प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, रोज़ इच्छाएँ उठती हैं, कामनाएँ उठती हैं। पूरी भी होती हैं, फिर निराशा भी होती है। उससे तंगी महसूस होती है जीवन में। ऐसी स्थिति में परम के साथ एकाकार या परम में डुबकी या घुलने की इच्छा मन में आती है बहुत बार कि कोई ऐसी चीज़ मिले जिसमें परम शांति मिले।
आचार्य प्रशांत: ये भी आप इसलिए कह रहे हैं, क्योंकि बीच-बीच में निराशा मिल जाती है। ये तो छुपा ही गए कि निराशाएँ बहुत मिलती हों, लेकिन बीच-बीच में सफलताएँ भी मिल जाती हैं तो आशा बनी रहती है।
कोई ऐसा खेल क्यों खेलेगा जिसके प्रति वो पूरा ही निराश हो गया हो? आप उस खेल में जमे ही इसीलिए हैं, क्योंकि आशा है अभी, निराशा पूरी नहीं है। दस बार की निराशा पर एक बार की आशा भारी पड़ती है, जैसे लॉटरी। मन कहता है, ‘सौ बार नहीं लगी कोई बात नहीं, बेटा एक बार लग गई तो सब वसूल लेंगे!’
तो आशा का ऐसा हिसाब है। निराश आप होने कहाँ पाते हैं, उम्मीद तो अभी बँधी ही हुई है कि किसी न किसी दिन जैकपॉट लगेगा, मेरा भी नंबर आएगा। सब निराशाएँ आप झेल जाएँगे कि मेरा भी नंबर आएगा।
और जानते हैं समझाने वाले क्या बोल गए हैं?
“आशा हि परमं दुखम” — आशा से बड़ा दुख दूसरा नहीं है। क्योंकि सारे दुख आप उठाते चलते हो आशा के कारण। ये आशा आपको बहुत रुलाती है।
लेकिन फिर वही अमरीकी उपभोक्तावाद! उसने आपको पढ़ा दिया है ‘होप’ (उम्मीद)! वहाँ तो राष्ट्रपति चुन लिए जाते हैं इसी बात पर। होप!
गलत काम में लगे हुए हो। पहली गलती तो ये हो गई। और गलत काम से सही अंजाम कि उम्मीद भी रखे हुए हो। ये तो महागलती हो गई न! इस दूसरी गलती के कारण पहली गलती सुरक्षित रहेगी, पहली गलती बनी ही रहेगी।
माया जानते हो क्या करती है? तुम सोचते हो माया तुमको दुख देती है। न! माया तुमको सुख देती है ताकि तुम अब सौ गुना दुख और झेलो। क्योंकि थोड़ा सा भी सुख मिल जाता है तो उम्मीद बँध जाती है न, फिर सौ गुना दुख और झेलते हो।
माया को दुखदायिनी मत समझ लेना, वो तो सुखदायिनी है। जितने तुम्हें सुख मिले हैं, वो सब माया ने दिए हैं।
फिर कहती है, ‘अब पट्ठा तैयार है! दो दिन का सुख दे दिया है, अब ये दो साल दुख झेलेगा। और सुख का एल्बम देखता चलेगा मुड़-मुड़कर कि क्या चाँदनी रात थी! आहाहा! दो दिन तो बड़ा रस बरसा था! अब पूरा दो साल झेलेगा ये। और दो साल बाद जब निराशा इसकी बहुत बढ़ने लगेगी तो फिर से चाँद चमका दूँगी, फिर तैयार हो जाएगा दो साल दुख झेलने के लिए।’
सुख तो मिलता ही चलता है, पार्टियाँ थम थोड़े ही जाती हैं। साल में एक-आध बार ही सही, उत्सव तो मनता ही है, तभी तो बाकी तीन-सौ-चौंसठ दिन झेल पाते हो। सबसे बड़ा अभाग तब होता है जब तुम्हें गलत काम का भी प्रिय अंजाम मिल जाता है। अब तुम फँस गए! और ऐसा खूब होता है कि काम मूलतः गलत था, लेकिन उसका अंजाम तुमको प्रियकर मिल गया। अब तुम कहोगे, ‘ये बढ़िया है, इसका मतलब गलत काम करके भी सुख तो मिल जाता है न!’ अब वो गलत काम तुम दोहराए जाओगे, दोहराए जाओगे, दोहराए जाओगे, और अपने लिए दुख का निर्माण करते जाओगे, करते जाओगे। ये माया है!
जब कर्ता गलत हो, कर्म गलत हो, लेकिन उसके बाद भी परिणाम सुखप्रद मिल जाए — और ऐसा होता है हमारे साथ, होता है कि नहीं होता है? गलत काम करके भी सुख तो बीच-बीच में मिल ही जाता है। दिन भर घूस ली, रात को गए उससे कुछ खरीद लाए। गलत काम का सुखकारी अंजाम मिला कि नहीं मिला? तो अब तुम उस गलत काम को खूब आगे बढ़ाओगे। ये माया है। वो तुम्हें गलत काम का भी बढ़िया अंजाम दे देती है।
प्रश्नकर्ता: इससे निकलने का भी गुरुजी है कुछ उपाय?
