प्रश्नकर्ता: क्या बीस मिनट का ध्यान करना सही है?
आचार्य प्रशांत: खेल की तरह करो, तो कुछ भी गलत नहीं है। हाँ, तुम ये सोचोगे कि किसी विधि का पालन करके तुम्हें सत्य मिल जाएगा, तो ये बात बेवकूफी की है। सही-गलत नहीं है; बेवकूफी है।
प्र: कैसी विधि से मिलेगा? कौन-सी विधि?
आचार्य: पचासों विधियाँ होती हैं कि ये तरीका करो, इससे कुछ हो जाएगा, वो तरीका लगाओ, ये करो। नए तरीके नहीं लगाने होते; पुराने जो तरीके तुम लगाए ही जा रहे हो, उनकी निस्सारता को पहचानना होता है। यहाँ कोई ऐसा नहीं बैठा जो जीवन में तरीके लगाए ही नहीं जा रहा। किसी का तरीका है कामवासना, किसी का तरीका है पैसा, किसी का तरीका है ज्ञान, किसी का तरीका है भ्रमण। ये सब तरीके ही हैं न कि इस तरीके से आनंद मिल जाएगा, पूर्णतः मिल जाएगी, चैन मिल जाएगा। इन तरीकों की व्यर्थता को देख लेना, यही एक मात्र विधि है। अब तरीकेबाज़ तुम पहले से ही हो, सौ तरीके लगा ही रहे थे, उसमें तुमने दो तरीके और जोड़ दिए, ये थोड़े ही तुम्हें काम देगा।
प्र: जो हमारे पूर्वाग्रह हैं उन्हें हम कैसे आइडेंटिफाई करें (पहचानें)?
आचार्य: वो लगातार प्रकट हो रहे हैं तुम्हारे जीवन में। तुम जैसे जीते हो उसमें वो दिखाई दे रहे हैं, और जैसे जी रहे हो वो चीज़ तो सामने ही है न?
कोई आग सेक रहा है, कोई नहीं सेक रहा है। तुम्हें क्या लग रहा है ये यूँ ही है? इसके पीछे तुम्हारे मन की वृत्तियाँ हैं, विचार हैं, धारणाएँ हैं, संस्कार हैं, तमाम कारण हैं। देख लो कि तुमने क्या पहना है, देख लो तुम कहाँ बैठे हो, देख लो तुम्हारे मन में क्या उमड़ता-घुमड़ता रहता है। उससे तुम्हें दिख जाएगा कि क्या पाले और पकड़े बैठे हो।
और ये सब तो समक्ष है न, देख ही सकते हो। "क्या कर रहा हूँ मैं सुबह से?" क्या ये बात छुपी हुई है? प्रत्यक्ष है, देख सकते हो न? "किसको दोस्त बना रखा है, कहाँ काम करता हूँ, क्यों करता हूँ, किसके पीछे भाग रहा हूँ, क्या अच्छा लगता है, क्या बुरा लगता है," ये सब बातें क्या तुमसे छुपी हुई हैं? तुम भलीभाँति जानते हो न कि तुम्हें क्या अच्छा और क्या बुरा लगता है? बस यही देख लो, तुम समझ जाओगे कि तुमने क्या अपनी पहचान बना रखी है, तुम अपने-आपको क्या समझते हो, क्या तुम्हारे ढर्रे हैं, क्या तुम्हारी वृत्तियाँ हैं। सब साफ हो जाएगा।
प्र: सुबह-सुबह उठकर मैं बिस्तर से उठकर आँख बंद करके बैठ जाता हूँ। ये करना सही है कि गलत?
