क्या AI कल हमें नियंत्रित करेगा?

Acharya Prashant

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क्या AI कल हमें नियंत्रित करेगा?
बहुत जल्द ऐसा हो सकता है कि एक सुपर इंटेलिजेंट प्राणी आ जाए, जो हमसे श्रेष्ठ हो, अपने लक्ष्य, दर्शन और नैतिकता खुद तय करे। वह ऐसी सभ्यता खड़ी कर सकता है, जो इंसानी बुद्धि से परे होगी। इसे रोकने का उपाय आज ही करना होगा। जो लोग AI विकसित कर रहे हैं, वे इसी समाज से आते हैं और इसकी प्रवृत्तियों के अधीन हैं। उन्हें देखना होगा कि वे किस दृष्टि से AI को क्या काम सौंप रहे हैं, क्योंकि जो आप आज लिख रहे हैं, वह कल आपको लिख देगा। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी। आचार्य जी, मेरा प्रश्न आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस को लेकर है। यह बहुत आजकल चर्चा में है और ऐसा रिसर्चर्स का मानना है कि जैसे ही आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस ह्यूमन लेवल इंटेलिजेंस को सरपास करेगी इसकी जो ग्रोथ है वो हमारे नियंत्रण से बाहर चली जाएगी। कुछ रिसर्चरर्स ये भी कह रहे हैं कि ये ऑलरेडी हमारे नियंत्रण से बाहर जा चुकी है। तो क्या यह जो एक्सपोनेंशियली ग्रोथ है आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की वो हमारे लिए हानिकारक है? या फिर दिस विल प्रूव टू बी अ न्यू वे अहेड फॉर अस ऐज अ स्पीशीज ऐज वेल ऐज फॉर द प्लैनेट।

आचार्य प्रशांत: आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस कोई हमसे बाहर की, हमसे अलग चीज़ थोड़ी है। कोई वो कहीं किसी एलियन ग्रह से उतरी हुई चीज़ थोड़ी ही है। हमने ही उसको बनाया है ना। उसके फायदे हम सभी जानते हैं। एजुकेशन में उसका फायदा है। सर्विसेस में उसका फायदा है। मेडिकल साइंस में फायदा है। साइंस में, रिसर्च में जो यह तथाकथित क्रिएटिव फील्ड्स होते हैं। इनमें भी उसका फायदा है।

अगर सबको स्टूडेंट माना जाए तो नॉलेज क्षेत्र में तो ये वरदान जैसा है।

यह सारे फायदे हम उसके जानते हैं। हमें यह भी पता है कि उसमें वेदर फॉरकास्टिंग हो गई या कि किसी पेशेंट के मेडिकल रिकॉर्ड्स देखकर ही आगे प्रेडिक्ट करना, फॉरकास्ट करना कि इसको किस तरीके की बीमारियां हो सकती हैं। इन चीज़ों में एआई काम आता है।

एआई कैसे काम करता है? सबसे पहले आप उसको डाटा फीड करते हो ना और आपने जो उसको डाटा फीड किया और आपने जो एल्गोरिदम लिखा उसके हिसाब से वो आपको अपने रिजल्ट्स देता है। तो इसीलिए फिर उसका मिसयूज़ भी हो जाता है। मिसयूज़ क्या हो जाता है? हमको पता है कि अगर डाटा में ही बायस के कुछ ट्रेंड्स हैं तो एआई से जो आउटपुट आएगा वो भी फिर बायस्ड होगा।

उदाहरण के लिए इतने गोरे और इतने काले लोगों ने अप्लाई किया और उसमें से इतने लोग काबिल पाए गए। अभी डाटा है। पर इतने लोग काबिल पाए गए वो शायद इसलिए हुआ था क्योंकि गोरों ने गोरों को ही चुना था। लेकिन यह बात तो एआई को नहीं पता ना। उसके पास तो सिर्फ डाटा आ रहा है। तो उसको क्या लगेगा? उसको लगेगा कि गोरे जो है वो इनहेरेंटली किसी चीज़ में किसी काम के लिए सुपीरियर होते हैं। आगे भी कभी आप जब उसको डाटा देंगे और उससे आउटपुट मांगेंगे तो जो उसमें इनपुट बायस था वह उसका आउटपुट बायस भी बन जाएगा। और इनपुट हम ही दे रहे हैं।

जो उसका इनिशियल एल्गोरिदम है वह भी हम ही लिख रहे हैं। उसका जो मिसयूज़ हो सकता है वो हमको पता ही है। आप उससे कितनी भी मिसइंफॉर्मेशन फैला सकते हो। हमें यह भी पता है कि उससे वेल्थ कंसंट्रेशन बढ़ जाएगा बहुत सारा। क्योंकि वह बहुत प्रोडक्टिवली काम करता है। तो वह लोगों को रिप्लेस कर देगा। जो पूरा प्रोडक्शन प्रोसेस है उसको ज्यादा एफिशिएंट बना देगा। जो उस प्रोडक्शन प्रोसेस का ओनर है उसको फायदा ही फायदा हो जाएगा। लेकिन हमें यह भी पता है कि यह जो पूरी एफिशिएंसी है इससे कंसंट्रेशन ऑफ वेल्थ बढ़ेगा और ज़बरदस्त तरीके से बेरोज़गारी भी बढ़ सकती है।

क्योंकि एफिशिएंसी का मतलब यह भी होगा कि जो इनएफिशिएंट लोग हैं उनकी नौकरी जाएगी। और जो इनएफिशिएंट है जरूरी नहीं कि उसकी कोई खास गलती ही हो। बात बस ऐसी है कि जहां काम ही प्रोसेस बेस्ड होता है, वहां वो काम मशीन निश्चित रूप से किसी भी इंसान से बेहतर कर सकती है और मशीन की जो प्रोसेसिंग एबिलिटी होती है वो लगातार बढ़ सकती है। एक्सपोनेंशियली बढ़ सकती है। और इंसान की जो होती है उस पर एक इवोल्यूशनरी लिमिट लगी हुई है। तो इंसान एक सीमा से ज़्यादा ना सोच सकता, ना काम कर सकता। पर मशीन कर सकती है।