आचार्य प्रशांत: इससे निकलने का तरीका ये है कि अपने दुखों से ज्यादा अपने सुखों को देखो, अपनी असफलताओं से ज्यादा अपनी सफलताओं को देखो। चूंकि तुम शिकायत दुख के विरुद्ध कर रहे हो, इसीलिए तुम्हारा पूरा ध्यान इस वक्त दुख पर है। सुख को तो तुमने मान्यता दे दी है और छोड़ दिया है। उसको तो तुमने सत्यापित कर दिया है कि ये ठीक ही है। सुख को तुमने प्रमाणित कर दिया है कि ये तो ठीक ही है। तुम कह रहे हो कि गड़बड़ उधर है जिधर दुख है, तो तुम्हारी पूरी दृष्टि दुख को देखने में, दुख का विश्लेषण करने में लगी हुई है। यहीं चूक हो रही है।
दुख को छोड़ो, ज़रा सुख पर ध्यान दो। ज़रा टटोलो सुख को कि ये असली है क्या। उसको टटोलोगे नहीं, क्योंकि कलेजा थरथराएगा। सुख को तो तुम अपनी बड़ी पूंजी मानते हो।
अगर उसकी जाँच-पड़ताल करनी पड़ गई तो बड़ा डर लगता है कि कहीं ये सुख नकली न निकल जाए। और होगा यही! सुख की ज़रा सी तुम जाँच-पड़ताल करोगे, यही पाओगे कि बहुत नकली है, इसीलिए तुम उसकी जाँच-पड़ताल करते नहीं। ये करो। सुख की, सफलता की, जो कुछ तुम्हें जीवन में लगता है कि तुम्हारी बड़ी कमाई है, उसका परीक्षण करो कि कितना दम है उस कमाई में।
तब पूर्ण निराशा मिलेगी! और जब पूर्ण निराशा मिलेगी तो मुक्त हो जाओगे। किससे मुक्त हो जाओगे? पागलपन से। फिर एक नया जीवन शुरू होता है। उसमें आनंद होता है, उसमें हल्कापन होता है, निर्भयता होती है।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मुझे पिताजी की इज़ाज़त मिली तो मैं यहाँ शिविर में आया हूँ। और इज़ाज़त भी तब मिली जब मैंने आपका पूरा आइआइटी-आइआइएम-यूपीएससी का परिचय दिया। पिताजी ने इज़ाज़त के साथ-साथ हिदायत भी दी कि मैं यहाँ प्रचारक या स्वयंसेवक न बनूँ।
हालांकि जब मैंने यहाँ शिविर में तीन दिन गुज़ारे तो मेरी बहुत इच्छा है कि मैं यहाँ स्वयंसेवक बनूँ और अपनी सेवाएँ दूँ। तो कुल मिलाकर असमंजस की स्थिति बनी हुई है और मैं एक फैसले तक नहीं पहुँच पा रहा हूँ। कृपया मार्गदर्शन करें।
आचार्य प्रशांत: सत्य का सेवक बनने का अर्थ होता है ‘सत्य’ का सेवक बनना। ठीक? जो बगल के घर में चाकरी करता हो, उसको फुर्सत कहाँ मिलेगी कि यहाँ आकर सेवा कर सके। सत्य का सेवक माने - मात्र केवल सत्य का सेवक। जो अभी पचास जगह सेवक हो, वो सत्य का सेवक नहीं हो सकता। सत्य का सेवक बनने का मतलब होता है दुनिया भर की गुलामी से पहले आज़ाद हो जाना। जो अभी दुनिया से डर रहा हो, जिसके ऊपर अभी दुनिया का कब्जा हो, जिसके मन पर अभी दुनिया का भय हो, वो क्या सत्य का सेवक बनेगा!
जीसस का सुंदर वचन है। वो कहते हैं, ”एक साथ दो ईश्वरों की पूजा नहीं हो सकती।” सत्य एक है, उसी की सुननी होती है। और अगर अभी तुम्हारा जीवन ऐसा है कि और दस-बीस-पचास लोग हैं जिनकी तुम सुनते रहते हो तो बात नहीं बनेगी। बहुत गहरी इच्छा होनी चाहिए दुनिया की गुलामी से मुक्त होने की।
तुम्हें कभी-कभी ताज्जुब होता होगा कि संत क्यों कहते हैं कि मैं श्रीराम का दास हुआ, मैं मालिक का बंदा हुआ, मैं अब गुलाम ही हो गया। संत ये क्यों कहते हैं? तुम कहते होगे कि कोई दासता, गुलामी, बंदगी में इतना गौरव क्यों अनुभव कर रहा है। इसलिए क्योंकि श्रीराम का दास होने से दुनिया भर की दासता से छुटकारा मिल जाता है। तो जब कबीर साहब बोलें कि मैं श्रीराम का दास हुआ, तो वो वास्तव में कह रहे हैं कि अब मैं दुनिया भर से आज़ाद हो गया।
जिन्हें दुनिया से आज़ादी चाहिए हो, वो श्रीराम का दास बनें। जिन्हें दुनिया की गुलामी में ही बहुत मज़ा आता हो, वो क्या करेंगे सत्य की ओर आकर? मालिक का बंदा बनने का मतलब होता है किसी और की बंदगी नहीं करेंगें अब। दूसरों की बंदगी में अभी तुम्हें लाभ दिखता है तो वही किए जाओ।