढ़े हैं, तो आप सब जान गईं वैदिक धर्म के बारे में। उससे ज़्यादा कुछ जानना ही नहीं है। ऋषियों ने बड़े संक्षेप में सूत्र दे दिए हैं। लंबी-चौड़ी कोई पढ़ाई करनी ही नहीं है। मोटे-मोटे ग्रंथों को देखकर के आतंकित होने की कोई ज़रूरत ही नहीं है। उपनिषद् अति लघु आकार के होते हैं — बीस श्लोक, चालीस श्लोक, अस्सी-सौ श्लोक। दो पन्ने, चार पन्ने, दस पन्ने, बीस पन्ने इससे ज़्यादा नहीं; बहुत ज़्यादा हुआ तो पचास-सौ पृष्ठ। बहुत सारे उपनिषद् हैं जो पाँच पृष्ठों से भी कम के हैं और उन्हीं में धर्म का सार निहित है।

गीता के बारे में आपने कह ही दिया कि उसमें आपको कहीं ऐसी बात मिली ही नहीं कि स्त्री के लिए पुरुष के अधीन रहना और बच्चे जनना बड़ा आवश्यक है। उपनिषदों के पास चले जाइएगा तो वहाँ भी ऐसी कोई बात मिलेगी नहीं। और उपनिषदों के पास जाएँगी तो वहाँ आपको न स्त्री मिलेगी, न पुरुष मिलेंगे। उपनिषद् स्त्री और पुरुष करके व्यक्ति को देखते ही नहीं; उपनिषदों के दृष्टि में आप जीव मात्र हैं। जीव मात्र हैं और एक सत्य है, जो सब जीवों का रूप लेकर के प्रकट होता है। यह वेदांत के मूल सूत्र है जिनको समझना ज़रूरी है ताकि आप जान पाएँ कि जिसको आप वैदिक धर्म कहते हैं, वो क्या है।

बहुत सीधी-सीधी बात कहता है वेदांत — एक सत्य है जो सबके हृदय में बैठा हुआ है, लेकिन उस सत्य के ऊपर मन की, माया की परत चढ़ी हुई है, इसलिए जीव भटकता रहता है। जीव के होने का, जीव के जीवन का फिर एक ही लक्ष्य है—मन, माया के कोहरे को हटाकर सत्य मात्र का बचा रहना, यह वेदांत है।

यह मैं उन वेदों की बात कर रहा हूँ जो एक-एक हिंदू घर में पूजे जाते हैं। निर्गुण निराकार सत्य! जो सब गुणों, सब रूपों, सब रंगों, सब आकारों में व्याप्त है। उसका रूप कभी स्त्री का हो सकता है, कभी पुरुष का हो सकता है। उसका रूप कभी बालक का हो सकता है, कभी वृद्ध का हो सकता है। उसका रूप कभी पशु का हो सकता है, कभी पक्षी का हो सकता है। वो जड़ हो सकता है, वह चेतन हो सकता है। व्याप्त वही एक सत्य है।

और वह कहीं दूर आसमान पर, बादल पर नहीं बैठा हुआ है। उसकी कोई विशिष्ट सत्ता, विशिष्ट जगह या पहचान है ही नहीं; वह निर्विशेष है, वह चहुँ ओर व्याप्त है। वह यहाँ भी है, यहाँ भी है (आस-पास इशारा करते हुए); आप में भी है, इसमें भी है (एक वस्तु की ओर इशारा करते हुए)। और उसी की माया है जो उसको आच्छादित किए हुए है। उसी की माया है जिसके कारण अहंकार आत्मा से संबंध रखने की जगह माया से संबंध रख लेता है। कौन स्त्री, कौन पुरुष, सब जीव हैं और सबके जीवन का एक ही उद्देश्य है — माया को काटना, मुक्ति को पाना। इसमें बच्चे जनने की बात कहाँ से आ गई? इसका धर्म से क्या लेना देना?

सब पुस्तकें शास्त्र कहलाने की अधिकारी नहीं होतीं। हिंदू-धर्म की यह विराटता भी है और विडंबना भी कि उसकी कोई एक केंद्रीय पुस्तक नहीं है। अनेकों पुस्तकें हैं और पुस्तकों के अलावा भी परंपराएँ हैं। उन परंपराओं को भी बड़ा सम्मान मिला हुआ है। तमाम अन्य धर्म हैं, जिनकी एक केंद्रीय पुस्तक होती है, जिसके कारण उनके अनुयायियों को दुविधा ज़रा कम रहती है। जब भी कोई संदेह हो, शंका हो, जाकर के उस केंद्रीय पुस्तक से सलाह ले लो, शंका हल हो जाती है। यहाँ केंद्रीय पुस्तक वेद हैं, लेकिन वेदों के अलावा भी न जाने कितनी पुस्तकें हैं जिनको व्यर्थ ही बड़ा दर्जा मिला हुआ है। और वह तो फिर भी पुस्तकें हैं जिनको दर्जा मिला हुआ है, तमाम तरह की स्मृतियाँ हो गईं, परंपराओं को भी जो कि कहीं लिपिबद्ध नहीं हुई, उन्हें भी धर्म का ही स्थान दे दिया गया है।