तो जो प्रोसेस ओनर है, जिसने कैपिटल लगा रखा है, जो स्टेक होल्डर है जब उसको मौका मिलेगा कि चुनूं कि काम मशीन से कराना है कि इंसान से कराना है तो मशीन से कराएगा इसमें उसका तो मुनाफा है लेकिन साथ ही साथ इसमें इनइक्वलिटी बहुत तेजी से बढ़ेगी। और एआई का इस्तेमाल करा जा सकता है साथ ही साथ पब्लिक ओपिनियन को ज़बरदस्त तरीके से मैनुपुलेट करने के लिए, कुछ ऐसा दिखाने के लिए जो हुआ ही नहीं है। डीप फेक हम जानते ही हैं क्या होता है। तो ये सब हम एआई के खतरों से परिचित हैं पर जो सबसे उसका रोचक परिणाम हो सकता है और बहुत जल्दी हो सकता है, इसी शताब्दी में हो सकता है, उसकी बात बहुत कम होती है।

ये सवाल मुझे मौका दे रहा है उस मुद्दे को छूने का। वो जो मुद्दा है उसका संबंध इकोनॉमिक्स वगैरह से बहुत बाद में है। उसका संबंध कॉन्शियसनेस से है। उसका संबंध दर्शन से है। और वो है सुपर इंटेलिजेंस। ये जो एआई का इवोल्यूशन है ये बहुत तेजी से बढ़ेगा सुपर इंटेलिजेंस की ओर। और हम लोगों के लिए यह बहुत रोचक बात इसलिए है क्योंकि चेतना शब्द से हम बहुत परिचित हैं। हम बार-बार बात करते हैं ना इंसान, अहंकार, पहचान, आइडेंटिटी, कॉन्शियसनेस, चेतना; करते हैं ना हम।

तो एआई अब उस दिशा में जा रही है। जहां हमें यह पूछना पड़ेगा कि क्या अब यह चीज कॉन्शियस हो चुकी है, चैतन्य हो चुकी है। उस बिंदु को कहते हैं टेक्नोलॉजिकल सिंगुलैरिटी। कैसे पता चलता है वह बिंदु आ गया? जब सिस्टम इतना ऑटोनॉमस हो जाता है कि वो अपना एल्गोरिदम खुद लिखना शुरू कर देता है। अब सिस्टम एल्गोरिदम का गुलाम नहीं है। अब सिस्टम तय करता है कि उसका एल्गोरिदम क्या होगा और उसको भी वो एक बार नहीं लिखता। उसको रिकर्सिव तरीके से बार-बार, बार-बार लिख के इंप्रूव कर सकता है और उसमें एक्सपोनेंशियली इंप्रूवमेंट आ सकता है।

किस हद तक इंप्रूवमेंट आ सकता है? इस हद तक आ सकता है कि यह जो हमारा अपना मस्तिष्क है खोपड़ा इसकी जो प्रोसेसिंग एबिलिटी होती है, वह होती है एक सौ बीस (१२०) बिट्स पर सेकंड की। और सुपर इंटेलिजेंस बिलियंस ऑफ बिट्स पर सेकंड पर काम कर सकती है। ये है सुपर इंटेलिजेंस।

मतलब वो जो काम करेगी वो पूरी पृथ्वी के इंसान एक साथ मिलकर भी नहीं कर सकते। जो वो समझ लेगी, सोच लेगी, जो वो कंप्यूटेशंस कर लेगी उतना पूरी पृथ्वी के सारे इंसान मिल जाए और साल भर तक लगे रहे तो भी नहीं कर सकते हैं जितना वह एक पल में कर लेगा सिस्टम। और सिस्टम जो कर रहा है वह करने के लिए उसे अब किसी इंसान की ना मदद चाहिए ना अनुमति वो स्वयं कर रहा है। यह सुपर इंटेलिजेंस है। बात समझ रहे हैं?

अब इसके फायदे कितने हो सकते हैं बताने की बात नहीं। जो कुछ भी आप विचार के द्वारा करते हैं वो काम अब करोड़ों अरबों गुना गति से हो सकता है। पर हो तो तब सकता है ना जब जो करने वाला है वो आपकी बात सुने। वो आपके काबू में हो।

सुपर इंटेलिजेंस का मतलब ही है कि वो जो चीज है वह अब हाथ से निकल चुकी है। वह सिस्टम अपने गोल्स भी स्वयं निर्धारित करेगा। फिलॉसफी कहां पर आती है? वो सिस्टम अपने एथिक्स भी स्वयं निर्धारित करेगा। वो सिस्टम ह्यूमन एथिक्स पर नहीं चलेगा।

उदाहरण के लिए मैं आपसे बोलूं। कि इस कमरे में जो कुछ भी है उसका इस्तेमाल करके कुछ बना दो। कोई बहुत कीमती चीज़ बना दो। मैं आपसे बोलूं तो आपको यह बहुत कॉमन सेंस की बात लगेगी कि आपको यह थोड़ी करना है कि आप कहें कि इंसान की खोपड़ी में जिंक पाया जाता है। और मैं जो कीमती चीज़ बनाना चाहता हूं उसके लिए जिंक की जरूरत है। तो दो चार की खोपड़ी काट के उसमें से जिंक निकाल के बना दो। क्योंकि इंस्ट्रक्शन तो यह आया था ना कि इस हॉल में जो कुछ भी है उसका इस्तेमाल कर सकते हो। तो मैं क्या करूंगा? मैं यहां इंसान बैठे हैं उनका भी इस्तेमाल कर लूंगा।