आचार्य: ना सही है ना गलत है। ज़्यादा उचित होगा कि तुम पूछो कि लाभप्रद है कि नहीं, प्रासंगिक है कि नहीं? तुम्हारा ध्यान अगर उन चंद मिनटों से खिंचकर पूरे दिन में व्याप्त हो जाए, तो अच्छी बात है। अगर ऐसा हो कि उन दस मिनटों की गतिविधि के कारण तुम्हारा पूरा दिन ध्यान में बीते, तो बढ़िया बात है।
पर उसका विपरीत भी हो सकता है। उसका विपरीत हो सकता है कि तुम कहो कि, "मैंने ध्यान कर लिया, और ध्यान का कोटा खत्म हुआ, अब दूसरे काम शुरू करें", तो बहुत गलत हो गया। और ऐसे भी बहुत लोग होते हैं। वो सुबह दस मिनट पूजा करते है और कहते है, "अब देवताओं का समय खत्म हुआ, अब दानवों का समय शुरू होता है।" क्योंकि पूजा तो हो गई पूरी।
जो दृष्टि हमारी पूजा के प्रति रहती है, वही दृष्टि ध्यान के प्रति भी रहती है न, कि ध्यान कर लिया दस मिनट का, अब बेध्यानी का समय शुरू होगा क्योंकि ध्यान तो अब खत्म हो गया। जब ध्यान खत्म हो गया, तो फिर क्या शुरू हुआ? फिर बेहोशी शुरू हुई, फिर बेध्यानी शुरू हुई।
तुम्हारा ध्यान अगर उन दस मिनटों से विस्तीर्ण होता हो, तो बहुत अच्छी बात है। पर यदि उन दस मिनटों में और संकुचित हो जाता हो, सिमट के रह जाता हो, तो बहुत गड़बड़ बात है। अभी तुम देख लो कि क्या होता है। सिमटना मतलब कि ध्यान हो गया, कि जैसे हम कहते हैं न कि खाना अब खा लिया। अब खा लिया माने कि अब और नहीं खाना। खाना खा लिया, अब और नहीं खाना। वैसे ही बहुतों के साथ ये होता है कि ध्यान कर लिया, अब ध्यान खत्म। जैसे खाना खा लिया तो खाना खत्म, वैसे ही अब ध्यान कर लिया तो ध्यान खत्म। ऐसा भी करने वाले बहुत लोग हैं। बड़ी मूर्खता हो जाएगी अगर ऐसा हो रहा है।
प्र: जैसे हम बैठकर ध्यान कर रहे हैं, और आवाज़ या शोरगुल होगा, आवाज़ आएगी-जाएगी, तो एक बार ऐसी अवस्था आती है कि शांत बिलकुल हो जाता है आदमी, आचार-विचार बिलकुल बंद हो जाते हैं।
आचार्य: वो अवस्था हट क्यों जाती है? तुम्हें वो अवस्था आई, फिर तुम्हें अगले दिन दोबारा ध्यान में क्यों बैठना पड़ा? वो अवस्था हट क्यों गई? अगले दिन तुम्हें ध्यान में बैठना पड़ रहा है मतलब पिछले दिन तुम्हें जो अवस्था आई थी वो हट गई, तभी तो दुबारा बैठना पड़ रहा है न ध्यान में। आती-जाती सारी अवस्थाएँ झूठ होती हैं। जो अवस्था आए और फिर शाम तक गायब हो जाए, उसमें कोई सत्यता नहीं। उसको तुम भ्रम ही जानना, उसको शांति का नाम मत देना।
प्र: बीस-बीस मिनट करते हैं, जैसे चार-छह बार कर लिया, फिर उसके बाद कभी बैठेंगे, तो कोई विचार नहीं आएगा।
आचार्य: ये बड़ी अच्छी बात है यदि ऐसा हो जाए कि तुम विचारों के प्रभाव से मुक्त हो जाओ। पर वो घटना बीस मिनट तक सिमट कर नहीं रह जानी चाहिए। तुम्हारे ध्यान में सच्चाई कितनी थी, ये पूरे दिन को देखने से पता चलेगा। क्या ऐसा हुआ है कि तुम्हारी शांति उन बीस मिनटों की मेहमान थी, या ऐसा हुआ है कि तुम्हारी शांति पूरे दिन के लिए थी? अगर पूरे दिन के लिए है, तो प्यारी बात है। अगर उन बीस मिनटों के लिए है, तो भ्रम है।
प्र: गुरु जी, ऐसा करने से बिलकुल शांत लगता है, पूरा दिन अच्छा जाता है।
आचार्य: अगर पूरा दिन अच्छा जाता है, तो अच्छी बात है। पर अगर पूरा दिन अच्छा जाता है, तो फिर अशांति कहाँ आ जाती है अगले दिन? ये पता लगाना ज़रूरी है कि ध्यान ने अगर शांति दे दी, तो फिर अशांति कहाँ से आ गयी? ये भी पता लगाना बहुत ज़रूरी है।
प्र: और गुरु जी, जब ध्यान करते हैं, तो फिर दोबारा सो जाते हैं। तो वो गलत है कि सही है?