भारत में यह बड़ी त्रासदी हुई है कि धर्म और संस्कृति बहुत दूर-दूर हो गए हैं। आमतौर पर आप जिसको धार्मिकता कहते हैं, वह सिर्फ़ कल्चर है, संस्कृति मात्र है। उसका अध्यात्म से कोई ताल्लुक ही नहीं है। 'हिंदू स्त्रियाँ घूँघट करती हैं' — इस वाक्य को देखिएगा तो लगेगा इसमें धार्मिकता मौजूद है। हमने कहा, ‘हिंदू स्त्रियाँ घूँघट करती हैं।' ऐसा लग रहा है घूँघट करना हिंदू-धर्म का हिस्सा हो। ऐसा लग रहा है न? पर यह बात मात्र संस्कृति की है। इसका धर्म से कोई संबंध ही नहीं है। धर्म बिलकुल नहीं सिखाता घूँघट करना।

अगर वास्तव में आप धर्म को जानना चाहती हैं तो 'वेदांत' के पास जाइए और बताइए कि वहाँ कहाँ घूँघट है। रही बात संस्कृति की तो उसका संबंध धर्म से झूठ-मूठ बैठाया जाता है। इसीलिए एक संस्कृति को मानने वाले लोग जब धर्मांतरण भी कर देते हैं, तो धर्म बदल लेते हैं, संस्कृति को नहीं बदलते।

आप राजस्थान, पंजाब आदि क्षेत्रों में चले जाइए जहाँ एक ही संस्कृति के लोग अलग-अलग धर्मों को मानते हैं। वहाँ आप पाएँगे कि धर्म बदल गया है लेकिन उनके रहने, खाने-पीने, जीने के तरीक़े फिर भी एक जैसे हैं। जाट बंधुओं का उदाहरण इसमें बड़ा साफ़ है। आप पंजाब जाएँ, पाकिस्तानी पंजाब जाएँ, राजस्थान जाएँ, वहाँ आपको हिंदू जाट मिलेंगे, सिख जाट, मुस्लिम जाट मिलेंगे। धर्म बदल गया है, लेकिन खानपान, सोच-विचार, सभ्यता-तहज़ीब, यह एक से ही हैं।

अध्यात्म और संस्कृति में भेद करना बहुत-बहुत ज़रूरी है। धर्म का काम किसी तरह की संस्कृति को बढ़ाना या प्रोत्साहित करना नहीं होता; धर्म का काम होता है सत्य को प्रोत्साहित करना। आप सत्य की ओर बढ़ें, इसलिए आपको प्रोत्साहित करना। धर्म का काम आपको किसी विशिष्ट संस्कृति में दीक्षित करना नहीं होता। लेकिन धर्मगुरु लगातार यही कर रहे हैं। संस्कृति किसी जगह की, किसी ज़मीन की होती है; अध्यात्म कहीं का नहीं होता, वह सब जगह का होता है। एक आम हिंदू घर में आप चले जाएँ तो जिन बातों को धर्म माना जाता है, उनका धर्म से बहुत कम ताल्लुक है। उनका ताल्लुक सिर्फ़ संस्कृति, कल्चर से है कि ऐसा चला आ रहा है तो उसे चलने दो और उसको धर्म का नाम दे दो। उसका धर्म से संबंध क्या है?

यह जो बात है कि स्त्रियाँ पुरुष की अधीनता करेंगी; विचार करते हुए भी लज्जा आ रही है कि वेदों के ऋषियों ने ऐसी कोई बात बोली होगी। वह आपसे ऐसी कोई बात बोल सकते हैं कभी? और ऐसे वेद जहाँ गार्गी हैं, मैत्रेयी हैं जिनसे खुद ऋचाएँ उभर कर आ रही हैं। मैं फिर बोलूँगा, एक हिंदू को, एक मुसलमान को आप जिन हरकतों, जिन क्रियाकलापों, जिन आदतों और जिन परंपराओं से पहचान लेते हैं, वह आदतें, वह क्रियाकलाप, वह परंपराएँ, वो धारणाएँ धार्मिक नहीं होतीं, सांस्कृतिक होती हैं। तुम कैसे पहचान लेते हो अभी एक हिंदू चला रहा है या अभी एक मुसलमान चला रहा, कैसे पहचान लेते हो? वेशभूषा से। वह वेशभूषा धर्म का हिस्सा थोड़े ही है भाई! वह संस्कृति का हिस्सा है। पर उसको ही धर्म बना दिया जाता है, नतीजा? जो वास्तविक धर्म है, वह पीछे छूट जाता है। क्योंकि हम यह सोचते हैं कि अगर हमने जनेऊ धारण कर लिया तो हम धार्मिक हो गए या सिर पर हमने सफेद टोपी रख ली तो हम मुसलमान हो गए। तो असली धर्म बहुत पीछे छूट जाता है।

बात समझ रहे हो?