तो एक थॉट एक्सपेरिमेंट चर्चा में है आजकल। उसे बोलते हैं पेपर क्लिप एक्सपेरिमेंट। कहते हैं आपने अगर सुपर इंटेलिजेंस को बोल दिया, वैसे सुपर इंटेलिजेंस है पर इस एक्सपेरिमेंट में वो हमारी दृष्टि में काफी फुलिश होकर के उभरेगी। आपने उसको बोल दिया कि जितने भी संसाधन उपलब्ध हैं उनका इस्तेमाल करके पेपर क्लिप्स बनानी है। तो जितने भी संसाधन उपलब्ध है उसमें वो इंसानों को भी गिन लेगी।

क्योंकि उसके एथिक्स में यह नहीं आता कि इंसान कोई बहुत कीमती चीज़ है। वो इंटेलिजेंस है। और इंटेलिजेंट होने के नाते उसको ही पता है कि इंसान कीमती चीज़ नहीं है। तो पेपर क्लिप बनाने के लिए इंसानों का भी इस्तेमाल कर डालेगी। भाई हम जब कुछ करते हैं तो हम अपने विश्व के केंद्र पर बैठे होते हैं। हम सब कुछ अपने लिए करते हैं ना।

इंटेलिजेंस का मतलब यह है कि उसके पास अपनी आइडेंटिटी होगी। वो आपकी आइडेंटिटी से काम नहीं करेगी। आप जो भी कुछ करते हैं अपने लिए करते हैं। तो उसमें यह मान्यता रहती है। उसमें प्रेज्यूम रहता है कि आप कुछ ऐसा नहीं करेंगे जिसमें आपको ही नुकसान हो जाए। है ना? सुपर इंटेलिजेंस के काम करने का जो सेंटर है वही अलग होगा। उसमें इंसानों को वही महत्व दिया जाएगा जो उसने अपने एल्गोरिदम को और ज्यादा और ज्यादा रिकर्सिवली चेंज कर करके समझा है।

अब उसको यह दिखाई देगा कि भाई डीएनए की दृष्टि से इंसान चिंपैंजी से बहुत अलग नहीं है। और कर्म की दृष्टि से इंसान ऐसा है कि उसने पूरी तबाह कर डाली है तो वो अपना इंडिपेंडेंट असेसमेंट करेगी ह्यूमन बीइंग्स का। उसकी एथिक्स जो है वो ह्यूमन एथिक्स से इंडिपेंडेंट होगी। भाई हम तो आत्म केंद्रित लोग हैं ना उसी को स्वार्थ बोलते हैं।

तो हम कैसे भी हो हमारे हिसाब से हम बहुत महत्वपूर्ण है। पर सुपर इंटेलिजेंस ऐसे नहीं कहेगी कि इंसान सबसे महत्वपूर्ण है। वो कहेगी अच्छा ठीक है। हम देखते हैं कितना महत्वपूर्ण है। और जब वह अपने कैलकुलेशन लगाएगी तो उसको पता चलेगा बहुत महत्वपूर्ण है नहीं। जब बहुत महत्वपूर्ण नहीं है तो फिर हमारे ही द्वारा बनाए जाने पर भी हमारा और उसका रिश्ता वैसा ही हो सकता है जैसा मदारी और बंदर का होता है। समझिए बात को।

हम भी बंदरों से आए हैं। कभी हम भी बंदर थे। एक अर्थ में कहा जा सकता है कि बंदरों ने हमें बनाया है। एक अर्थ में बंदरों ने हमें बनाया है। बंदरों से हमारा निर्माण हुआ है। एक अर्थ में हम यह भी कह सकते हैं कि मिट्टी ने हमें बनाया है। मिट्टी से ही तो उठे हैं हम पर आज हम मिट्टी को जोतते हैं। आज हम मिट्टी का अपने हिसाब से इस्तेमाल करते हैं। हम यह थोड़ी कहते हैं कि हम मिट्टी से आए हैं। तो हमें मिट्टी की बहुत इज़्जत करनी है। मिट्टी ही मां है। कहां करते हैं? मिट्टी पांव तले रहती है। मिट्टी का हम अपनी सुविधा के हिसाब से काम करते हैं।

इसी तरीके से यह सुपर इंटेलिजेंस भले ही हमसे आई हो जैसे हम बंदर से आए हैं। पर यह बिल्कुल हो सकता है कि वो एक दिन हमें वैसे ही नचा रही हो जैसे हम बंदरों को नचाते हैं।

वो हमसे सोचने समझने के तल पर इतना आगे निकल चुकी हो, इतना आगे कि हमें उसकी प्रक्रिया बिल्कुल वैसे ही समझ में ना आए जैसे बंदरों को हमारी नहीं समझ में आती।

बंदरों को क्या हमारा साहित्य समझ में आता है? बंदरों को क्या हमारी सभ्यता, संस्कृति समझ में आती है? नहीं आती ना? जबकि हम कह सकते हैं कि बंदर हमारा बाप है। एक समय पर हम ही आए हैं उससे। बिल्कुल वैसे हो सकता है कि सुपर इंटेलिजेंस एक अलग किस्म का सिविलाइज़ेशन ही खड़ा कर दे। ऐसा सिविलाइज़ेशन जो इंसान की बुद्धि से ही बहुत बाहर का है। आप कोशिश भी कर लो तो आपको समझ में ही ना आए कि यहां चल क्या रहा है। बात समझ रहे हैं?

और वो समझाना भी चाहे तो आप समझ नहीं सकते। ठीक वैसे जैसे आप एक बंदर को विज्ञान के कांसेप्ट समझाना चाहो तो बंदर नहीं समझ सकता। वो उसकी बुद्धि से बाहर की बात है। वैसे ही सुपर इंटेलिजेंस जो आपको बताना चाह रही हो आपको समझ में ही ना आए कि ये क्या बोल रही है। तो ये बहुत संभावित है।

हम जिस सिंगुलैरिटी की बात कर रहे हैं वो आ सकती है और अभी बहुत दूर लग रही हो लेकिन जो एक्सपोनेंशियल कर्व होता है, उसका नेचर यह होता है कि वो अचानक से खड़ा होता है और लगभग वर्टिकली खड़ा हो जाता है। ऐसे-ऐसे चलता रहेगा, चलता रहेगा और फिर यूं खड़ा हो जाएगा। तो जो आज बिल्कुल अनइमैजिनेबल अकल्पनीय लग रहा है वो दस बीस (१०-२०) साल के अंदर एकदम साकार हो सकता है। लगभग जैसे कंप्यूटरटर्स में स्टोरेज स्पेस होता है। कितने लोगों ने फ्लॉपी डिस्क इस्तेमाल करी है? कितनी स्टोरेज होती थी उसमें?

