प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। आचार्य जी, बचपन से मेरे पिताजी ने मुझे श्लोक और भगवान के बारे में बताया और आगे वेदों में रुचि उत्पन्न हुई। वे मुझे वेद के ऑडियो कसेट दिलाते थे, फिर मैं सुन-सुनकर बच्चों को वो वेद पढ़ाती थी। जैसे मैंने सुन लिया, 'गणानान्त्वा', तो फिर बच्चे दोहराए। उसके बाद गुरु भी मिल गए और उन्होंने अच्छे से वेद को सिखाया।
और मैं सोच रही हूँ कि वेद अभी लुप्त से हो गए हैं, उच्चारण स्पष्ट नहीं है, तो वेद सिखाना मेरा कर्तव्य है। ये मानते हुए, मैं जितना हो सके बच्चों को वेद सिखाती हूँ। तो अगर मैं इसी को लक्ष्य मानकर जीवन इसी सेवा में बिताऊँ, तो फिर मैं लक्ष्य को प्राप्त कर पाऊँगी?
आचार्य प्रशांत: लक्ष्य क्या है?
प्रश्नकर्ता: जैसे जीवन आता है भगवान की प्राप्ति के लिए। जीवन जो भगवान ने दिया वो भगवान की प्राप्ति के लिए, तो भगवान की प्राप्ति ये हो पाएगी न? क्योंकि मुझे ये संतोष तो मिलता है कि जो भगवान का जो श्वास है वेद, वो सबके मुख से मुझे सुनने को मिलता है, वो आनंद तो मैं प्राप्त कर रही हूँ। तो उसी से मेरा जीवन सफल हो जाएगा न?
आचार्य प्रशांत: मुझे नहीं पता! जब आपको ही नहीं पता कि आप कर क्या रही हैं, तो किसी और को कैसे पता होगा?
प्रश्नकर्ता: जैसे कृष्ण यजुर्वेद हम पढ़ाते हैं।
आचार्य प्रशांत: तो?
प्रश्नकर्ता: तो फिर।
आचार्य प्रशांत: आपको भी हँसी आ रही है न!
प्रश्नकर्ता: नहीं, हँसी नहीं!
आचार्य प्रशांत: आपको पता भी है आप क्या पढ़ा रही हैं?
प्रश्नकर्ता: जी।
आचार्य प्रशांत: क्या पढ़ा रही हैं?
प्रश्नकर्ता: जो वेद....
आचार्य प्रशांत: वेद तो शब्द है।
प्रश्नकर्ता: हाँ।
आचार्य प्रशांत: वेद माने क्या?
प्रश्नकर्ता: जानना।
आचार्य प्रशांत: आप जो श्लोक पढ़ा रही हैं, वो श्लोक क्या है और उसकी दूसरे के जीवन में उपयोगिता क्या है ये बात आपको स्पष्ट है?
प्रश्नकर्ता: ये उच्चारण से तो पॉजिटिव एनर्जी क्रिएट (सकारात्मक ऊर्जा) होती है ये...
आचार्य प्रशांत: ऐसा वेद में लिखा है?
प्रश्नकर्ता: हाँ, जहाँ पर भी आप अगर उच्चारण करेंगे...
आचार्य प्रशांत: ऐसा वेद में लिखा है पॉजिटिव एनर्जी (सकारात्मक ऊर्जा)?
प्रश्नकर्ता: वो होता है, ये अनुभव होता है, हाँ।
आचार्य प्रशांत: जो कुछ भी जानने लायक है, आप कहते हैं, ‘वेद में लिखा है’; वेदों ने कहा है कि पॉजिटिव एनर्जी आती है वेद से?
प्रश्नकर्ता: गुरुजी तो कहते हैं कि आता है।
आचार्य प्रशांत: तो आप वेद सीखना चाहती हैं या गुरुजी सीखना चाहती हैं? जब अभी आपको ही नहीं पता कि वेद है क्या, क्या कह रहे हैं और आपको क्या समझाना चाहते हैं, तो आप दूसरों को वेद का ज्ञान कैसे देंगी?