और यह बहुत दुखद घटना घटी है धर्म के साथ। वास्तविक धर्म को पहचानना और उसमें जीना मुश्किल होता है; वह साधना माँगता है, सच्चाई माँगता है। तो हमने यह बड़ा सस्ता विकल्प खोज लिया है कि धर्म के स्थान पर संस्कृति। और धर्मगुरु भी संस्कृति को ही प्रोत्साहन दे रहे हैं। आप जिसको हिंदू धर्म समझते हैं, वास्तविक वैदिक धर्म वैसा बिलकुल नहीं है। अगर कोई हिंदू हो जो वास्तव में वेदों का, वेदांत का अनुकरण करता हो, तो वह आपको हिंदू जैसा लगेगा ही नहीं। आप कहोगे इसमें तो वैसा कुछ भी नहीं है जो आजकल के हिंदुओं में होता है; वह बिलकुल अलग जीवन जिएगा। सच्चा हिंदू आजकल के हिंदुओं जैसा प्रतीत ही नहीं होगा।

एरियल वाशिंग पाउडर होता है, जानते हैं? अभी पाकिस्तान में उन्होंने एक विज्ञापन दिखा दिया। वाशिंग पाउडर का वह विज्ञापन कह रहा है, ‘स्त्रियाँ क्यों घर में कैद हैं?’ उन्हें अपना वाशिंग पाउडर ही बेचना है पर उसको उन्होंने एक सामाजिक रुख़ भी दे दिया विज्ञापन में। जैसा कभी-कभार किया जाता है विज्ञापनों में। और विज्ञापन में कोई महान क्रांतिकारी वक्तव्य तो होगा नहीं। कोई छोटी-मोटी बात ही कही होगी। उन्हें तो वॉशिंग पाउडर ही बेचना है। तो उन्होंने बस छोटी-मोटी बात कही — ‘स्त्रियाँ क्यों घर में कैद हैं? स्त्रियाँ ही क्यों कपड़ों की धुलाई कर रही हैं? असली दाग-धब्बे क्या हैं, वह जो मन पर लगे हैं या कपड़ों पर लगे हैं?’ एक-दो मिनट का विज्ञापन और उसमें ऐसी कुछ बातें।

उस विज्ञापन के ख़िलाफ़ पाकिस्तान में बड़े धरने-प्रदर्शन चल रहे हैं। वह कह रहे हैं कि यह विज्ञापन इस्लाम विरुद्ध है। भाई, यह तुमने संस्कृति बना रखी है कि औरतें घर में पड़ी रहें और कपड़े धोती रहें; यह इस्लाम की सीख कैसे हो गई? यह तुमने संस्कृति बना रखी है और यह झूठी संस्कृति है, यह घटिया संस्कृति है कि औरतें घर में पड़ी रहें और दाग-धब्बे, कपड़े धोती रहें। लेकिन जैसे ही वह विज्ञापन प्रसारित हुआ, उसका विरोध यह कहकर नहीं हुआ कि यह संस्कृति के खिलाफ़ है, उसका विरोध यह कहकर चल रहा है कि यह इस्लाम के खिलाफ़ है। इस्लाम के खिलाफ़ कैसे है, मुझे बताओ? कब आया अल्लाह का फ़रमान कि औरतों को दबकर रहना चाहिए? पैगंबर मोहम्मद साहब ने कब कहा कि औरतों के साथ नाइंसाफ़ी हो? बोलो? यही बात हिंदुस्तान में चल रही है। यही बात हिंदुओं के साथ चल रही है। यही बात वैदिक धर्म के नाम पर चल रही हैं।