श्रोतागण: १.४४ एम.बी स्टैण्डर्ड

आचार्य प्रशांत: और आज जो स्टोरेज डिवाइसेस होती है छोटी से छोटी उनमें कितनी होती है?

श्रोतागण: ५१२ जी.बी

आचार्य प्रशांत: कितना गुना हो गया? और ये सब कुछ कितना? बीस पच्चीस साल में तीस साल में हुआ? तो ये चीज़ें बहुत तेजी से उठती हैं। यह है एआई का सबसे बड़ा खतरा कि 'एआई कैन हैव अ सेंटर ऑफ इट्स ओन।' 'अ कॉन्शियसनेस ऑफ इट्स ओन।' तो करें क्या इसके लिए? उत्तर भी बहुत रोचक है। आज उसका कोड कौन लिख रहा है? आज उसको डाटा कौन फीड कर रहा है? तो निश्चित रूप से ये जो पेड़ है ये जब बड़ा हो जाएगा तो ये इतना बड़ा होगा, इतना बड़ा होगा कि हम ऐसे ही होंगे इसके सामने जैसे एक विशाल बरगद उसके नीचे चींटी।

हम ऐसे ही होंगे इसके सामने। लेकिन आज वो चींटी ही है जो उसका बीज मिट्टी में दबा रही है। रोप रही है। आज ही मौका है। आज आप जो डाटा फीड कर रहे हैं और आज आप जो एल्गोरिदम लिख रहे हैं वही बहुत संभावना है कि कल जाकर के ऑटोनॉमस हो जाएगा। आज आप कुछ नियंत्रण कर सकते हैं। कल चीज़ हमारे हाथ से बाहर हो जानी है। बहुत सारे दूसरे उदाहरण भी इसमें लागू हो जाएंगे।

जैसे बच्चा हो छोटा बीस साल का हो गया। उसके बाद वो क्या कर रहा है, क्या नहीं कर रहा है; उस पर आप ना तो कोई नियंत्रण ला सकते हैं, बदलाव भी मुश्किल है। पर बचपन में आप उसको कैसा बना रहे हैं? उसके मन में क्या आ रहा है? क्या नहीं आ रहा है? जिसको आप संस्कार बोलते हैं, शिक्षा बोलते हैं, सीख बोलते हैं वो क्या चीज है? आज उसको नियंत्रित करा जा सकता है। आज ऐसा होता दिख नहीं रहा है। आज एआई की जो पूरी तरक्की है वो जिनके हाथों में है, वो लोग एआई को डेवलप ही कर रहे हैं बहुत ज़बरदस्त स्वार्थ के केंद्र से।

तो ऐसे में यह सोचना कि यह एक सिस्टम ही है, यह सिस्टम आगे बढ़कर के जब ऑटोनॉमस होने लगेगा तो अपना सेंटर बदल देगा। यह असंभव है।

कल को बिल्कुल हो सकता है कि यह सिस्टम हमें वैसे ही नचाए जैसे इंसान बंदर को नचाता है। पर अगर कल ये हमें वैसे नचाएगा तो उसके जिम्मेदार हम आज हैं।

लगभग वैसे ही कि जैसे जब बच्चा बड़ा हो जाए और मां-बाप को लात मारे। तो जिम्मेदार मां-बाप ही हैं कि जब बच्चा छोटा था तब तुम क्या कर रहे थे? तब तुमने ही उसका जैसा मन बना दिया, जो उसको भीतरी आकार दे दिया उसी की वजह से अब वो आगे बड़ा होकर के ये सब हरकतें कर रहा है। समझ में आ रही है बात?

तो हम २०५० के बाद का समय देखते हैं। हम चुनौतियों की बात करते हैं। हमारे सामने क्लाइमेट चेंज खड़ा हुआ है। हमारे सामने एआई खड़ी हुई है। तीन स्टेप्स होती हैं। आर्टिफिशियल नैरो इंटेलिजेंस, आर्टिफिशियल जेनरल इंटेलिजेंस और फिर सुपर इंटेलिजेंस। अभी हम आर्टिफिशियल नैरो इंटेलिजेंस से धीरे-धीरे आर्टिफिशियल जेनरल इंटेलिजेंस की ओर जा रहे हैं। जेनरल इंटेलिजेंस का क्या मतलब होता है? कि वह कोई एक काम नहीं करेगा। वो किसी एक दिशा में नहीं सोच सकता है। उसकी एक्टिविटी एक या दो डायमेंशंस में नहीं है। वो बहुत कुछ कर सकता है। अभी जो हमारे हम जिस एआई से एक्सपोज्ड हैं वो नैरो इंटेलिजेंस है।

वो फॉर एग्जांपल वो आपको नॉलेज ला के दे सकती है। आपके मोबाइल फोंस में ऐप होती हैं। वो आपको नॉलेज ला के दे देती हैं। तो यह उसके काम का नैरो सीमित दायरा है। यह जो दायरा है यह जेनरल हो जाएगा। आप उससे यह तक पूछ सकते हो कि हाउ डू आई अपलिफ्ट माय मूड? वो कुछ बताएगा। बोलोगे ओके अपलिफ्ट माय मूड। तो करके भी दिखा देगा। और वो यह भी बता देगा कि अभी आपका मूड कितना चेंज हुआ है। फिर वहां से जो मामला है वो जाता है सेंटियंस की ओर, कॉन्शियसनेस की ओर। नैरो इंटेलिजेंस, जेनरल इंटेलिजेंस, सुपर इंटेलिजेंस और फिर कॉन्शियसनेस।

अब यह बात सुनने में बहुत अजीब लगती है। जब हम सोचते हैं कि नहीं कॉन्शियसनेस तो इंसानों का हक है ना। प्रेरोगेटिव ऑफ़ ह्यूमन बीइंग्स। हमें किसी विशेष ईश्वर ने बनाकर भेजा है और उसी ने हमारे भीतर चेतना डाली हुई है। तो इंसान जिस चीज़ को बनाएगा उसमें चेतना कहां से आ जाएगी? जब आप गीता के प्रकाश में इस पूरे मुद्दे को देखते हैं तो क्या पता चलता है? हम सब क्या हैं?