प्रश्नकर्ता: उच्चारण।
आचार्य प्रशांत: अरे! उच्चारण माने क्या? मैं फ्रेंच का कोई शब्द आपको बताऊँ और आपको उसका सटीक उच्चारण समझा दूँ तो उससे आप फ्रेंच जान जाएँगी? उच्चारण भर करने से क्या होगा अगर बोध नहीं हुआ? पहले बैठकर के या तो स्वाध्याय करें, या किसी की सहायता से स्वयं वेदों के मर्म तक पहुँचें, उसके बाद ये लक्ष्य बनाएँ कि दूसरों तक पहुँचाएंगे। अगर आपको ही नहीं पता अभी कि वेद है क्या, तो आप दूसरों को क्या बताएँगी?
प्रश्नकर्ता: जैसे हर घर में पंडितजन जाकर उच्चारण करते हैं, जो हर मंदिर में जो मंत्रों का उच्चारण होता है, तो वहाँ पर अर्थों का तो वो बोध नहीं होता, लेकिन...
आचार्य प्रशांत: तो इसीलिए तो उससे किसी को लाभ भी नहीं होता।
प्रश्नकर्ता: तो उच्चारण क्यों करते हैं फिर जहाँ मतलब नहीं है, तो फिर अर्थों को नहीं बताते?
आचार्य प्रशांत: बोधहीन हैं। इतनी समझ अगर होती ही उनमें तो वैदिक धर्म का पतन क्यों होता? बिना जाने-समझे अगर तोते की भांति दोहराओगे तो क्या लाभ पाओगे? कोई तो कारण रहा होगा न कि जहाँ पर ऊँची-से-ऊँची बात समझी गई, कही गई, समझाई गई, उसी जगह पर दुनियाभर के तमाम अंधविश्वास बाद में पनपते पाए गए, कुरीतियाँ पाई गईं, कुप्रथाएँ पाई गईं। वही जगह फिर हर तरीके से शोषित भी हुई, दमित रही, आक्रांत रही, कोई तो वजह होगी न? वो वजह यही है — न जानना, न समझना, बस उच्चारण करे जाना। और ये प्रथा सदियों तक चलती रही। नतीजा? एक आतंरिक बोध शून्यता।
प्रज्ञा जाग्रत होने की जगह प्रज्ञा को काठ मार जाता है जब आप रटंत विद्या में विश्वास करने लगते हैं, चेतना जड़ हो जाती है। वेदों को छोड़िए, साधारण विद्यालय में कोई साधारण विद्यार्थी होता है, वही अगर बस रटने पर उतारू हो जाए तो देखा है न वो कैसा जड़, बुद्धू, मूर्ख-सा हो जाता है? जानता-समझता कुछ है नहीं, बस रट रखा है। और उसी की अपेक्षा एक दूसरा छात्र होता है जिसने भले कम पढ़ा हो, पर जो कुछ भी पढ़ा उसको गहराई से समझा। इस समझने वाले का तेज़ दूसरा होता है, प्रताप दूसरा होता है और इसका जीवन बिल्कुल अलग चलता है।
ग्रंथों के साथ भी यही बात है, बार-बार सूत्र दोहराने से क्या होगा? जिसने तुम्हें वो सूत्र दिए, इसलिए थोड़े ही दिए कि तुम उन्हें रटो, इसलिए दिए ताकि तुम उन्हें जानो और उनके अनुसार जीवन जिओ। पर एक-से-एक बढ़कर अंधविश्वास प्रचलित हैं। घूम रहे हैं पंडित जो बताते हैं कि समझने की कोई आवश्यकता नहीं है, मंत्रों से वाइब्रेशन (स्पंदन) निकलते हैं, वो पॉजिटिव एनर्जी लाते हैं, समझने की बात ही नहीं है। ये मंत्र थोड़े ही हैं, ये यंत्र हैं, मशीन हैं, इनसे वाइब्रेशन निकलता है। और तुम समझो चाहे नहीं समझो, कमरे में अगर मंत्रोच्चार हो रहा है तो ऐसे वाइब्रेशन निकलेंगे कि पॉजिटिव एनर्जी आ जाएगी। ये बात कोई मूढ़ ही कह सकता है। इसीलिए फिर संतों-साधुओं ने खूब प्रहसन किया, खूब हँसे पंडितों की इस मूढ़ता पर, रूढ़िवादिता पर।
जाओ कबीर साहब के यहाँ, वो तुम्हें बताएँगे कि पंडितों का हाल क्या है। न वाइब्रेशन से कुछ होना है, न कोई पॉजिटिव एनर्जी होती है; समझोगे तो पाओगे, जानोगे तो जागोगे। वेदांत में निश्चित ही अमूल्य निधियाँ छुपी हुई हैं, पर वो मिलेंगी उसी को जो उन्हें जानने की साधना करेगा। हीरा तुम्हारे घर में भी पड़ा हो, अगर तुम उस तक पहुँचो नहीं तो तुम्हारे किस काम का? तुम्हारी जेब में पड़ा हो, तुम्हें उसका ज्ञान न हो तो भी किस काम का?