वैदिक धर्म से ज़्यादा साफ़, सुंदर, अंधविश्वास से रहित, तथ्यों और सत्यता से परिपूर्ण कोई धर्म है नहीं। लेकिन उसी हिंदू-धर्म को अंधविश्वासों का, कुरीतियों का, एक गर्हित संस्कृति का गढ़ बना दिया गया है; सत्य, आत्मा और ब्रह्म की तो कोई बात ही नहीं। उसकी जगह हिंदू की पहचान क्या बन गई है? वर्ण-व्यवस्था, जातिवाद। कैसे पहचानोगे कोई हिंदू चला रहा है? वह जाति की भाषा में बात करेगा। बताओ मुझे किस उपनिषद् में कहा गया है कि जातिवाद को मानो? उपनिषदों को जाति इत्यादि से मतलब क्या! मैं वेदांत की बात कर रहा हूँ और वेदांत को हल्के में मत लीजिएगा। अगर वेदों को मानते हैं आप तो मैंने कहा वेदांत वेदों का शिखर है। तो कृपा करके यह धृष्टता न करें कि उपनिषद् में नहीं लिखा तो क्या हो गया।

अगर आप हिंदू होकर यह कह रहे हैं कि उपनिषद् में नहीं लिखा तो क्या हो गया, तो यह वैसी ही बात है कि आप मुसलमान होकर यह कहें कि कुरान में नहीं लिखा तो क्या हो गया। यह हो गया कि वह आपका प्रमुख ग्रंथ है। वही आपके धर्म का केंद्रीय स्तंभ है। उसमें नहीं लिखा तो नहीं लिखा। उसमें नहीं लिखा तो आप इन सब अंड-बंड धारणाओं पर, अंधविश्वासों पर चल कैसे रहे हैं, यह बताओ मुझे? जब उपनिषद् जाति प्रथा को समर्थन नहीं देते, जब उपनिषद् नहीं कहते कि स्त्रियों को दबाकर रखा जाए या ऐसे जियो और वैसे जियो, तो तुम फिर ऐसी धारणाओं पर जीवन कैसे बिता रहे हो, बताओ? और वह भी यह कहकर कि यह तो हम करेंगे ही क्योंकि हम हिंदू हैं। हिंदू होने की यह मनगढ़ंत परिभाषा तुमने निकाल कहाँ से ली? वेदों ने तो नहीं दी है तुमको, कहाँ से निकाल ली, बताओ?

पर उपनिषदों के पास जाने से सब घबराते हैं। हिंदू भी घबराते हैं, क्योंकि वहाँ सच्चाई है। हाँ, तमाम तरह की जो अन्य किताबें हैं, हिंदू-धर्म की—बड़ा पुराना धर्म है, करीब पाँच हज़ार साल पुराना। ऋग्वेद को पाँच हज़ार साल हो रहे हैं। इतना पुराना धर्म होगा तो न जाने कितनी किताबें लिखी गई होंगी; लिखी गई होंगी कि नहीं?—तो बाकी जो इधर-उधर की पूछल्ली किताबें हैं, उनको लेकर लोग घूम रहे हैं कि फलानि संहिता, फलानि स्मृति। अरे, संहिताओं और स्मृतियों की क्या बात करते हो, मैं तुमसे सीधे-सीधे वेदांत की बात कर रहा हूँ, वेदांत की, जो आधार है हिंदू-धर्म का। उसकी बात करो।

ऋषियों ने देखा होता कि उनके बताए हुए धर्म में स्त्रियों की आज यह दुर्दशा है, तो बड़े दुखी हुए होते। बड़े दुखी हुए होते! जीईएम चलता है, 'जेंडर एंपावरमेंट मेज़र', उसमें भारत बहुत नीचे आता है। यह ऋषियों का देश है! आँसू निकल आएँगे ऋषियों के। उन्होंने तो तुम्हें बताया कि तुम शरीर हो ही नहीं, जीव होना भ्रम मात्र है। और तुमने अपनेआप को शरीर से इतना अधिक संबंधित कर दिया कि स्त्री अलग, पुरुष अलग, दोनों के लिए व्यवस्थाएँ अलग, दोनों के लिए नियम अलग। दुनिया की सबसे ज़्यादा भ्रूण हत्याएँ भारत में हो रही हैं। लड़कियाँ कुपोषण की शिकार भारत में हैं। स्त्रियों को आज़ादी भारत में नहीं दी जा रही है। ज़बरदस्ती गर्भाधान स्त्रियों का कराया जा रहा है। और जब मैं भारत कह रहा हूँ तो मैं उसमें पाकिस्तान और बांग्लादेश को भी जोड़ लूँगा, क्योंकि संस्कृति वहाँ भी यही है; धर्म अलग है, पर संस्कृति तो यही है। यह सारे काम धर्म नहीं करवा रहा, यह सारे काम संस्कृति करवा रही है।

वैदिक धर्म तो प्रकाश स्तंभ है, जगमग सूर्य है। उसके नीचे इतना अंधेरा कैसे भाई? अंधविश्वास कहाँ से आ गए ऐसे धर्म में, जिसमें साफ़-साफ़ कहा गया है कि मन ही भ्रम है, जहाँ साफ़-साफ़ कहा गया है कि अपने सब विश्वासों को तिरोहित करो। और हिंदुओं में इतने अंधविश्वास फैले हुए हैं! जो वेदांत तुम्हें सिखा गया कि तुम्हारे मूल विश्वास भी मिथ्या हैं, वहाँ न जाने तुमने कैसे-कैसे विश्वास बना रखे हैं और उन विश्वासों को तुम धर्म का भी नाम दे देते हो।