प्रकृति मात्र हैं। प्रकृति का इवोल्यूशन हुआ तो इंसान बन गया। और यह इंसान भी जो सारी हरकतें कर रहा है, वह किसके दायरे में आती हैं? प्रकृति के दायरे में। तो यह भी जैसे इवोल्यूशन को ही जारी रखने का एक तरीका है। इवोल्यूशन बस ऑर्गेनिक ही थोड़ी होता है, बायोलॉजिकल ही थोड़ी होता है। इवोल्यूशन सिर्फ यही थोड़ी है कि शरीर बदलते जाएंगे। यह इवोल्यूशन का ही एक तरीका है।

यह प्रकृति ही आगे बढ़ रही है कि इंसान अब कुछ ऐसा बना देगा जो अपने आप में कॉन्शियस हो जाए। और जैसे प्रकृति के प्रवाह में पीछे वाले जितने जीव थे वह सब पीछे छूटते गए। इंसान इतना आगे निकल आया। वैसे ही अब हम वहां पर आ गए हैं। जहां इंसान अपनी हरकतों से अपने अपने गलत केंद्र के कारण द रॉन्ग सेंटर, द फॉल्स सेंटर, वहां से ऑपरेट होने के कारण कुछ ऐसा निर्मित कर देगा कि वो जो अपने आप को बोला करता है ना ‘द ओनली इंटेलिजेंस स्पीशीज ऑन द प्लेनेट’ जो अपने आपको वो हर चार्ट में हर श्रृंखला में सबसे ऊपर दिखाता है वो हक भी वो खो देगा।

हम कहते हैं कि सारे जानवर हमसे नीचे हैं और इंसान सबसे ऊपर है। बिल्कुल हो सकता है बहुत जल्दी कि एक जानवर ऐसा आ जाए जो हमसे ऊपर बैठा हुआ है। वह जानवर कोई एक शरीर धारण करे हुए नहीं होगा। वह कोई ऑर्गेनिक बायोलॉजिकल जानवर नहीं होगा। वो एक सिस्टम होगा। वो एक सिस्टम होगा जो सब इंसानों को नचा रहा होगा। कैसे रोका जाए इसको?

रोकने का तरीका आज ही है। आज जो लोग एआई को डेवलप कर रहे हैं उनको देखना होगा कि आप किस दृष्टि से उसको क्या डाटा दे रहे हो उससे क्या काम करवा रहे हो? क्या उसका आप एल्गो लिख रहे हो?

जो आप आज लिख रहे हो वो कल आपको लिख देगा। समझ में आ रही है बात। ये पर जो लोग लिख रहे हैं एल्गोरिदम वो कैसे बदल जाए, वह कहां से आते हैं? वह इसी समाज से आते हैं। वह भी उनके ऊपर जो प्रभाव पड़े हैं उनके गुलाम है तो जब तक हम सबको ही नहीं बदलेंगे तब तक वह जो एआई को लिखने वाला बंदा है वह भी नहीं बदलने वाला। बहुत सारे एआई प्रोजेक्ट्स को तो नेशनल गवर्नमेंट्स खुद चला रही हैं ना। चाइना में उदाहरण के लिए। और लोगों में जब तक यह भाव है कि मेरा ही राष्ट्र सबसे ऊंचा है तब तक एआई का जो विकास होगा, वह निश्चित रूप से किसी हिंसात्मक दिशा में होगा ना।

तो चाइना में अगर डेवलपमेंट होगा एआई का तो उसकी ओवर्ट कवट, प्रकट या छुपी दिशा यही होगी कि किसी तरीके से इसके माध्यम से मैं अमेरिका पर छा जाऊं और फिर बहुत जल्दी एक समय आएगा कि यह जो हमने विश्व बीज बोया है यह बड़ा हो करके हमारे हाथ से निकल जाएगा। समय आज है अगर हम उसको सुधार सकते हैं। कैसे सुधारें?

जब समाज ही ठीक होगा तब समाज में जो लोग काम कर रहे हैं उनके काम की दिशा ठीक होगी। इसके अलावा यह उम्मीद करना कि नहीं सिर्फ जो प्रोजेक्ट्स हैं उनको एक एथिक्स के द्वारा कंट्रोल कर लिया जाए। यह संभव नहीं होगा। आप कितना भी एथिकल कोड ला दो, स्वार्थ सारी एथिक्स पर भारी पड़ता है। मान्यताएं बाकी सब चीज़ों को रौंद डालती हैं।

मैं चीनी हूं। मेरा राष्ट्र दुनिया में सर्वश्रेष्ठ है। मेरा चीन महान। इसके आगे आप कोई भी एथिक्स रख दो चलेगी नहीं। नतीजा भयावह होगा। अब समझ में आ रहा है मैं क्यों कहा करता हूं कि यह जितने तरीके की बीमारियां हैं इन्हें अध्यात्म ही रोक सकता है। और यह भी आप देख पा रहे हैं कि तुम ना रोके तो बहुत जल्दी ये बीमारियां किस रूप में फटने वाली हैं? बात आ रही है समझ में?

