प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आप ही के साथ रहकर पिछले कुछ समय से मुख्य उपनिषदों को पढ़ने का मौक़ा मिला। जब मुख्य उपनिषदों का पाठ कर रहा था तो मैंने एक बात उसमें देखी, जो बड़ी अजीब लगी। कि आज के समय में अध्यात्म का जो प्रचलित मतलब है, वो चक्रों से और कुंडलिनी से उन सब चीज़ों से हैं। और जब मैंने मुख्य उपनिषद पढे़ तो वहाँ पर इनमें से किसी चीज़ का उल्लेख नहीं मिला। तो इन सब चीज़ों का अध्यात्म में प्रवेश कब हुआ?
आचार्य प्रशांत: देखो, उपनिषद कहीं-कहीं पर नाड़ियों की बात तो करते हैं। पर चक्रों की और कुंडलिनी की बात नहीं करते। ये चीज़ सबसे पहले पायी जाती है बौद्ध ग्रन्थों में क़रीब आठवीं शताब्दी में। और हिन्दू ग्रन्थों में इसका प्रवेश क़रीब ग्यारहवीं शताब्दी में हुआ है। और इसको विस्तार मिला है अभी चार-पाँच सौ साल पहले सोलहवीं शताब्दी में। तो ये चीज़ नयी है। इस चीज़ का वास्तव में जिसको तुम सनातन धर्म कहते हो, उसके केन्द्र से बहुत सम्बन्ध है नहीं। ये जो शाक्त परम्परा ही है पूरी ये नयी है। लेकिन फिर भी जो बात कही जा रही है, कुंडलिनी योग में वो बात अपनेआप में महत्वपूर्ण है।
क्या कहा जा रहा है? कहा जा रहा है कि तुम्हारी जो ये चेतना है वो बिलकुल नीचे बैठी रहती है। जितना नीचे वो हो सकती है। जितने निचले-से-निचले स्थान में तुम्हारी चेतना हो सकती है, वहीं पर रहती है आमतौर पर। उसे चेतना को दर्शाया जाता है कुंडलिनी के माध्यम से। कि एक छोटा सा साँप है जो कुंडली मारकर बैठा हुआ है, कहाँ? सबसे निचली जगह पर। सबसे निचली जगह कौनसी है? मूलाधार। मूलाधार कहने से मतलब ही है सबसे निचली जगह। सबसे निचली जगह क्या? जहाँ पर तुम्हारी रीढ़ की आख़िरी हड्डी है। वहाँ पर बैठी रहती है चेतना। समझ रहे हो?
फिर अलग-अलग चक्र बताये गये हैं। वो जो अलग-अलग चक्र हैं वो वास्तव में तुम्हारी चेतना की ही अलग-अलग ऊँचाइयों के या अलग-अलग स्तरों के नाम हैं। तो सबसे नीचे बता दिया मूलाधार है, फिर कह दिया कि जहाँ तुम्हारे जननांगों की जड़ होती है वहाँ स्वाधिष्ठान चक्र है। फिर जहाँ तुम्हारी नाभि होती है वहाँ मणिपुर है। फिर जहाँ तुम्हारा हृदय होता है वहाँ पर अनाहत है। फिर जहाँ ये है कंठ (गले की ओर संकेत करते हुए) वहाँ विशुद्ध है। फिर यहाँ आँखों के बीच में, इस जगह भौहों पर (माथे की ओर संकेत करते हुए), यहाँ कहते हैं आज्ञा चक्र है। और फिर कहते हैं, जब तुम सब चक्रों को पार कर लेते हो तो यहाँ (सिर की चोटी पर संकेत करते हुए), यहाँ ब्रह्मरन्ध्र है, यहाँ सहस्त्रार कमल खिलता है।
ये बताने का मतलब क्या है? बताने का यही मतलब है कि तुम्हारी चेतना है जो कि प्राकृतिक तौर पर बिलकुल नीचे सोयी पड़ी रहती है। वही जो कुंडलिनी शक्ति है न वही शक्ति मात्र है, वही पार्वती है, वही दुर्गा है।
और जैसे हर आम आदमी की चेतना प्राकृतिक रूप से तो देहबद्ध ही होती है — देहबद्ध माने कि प्राकृतिक रूप से हर आदमी यही सोच रहा होता है कि भई मैं तो शरीर हूँ और शरीर का भोग करके मुझे ख़त्म हो जाना है, शान्ति ले लेनी है, मज़े मारने हैं, ये करना है। तो चेतना की उस स्थिति को कहते हैं कि तुम मूलाधार में बैठे हो, तुम्हारी कुंडलिनी सक्रिय ही नहीं हुई है। कुंडलिनी शक्ति का ऊर्ध्वगमन अभी हुआ ही नहीं है। अभी सारा खेल मूलाधार के तल पर ही चल रहा है। मूल-आधार (अर्थात) सबसे नीचे, तुम्हारा वहीं पर अभी चक्र चल रहा है।