‘अपौरुषेय’ कहा गया है वेदों को, देहातीत गहन ध्यान से उतरे हैं वेद। और जो शब्द इतने ध्यान से प्रकट हुआ है, जिसका स्रोत ही गहनतम ध्यान है, उसको समझा भी गहनतम ध्यान में ही जा सकता है, रटकर थोड़े ही समझ लोगे।
जो चीज़ जहाँ से आई है, उसे समझने के लिए वहाँ ही जाना पड़ेगा तुमको। शास्त्रों, ग्रंथों, सभी धार्मिक वक्तव्यों के बारे में ये बात साफ-साफ समझ लो — बहुत-बहुत गहरी ध्यान की अवस्था से उद्भूत हैं वो, अल्टीमेट मेडिटेटिवनेस (परम ध्यान) से आया है हर धार्मिक ग्रंथ। और उसको तुम यूँही अपनी बेहोशी की हालत में पढ़ने लग जाते हो, अब अर्थ का अनर्थ तो करोगे न?
जिन्होंने वो बातें तुमसे कहीं, जिन्होंने तुम्हें वो श्लोक और मंत्र दिए, क्या उन्होंने रट-रटकर दिए? रटकर तो नहीं दिए न? मौलिक अभिव्यक्ति थी। जब उन्होंने रटकर तुम्हें दिए नहीं, तो तुम रटकर उनसे लाभ कैसे प्राप्त कर लोगे भाई?
“गहरे पानी पैठ”, एक-एक सूत्र में गहरी डुबकी मारो। और तुम समझ रहे हो सूत्र को या नहीं समझ रहे हो ये जाँचने की कसौटी बताए देता हूँ — अगर तुम पा रहे हो कि तुम शास्त्र पढ़े जा रहे हो लेकिन ज़िंदगी वैसी-की-वैसी है, तो जान लेना कि तुमने कुछ नहीं समझा। समझने का प्रमाण ही है जीवन में प्रत्यक्ष बदलाव। जो कहे कि मैंने ग्रंथ पढ़े, शास्त्र पढ़े, लेकिन ज़िंदगी नहीं बदली, समझ लेना उसने कुछ नहीं पढ़ा। वो सतह-सतह पर घूम-फिरकर के पानी को छूकर के लौट आया, गहराई में गोता नहीं मारा उसने।
वेद का तो अर्थ ही होता है ‘जानना’, ‘बोध’; और तुम वेद को ही बिना जानें रटकर ही काम चलाना चाहते हो! साफ उच्चारण एक प्रशंसनीय बात है, पर उच्चारण भर से काम थोड़े ही चलेगा।
मैं शब्दों का साफ उच्चारण करूँ तो अच्छी बात है, तुम्हें मेरी बात साफ-साफ सुनाई देगी। क्या शब्द बोला है इस बात को लेकर तुम भ्रमित नहीं रहोगे, लेकिन तुम यहाँ मेरा उच्चारण सुनने थोड़े ही आते हो। बात उच्चारण से कहीं आगे की है, बात बहुत गहरी है। तो उच्चारण तुम्हारा शुद्ध है बहुत अच्छी बात, लेकिन इतने से कुछ होगा नहीं। मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि अशुद्ध रखो उच्चारण, पर मैं कह रहा हूँ कि शुद्ध उच्चारण अच्छा है, पर बहुत अपर्याप्त है।
वैदिक साहित्य सारा श्रुति है, कहकर-सुनकर आगे बढ़ी है परंपरा। तो कुछ तो उस समय की माँग थी कि उच्चारण पूर्णतया शुद्ध होना चाहिए, क्योंकि लिखा तो जा नहीं रहा है, कहा जा रहा है, सुना जा रहा है। तो बात अगर साफ कही नहीं गई तो सुनने वाले को भ्रम हो सकता है, तो उच्चारण पर काफी महत्व तो इस वजह से रखा गया। आज के समय में तो लिखित शब्द उपलब्ध हैं, तो उच्चारण की महत्ता तो यूँ भी कम हो गई है। श्रुति वास्तव में अब श्रुति थोड़े ही रही, वो तो लिखित हो चुकी है।