आज का जो फेमिनिज़्म है, नारीवाद है, वह तो अधिक-से-अधिक यही बोल पाया न कि समानता होनी चाहिए, न्याय होना चाहिए। ऋषियों ने तो इक्क्वालिटी (समानता) की भाषा में भी बात नहीं करी, उन्होंने इर्रेलेवेंस (अप्रसांगिकता) की भाषा में बात करी। उन्होंने नहीं कहा, ‘जेंडर इक्क्वालिटी’ ; उन्होंने कहा, 'जेंडर इर्रेलेवेंस '। और बड़ा अंतर है!

आज का बड़े से बड़ा फेमिनिस्ट भी उतना बड़ा फेमिनिस्ट नहीं है जितने कि कपिल, कणाद, शौनक और याज्ञवल्क्य थे। आप आज फेमिनिस्ट हैं तो यही बोलते हैं न कि स्त्रियाँ बराबर की भागीदार हैं। उन्होंने कहा, ‘कोई स्त्री है ही नहीं और न कोई पुरुष है।’ लो ख़तम! अब भेद करोगे कैसे? जेंडर इर्रेलेवेंस , लिंग अप्रासंगिक है। यह है वास्तविक हिंदू-धर्म जो कहता है कि लिंग अप्रासंगिक है। आत्मा सत्य है और लिंग अप्रासंगिक है। तुम स्त्री हो या पुरुष, फ़र्क़ क्या पड़ता है? लेना-देना क्या है?

आप कह रही हैं कि धर्मगुरुओं ने आपको बताया कि स्त्री विवाह न करें और माँ न बनें तो अपूर्ण रहती हैं। ऋषियों से आप जाकर पूछेंगी, हिंदू-धर्म के जो संस्थापक हैं, उनसे आप जाकर पूछेंगी तो वह कहेंगे कि अपनेआप को तुमने जिस दिन स्त्री मान लिया, उसी दिन तुम अपूर्ण हो गए। अब अपनेआप को स्त्री मानते हुए चाहे तुम ब्याह कर लो, चाहे बच्चा जन लो, अपूर्णता मिटने नहीं वाली। अपूर्णता स्त्री के अविवाहित रह जाने में नहीं है, अपूर्णता स्त्री के स्त्री रह जाने में है।

बात समझ में आ रही है?

पुरुष पुरुष रह गया, तो वह अपूर्ण है और स्त्री स्त्री रह गई, तो वह अपूर्ण है। अब अपूर्ण रहते हुए चाहे तुम पचास शादियाँ करो या पाँच सौ बच्चे जनो, उससे तुम्हारी अपूर्णता कम नहीं हो जाएगी। और सांस्कृतिक घपला इतना प्रबल है, संस्कृति भारत की इतनी प्रदूषित हो गई है कि स्त्री को बताया जा रहा है कि विवाह कर ले तू, तो पूर्ण हो जाएगी।

फिर अध्यात्म की ज़रूरत ही क्या है? विवाह से ही पूर्णता मिलती है, मातृत्व से ही पूर्णता मिलती है तो साधना की फिर आवश्यकता क्या है? फिर तो न ज्ञान चाहिए, न भक्ति चाहिए, गर्भ चाहिए। जिस स्त्री को मोक्ष और समाधि दिलानी हो, उसे गर्भवती कर दो। माँ बनेगी अपनेआप पूर्णता मिल जाएगी। ऋषि बेचारे बेकार ही साधना करते रहे, बेवकूफ़ ही बन गए। नदी किनारे बीस हज़ार साल, वो एक टाँग पर खड़े होकर साधना कर रहे हैं, उनको सत्य मिला नहीं, उन्हें तो पूर्णता मिली नहीं। स्त्री को कुछ नहीं करना है, संभोग करना है, गर्भ धारण करना है और नौ महीने बाद पूर्णता मिल गई।

पूर्णता तो अध्यात्म का अंतिम उद्देश्य है। बच्चा जनने से अगर पूर्णता मिलती है तो जिनके चार बच्चे हैं, उनको तो चौगुनी पूर्णता मिली होगी। पूर्णता फोर टाइम्स ओवर! यह तो मज़ेदार बात है! और शायद यही वजह है कि भारतीय उपमहाद्वीप में प्रति स्त्री जितने बच्चे जने जाते हैं, उतने विश्व भर में कहीं नहीं जने जाते। यूरोप में आप जाएँगे तो पाएँगे हर स्त्री औसतन एक दशमलव दो बच्चों को जन्म दे रही है और भारत में आप आएँगे तो पाएँगे तीन दशमलव दो।

