क्या एक साथ रहने से प्यार बढ़ेगा? || (2016)

Acharya Prashant

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क्या एक साथ रहने से प्यार बढ़ेगा? || (2016)

प्रश्नकर्ता: जिस स्थिति में दो लोग आपस में जुड़े हों, और दोनों में बहुत ज़्यादा मतभेद हो, तो वो स्थिति क्या साथ ही रहने में सुधर सकती है?

आचार्य प्रशांत: नहीं देखिए, ये कोई नियम नहीं हो सकता है, ये बाध्यता नहीं हो सकती। बात सिर्फ़ इतनी सी है कि डर दो लोगों को निकट रखे तो भी उनमें बहुत दूरी रहेगी, और डर के मारे दो लोग दूर हो गए हों तब तो दूरी है ही। तो आप किस केंद्र से संचालित हो रहे हैं, बात उसकी है।

बहुत सारे लोग ज़िन्दगी भर साथ रहते हैं क्योंकि दूर होना उनके लिए अकल्पनीय होता है, दूर होने में बड़ी असुरक्षा है, डर है। उस साथ रहने में कोई वास्तविक घनिषता, निकटता थोड़े ही है, तो आप किस वजह से, आप किस केंद्र से चल कर के अपने जीवन के निर्णय ले रहे हैं, वो देखना आवश्यक है। आप एक कमरे में दो लोगों को बंद कर दें, वो अन्तरंग शत्रु बने रहेंगे। साथ-साथ रहेंगे, उठेंगे-बैठेंगे, खाएँगे-पियेंगे, हो सकता है पूरा एक संसार बसा लें, लेकिन फिर भी दिलों की दूरियाँ तो क़ायम ही रह जाएँगी न। वो बात दोनों के बीच की नहीं है , वो बात दोनों की आतंरिक बात है कि दोनों लोग कैसे हें – क्या ये भी डर पर चलता है, और ये भी डर पर चलता है? अगर ये भी डर पर चलता है, और ये भी, तो उनका रिश्ता भी डर का होगा।

प्र: अगर हम थोड़े ईमानदार हैं, तो ये बात बहुत साफ़-साफ़ दिखती है की जैसे पाँच-छः साल हो गए किसी इंसान के साथ रहते हुए और जब आप उसको वास्तव में थोड़ा देखते हो तो आपको लगता है, मूलतः आप उसको अपने ही फिल्टर (छलनी) से देखते हो। आपको उस व्यक्ति के बारे में कोई भी अवधारणा नहीं है, तो ये एक बहुत असफलता का भाव भी देता है। जैसा आपने कहा कि अगर डर के केंद्र से संचालित करेंगे तो कभी पास नहीं जा पाएँगे।

आचार्य: जब आप उसके निकट नहीं जा पाएँगे तो फिर बीच-बीच में तथ्य आपको झंझोड़ भी देंगे क्योंकि आप जब जी रहे थे तो कल्पना पर जी रहे थे| कल्पनाओं पर जी रहे थे तो बीच-बीच में घटनाएँ ऐसी होंगी कि जो कल्पनाओं को तोड़ेंगी, तथ्य तो तोड़ ही देते हैं न कल्पनाओं को। तो आपको बीच-बीच में झटके लगेंगे कि “अरे मैं तो ये सोचता था, लेकिन ये तो ये निकला।”

प्र: फिर अपने पर सवाल उठता है कि, "आप करीब नहीं जा सकते?"

आचार्य: आप करीब जा सकते नहीं, आप करीब गए नहीं। इससे आपके कर्म के बारे में पता चलता है, इससे आपकी संभावना के बारे में कुछ नहीं पता चलता।

आप कैसे जी रहे हो ये अभी तक के आपके निर्णय हैं, आप कैसा जी सकते हो वो बात बिलकुल दूसरी है। अभी तक तुम कैसे चले हो इसके आधार पर ये तय मत कर लेना कि तुम्हें कैसे चलना है। तुम्हें जैसे चलना है उसका तुम्हारे अतीत से ज़रूरी नहीं है कि कोई भी रिश्ता हो, एक बिलकुल नयी शुरुआत हो सकती है।

प्र: सर किसी भी परिस्थिति में, किसी भी सम्बन्ध में सौ-प्रतिशत सुधार इधर ही है? (मन की तरफ़ इशारा करते हुए) उधर कहीं बहार नहीं है, सौ-प्रतिशत इधर ही है?

आचार्य: बिलकुल, बिलकुल। लोग आते हैं, बात करते हैं रिश्तों की, संबंधों की – दोस्त आते हैं, ज़्यादातर तो पति-पत्नी ही आते हैं या जोड़े। मैं कभी नहीं कहता कि तुम दोनों के “बीच” में कुछ गड़बड़ है, गड़बड़ दोनों के “बीच” में नहीं होती है- गड़बड़ “दोनों में” होती है।

तुम ठीक हो जाओ, और तुम ठीक हो जाओ तो तुम्हारा रिश्ता अपने आप ही ठीक हो जाएगा, तुम्हारा रिश्ता तुम दोनों की गुणवत्ता से कुछ जुदा थोड़े ही है।

जो तुम्हारी गुणवत्ता है और जैसा तुम्हारा जीवन है तुम्हारे रिश्ते की भी वही गुणवत्ता होगी,

तो ये मत कभी कहना, “हमारे सम्बन्ध को सुधार की ज़रूरत है।“

प्र: मन को सुधार की ज़रूरत है।

आचार्य: ये आपका मन है जिसे ज़रूरत है किसी चीज़ की। पर हम कहना ये चाहते हैं कि, "नहीं हम भी ठीक हैं, शायद ये भी ठीक है, खराब क्या है? रिश्ता।" जैसे कि रिश्ता कहीं आसमान से टपका हो, आप जैसे हैं आपके सारे रिश्ते भी वैसे ही होंगे, मरम्मत करिए।

प्र: सर जब दो लोगों को लड़ते हुए देखते हैं, अभी कुछ दिन पहले ही बहुत अच्छा अवलोकन आया कि मेरे पिताजी और ड्राईवर जो थे पापा के साथ, वो दोनों लड़ रहे हैं रास्ते को लेकर के और दोनों ही सही - मुझे पता लग रहा है कि दोनों ही सही हैं - लेकिन उन दोनों को आपस में सही नहीं लग रहे वो दोनों। तो कई बार ये भी लगता है (बहुत क्लियर हुआ) कि मैं भी सही हूँ और वो भी सही हैं बस हम दोनों आपस में लड़ रहे हैं।

आचार्य: देखिए, एक बात समझियेगा – लड़ाई इसलिए नहीं होती है कि कौन सही है कि कौन ग़लत है। दोनों ग़लत हों तब भी ज़रूरी नहीं है कि वो लड़ ही लें, तब भी प्रेम हो सकता है। तुम भी कुछ नहीं जानते, तुम भी कुछ नहीं जानते किसी रास्ते के बारे में तो क्या ज़रूरी है कि लड़ लो? तब भी हो सकता है प्रेम हो, और ये भी हो सकता है कि तुम भी सब कुछ जानते हो और तुम भी सब कुछ जानते हो तब भी लड़ लो। तो लड़ाई इत्यादि का, द्वेष का, वैमनस्य का ज्ञान से कोई सम्बन्ध नहीं है। उसका सम्बन्ध तो ह्रदय से है।

आप महाज्ञानी हो सकते हैं और महालड़ाकू और आप बिलकुल अनपढ़ हो सकते हैं लेकिन बिलकुल प्रेम में पगे हुए। तो जानने का, ज्ञान का इसमें काम क्या है? ये तो बात दिल की है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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