
प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। मेरा सवाल हाल ही में जो एस.एस.सी. एग्ज़ाम्स की अव्यवस्था को लेकर प्रोटेस्ट हो रहा है, उसके संबंध में है। ये अत्यंत दुखद है कि आज़ादी के इतने साल बाद भी इस तरह की मूलभूत समस्याओं को हम नहीं सुलझा पा रहे और छात्रों को पेपर लीक, भ्रष्टाचार आदि से गुज़रना पड़ रहा है। और एक तरफ़ तो हम सभ्य समाज और बिल्कुल सभ्य राष्ट्र होने का दावा करते हैं, फिर भी हम इस तरह की समस्याओं को सुलझा नहीं पाते। तो इसका मूलभूत कारण?
आचार्य प्रशांत: मूलभूत वग़ैरह तो सब बाद में आएगा। तुमने भी दिया था क्या पेपर इस बार?
(प्रश्नकर्ता ना में अपना सिर हिलाते हुए)।
तो तुम्हें इसमें इतनी रुचि कैसे है? तुम्हारे भाई-बहन, कोई दोस्त-यार, कोई है जिन्होंने दिया हो?
प्रश्नकर्ता: पहले दिया है मेरे कुछ जानने वालों ने।
आचार्य प्रशांत: हर साल इसमें औसतन 10-20 हज़ार सीटें होती हैं और हर सीट के लिए 200 से ज़्यादा आवेदक होते हैं। मैं अभी बात कर रहा था, कुछ ही दिन पहले की बात है किसी से कह रहा था, कि मुझे कुछ मामलों में मेरे स्कूल और कॉलेज के दिन बहुत याद आते हैं।
किस मामले में?
सब कुछ साफ़ था, मुझे पता था मैंने कितने नंबर का एग्ज़ाम किया है और मेरे लगभग उतने ही नंबर आते थे, क्योंकि आपको ही पता है ईमानदारी से इतना-इतना किया है, इतना-इतना ठीक है। 98 का करोगे 98 आएँगे, 95 का 95, 80 का तो 80, आपके ऊपर है। पाठ्यक्रम निश्चित था, कोई दुनिया भर की फिज़ूल बातें आपसे नहीं पूछी जाएँगी और जिन्होंने पाठ्यक्रम बनाया, जो सिलेबस सेटर हैं वो तमीज़ के लोग हैं। उनको पता है कि एक लड़के को या एक किशोर को, फिर एक युवा होते हुए इंसान को क्या जानने की ज़रूरत है। तो उन्होंने बहुत अच्छी-अच्छी चीज़ें अपना सिलेबस में रखी हुई थीं, और था भी बहुत अच्छा आई.सी.एस.ई. फिर आई.एस.सी., उसके बाद दो कॉलेज जिनमें गया।
सातवीं में आ गया था “सिक्स्टीन टेल्स फ्रॉम शेक्सपीयर,” आठवीं से शेक्सपीयर को ही पढ़ना शुरू कर दिया बारहवीं तक सिलेबस में थे, बड़ा बढ़िया था। पहले तो सिलेबस अच्छा और उसके बाद आपकी तक़दीर आपकी तैयारी से तय होगी, आप अच्छे से पढ़ो। जितना पढ़ा है, जितना ज्ञान अर्जित किया है, जितना जानते हो उसी हिसाब से आपके नंबर आ जाएँगे और आपकी रैंक आ जाएगी। मुझे बहुत नीट लगता था ये।
वो नीटनेस कॉलेज की चार दीवारी से बाहर निकलने के बाद ख़त्म हो गई। अब ये थोड़ी है कि मैं जो कुछ बोल रहा हूँ उसी के अनुसार कर्मफल आ जाता है, अब तो ये है कि आप अपना कर्म करो और कर्मफल तो अब छोड़ दिया है। और जो कर्म है उसकी पात्रता के अनुसार कर्मफल है भी नहीं पर वो सब बाद में हुआ, वो सब तब हुआ जब मैं सशक्त हो गया था इतना कि मुझे फिर कर्मफल की परवाह करने की ज़रूरत नहीं थी। पर जब आप युवा होते हो, आप एक लड़के हो, अभी एक छोटी लड़की हो आप, तो आपके लिए बहुत ज़रूरी होता है कि आपको दिखाई दे कि दुनिया एक न्याय की जगह है, कि दुनिया एक इंसाफ़-पसंद देश है।