पूर्णता का देश है भाई! यहाँ तो संभोग कर-कर के पूर्णता मिलती है। गर्भ रख-रख के पूर्णता मिलती है। अब तुम क्या करोगे ईशावास्य के पास जाकर, अष्टावक्र के पास जाकर, केन और कठ के पास जाकर के? अब किस काम के हैं छांदोग्य और बृहदारण्यक? गर्भ चाहिए बस गर्भ! मिल गई पूर्णता।

धिक्कार है ऐसे धर्मगुरुओं पर जो स्त्रियों से कह रहे हैं कि पुरुषों की दासी बनकर रहो और बच्चे पैदा करती रहो, इसी में तुम्हारे जीवन की सार्थकता है; और धिक्कार है ऐसे पुरुषों पर! अभी मेरा एक वीडियो पब्लिश हुआ जिसका शीर्षक है — ‘क्या स्त्रियों के लिए कमाना ज़रूरी है?‘ और उसमें मैंने ज़ोर देकर कहा है कि जब तक आर्थिक आत्मनिर्भरता नहीं है, तब तक तुम आत्मिक आत्मनिर्भरता की बात सोचो ही मत। उसके विरोध में आजकल के प्रचलित गुरु, सद्गुरु हैं, उनका वीडियो मेरे सामने लाया गया। उनका कहना है कि करना क्या है स्त्री को काम वगैरह कर के, रुपए पैसे की बहुत आवश्यकता हो तभी काम करें। और वह इधर-उधर के उदाहरण दे रहे हैं कि फ़लानी स्त्री है, वह काम नहीं करती है पर वह खाना बहुत अच्छा बनाती है और बड़ी संतुष्ट है।

यह सब संस्कृति के सौदागर हैं, इनका अध्यात्म से कुछ लेना-देना नहीं। इन्हीं जैसों के कारण स्त्रियों का भयंकर शोषण हुआ है और वह बड़े ज़बरदस्त बंधनों में घिरी हुई हैं, पड़ी हुई हैं। शोषण को जब धर्म की स्वीकृति मिल जाए, शोषण को जब गुरुओं की भी मान्यता मिल जाए तो अब शोषण को कौन रोकेगा, बोलो? शोषण जब तक समाज-सम्मत मात्र है, उसे रोका जा सकता है। शोषण जब तक संस्कृति-सम्मत मात्र है, तब भी उसे रोका जा सकता है। पर जब शोषण धर्म-सम्मत हो गया, गुरु-सम्मत हो गया, सत्य-सम्मत हो गया तो अब शोषण को रोकने वाला बचा कौन, बताओ मुझे? कौन रोकेगा?

इसका नतीजा यह हुआ है कि हिंदुस्तान ने औरत को घर के पिंजरे में कैद कर दिया है। न स्त्री का विकास हुआ है शारीरिक तौर पर, मानसिक तौर पर, बौद्धिक तौर पर; न उसने दुनिया देखी है, न जीवन की उसने कोई ऊँचाई पाई है, कोई सार्थकता पाई है। और हमने स्त्री के इसी कैदी रूप को महिमा-मंडित कर दिया है।

यह बड़ी त्रासदी हो गई है, समझना! स्त्री का जो घरेलू रूप है, हमने उसको गौरवान्वित कर दिया है। हमने उसको महिमा-मंडित कर दिया है। तुम बोलते हो — माँ, प्यारी माँ, भोली माँ! तुरंत तुम्हारी आँखों में क्या छवि आती है? बोलो? साड़ी लपेटे, घूँघट डाले एक औरत घर में है, रसोई में और तुम्हारे लिए स्वादिष्ट खाना पका रही। और तुम अपनी आँखों में आँसू भर कर कहते हो कि मैं अपनी माँ के लिए बहुत भावुक हूँ। तुम समझ रहे हो तुमने अपनी माँ की हालत क्या कर दी है? तुम स्वयं तो अमेरिका, जापान, जर्मनी घूमना चाहते हो। तुम स्वयं तो कहते हो कि मुझे इंजीनियर बनना है, मैनेजर बनना है। माँ को तुमने घर में कैद करके रखा हुआ है और माँ का यशोगान तुम यह कहकर करते हो कि माँ पुलाव बहुत अच्छा बनाती है। माँ के हाथ के पराठे, आहा हा हा!