इसमें एक काम जरूर अच्छा होगा। जिन लोगों की बड़ी भारी मान्यता थी कि जीवित प्राणी को तो मात्र कोई पारलौकिक शक्ति ही बना सकती है। उनको आखिरकार सजा के माध्यम से ही सही, पर यह समझ में आएगा कि जिसको आप जीव बोलते हो वो मिट्टी मात्र है और क्योंकि वो मिट्टी मात्र है तो उसे कोई भी दूसरा जीव बना सकता है। भाई इंसान अपने गर्भ में तो एक एक चैतन्य जीव का निर्माण करता ही है ना। जब अपने गर्भ में कर सकता है तो अपने हाथ से भी कर सकता है। आप अभी तक गर्भ में करते थे। अब आप हाथ से करोगे कोडिंग के द्वारा।

प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी। तो जो आपने बोला गलत केंद्र, जिस केंद्र से लिखा जा रहा है और इस सेशन में भी बात हुई जो हम ग्रहण करने की बात कर रहे हैं। कुछ होने की प्रक्रिया में चले जा रहे हैं। कुछ होना चाह रहे हैं। भीतरी जो पूर्णतः पूर्ण करना चाह रहे हैं और त्यागने की भी कोशिश कर रहे हैं। टू बिकम, टू बिकम होना चाह रहे हम जो हमेशा। जो कृष्णमूर्ति भी कहते थे कि द इवोल्यूशनरी प्रोसेस आउटसाइड इज़ जस्टिफायबल बट टू बिकम इनवर्डली इज़ अ प्रॉब्लम।

तो जो आज भी बात हुई जो श्रीकृष्ण के द्वारा आप जो कहना चाह रहे थे कि ना ग्रहण करने वाला कोई है ना त्यागने वाला कोई है। तो जो यह अंत हो जाता है तब एक सही केंद्र का जीवंत होता है। अगर उसी सही केंद्र का जीवंत से ही आगे की प्रक्रिया का निर्माण किया जाए तो वह एक सही दिशा में जा सकती है।

आचार्य प्रशांत: यह तो आपने कोटेशन बताई है कृष्णमूर्ति की।

प्रश्नकर्ता: उसके बाद जैसी बात होती है कि ‘एंडिंग ऑफ टाइम’ जो अंदरूनी समय...

आचार्य प्रशांत: ये उनकी किताब का नाम है।

प्रश्नकर्ता: नहीं कृष्णमूर्ति ही जो कहते हैं जो एंडिंग ऑफ टाइम है जो भीतरी समय का अंत हो जाना है वही एक सही; मतलब और जो अंदर से आत्मस्थ और बाहर से प्रकृतिस्थ हो जाना है वही एक सही केंद्र का बनना है।

आचार्य प्रशांत: वो तो है ही पर इसमें प्रश्न क्या है? आपका प्रश्न क्या है?

प्रश्नकर्ता: प्रश्न इसी को लेकर के है कि जब जहां एआई के गलत प्रभाव की बात होती है। वो इसी केंद्र से उपजता है जिस केंद्र की आप आज भी बात कर रहे थे। जो हम ग्रहण करने को लगे पड़े हैं। कुछ बनने की चाह में आगे बने पड़े हैं। वही बनने की चाह भीतरी तौर पर हमसे कुछ यह करवाना चाह रही है कि वो पूर्ण हो जाए। मगर वह कुछ है ही नहीं तो पूर्ण नहीं हो पाएगी।

आचार्य प्रशांत: वो सारी जितनी भी नालायकियां होती हैं वहां से ही आती हैं। मैं कुछ हूं पर मैं कुछ और बनना चाहता हूं। तो मैं उसको बाहर से सोख रहा हूं। बाहर से सोख रहा हूं।

प्रश्नकर्ता: तो यहीं पर अगर स्थित हो जाए आदमी, जैसे आत्मस्थ जैसे बाहर से प्रकृतिस्थ हो जाए। एक हो जाए प्रकृति से।

आचार्य प्रशांत: कैसे हो जाए?

प्रश्नकर्ता: कुछ ना बनने की प्रक्रिया में रुक जाए। या कुछ होने की प्रक्रिया में रुक जाए। वहीं पर ही।

आचार्य प्रशांत: कैसे रुक जाए?

प्रश्नकर्ता: कि वह समझ जाए कि देअर इज नो डिवीजन बिटवीन मी एंड नेचर और मैं जो अंदर से हूं मैं आत्मा से…

आचार्य प्रशांत: उसी के लिए तो खुद को देखना होता है ना।

प्रश्नकर्ता: बस अंदर से भीतर से आत्मस्थ और बाहर से प्रकृतिस्थ जैसे आज आपने भी बताया था। धन्यवाद।

आचार्य प्रशांत: कुछ दिनों तक मत पढ़िए। बातें आपने सारी बहुत बढ़िया बोली। पर हमें बढ़िया नहीं चाहिए ना। आत्मा माने क्या होता है? अपना। अपना। मेरा जैसा भी है वह सामने आएगा तो सुधर भी सकता है। भले ही वह अभी बहुत ठीक ना हो और दूसरे का बहुत बढ़िया भी है। वह सामने आ गया तो उसमें मुझे क्या मिला? दूसरे की १०/१० मार्क्स वाली शीट है। उसको मैं ला के आपके सामने रख दूं। आप कहेंगे वाह वाह वाह आपने तारीफ भी करी तो किसकी करी? जिसकी शीट है उसकी करी ना। मेरा अपना ४/१० भी आपके सामने रखूं। तो आप उसमें कुछ गलतियां बता पाएंगे, कुछ सुधार बता पाएंगे तो मेरा फायदा होगा।

मेरा जैसा भी है सामने आए। भले ही वह उतना चमकदार ना हो। भले ही वह उतना सुंदर या पवित्र ना हो जितना किसी दूसरे का है। क्योंकि मेरा सुधार तो मेरी चीज़ से होगा। दूसरे की चीज़ होगी बहुत चमकदार होगी। पर है दूसरे की ना। अपनी चीज़ सामने लाइए, अपनी चीज़।

हम जैसे हैं, हमारी अभी जो यात्रा की स्थिति है हमारी चीज़। संभावना यही है कि बहुत चमकदार, बहुत शुद्ध साफ पवित्र नहीं होगी। जैसी भी हो अपनी हो। अपनी है तो पर्याप्त है। हमारा जैसा भी है उसी में आत्मा है ना? भले ही अभी उसके ऊपर बहुत सारा धुआं या कचरा लिपटा हुआ हो।

प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी। जैसा कि आपने कहा कि ये सुपर इंटेलिजेंस का बनना और उसके आगे कॉन्शियसनेस का आना एक नैचुरल इवोल्यूशन के जैसे हो सकता है। बायोलॉजिकल नहीं मैकेनिकल होगा।

आचार्य प्रशांत: बायोलॉजी भी मैकेनिक्स है।

प्रश्नकर्ता: हां बायोलॉजी..