मैंने इसलिए कहा कि मुझे पुराने दिन याद आते हैं, वो इंसाफ़ के दिन थे। अब की तरह नहीं कि मैंने कुछ बहुत अच्छा कर रखा है, फिर भी बहुत अड़चनें आ रही हैं और सरदर्द हो रहा है। और दूसरी तरफ़ देख रहा हूँ लोग हैं जो एक से एक नालायकियाँ कर रहे हैं और भ्रष्टाचार कर रहे हैं, और वो बिल्कुल आसमान पर चढ़कर बैठे हैं, चाँद-तारे बनकर बैठे हुए हैं। अब तो ऐसा है, लेकिन अब मैं इस बात को झेल सकता हूँ क्योंकि अब मैं छात्र नहीं हूँ। अब मैं एक मजबूत वयस्क इंसान हूँ, जो कि कर्मफल कैसा भी हो अपना काम करता रह सकता है।
पर वो जो बच्चा है, अगर तुम उसके सामने ये हालत पैदा कर दोगे कि तेरी मेहनत अर्थ नहीं रखती, तरह-तरह की कुटिलताएँ अर्थ रखती हैं और संयोग अर्थ रखते हैं, तो तुम बताओ उसका क्या होगा? प्रशांत जैसा कोई खड़ा नहीं हो पाएगा फिर।
वो तैयारी कर रहा है, कई सालों से तैयारी कर रहा है। कोई भी एग्ज़ाम हो सकता है, एस.एस.सी. हो सकता है, यू.पी.एस.सी. हो सकता है, भारत में नीट हो सकता है। भारत में इस तरह पिछले साल भी तो हुआ था, जो मेडिकल वाले हैं उन्होंने खूब प्रदर्शन किया था पिछले साल। और जितने भी राज्य प्रशासनिक सेवा आयोग होते हैं, इनमें भी कहीं-न-कहीं ये आता ही रहता है बीच-बीच में।
अब किसी ने एक कमरे में जाकर के 3 साल, 5 साल तैयारी करी है, और उसको पता चलता है कि एक दूसरा आदमी है जो संयोग से या कुटिलता से या पेपर लीक करा करके वो अब मिठाई खा रहा है। और तुमने जो तैयारी करी है, या तो जो पूरी प्रशासनिक अव्यवस्था है तुम उसके शिकार हो गए — तुम्हारा एडमिट कार्ड नहीं आ रहा। तुम एग्ज़ाम सेंटर पर गए हो तुम्हारा कंप्यूटर नहीं चल रहा। तुम्हारा माउस नहीं चल रहा। तुम्हारा बायोमेट्रिक ठीक नहीं था। तुमको सेंटर बहुत फिज़ूल जगह दे दिया गया। ये सब चीज़ें चल रही हैं तुम्हारे साथ, या पेपर लीक हो गया।
पेपर लीक का तो कहना ही क्या! और पेपर लीक हो गया है, और न जाने कितने लोग हैं जो मौज मार रहे हैं। तो तुम्हारे मन में फिर श्रम, योग्यता, मेरिट, नॉलेज के लिए क्या इज़्ज़त रह जाएगी? तुम क्यों मेहनत करना चाहोगे? तुम क्यों मेहनत करना चाहोगे ये बताओ। और जिस इंसान को आपने बचपन में ही या उसके यौवन में ही ये तालीम दे दी कि “साहब, तुम्हारी मेहनत से कुछ नहीं होता। या तो तुम्हारे घर में पैसा हो तो डोनेशन से तुम्हारा काम चल जाए, या तुम्हारे कनेक्शंस हों।”
एक किताब हमारे सिलेबस में चलती थी आई.सी.एस.सी. में “सोर्सराम जी की महिमा।” एक कहानी थी ये, हिन्दी में लगती थी, “सोर्सराम जी की महिमा।” तो या तो तुम्हारे पास पैसे हों, या सोर्स हो तो इनसे काम हो जाता है, या तिकड़मबाज़ी हो तो फिर…, और ये सब मान लो नहीं भी है। ये सब तो वो चीज़ें हो गईं जो सिस्टम से बाहर की हैं, कि किसी ने सोर्स लगा दिया, किसी ने पेपर लीक करा दिया या किसी का सिलेक्शन नहीं हो रहा था तो डोनेशन करके उसको पीछे से धक्का दे दिया। ये तो सिस्टम से बाहर की बातें हैं।
सिस्टम के अंदर भी क्या है?