माँ का जन्म तुम्हारा रसोईया बनने के लिए हुआ था? ‘माँ देवी है! माँ की सब्जी का रस अमृत समान है।’ माँ सब्जी बनाने के लिए पैदा हुई है? तुम तो पैदा हुए हो दुनिया घूमने के लिए, अपना सर्वांगीण विकास करने के लिए, माँ को हक नहीं है? पर नहीं, माँ देवी है! माँ थोड़े ही जापान, जर्मनी घूमना चाहती है। माँ को यह इच्छाएँ ही नहीं हैं। माँ को अधिकार ही नहीं है दुनिया को देखने का, जानने का, समझने का। माँ की तो फ़ितरत ही कुछ ऐसी होती है कि उसे बस रसोई में ही सुख मिलता है।

और निकल आए कोई माँ, जो कहे कि मुझे रसोई में नहीं रहना, मैं दुनिया देखूँगी, मैं जानूँगी, घूमूँगी-फिरूँगी, मैं भी नौकरी करूँगी। तो तुम कहोगे, ‘लानत है ऐसी माँ पर! यह घर छोड़ना चाहती है, बच्चों का ख्याल नहीं कर रही।’ माँ को देवी बनाकर के माँ को मार ही डाला तुमने! कभी पूछा है अपनेआप से कि माँ पराठे तो बहुत अच्छे बनाती है, पर माँ का जन्म क्या पराठे ही बनाने के लिए हुआ था? कभी पूछा है?

आमतौर पर घरों में माँएँ होती हैं—मैं अपवादों की बात नहीं कर रहा—उनको न कई भाषाओं का ज्ञान होता है, न देश-जहान का कुछ पता होता है। अखबार भी नहीं पढ़तीं। टीवी भी वह देखती हैं तो घर पर रहते-रहते उन्हें गंदी लत लग गई होती है घरेलू क़िस्म के ही धारावाहिक देखने की। और बाज़ार उन्हें बार-बार उसी तरह की सामग्री परोसता भी रहता है। घरेलू स्त्रियाँ दुनिया-जहान को लेकर कितनी सजग होती है, बताओ मुझे? सौ गृहिणियों को खड़ा करके पूछा जाए कि 'बताओ ब्लॉकचेन क्या है? बताओ, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस क्या है? बताओ, ईरान और अमेरिका के बीच मुद्दे क्या हैं? बताओ, यह क्लाइमेट चेंज क्यों होता है, कैसे होता है, कैसे रोका जाएगा? बताओ, यूरोप का रेनेसां (पुनर्जागरण) क्या था? बताओ, अमेरिका का गृहयुद्ध क्या था? बताओ, रूसी क्रांति क्या थी?'

ईमानदारी से बताना, कितनी गृहिणियाँ बता पाएँगी? कितनी बता पाएँगीं? नहीं बता पाएँगी न? और यही तुम्हारी देवी तुल्य माँएँ हैं, जिन्हें हमने अज्ञान के अंधे कुएँ में डूबाकर ग़र्क़ कर दिया है। बस इतना बोलते रहते हैं कि मेरी माँ देवी समान है, मेरी माँ देवी समान है! और माँ देवी समान तभी तक है जब तक वह आवाज़ न उठाए। माँ को अज्ञान के अंधेरे कुएँ में किसने डुबो दिया? हम ही ने न? हाँ, माँ कपड़े अच्छा धोती है, माँ से कपड़े धुलवालो। माँ से चावल दाल बनवा लो और माँ यह सब कर रही है तो बोलो कि माँ के चरणों में स्वर्ग होता है।

क्रिकेट का विश्वकप चल रहा है (वर्ष 2019 का एकदिवसीय विश्वकप)। बड़ी हैरत की बात है, भारत का राष्ट्रीय बुखार है क्रिकेट, और बहुत सारी गृहिणियाँ हैं, बहुत सारी माँएँ हैं, जिन्हें क्रिकेट का भी कुछ पता नहीं। अजीब बात है! जहाँ के गधे, कुत्ते, तोते भी क्रिकेट की ही भाषा में बात करते हैं, ‘नो बॉल, वाइड बॉल, लेग बाई’, वहाँ बहुत सारी ऐसी माँएँ हैं जिनके घर में मैच चल रहा होता है पर वह रसोई में पराठे बना रही होती हैं। यह करा है हमने अपनी स्त्रियों के साथ! घोर अधार्मिक कृत्य है यह और यह सबकुछ भारतीय संस्कृति के नाम पर चल रहा है। और जो लोग इस तरह की संस्कृति का पालन कर रहे हैं, मैं उनके सामने एक बात साफ़-साफ़ कहूँगा — चला लो, जो संस्कृति तुम्हें चलानी हैं, वह तुम्हारा अधिकार है, लेकिन इस संस्कृति का हिंदू-धर्म से कोई लेना-देना नहीं है।