मैं फिर कह रहा हूँ, मैं गलत उच्चारण का पक्षधर नहीं हूँ। पर तुम उच्चारण को ही बोध बना लो, ज्ञान बना लो, उच्चारण को ही तुम सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात समझने लगो, तो ये पागलपन है। एक-एक सूत्र को अपने जीवन से जोड़कर देखो, पूछो कि जीवन के ठोस धरातल पर, यथार्थ की जमीन पर इस सूत्र का क्या अर्थ और क्या उपयोगिता है। तब जानना कि तुमने वेदों को गहा और फिर वेद तुम्हारे लिए न जाने कितने उपहार लेकर प्रकट होंगे। तब तुम कहोगे, ‘कुछ पाया।’
और कृपा करके कोई ये न सोचे कि सिर्फ किसी मंत्र का ऑडियो लगा दिया या सीडी लगा दी और उस मंत्र का बड़ा सुंदर उच्चारण चल रहा है सीडी में या ऑडियो में, तो उससे आपके घर पर अमृत बरस जाएगा। लोग ये खूब करते हैं, कह रहे, ‘सुबह-सुबह फलाने मंत्र की सीडी लगा दी, अब वो है संस्कृत में। और सीडी बनाने वाले ने इतना कष्ट भी नहीं उठाया है कि उसका हिंदी में, अंग्रेजी में, किसी समसामयिक भाषा में अनुवाद करके बता दे। और कोई बड़ा प्रख्यात वाचक या गायक उस श्लोक को अपनी मधुर सुर, लय, तान पूर्ण आवाज़ में उच्चारित करता है। आपको लगता है, ‘वाह! क्या दैवीय अनुभव है! पॉजिटिव वाइब्रेशन फैल रहे हैं मेरे घर में!’ और आपको पता एक रत्ती नहीं है कि वो जो श्लोक है वो कह क्या रहा है।
आप किसी म्यूजिक स्टोर पर चले जाइए, ऑडियो की किसी दुकान पर आप चले जाइए, वहाँ आपको सैकड़ों ऐसी सीडी इत्यादि उपलब्ध हो जाएँगी — ये मंत्र, वो मंत्र। मंत्र का उच्चारण हो रहा होगा, पीछे से धीरे-धीरे वीणा की या सितार की ध्वनि आ रही होगी, गंभीर होगी वाणी और ऐसा लगता है कि वाकई बड़ा अमृत झर रहा है। गुरु ने शिष्य को जब वो श्लोक दिया था, मान लीजिए वेदांत है, उपनिषद् है, गुरु ने शिष्य को श्लोक दिया, तो साथ में सितार और वीणा बजाकर दिया था क्या? गाकर दिया था क्या? साधारण बातचीत थी, एक वृक्ष के नीचे दोनों बैठे थे, साधारण संवाद था और गुरु ने शिष्य को ऊँची-से-ऊँची बात बता दी।
न सितार आवश्यक है, न वीणा आवश्यक है, शिष्य का समझना आवश्यक है कि गुरु ने क्या बताया; आप समझे क्या? उपनिषदों के किसी भी मंत्र का क्या महत्व है कि गुरु ने दिया और शिष्य ने समझा। या ये महत्व है कि वो सुनने में बड़ा अच्छा लग रहा है और शिष्य बिल्कुल अभिभूत हो गया कि गुरुदेव का उच्चारण कितना साफ है। ऐसा तो नहीं था, कि ऐसा था? तो आप भी उस सूत्र को वैसे ही ग्रहण करें जैसे गुरु के सामने शिष्य ने करा था। शिष्य को सूत्र मिल जाता है, शिष्य गुरु की प्रशंसा में कहता है, ‘अहो! मृत्यु को काटकर जो मुझे अमृत में स्थापित कर दे ऐसा आपने मुझे ज्ञान दिया गुरुदेव!’