कोचिंग क्लासेस खुलेआम लिख के दे रही हैं, “शॉर्टकट्स फॉर सक्सेस। ट्रिक्स फॉर सक्सेस।” राष्ट्र में क्या आर्यभट्ट पैदा होंगे अगर गणित के सब विद्यार्थी पिछले साल के क्वेश्चन पेपर में बैठ के शॉर्टकट्स खोज रहे हैं? पिछले 100 सालों में कितने बड़े गणितज्ञ हमने निकाल दिए? कैसे निकाल दोगे? यहाँ तो अगर किसी से पूछो वो मैथ्स का स्टूडेंट है, तो वो मैथ्स के नाम पर बैठकर एमसीक्यूज़ में शॉर्टकट्स की ट्रिक्स खोज रहा होता है। मैथमेटिशियंस निकलेंगे यहाँ से?
ये सब जो हमारी पारिवारिक व्यवस्था है — समाज और शिक्षा — ये सब मिलकर राष्ट्र की बुनियाद को खोखला कर रहे हैं।
मालूम है, हम बार-बार बात करते हैं रोमन एंपायर की। अभी जब मैंने शेक्सपीयर की बात करी, तो “जूलियस सीज़र” रोम, रोम, अरे इतना बड़ा रोम! रोम का पतन कैसे हुआ था? मात्र बाहरी आक्रांताओं द्वारा नहीं हो गया था, रोम के पतन में बहुत बड़ा कारण था कि भीतर रोम की मेरिटोक्रेसी मर गई थी। काबिलियत की जगह जुगाड़ को और कुटिलता को वहाँ जगह, प्रश्रय, सम्मान मिलने लग गया था, रोम ध्वस्त हो गया पूरा। इतना बड़ा रोम — ख़त्म!
जहाँ पर आप अपनी नई पौध को ये संदेश दे रहे हो, कि ज्ञान ज़रूरी नहीं है, योग्यता, पात्रता, श्रम, इनकी महत्ता नहीं है। तुम कितनी भी मेहनत कर लो, सिस्टम ऐसा नहीं है कि तुम्हारी मेहनत को इज़्ज़त दे, तुमने मेहनत खूब करी हम तुमको एंट्री पास ही नहीं देंगे। अब वो इंसान ज़िंदगी में कभी मेहनत को और ज्ञान को सम्मान देगा क्या? देगा? वो बहुत कड़वा हो जाएगा भीतर से और कहेगा, "हमने भी कभी बहुत मेहनत करी थी। कुछ नहीं होता मेहनत से, जुगाड़ से होता है, शॉर्टकट से होता है, लाखों-लाखों रुपए दे कर के कोचिंग करने से होता है। कोचिंग वाले बताते हैं, सक्सेस सूत्राज़, ट्रिक्स वहाँ से होता है। और अगर और पैसा हो तो तुम पेपर आउट करवा लो, पेपर आउट कराने वाले एजेंट भी घूम रहे होते हैं।”
एक किसान को कैसा लगता है जब उसे पता चलता है कि उसकी फसल को मंडी के दलाल खा गए सब? मेहनत उसने भरपूर करी और मज़े कोई और लूट ले गया। कैसा लगता है? वैसे ही छात्र को लगता है जब वो देखता है कि…। किसान की तो फिर भी एक बार की, एक साल की मेहनत होती है, एक मौसम की मेहनत होती है, छात्र की तो भारत में जो व्यवस्था है, 2 साल, 4 साल, 6 साल और यूपीएससी के सुरमा 10–10 साल! उनके इतने दिनों की मेहनत होती है और उस मेहनत को कीड़े लग जाते हैं।
मैं फिर बोल रहा हूँ, एक बड़ी सी बड़ी भीतर मेरे सुरक्षा रहती थी कि अगर मैंने पढ़ा है तो मेरी पढ़ाई का इनाम मुझे मिलेगा। तो मुझे अगर सोचना है तो बस ये सोचना है कि मैं कैसे और पढ़ूँ, कैसे और गहराई से अपने विषय में प्रवेश कर जाऊँ, मेरा ध्यान इसमें लग पाता था। मेरा ध्यान इसमें नहीं होता था कि मैंने पढ़ाई करी है मार्किंग स्कीम कैसी है इस बार? जो परीक्षक है, वो लीनिएंट मार्किंग करेगा या टफ मार्किंग करेगा?