वेदों ने, वेदांत ने, ऋषियों ने कभी नहीं सिखाया कि तुम स्त्रियों के साथ वो करो, जो आज तुम कर रहे हो। और मेरे वेदों ने, मेरे परमपिताओं ने कभी स्त्रियों से नहीं कहा कि तुम अपनेआप को देह मानो, श्रृंगार करो, आभूषण पहनो, पुरुषों को रिझाओ, विवाह करो और माँ बन जाओ। उन्होंने बिलकुल नहीं कहा स्त्रियों से कि तुम्हारे जीवन का यह लक्ष्य होना चाहिए। उन्होंने तो तुमसे कहा है कि सच्चाई की ओर बढ़ो, मुक्ति की ओर बढ़ो। जीवन का एकमात्र लक्ष्य वही है। स्त्री को देवी बनाकर हमने उसे मनुष्य भी नहीं रहने दिया। स्त्री को माँ बनाकर हमने उससे मुक्ति के सारे अधिकार छीन लिये। कैसी-कैसी बातें तो संस्कृति में चल रही हैं — ‘लज्जा स्त्री का आभूषण है।'

अब संस्कृति और धर्म में अंतर समझो! धर्म कभी नहीं कहता कि लज्जा स्त्री का आभूषण है। यह बात तुम्हारी संस्कृति कहती है। पर इसको परोसा ऐसे जाता है जैसे यह कोई धार्मिक बात हो। यह धार्मिक बात नहीं है, यह तुम्हारी संस्कृति का एक छिछोरा मुहावरा है, ‘लज्जा स्त्री का आभूषण है।' नतीजा यह कि कोई स्त्री आवाज़ बुलंद करे, आगे बढ़े, जीवन को जाने, अपने अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्ष करे, हम तुरंत कह देते हैं कि यह निर्लज्ज है, बेशर्म है। क्योंकि लज्जा तो स्त्री का आभूषण है। पुरुषों का नहीं है? लज्जा स्त्री का आभूषण है तो फिर पुरुषों का क्या आभूषण है? निर्लज्जता?

यहीं की महान संस्कृति थी न जो पति की मृत्यु के बाद स्त्री को चिता पर लिटा देती थी, सती बना देती थी और उसको भी धार्मिकता का ही नाम लिया जाता था, कि यह तो धार्मिक कृत्य चल रहा है भाई। सती देवी, सती देवी! मंदिर बनते थे सती देवी के। देख रहे हो, कैसे संस्कृति को धर्म के साथ जोड़ दिया? पति की लाश पर औरत को जला दो और फिर उसका मंदिर बना दो। आ गया न धर्म बीच में, मंदिर बना दिया सती देवी का। भई, मंदिरों का मसला तो धर्म का ही होता है न?

ज़बरदस्ती शादी कराना, दबाव डाल-डालकर; और दबाव सिर्फ़ शारीरिक ही नहीं होता, मानसिक दबाव डाल-डालकर स्त्री को बच्चा पैदा करने के लिए विवश करना, ये सब बलात्कार नहीं है? बोलो? या बलात्कार सिर्फ़ तभी है जब ज़बरदस्ती हाथ से खींच कर के किसी के शरीर का भेदन किया जाए? किसी को मानसिक रूप से विवश करो कि तू शादी कर, फिर संभोग कर, फिर गर्भ रख तो ये बलात्कार हुआ कि नहीं हुआ? मानसिक रूप से उस जीव पर बल का ही प्रयोग किया गया न, तो ये भी तो बलात्कार ही है। यहाँ तक कि एक विवाहिता स्त्री को भी बच्चे पैदा करने के लिए विवश करना बलात्कार ही हुआ। हमारे धर्म ने बलात्कार सिखाया है क्या?

जो ऊँची-से-ऊँची बात बोली जा सकती थी, जो गूढ़-से-गूढ़ सत्य है, शब्द जितनी दूर तक जा सकते हैं, वो सुंदरतम बात आपके शास्त्रों में कही गई है। और उस बात के बाद भी अगर हमारी संस्कृति की ये हालत है, हमारी स्त्रियों की ये हालत है तो बड़े अभागे लोग हैं हम! हमें वेदांत मिला और फिर भी हम ऐसे रह गए, जैसे हैं हम। दुनिया के अन्य मुल्क, दुनिया के अन्य धर्म, मुझे कहने में कोई संकोच नहीं है कि वेदांत की ऊँचाईयों को तो छू भी नहीं पाए, लेकिन फिर भी उनके समाज की, उनके संस्कृति की, उनकी स्त्रियों की हालत हिंदुस्तान से कहीं बेहतर है। देने वाले ने हमें सबकुछ दिया, लेकिन हमारी हालत देखो! वेदांत और उपनिषदों से ऊँचा क्या है जो किसी को दिया जा सकता है, वह हमें दिया गया और हमारी हालत देखो! बड़े अभागे हैं हम!

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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