या कभी ऐसा भी तुमने पढ़ा है वेदों में, वेदांत में कि शिष्य कह रहा है, ‘अहो! पॉजिटिव वाइब्रेशन से पूरी कुटिया भर गई, ऐसा आपने ज्ञान दिया गुरुदेव! गुरुदेव आपके ज्ञान से बड़ी पॉजिटिव एनर्जी उठती है, या कि गुरुदेव आप महान हैं क्योंकि आपका उच्चारण स्पष्ट है’; कोई शिष्य ऐसा बोलता है? शिष्य कहता है कि मैंने समझा आपने क्या कहा और इस समझ ने मुझे मृत्यु के पार अमरता में स्थापित कर दिया। ये सीडी वाला अध्यात्म थोड़ा खतरनाक है, इससे बचना, खूब चल रहा है स्पिरिचुअल म्यूजिक। (आध्यात्मिक संगीत।)
श्रोता: हाफ़ फ्रीक्वेंसी (आवृत्ति) भी बताते हैं कि टू पॉइंट सेवन मेगा हर्ट्ज़ (दो-दशमलव-सात मेगा हर्ट्ज) पर!
आचार्य प्रशांत: सोचो, अब बातचीत चल रही है (ऋषि) अष्टावक्र और (राजा) जनक की और अष्टावक्र ने अपने बगल में ऑसिलोमीटर रखा हुआ है फ्रीक्वेंसी नापने के लिए! कह रहे, जनक को समझ में ही तभी आएगा जब एक खास फ्रीक्वेंसी पर मैं बोलूँगा। या याज्ञवल्क्य-गार्गी संवाद हो रहा है, यहाँ तो बड़ी गड़बड़ होगी, पुरुष और स्त्री की फ्रीक्वेंसी अलग-अलग होगी-ही-होगी। और दोनों लगे हैं इसी में कि किसी तरह से फ्रीक्वेंसी मेच करा दें।
ये व्यर्थ की बातें हैं, फ्रीक्वेंसी और ये और वो, ये पोंगा-पंडितों ने फैला रखी हैं। ये बातें एक तरह से वेदों का अपमान हैं। जो बात कही गई है वो समझने के लिए कही गई है, वो बात है, वो ध्वनि मात्र नहीं है। जो बात को समझ नहीं पाता उसके लिए बात क्या रह जाती है? मात्र एक ध्वनि। तो जब कोई तुमसे कहे कि उस ध्वनि में कुछ खास है, तो समझ लेना कि चूँकि ये समझता नहीं, इसीलिए ये सूत्र को ध्वनि मात्र कह रहा है।
मैं तुमसे कहूँ, ‘ओम’, अब या तो तुम ‘ओम’ को, ‘प्रणव’ को समझो; और अगर नहीं समझते, तो तुम्हारे लिए क्या है? एक ध्वनि भर है, एक आवाज़ थी। एक-एक श्लोक, एक-एक मंत्र अमूल्य है, पर सिर्फ तब जब तुमने उसे समझा हो और जीवन में उतारा हो।
प्रश्नकर्ता: मुझे ये चीज़ बहुत ज़्यादा देखने में आती है कि लोग अपने घरों में हवन करा रहे हैं, या शादी में भी जो है हवन चल रहा है, आहुति डाली जा रही है। पूरा-पूरा दिन कई जगह मंत्रोच्चार चल रहा है और सब लग रहा है कि पुण्य करके आगे कितना बड़ा, लेकिन किसी भी मंत्र का अर्थ किसी को समझ में नहीं आया। मतलब बहुत बड़ी मात्रा में ये चीज़ चल रही है। मतलब मुझे भी लगता था कि इसका क्या अर्थ है, मैं भी सोचता था। वही चीज़ आचार्य जी, आपसे भी सुनने को मिली कि लगे हैं पूरा दिन और व्यर्थ ही, मतलब उसका अर्थ नहीं समझ रहे तो वो व्यर्थ ही है। धन्यवाद!