आचार्य: अरे, तो सोओगे नहीं क्या? चार बजे, आठ बजे, दस बजे, आदमी हो तो सोओगे न। अब ध्यान तुम कभी भी करो—हो सकता है कोई ध्यान के आधे घंटे बाद सो जाए, हो सकता है कोई ध्यान के छह घंटे बाद सो जाए—कभी-न-कभी तो सोओगे।
प्र: नहीं गुरु जी, ये नहीं कह रहा। जैसे सुबह चार बजे ध्यान करके फिर बिस्तर में लेटे-लेटे कुछ देख रहे हैं, नींद आ गई, तो कोई प्रभाव पड़ता है? ये गलत है कि सही है?
आचार्य: वही तो मैं कह रहा हूँ। ध्यान करा है, तो क्या तुम्हारी साँस चलनी बंद हो जाएगी, भूख लगनी बंद हो जाएगी, सोना बंद हो जाएगा, पलक झपकना बंद हो जाएगा? ये सब तो होगा न।
प्र: वही जब मैं करता था न ऐसा, तो मेंने छोड़ दिया। ऐसा लगता था कि जाने क्या होगा, जाने पता नहीं बेचैनी हुआ करती थी, डर-सा लगा रहता है मतलब अब क्या होगा, अंदर जाने से पहले अब क्या होगा।
आचार्य: कब डर लगा रहता था?
प्र: करते-करते ज़्यादा समय तक ऐसा लगता था कि कुछ होगा, कुछ होगा, डर-सा रहता है।
आचार्य: मैं नहीं समझा। ध्यान में बैठते हो तो डर लगता है, ये कह रहे हो?
प्र: नहीं, ध्यान कर लेने के बाद जो शरीर में एकदम होता है, शरीर सुन्न-सा हो जाता है। ध्यान करते हैं तब बिलकुल शिथिल हो जाता है, शरीर में डर-सा लगता है। दूसरा कुछ बोलता है तो समझ में नहीं आती उसकी बातें, थोड़ी देर बाद समझ में आती हैं। हम कुछ बोलते नहीं हैं, कोई विचार नहीं आते हैं।
आचार्य: इस डर के दो कारण होते हैं, और दोनों कारण बहुत अलग-अलग हैं। समझना, पहला कारण तो ये है कि तुम्हें बता दिया गया है कि ध्यान में ऐसी अवस्था आती है। बहुत साहित्य उपलब्ध है जो कह रहा है कि तुम ध्यान में गहरे जाओगे, तो डर उठेगा, और ये-वो। तो हम अपने-आपको ही समझा लेते हैं कि चूँकि हम ध्यान में गहरे जा रहे हैं, तो डर उठेगा। डर हमारे लिए उपलब्धि जैसी बात है।
जैसे हमें तमाम चीज़ों की महत्त्वकांक्षा होती है, वैसे ही ध्यान की भी है। तो हम अपने-आपको ही साबित करना चाहते हैं कि हमारा ध्यान गहरा है। अब अगर ध्यान गहरा है, तो गहरे ध्यान में वो सब होना भी चाहिए जो साहित्य में लिखा है कि ध्यान की गहराईयों में होना चाहिए। साहित्य में लिखा है कि ध्यान की गहराइयों में डर उठता है, तो तुम अपने-आपको बता देते हो कि मुझे डर लग रहा है। अन्यथा यह सिद्ध कैसे होगा कि ध्यान गहरा है? और ध्यान का गहरा होना अहंकार के लिए बहुत ज़रूरी है।
ध्यान यदि गहरा है, तो अहंकार के लिए उपलब्धि हो गई न? "मैं कौन हूँ? मैं बड़ा ध्यानी हूँ। मैं बड़े ध्यान में उतरता हूँ।" और गहराई में तुम्हें बता दिया था कि डर है, तो तुम अपने-आपको कहोगे कि "देखो, मुझे भी डर लगा। वो तो लगना ही था क्योंकि मैं तो गहरा ध्यानी हूँ।"
तो एक कारण ये हो सकता है। और दूसरा कारण ये होता है कि ध्यान की गहराईयों में वास्तव में डर होता है। डर इसलिए होता है क्योंकि तुम्हें दिखता है कि बहुत सारी चीज़ें जो पकड़े बैठे हो वो छूट रही हैं। जो ध्यान में गया उसे दिख जाएगा कि जीवन में अधिकांश कचरा ही भरा हुआ है, स्पष्ट हो जायेगा कि कचरा भरा हुआ है। जब स्पष्ट हो जाता है कि कचरा है, तो ये भी दिख जाता है कि छूटेगा। लेकिन वो वृत्ति भी विद्यमान है जो छोड़ना चाहती नहीं। तो वो वृत्ति डर जाती है। जैसे किसी चोर की चोरी पकड़ी हुई हो, जैसे राज़ फ़ाश हो गया हो, जैसे किसी का झूठ खुल गया हो, तो डर लगेगा न?