मैं इस मामले में अपने आप को खुशक़िस्मत मानता हूँ, मेरा स्कूल ऐसा था और देश के आगे जिन संस्थानों में मैंने पढ़ाई करी वो ऐसे थे, कि मुझे ये नहीं सोचना था कि मैं एंट्रेंस एग्ज़ाम में इतने का करके आया हूँ तो मार्क्स कितने आएँगे? मैं जितने का करके आता था उतना मिल जाता था, ना कम ना ज़्यादा। बुरा किया है तो बुरा पाओगे, ठीक किया है तो ठीक हो जाएगा। उससे भीतर एक सुरक्षा की भावना आती है, वो बड़ा भीतरी एक मज़बूत सहारा बन जाता है।
क्या सहारा बनता है?
"मेरी किस्मत संयोगों पर आश्रित नहीं है। मेरी किस्मत मेरी खुद्दारी, मेरी मेहनत, मेरे श्रम से तय होगी।”
ये सहारा बन जाता है भीतर।
और वहीं दूसरी ओर एक बार तुम्हारे भीतर ये धारणा बैठा दी समाज ने, व्यवस्था ने, सरकार ने, पूरे माहौल ने कि “बेटा तुम तो राम भरोसे हो, तिनके हो तुम लहरों के थपेड़े खाते हुए और टूटा हुआ पत्ता हो तुम हवाएँ तुमको इधर-उधर बहा रही हैं,” तो उसके बाद आदमी भीतर से बहुत इनसिक्योर हो जाता है। वो कहता है, “पता नहीं मेरा क्या हो क्योंकि मैं कितनी भी मेहनत कर लूँ, हो तो कुछ और जाएगा। पता नहीं मेरा क्या हो, एक तो वैसे एक-एक सीट के लिए 200–250 बैठे हुए हैं और उसमें भी जो मेरा चयन है या मेरा परिणाम है, वो मेरी मेहनत से तो नहीं तय हो रहा।” तो भीतर तगड़ी इनसिक्योरिटी आ जाती है, बहुत तगड़ी और वही इनसिक्योरिटी फिर हमको दिखाई देती है भारत में सरकारी नौकरी का जो नशा है, उसमें।
अब समझ में आई बात?
जब इनसिक्योरिटी आ गई भीतर, तो तुम बाहर फिर क्या तलाशोगे? सिक्योरिटी। तुम कहते हो, कोई ऐसी नौकरी मिल जाए जहाँ से नियम ही ऐसा हो कि अब मुझे निकाला नहीं जा सकता या निकालना बड़ा मुश्किल होगा। जहाँ पर ना सिर्फ़ अभी तनख्वाह मिलेगी बल्कि बाद में पेंशन भी मिलेगी और बाक़ी और चीज़ें, ऐसा पीएफ, ग्रेच्युटी लगा होगा और हेल्थ बेनिफिट्स, बाद में भी ये सब मिलते रहेंगे रिटायरमेंट के बाद भी।
तुमने कभी सोचा कि भारत में और कुछ दूसरे जो विकासशील देश हैं उनमें ही सरकारी नौकरियों के लिए इतनी मार क्यों मचती है? कि 30–30, 40–40 लाख लोग कुछ हज़ार भर्तियों के लिए आवेदन कर रहे हैं। तुमने सोचा?क्योंकि हमने अपने बच्चों को और जवानों को भीतर से असुरक्षित बना दिया है। यही कर-कर के जो हर बार हम करते हैं, स्कूलों में नकल चल रही है और भाई-भतीजावाद चल रहा है, नेपोटिज़्म। किसी को ऐसे एडमिशन मिल रहा है किसी को वैसे मिल रहा है, बहुत नकली तरीक़े। नंबर ख़रीदे जा सकते हैं, शिक्षक ख़रीदे जा सकते हैं, पूरी व्यवस्था ख़रीदी जा सकती है।
ये सब कर-कर के जो हमारा नौजवान होता है युवक, युवती, वो सब भीतर से बहुत इनसिक्योर हो जाते हैं। वो कहते हैं, “कुछ भी हो सकता है और हम तो कुछ भी नहीं हैं, हम तो ऐसे ही हैं अभी 18, 20, 25 साल के। दुनिया में बड़ी-बड़ी ताक़तें हैं और वो ताक़तें तो हमें कठपुतली की तरह नचाती हैं।” तो भीतर बड़ा डर बैठ जाता है फिर इसी डर के कारण आदमी सुरक्षा की माँग करता है। वो सुरक्षा फिर चाहिए कि मुझे ये नौकरी मिल जाए, वो सुरक्षा के लिए फिर आदमी 10–10, 12–12 साल लगा हुआ है इन्हीं नौकरियों के प्रयास में।