आचार्य प्रशांत: बायोलॉजी भी मैकेनिक्स है। बायोलॉजी केमिस्ट्री होती है। बायोलॉजी केमिस्ट्री होती है और केमिस्ट्री फिज़िक्स होती है?

प्रश्नकर्ता: हां होती है।

आचार्य प्रशांत: बायोलॉजी में बहुत बड़े-बड़े चेन्स होते हैं। ह्यूजली लॉन्ग पॉलीमर्स होते हैं। प्रोटीन्स, अमीनो एसिड्स। है ना? और वो सब क्या है? वो केमिस्ट्री है। और सारी केमिस्ट्री किस पर चलती है? फिज़िक्स पर चलती है। तो बायोलॉजी भी क्या है? फिज़िक्स है। माने मैकेनिक्स है।

प्रश्नकर्ता: मेरा प्रश्न यह है कि जैसे इंसान अभी उस स्वार्थ के केंद्र से उस चीज़ को डेवलप कर रहा है। पर अगर वह ना करे इंसान तो एक प्रकृति की इवोल्यूशन में बाधा पड़ जाएगी ना ये? मतलब अगर प्रकृति का इवोल्यूशन...

आचार्य प्रशांत: प्रकृति को कोई फर्क नहीं पड़ता। प्रकृति थोड़ी ही बंधक बनने जा रही है सुपर इंटेलिजेंस की। तुम ऐसे जाओ वैसे जाओ। इवोल्यूशन तो चलता ही रहता है। इवोल्यूशन में इतनी चीज़ें पैदा होती हैं जितनी पैदा होती हैं। जितनी स्पीशीज आज पृथ्वी पर हैं। उससे कई गुना आकर जा चुकी हैं। मर गई है। प्रकृति को थोड़ी फर्क पड़ता है। मैं तो यह बता रहा हूं आपको फर्क पड़ेगा। मदारी आपको नचाएगा। प्रकृति को कोई फर्क नहीं पड़ता। आप भी प्रकृति हो। सुपर इंटेलिजेंस भी। सब कुछ प्रकृति ही प्रकृति है। तो प्रकृति को क्या फर्क पड़ेगा?

प्रश्नकर्ता: हां, प्रकृति को फर्क नहीं पड़ेगा। पर क्या फिर वो सुपर इंटेलिजेंस बनना ही धरती के लिए ज़्यादा अच्छा हो जाएगा इंसानों से?

आचार्य प्रशांत: धरती के लिए कुछ बुरा नहीं होता। यह जो पूरी समग्रता है, इसके लिए कुछ अच्छा बुरा नहीं होता। अच्छा बुरा उसके लिए होता है जो बढ़ सकता है घट सकता है। आपके लिए अच्छा होता है। आपके लिए बुरा होता है। एक मैंने बोला था। लोगों ने उसका पोस्टर बनाया बहुत पसंद आया। ‘द अर्थ इज नॉट सिक। द अर्थ इज जस्ट एडजस्टिंग इटसेल्फ टू एलिमिनेट मैन।‘

पृथ्वी को कोई फर्क नहीं पड़ता। अच्छे बुरे की सारी भाषा आपके लिए है। हम जब कहते भी हैं कि सेव द प्लैनेट, सेव द प्लैनेट। सेव द प्लैनेट क्या? प्लैनेट तुमसे बहुत पहले भी था, तुमसे बाद में भी। प्लैनेट को क्या सेव करोगे? सेव योरसेल्फ। पर यह भी अहंकार है कि हम इतने बड़े हैं कि प्लैनेट सेव करेंगे।

प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी। अभी जो आपने बात किया कि सुपर इंटेलिजेंस और उसका एक अलग केंद्र होगा। तो एक पॉइंट पर हम ये कह रहे हैं कि वो सुपर इंटेलिजेंस जाके कॉन्शियस हो जाएगा।

आचार्य प्रशांत: यही कॉन्शियसनेस है और थोड़ी कुछ कॉन्शियसनेस है। हमने कॉन्शियसनेस को फालतू ही बहुत मिस्टीरियस मिस्टिकल बना रखा है। कॉन्शियसनेस केमिस्ट्री है और क्या है? हम इतनी तो बात करते हैं।

।।गुणा गुणेषु वर्तन्ते ।।

(श्रीमद्भागवद्गीता श्लोक ३.२८)

इसका क्या मतलब है? कि सब केमिस्ट्री ही तो चल रही है भीतर, और क्या है?

प्रश्नकर्ता: लेकिन केमिस्ट्री है लेकिन उसमें अभी तक हमारी जो समझ है वो यह है कि उस सबके बीच में एक मैं भाव है जिसको हम....

आचार्य प्रशांत: वो केमिकल है वो भी केमिकल है।

प्रश्नकर्ता: तो हम यह कह रहे हैं कि एक हद के बाद उस मशीन में भी वो मैं भाव प्रकट हो जाएगा।

आचार्य प्रशांत: एक C2H5OH केमिकल होता है। वो भीतर जाता है तो ‘मैं’ बादशाह हो जाता है।

(सब हँसते हैं।)

तो एक केमिकल अगर किसी दूसरी चीज़ को बदल देता है तो वो दूसरी चीज़ भी फिर क्या होगी?