तो ध्यान की गहराई में वास्तव में भी डर होता है, और डर यही होता है कि, "अरे भाई, बात खुल गई। अब वैसे नहीं जी पाएँगे जैसे जीते थे। अभी तक तो बड़ी अकड़ थी।"
प्र: गुरु जी, जैसे हम कुछ करते हैं, तो मन में कभी ये विचार उठता है कि जो कर रहा है परमात्मा कर रहा है, हम नहीं कर रहे। जो उसकी मर्ज़ी है, करने वाला वो है। हम तो जो है उसके ऊपर समर्पित कर दें?
आचार्य: अभी रात का भोजन करोगे, तीसरी रोटी के बाद चौथी रोटी मँगाओगे, तो परमात्मा मँगा रहा है कि तुम मँगा रहे हो? रोटी खाओ तुम, नाम लगाओ परमात्मा का। ये तो अच्छा धंधा है कि अपनी सारी कामनाएँ पूरी कर लो और कह दो, "ये तो परमात्मा ने करी हैं, मेरी थोड़े ही हैं।" वो वहाँ बैठा भौचक्का देख रहा, "अरे, भाई! ये तू समर्पण कर रहा है कि इल्ज़ाम लगा रहा है?"
प्र: नहीं गुरु जी, ऐसा करने बैठे, तो हम ये सोचेंगे, तो फिर तो कभी नहीं हो पाएगा।
आचार्य: हाँ, तो तुम सोचो। अच्छा है सोचना। सोचने से नहीं होते ये सारे काम। किसी की छाती में छुरा उतार दो, कहो, "परमात्मा का हाथ परमात्मा का छुरा, और परमात्मा की करतूत।" बढ़िया है।
बस एक काम तुम कभी नहीं करते। एक सज्जन थे, वो अपने बेटे को लेकर के बड़े परेशान थे। तो मैंने कहा कि ये आपका है ही नहीं; परमात्मा का है। बोले, "ये बात कैसे कह दिए आप? हममें कोई कमी है क्या कि हमारा नहीं है?" बाकी सब काम तुम परमात्मा के मत्थे मढ़ देते हो, बच्चा परमात्मा का है ये मैंने बोल दिया तो बड़ा बुरा लग गया। अपने पौरुष पर आँच आती है। बोले, "हम परमात्मा के पास थोड़े न गए थे; ये काम हम खुद कर सकते हैं।"
जहाँ-जहाँ मज़े आते हैं वहाँ तुम, और बाकी सब परमात्मा ने कर दिया। मीठा-मीठा गप, कड़वा-कड़वा थू।
ख़लील जिब्रान का लेख है एक छोटा-सा, उसकी शुरुवात ही ऐसे होती है: योर चिल्ड्रन आर नॉट योर ओन चिल्ड्रन (आपके बच्चे आपके नहीं हैं)। वही उन सज्जन को भेजा था मैंने, वो आहत हो गए। मैं पहले वाक्य से आगे बढ़ ही नहीं पाया। बोले, "ये क्या भेज दिया?"