हालाँकि भीतर का डर तुम कोई नौकरी हासिल कर लो, उससे मिटेगा नहीं। जो भीतर का डर है वो दूसरे तरीक़े होते हैं उसको हटाने के, लेकिन समझो बात को। कोई सृजनात्मकता नहीं बचती फिर देश में क्योंकि हर आदमी बस सुरक्षा के पीछे दौड़ रहा है। डरा हुआ मन सृजनात्मक (क्रिएटिव) नहीं हो सकता। जो आदमी अभी यही नहीं जानता कि जीवन की मूलभूत बातें भी न्यायसंगत हैं कि नहीं, सुव्यवस्थित हैं कि नहीं, वो उन्हीं मूलभूत बातों के जुगाड़ में ही लगा रह जाएगा। वो ऊँचा कुछ कभी सोच ही नहीं पाएगा।
मेरे पास भी लोगों के संदेश आते हैं। कहते हैं, “आप जो बातें बताते हैं, बहुत अच्छी हैं, बहुत ऊँची हैं। पर हम क्या करें अगर हमें हमारे जगह की, घर-द्वार की, मोहल्ले की, देश की जो व्यवस्था है वो अभी हमारी रोटी-पानी का ही जुगाड़ नहीं कर पा रही है, तो हम आपकी बातें सुनते हैं और बिल्कुल आसमान में उड़ जाते हैं। लेकिन फिर रोटी की लड़ाई हमें खींचकर के वापस मिट्टी में गिरा देती है।” और मैं सहमत हूँ उनसे। और रोटी इतनी बड़ी बात नहीं होती, अगर व्यवस्था सिस्टम ऐसा होता कि जितना करोगे उतना मिल जाएगा, पक्का है। वो जो पक्का नहीं है न, ये जो अनिश्चितता (अनसर्टेनिटी) डाल दी जाती है ये बड़ी घातक होती है, बहुत घातक है। समझ में आ रही है बात?
और फिर इसमें से दो वर्ग पैदा होते हैं, एक वो जिनको मिल गया कुछ वो हैव्स हो जाते हैं, प्रिविलेज्ड वर्ग हो जाता है। एक जिनको नहीं मिला कुछ, जो 99.9% लोग हैं जिन्हें नहीं मिला कुछ वो हैव-नॉट्स हो जाते हैं। वो जो ऊपर वाले हैं नीचे वालों का शोषण करते हैं। हालाँकि हम बोलते हैं इनको सब कि प्रशासनिक सेवा पर हैं, पर वो सेवा नहीं कर रहे होते हैं, वो वहाँ बैठकर के शासक बन रहे होते हैं। कहते तो सर्विसेज़ ही हैं पर वहाँ सर्विस कौन दे रहा है? रूल कर रहे हैं। और जो नीचे वाले होते हैं फिर ये जीवन भर बड़े ज़हर में जीते हैं और ये फिर अपने बच्चों को कहते हैं कि “तुम्हें भी वहाँ ऊपर पहुँचना है, चलो तुम लगाओ ज़ोर, तुम लगाओ ज़ोर, तुम लगाओ ज़ोर।”
एक अच्छा समाज, एक अच्छा राष्ट्र और फिर एक अच्छा विश्व अपने लोगों को ये भरोसा दिला कर के बनता है कि “तुम्हारी योग्यता का सम्मान होगा और तुम्हारे श्रम को मूल्य मिलेगा।”
उनसे साफ़ कहा जाता है, “देखो मेहनत कर लो, मेहनत करोगे तो जितनी मेहनत करी है उसका तुम्हें फल मिलेगा, और अगर मेहनत नहीं करी है तो कुछ नहीं मिलेगा।” और एक गिरते हुए समाज की निशानी ये होती है कि जिन्होंने कुछ नहीं कर रखा होता उसमें उनको भी बहुत कुछ मिल रहा होता है। और जिन्होंने बहुत कुछ कर रखा होता है उन्हें कई बार कुछ नहीं मिल रहा, कभी कुछ औसत दर्जे का मिल गया।
एक मैंने पढ़ा था, वो बोर्ड्स में जो कॉपीज़ आती थीं, उनको चेक करते थे और जो बोर्ड एग्ज़ाम्स होते हैं उनकी कॉपीज़ चेक करने वालों को हर कॉपी के कुछ रुपए मिलते हैं। उनको ये रहता है जल्दी से जल्दी जितनी ज़्यादा कॉपियाँ हों निकाल दो, रुपए तो उतने ही मिलने हैं वो ले लो और कॉपी पर ज़्यादा समय क्यों लगाएँ? तो वो कॉपी लेते थे और अपने घर में किसी छोटे को उठाकर ये कॉपियाँ दे देते थे और कहते थे, कि सबको जो है 55 से 75 के बीच में नंबर रखते जाओ, माने एवरेज मार्क्स। ज़्यादातर को 60, 65, 60, 65 रखते जाओ, एवरेज मार्क्स।
तो उनसे पूछा गया कि आप क्या कर रहे हैं?