फिर जब तुम्हारी चेतना थोड़ी बेहतर होती है, ऊपर उठती है तो चलो भई अब वो स्वाधिष्ठान, फिर मणिपुर। और फिर ऐसे आगे बढ़ते-बढ़ते एक बार हृदय चक्र पर आ गयी तो माना जाता है कि अब जो उच्चतर चक्र हैं तुम्हारे वो सक्रिय हो रहे हैं। अनाहत है, विशुद्ध है, आज्ञा है, ये सब ऊँचे चक्र हैं। जो चेतना के चक्र हैं ये, समझना, शरीर के चक्र नहीं हैं। शरीर के माध्यम से सिर्फ़ दर्शाया जा रहा है। कि भई जैसे तुम एक मापदंड ले लो। ऐसे (हाथ को कोहिनी पर खड़ा करके बताते हुए) और बताओ कि ये (उँगली की छोर) चेतना की सबसे ऊँची स्थिति है, और ये (कोहिनी) चेतना की सबसे नीची स्थिति है। तो इस तरीक़े से ये शरीर ही ले लिया गया है।
तुम अगर इसी बात को एक स्केल लेकर के, एक मापदंड लेकर भी समझा सकते हो, तो उसके लिए तुमने शरीर लेकर के ही समझा दिया। कि समझ लो ये शरीर है, तो ये मूलाधार (कोहिनी की ओर संकेत) है, ये सहस्त्रार (उँगली की छोर की ओर संकेत) है। और मूलाधार और सहस्त्रार के बीच में और चक्र होते हैं। और तुम्हारी चेतना को यात्रा करनी है। तो उसे चेतना को चूँकि ऊपर की ओर ऐसे यात्रा करनी है, तो बोल दिया गया कि ये सर्पिणी है, ये सर्पिणी जैसी है, कुंडलिनी है। और वो ऐसे-ऐसे (नीचे से ऊपर) यात्रा करेगी और यही सारी साधना का लक्ष्य है कि तुम्हारी चेतना नीचे से उठकर के ऊपर तक आ जाए। ये कुंडलिनी योग है।
तो अब बात तो सही ही कही जा रही है। लेकिन इसमें तुम भूल ही जाओ कि सारी यात्रा चेतना को करनी है तो बात सब गड़बड़ा जाएगी। तुम क्या भूल गये? कि सारी यात्रा चेतना की है, उसका शरीर से कोई सम्बन्ध नहीं है। तुम सोचने लग गये कि वास्तव में, तुम्हारे जननांगों में कुछ होने लगेगा या नाभि में कुछ होने लगेगा या यहाँ पर, हृदय प्रदेश में कुछ होने लगेगा या यहाँ कंठ (गले) में कुछ होने लगेगा। तो तुम पगला गये, फिर तुम भूल ही गये कि ये सब तो सांकेतिक थे। ये तो बताने के लिए था कि चेतना को ऊपर उठाना है।
चेतना कोई वास्तव में थोड़े ही रीढ़ की हड्डी के नीचे छुपकर के बैठी हुई है। वहाँ वास्तव में थोड़े ही कोई साँप बैठा हुआ है। ये तो बात को कहने का एक तरीक़ा है। बात को कहने का एक तरीक़ा भर है। लोग सोचते हैं वास्तव में कुछ है, तो कहते भी हैं जो लोग कुंडलिनी की साधना अभ्यास करते हैं, ‘कुछ होने लगा, होने लगा, यहाँ हो रहा है, यहाँ (पेट में) हो रहा है, यहाँ (हृदय में) हो रहा है।’ अरे वहाँ क्या होगा! वहाँ तो जो कुछ हो रहा है वो शारीरिक है।
चेतना का सम्बन्ध तुम्हारी नाभि से थोड़े ही है, तुम्हारे पेट से थोड़े ही है, कि दिल में दर्द हो रहा है। लोगों को लगता है, ज़रूर अब हृदय चक्र हमारा खुल रहा है, सक्रिय हो रहा है। गले में बलगम जम गया है उनको लगता है, अरे गज़ब! कहें, ‘गले वाला चक्र, गले वाला चक्र सक्रिय हो रहा है।’ आँखों में कुछ होने लग गया तो ये नहीं करते कि चश्मा लगाएँ, लगता है आज्ञा चक्र खुल रहा है।
अरे बाबा, बात गले की, नाभि की, आँखों की नहीं है, बात चेतना की है। आम आदमी को समझाने के लिए ये सब विधियाँ लगाई गयी थीं। भूलना नहीं है कि भारत देश रहा है किसानों का और किसानों को पढ़ने-लिखने से परम्परागत रूप से कोई मतलब रहा नहीं है। और तन्त्र विद्या ख़ासतौर पर विकसित की गयी थी उनके लिए जो ज़्यादा पढ़-लिख नहीं सकते। वरना तन्त्र की ज़रूरत क्या थी!