आचार्य प्रशांत: दो तरफ़ा नुकसान होता है — पहली बात तो ये कि उस मंत्र से तुमने कुछ सीखा नहीं, उस मंत्र से तुमने कुछ जाना नहीं, ये पहला नुकसान। और दूसरा ये कि मंत्र को दोहराकर तुम्हें ये विश्वास हो गया कि जैसे तुम जानते हो, जैसे कि तुम्हें कुछ मिल गया है, तो तुम्हारी आगे की खोज भी बंद हो गई। जिसे न मिला हो कुछ और जो जानता भी हो कि मुझे नहीं मिला कुछ, वो कम-से-कम खोजेगा तो। वो कहेगा, ‘मैं कुछ नहीं जानता और मुझे बात ये पता है कि मैं कुछ नहीं जानता,’ तो फिर वो खोजेगा, तलाशेगा, जानने की कोशिश तो करेगा। पर जो मानकर बैठ जाता है कि मैंने मंत्र सुन लिया और इससे लाभ हो ही गया, सुनने भर से, उसको मिलता भी कुछ नहीं और आगे भी पाने के उसके दरवाजे बंद हो जाते हैं, दो तरफ़ा नुकसान होता है। और भारत ने ये नुकसान बहुत सहा है।
प्रश्नकर्ता: तो फिर ये वेद मंत्रोच्चारण के अभिषेक, अर्चना-पूजा जो मंदिर में करते हैं, तो ये सब करना सब व्यर्थ है? तो मंदिरों में पूजा-अर्चना न किया जाए? सब लोग प्रार्थना करने जाते हैं तो ये क्यों फिर ये सब? सब जगह पर तो वही उच्चारण होता है, कोई भी पंडित को बुलाते हैं, सब जगह पर कोई भी पूजा-अर्चना करवाते हैं घरों में, उत्सवों में, प्रत्येक त्यौहार में, लक्ष्मी पूजा हो, शिवरात्रि हो, हर एक पर्व पर वेद मंत्रों का उच्चारण जो पंडित को बुलाकर घर में पूजा-अर्चना किया जाता है, मंदिरों में जाकर किया जाता है, ये सब फिर करना है कि नहीं?
आचार्य प्रशांत: मैंने जो इतनी बात समझाई, उससे आपको यही समझ में आया?
प्रश्नकर्ता: नहीं, मतलब जो ये सब हो रहा है फिर वो सब व्यर्थ है?
आचार्य प्रशांत: तुम जैसे कर रहे हो वो व्यर्थ है। मंत्र अमूल्य है, पर तुमने उसके साथ जो व्यवहार किया है वो बहुत गलत है। देने वालों ने तुम्हें हीरा दिया, उपनिषदों के ऋषियों ने हीरे दिए तुम्हें, पर तुम्हें हीरे की कोई कद्र ही नहीं है। तो तुम उसका इस्तेमाल कर रहे हो कंचे खेलने के लिए, तुम उसका इस्तेमाल कर रहे हो पेपर वेट की तरह।
प्रश्नकर्ता: नहीं समझ पाई।
आचार्य प्रशांत: तो ये माना न कि समझना ज़रूरी है?
प्रश्नकर्ता: नहीं।
आचार्य प्रशांत: अरे! नहीं समझ पाई तो कोई बात ही नहीं, आपने आज तक भी कुछ नहीं समझा। क्यों परेशान हो रही हैं?