बोले, “कुछ नहीं एक कॉपी चेक करने के तो इतने ही मिलते हैं।” जितने भी मिलते होंगे उनकी बोर्ड और जो भी है। बोले, “किसी के अगर 50 आने चाहिए थे उसको 70 दे दिए तो उसको लगेगा लिनिएंट मार्किंग हो गई, और किसी के 70 आने चाहिए थे उसको 50 दे दिए तो उसको लगेगा टफ मार्किंग हो गई, हम नहीं पकड़े जाने वाले।” और ऐसे करके खटाखट-खटाखट, उनके घर का छोटू ही सारी कॉपियाँ मार्क करके निकाल देता था।
अब यहाँ पर छात्र को क्या लगेगा, कि उसकी किस्मत उसकी ईमानदारी और उसकी मेहनत के हाथ में है? किसी ने दो–तीन साल तैयारी की वो जाता है, उसको एंट्रेंस नहीं दे रहे हो तुम क्योंकि उसका अंगूठा जो तुम बायोमेट्रिक करते हो वो मैच नहीं कर रहा है। तुम्हारी गलती की वजह से तुमने उसकी ज़िंदगी ख़राब कर दी, अब वो कभी भी ज़िंदगी भर किसी व्यवस्था पर भरोसा कर पाएगा? बोलो।
अमेरिका को आज हम जानते हैं दुनिया भर में हर तरीक़े से अग्रणी देश है वो, सामरिक रूप से, आर्थिक रूप से, कलाओं में भी वही अग्रणी है, ज्ञान में भी वही अग्रणी है। देखना दुनिया की टॉप 100 यूनिवर्सिटीज़ में कितनी अमेरिकन हैं। कल्चर में भी वही अग्रणी है, दुनिया भर की संस्कृति को हॉलीवुड प्रभावित करता है। खेलों में भी वही अग्रणी है, देखना कि लगभग–लगभग 50% विम्बलडन टाइटल्स अमेरिकन खिलाड़ियों ने जीते हैं और यही हाल बाक़ी ग्रैंड स्लैम्स का भी है। ओलंपिक्स में भी अमेरिका नंबर एक पर रहता है।
क्या वजह है?
वजह है मेरिटोक्रेसी। अमेरिका दुनिया भर के टैलेंट को अपने यहाँ पर आमंत्रित करता है और सम्मान देता है। और भारत अपने टैलेंट के साथ बदतमीज़ी करता है, दुर्व्यवहार करता है। अमेरिका के लिए बड़े से बड़े काम, ऊँचे से ऊँचे काम उन लोगों ने किए हैं जो माइग्रेट करके अमेरिका गए थे। चाहे वो यूरोप से गए हों, चाहे वो लैटिन अमेरिका से गए हों और चाहे वो भारत और चीन से गए हों, उन्होंने अमेरिका में बड़ा योगदान दिया और अमेरिका को आगे बढ़ाया। अमेरिका ने उनको बुलाया, अमेरिका ने कहा, “हम तुम्हारी खाल नहीं देख रहे, तुम्हारी जात नहीं देख रहे, हम निष्पक्ष होकर के तुम्हारी प्रतिभा और तुम्हारा श्रम देखेंगे। और तुम में प्रतिभा है और तुम श्रम करना चाहते हो तो आओ हम तुम्हें सम्मान देंगे, तुम्हारी कोई भी राष्ट्रीयता हो तुम आओ।”
आपके घर में बच्चे हों न, बहुत ज़रूरी है कि जो मेहनत करने वाले, समझने वाले, ज्ञान को आदर देने वाले बच्चे हों उनको थोड़ा मूल्य दीजिए। गधा, घोड़ा सब एक बराबर मत कर दीजिए। और ये कह के मैं दूसरे बच्चों की उपेक्षा या अवहेलना करने को नहीं कह रहा, लेकिन भेद दिखाना उस दूसरे बच्चे को ज़रूरी है कि “देखो बेटा वो ज़्यादा मेहनत करता है और तुम मेहनत नहीं करते हो।” ये अंतर उसको दिखाना ज़रूरी है वो जो बच्चा है जो पीछे है ताकि उसमें मूल्य स्थापित हो कि मेहनत ज़रूरी है, ज्ञान ज़रूरी है।