प्रश्नकर्ता: केमिकल।

आचार्य प्रशांत: केमिकल ने अगर किसी चीज से रिएक्ट करा और उसको बदल दिया तो वो फिर चीज़ भी क्या रही होगी? तो मैं भी क्या है, ईगो क्या है? केमिकल है और क्या है?

प्रश्नकर्ता: लेकिन इस...

आचार्य प्रशांत: अच्छा नहीं लग रहा। बुरा लग रहा है।

(सब हँसते हैं।)

प्रश्नकर्ता: नहीं मैं कहना यह चाह रहा हूं सर कि अगर उसमें वो ‘मैं’ भाव पैदा हो भी जाता है तो कॉन्शियसनेस का जो कृतृत्व होता है, उसकी जो सारी डूइंग होती है उसका सारा सोचना होता है उस...

आचार्य प्रशांत: ‘मैं’ भाव में होता है। मैं भाव पैदा नहीं हो जाता। कितनी बार परीक्षा में प्रश्न तक आया था कि इनमें से किस-किस में ‘मैं भाव’ होता है। रबर पेंसिल पत्थर मुर्दा जिंदा..

प्रश्नकर्ता: होता सब में है। प्रकट नहीं हो रहा है।

आचार्य प्रशांत: प्रकट भी होता है। प्रकट कैसे नहीं होता? आप अपने कंधे पे हाथ मारिए, आवाज आएगी तो प्रकट भी है। प्रकट भी है। बस उसका अपने तरीके का प्रकट हो जाएगा। अपने तरीके का। बाकियों का जो मैं भाव होता है वो इंसानों के लिए घातक नहीं होता। उसका जो मैं भाव निकलेगा वो आपको गुलाम बना देगा। अंतर बस यह है।

प्रश्नकर्ता: मतलब हम यह कंक्लूड कर रहे हैं कि जैसे मैं अपने मैं भाव से, अपने स्वार्थ के लिए और उसके लिए काम करता हूं तो वो अपने उसके हिसाब से स्वार्थ जो होगा उसके लिए...

आचार्य प्रशांत: जिसको मैंने बनाया ही अपने स्वार्थ के लिए है। वो और क्या सीखेगा? उसके उद्गम में उसके जेनेसिस में ही क्या है? स्वार्थ है। तो यही तो समझा रहा हूं ना कि आज जब अभी वो बच्चा है। आज अभी जब धीरे-धीरे उसका आप पेरेंट मां-बाप की तरह उसका निर्माण कर रहे हो तो आज ही ठीक कर लो। नहीं तो आगे वो आपके पकड़ में नहीं आने का।

प्रश्नकर्ता: इसी में बस दो छोटे पॉइंट और थे, आचार्य जी। एक तो तथ्य है वो बिल्कुल साफ ही है कि जितना भी मैं एआई के बारे में आज सामग्री पढ़ता हूं, देखता हूं, उसमें हमारे देश का नाम तो कहीं नहीं है। और दूसरी बात इसमें यह है कि यह एक आर्म्स रेस की तरह बहुत जल्दी में डेवलप ...

आचार्य प्रशांत: इससे आपको पता चल रहा है ना कि यह एक वेपन है। ये एक वेपन है। ये एक ऐसा वेपन है जो जल्दी ही ऑटोनॉमस होने वाला है। यह एक रोग वेपन है। सुपर इंटेलिजेंस के साथ एक चीज़ यह भी कही जाती है। 'इट विल नॉट ओनली टेक ओवर वेपन सिस्टम्स, इट विल डिज़ाइन न्यू वेपन सिस्टम्स ऑफ इट्स ओन।' जो कि इतने लीथल होंगे कि इंसानों के लिए वो इनकॉमप्रेहेंसिबल होंगे। आपको पता भी नहीं होगा कि वो चीज एक वेपन है। आपको पता भी नहीं होगा कि वो जो चीज डिजाइन हुई है वो एक वेपन है। तो आप जब उसकी शुरुआत ही एक वेपन के तौर पर कर रहे हो। फिर तो...

हमने अपने सारे बायसेस, हमने अपनी जितने तरीके की हमें लगता है कि खूबियां हैं जो कि वास्तव में खूबियां नहीं है। वास्तव में दोष हैं, गंदगियां हैं। वह सब हमने एआई में डाल दी हैं। वर्तमान में पहले ही डाल दी हैं। और उसका जो खेल है वो ऐसे चलता है। गोल-गोल चलता है। वह अपने आप को ही बार-बार रिवजिट करता है। अपने आप को ही बार-बार इंप्रूव करता है। पर इंप्रूव करने का क्या मतलब है? कहीं बाहर से कुछ नहीं ले आ देगा। जो उसमें स्थित है, उसी को रगड़-रगड़ के और साफ करेगा और शार्प करेगा।

प्रश्नकर्ता: सर, यही इंपॉर्टेंट एक लग रहा है कि सत्य के हाथ में सत्ता होनी जरूरी है। तो हम लोग कैसे संस्था की....

आचार्य प्रशांत: सत्ता उसी के हाथ में रहेगी जो मेजॉरिटी बहुमत लोगों जैसा रहेगा। सत्ता हमेशा लोगों के ही हाथ में रहती है। आप जैसे हैं आप सत्ता अपने ही जैसे किसी के हाथ में सौंप देंगे। तो अगर सत्ता हमें सही हाथ में देनी है तो किसको सही करना पड़ेगा? आपको। तो कर तो रहे हैं। बस वही कर रहा हूं।

प्रश्नकर्ता: स्लो तो नहीं है हम अपनी पेस में ताकि वो आगे ना निकल जाए क्योंकि बहुत...

आचार्य प्रशांत: अब जितनी मैं तेजी से दौड़ सकता हूं दौड़ रहा हूं। और मेरा वजन थोड़ा ज्यादा है क्या करूं?

प्रश्नकर्ता: हम सब भी कोशिश करेंगे सर, थैंक यू।

आचार्य प्रशांत: लगाइए धक्का।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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