प्रश्नकर्ता: क्योंकि इसीलिए परेशान हूँ कि जो पंडित हैं वो भी आधा अर्थ पढ़कर (सुना देते हैं), वो आगे का करता ही नहीं है। मंदिरों में भी जाते हैं, सुनते हैं, जब हमने जाना है तभी तो हमारे बच्चे भी आजकल कहीं पर भी मंदिरों में जाते हैं, वो कहते हैं, ‘दीदी! आज पंडित जी ने आधा ही मंत्र कहा है।’
आचार्य प्रशांत: पंडित को पकड़ा क्यों नहीं कि बाकी आधा कहाँ है मंत्र पंडित!
प्रश्नकर्ता: तो वो बोलता ही नहीं, वो चुप बैठता है और बच्चों से करवाता है। मैंने कहा, ‘देखो, कैसे पंडित।’ मतलब मुझे ये लगता है कि ऐसे बच्चों का सुनकर तो उनका तो बुद्धि तो थोड़ा आगे बढ़ेगा, आगे गलत काम तो नहीं होगा। क्योंकि मैं कहीं पर भी जाती हूँ, हम नहीं, बच्चे भी सुनते हैं, तो बच्चे खुद बोल जाते हैं, कहीं पर भी जाइए। तो ये क्यों, फिर जो गलत हो रहा है तो उसको रोकें कैसे?
आचार्य प्रशांत: खुद तो गलत न करें, इतना तो कर सकती हैं? पंडितों ने अधर्म मचा रखा है, उन्हें करने दीजिए जो वो कर रहे हैं। अगर पाप कर रहे होंगे तो फल खुद भुगतेंगे, पर कम-से-कम आप तो समझिए कि क्या कह रहे हैं वेद, क्या कह रहे हैं उपनिषद्। और प्रेम हो जाएगा उपनिषदों से अगर समझेंगी कि क्या कह रहे हैं; समझेंगी नहीं तो फिर रटंत विद्या।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, पारिवारिक पृष्ठभूमि ऐसी रही है कि शुरू से ही हम लोग को घर में पूजा-पाठ, ये सुंदरकांड करो, या रामायण करो, ये पढ़ो, वो पढ़ो ऐसा कराया गया है। ठाकुर जी का पूजन करो, भोग लगाओ, ये शिव जी का पूजन करो, ये सब होता है। आज हम इस बात को समझ गए हैं गीता का अर्थ समझने से, पढ़ने से, आपके सीडी से या कई माध्यमों से हमने उसको समझ लिया है, क्लियर (स्पष्ट) हो गया है। फिर भी एक जो संस्कार बना हुआ है, बचपन से उसको करते आए हैं, अब उसको छोड़ने में कुछ अजीब-सा लगता है कि कैसे जिस काम को करते आए हैं अचानक से छोड़ दें। तो कम कर दिया है, लेकिन फिर भी लगता है कि कुछ अजीब सा लगता है?
आचार्य प्रशांत: अजीब-सा नहीं लगता है, भय लगता है।
प्रश्नकर्ता: हाँ, भय लगता है कुछ।
आचार्य प्रशांत: भय इसीलिए लगता है क्योंकि बोध पूरा नहीं है। जैसे कि खूब जान, सुन, पढ़ लेने के बाद भी अगर अंधविश्वास की ग्रंथि पूरी तरह मिटी नहीं है, तो बड़ा भारी वैज्ञानिक भी अंधेरी रात को अकेले जंगल में निकलने से डरेगा, ‘कहीं भूत न आ जाए!’ उसका ज्ञान उसे बता रहा होगा कि कुछ नहीं है भूत-प्रेत, लेकिन फिर भी उसे थोड़ा डर तो लगेगा। इसका अर्थ यही है कि ज्ञान अभी गहरा उतरा नहीं है, अभी खून बनकर नहीं बह रहा है ज्ञान, अभी ज्ञान बस मस्तिष्क में है, बौद्धिक है। ज्ञान को और गहराने दीजिए, सब तरह का भय समाप्त हो जाएगा।
रूढ़ियों और परंपराओं को निभाते चलने का नाम नहीं है अध्यात्म; और दुर्भाग्य की बात ये है कि अधिकांशत: अध्यात्म के नाम पर यही चलता है — रूढ़ियाँ, परंपराएँ, अंधविश्वास।