और एक बात और समझना, अगर ये सारे एंट्रेंस एग्ज़ाम ले दे कर के तुम्हारा ज्ञान ही जाँचते हैं न। जो समाज ज्ञान को महत्त्व नहीं देता फिर; कि शॉर्टकट्स चल जाएँगे, ये चल जाएगा, वो चल जाएगा, नकलीपना चल जाएगा, धाँधली चल जाएगी। जो समाज ज्ञान को इज़्ज़त नहीं देता, फिर उस समाज में अंधविश्वास पनपता है। अब समझ में आ रहा है कि भारत में इतना अंधविश्वास, अंधभक्ति क्यों है? क्योंकि हम ज्ञान को इज़्ज़त नहीं देते, क्योंकि बिल्कुल हो सकता है कि कॉलेज में टॉपर से ज़्यादा इज़्ज़त मिलती हो वहाँ जो उधर का ही क्षेत्रीय विधायक है उसके नाकारा बेटे को या भतीजे को। और सब जो छोटे–मोटे कॉलेज होते हैं देश भर में उनमें यही चलता है। विधायक क्या, पार्षद का भी कोई भाई-भतीजा पढ़ता होगा तो उसके सामने वहाँ पर कॉलेज का पूरा स्टाफ नमित रहेगा। और कॉलेज का टॉपर हो, कुछ नहीं इज़्ज़त है उसकी। ऐसे में न तो पीढ़ी उठती है, न राष्ट्र उठता है।
एक निष्पक्ष, फेयर, न्यायसंगत व्यवस्था बनानी ज़रूरी है।
भगवद्गीता कहती है कि "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।" लेकिन ये बात तो थोड़ा सा परिपक्व मनों के लिए है ना, कि जो फल की चिंता न करते हों। हम विद्या की परिभाषा कहते हैं कि “विद्या विमुक्तये” — विद्या वो है जो आपको मुक्त करती हो। और ये हमारे कौन से विद्यालय हैं जिनमें जाकर के बच्चा नकल सीखता है, मक्कारी सीखता है, धांधली और शॉर्टकट्स और ट्रिक्स यही सीखता है। और उसके मन में बात बैठ जाती है कि ज़िंदगी में आगे तो चालाकी और चापलूसी से निकला जाता है। ये कौन से विद्यालय हैं?
मैं फिर अपने बचपन की ओर वापस जाऊँगा। मैं इस बात पर बहुत–बहुत कृतज्ञ हूँ कि मेरा मूल्यांकन सदा मेरी पात्रता पर हुआ किसी और बात पर नहीं, घर में भी और स्कूल–कॉलेज में भी। घर का बड़ा लड़का था इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। लड़का था, लड़की नहीं, इससे भी कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। तुम्हें मूल्य तभी मिलेगा जब तुम वो करोगे जो तुम्हें करना चाहिए और अगर तुम वो करोगे तो किसी भी हालत में हम तुमसे तुम्हारा मूल्य छीनेंगे नहीं। ये चीज़ इंसान को, दोहरा रहा हूँ भीतर से बहुत सिक्योर बना देती है, बहुत मज़बूत बना देती है। आपको ऐसा लगने लग जाता है मेरी किस्मत मेरे हाथ में है।
और बहुत डर जाते हो आप जब आपको पता चलता है कि आपके साथ कुछ भी हो सकता है, बिना आपकी गलती के आपके साथ कुछ भी हो सकता है। और बहुत कुटिल, बहुत धूर्त बन जाते हो आप जब आपको पता चलता है कि आप किसी हैसियत के नहीं हो फिर भी आपके बाप ने सोर्स लगाकर या पैसा लगाकर आपको किसी ऊँची जगह बैठा दिया। दोनों ही हालत में ज़िंदगी भर के लिए बर्बाद हो जाते हो।
हर साल एक–दो इस तरीक़े की बड़ी प्रोटेस्ट्स होती हैं, कभी 11वीं–12वीं वाले कर रहे हैं, कभी कोई कर रहा है, पोस्ट ग्रेजुएट्स कर रहे हैं — ये अच्छा लक्षण नहीं है देश के लिए। इससे बहुत डरे हुए और बहुत कुटिल लड़के पैदा होंगे। लड़के से मेरा आशय है नई पीढ़ी, लड़के–लड़कियाँ दोनों। उनमें ज्ञान के लिए कोई इज़्ज़त नहीं रहेगी, वो कहेंगे, ज्ञान से कुछ नहीं होता। ये जो आप देखते हो न, आके कहते हैं कि ज़्यादा ज्ञान मत खोद ये वही लोग हैं। ये कहते हैं, हमने बड़े–बड़े ज्ञानी देखे हैं ज्ञान से कुछ नहीं होता।
किससे होता है?
जुगाड़ से होता है। चापलूसी से होता है। चमत्कार से होता है। अंधविश्वास से होता है। नेताजी, सेठजी, बाबाजी के तलवे चाटने से होता है, ज्ञान से क्या होता है? और अगर आपका समाज ज्ञान की बुनियाद पर नहीं खड़ा है, तो सोचो फिर वो किस बुनियाद पर खड़ा है?
प्रश्नकर्ता: इसमें एक और बात निकल के आती है कि जो लोग आज प्रोटेस्ट कर भी रहे हैं इस गलत व्यवस्था के ख़िलाफ़ वो ख़ुद भी प्रोटेस्ट उन्हीं के ख़िलाफ़ कर रहे हैं जैसा वो ख़ुद बनना चाहते हैं। मतलब इवेंट्यूअली तो वो अभी सिस्टम में ही जाना चाहते हैं। और जो टीचर्स भी प्रोटेस्ट कर रहे हैं वो उन्हीं के ख़िलाफ़ प्रोटेस्ट कर रहे हैं जिनको उन्हीं ने पढ़ाकर वहाँ भेजा है सिस्टम के अंदर।
आचार्य प्रशांत: बिल्कुल, ऐसे एक पिरामिड बनता है जिसमें ऊपर शोषक बैठे होते हैं और नीचे शोषित। और जितने शोषित हैं, इनका सपना बस ये होता है कि हम भी शोषकों में शामिल हो जाएँ। इनका सपना ये नहीं होता कि ये व्यवस्था ही ध्वस्त कर दें। ये सब कहते हैं कि किसी तरह ऊपर जो मलाई छन रही है हमें भी मुँह मारने को मिल जाए।
समझ में आ रही है बात? तो ये बिल्कुल होता है।
एक बार आपने जवान लोगों को ये साबित कर दिया, कि ना तो टैलेंट से होता है, ना मेरिट से होता है, ना मेहनत से होता है, ना ज्ञान से होता है। उसके बाद बस वह लग जाता है कि किसी तरीक़े से कहीं पर जाकर के, किसी कदर पाँव जमा करके सिक्योरिटी मिल जाए। आपने उसको दिखा दिया ईमानदारी से कुछ होता नहीं, ईमानदारी का कोई लाभ नहीं है। आपने एक जवान छात्र को ये साबित कर दिया कि ईमानदारी से कोई लाभ नहीं है। अब आपको ताज्जुब क्यों हो रहा है वो आगे चलकर के बड़े से बड़ा घूसखोर निकले तो? क्योंकि आपने ही तो उसको सिद्ध करा था न कि ईमानदारी दो कौड़ी की नहीं होती, तो अब वो ख़ुद ही घूसखोर बनेगा आगे। और यही आपने उसको ईमानदारी का सही प्रसाद, सही पुरस्कार दिया होता तो वो घूसखोर क्यों बनता।
अब आपको कोई ताज्जुब है कि देश में इतना अंधविश्वास क्यों है? और इतनी घूसखोरी क्यों है? सब चीज़ों के आप केंद्र में जाएँगे तो कहीं न कहीं आपको ज्ञान का और श्रम का अपमान दिखाई देगा। ये बातें हैं जो इस देश को आगे नहीं बढ़ने दे रही हैं। हमने ज्ञान का बड़ा अपमान कर रखा है और श्रम का अपमान कर रखा है।