तन्त्र का पूरा क्षेत्र विकसित ही उन लोगों के लिए किया गया था जो ज्ञान में रुचि नहीं रखते थे या फिर जिनका श्लोकों वगैरह से बहुत सम्बन्ध बन नहीं पाता था। तो उनको कहा गया कि मुक्ति के अधिकारी तो ये भी हैं, तो इनके लिए तन्त्र का रास्ता अच्छा रहेगा। तो अब उसको समझाने के लिए फिर इस तरह के प्रतीक लिये गए।
उसको तुम बहुत ज्ञानपूर्ण तरीक़े से नहीं समझा सकते थे। तो उसको फिर तुमने ऐसे उदाहरण लेकर समझाया कि देखो जैसे ये तुम्हारा शरीर है न, तो इस शरीर में ये तुम्हारी पूरी ऊर्जा है, चेतना की जो ऊर्जा है वो एकदम नीचे बैठी रहती है और सबको उसको बिठाकर के बिलकुल सिर में सबसे ऊपर लेकर आना है। और फिर एक दिन हमें सिर के भी पार निकल जाना है। उसको ऐसे समझाया गया कि हाँ, ठीक है हमारी कोई ऊर्जा है जो यहाँ रहती है, उसको बढ़ाना है। ये बात समझ में आ रही है?
तो ये है, इसका कोई शारीरिक आयाम बिलकुल भी नहीं है।
प्र२: उस कोटि के व्यक्ति शरीर से ज़्यादा सम्बन्धित रहे होंगे, तो इसलिए उन्हें तन्त्र के माध्यम से समझाया गया।
आचार्य: इसीलिए उन्हें तन्त्र के माध्यम से समझाया गया। इसीलिए तो तन्त्र में फिर माँस का, मदिरा का, मैथुन का भी इस्तेमाल किया गया। क्योंकि तन्त्र था ही उन लोगों के लिए जो देह भाव में ही ज़्यादा जीवन बिताते थे। तो उनको फिर प्रतीक भी बनाकर दिखाया गया वो देह का ही बनाकर दिखाया गया। एक चक्र देह में यहाँ होता है, एक यहाँ होता है, एक यहाँ होता है तो इस तरीक़े से प्रतीक बनाकर दिखाये गए।
अब जो प्रतीक विकसित किये गये थे बिना पढ़े-लिखे लोगों के लिए, उन प्रतीकों में आज पढे़-लिखे लोग भी फँसे हुए हैं। और उनको लग रहा है कि वास्तव में पेट में कुछ हो रहा है, चक्र सक्रिय हो रहा है।
प्र२: सबसे उच्चतम साधना जो है वो बातों वाली है, ज्ञान की।
आचार्य: वो तो है ही क्योंकि तुम्हें बातें ही तो परेशान कर रही हैं। सो जाते हो तो परेशान रहते हो क्या? तो तुम्हारी सारी परेशानी क्या है? बातें, जगते हो जैसे ही वैसे ही दिमाग में बातें सक्रिय हो जाती हैं। सारी परेशानी बातों माने विचारों की ही तो है। बात माने विचार, तो उच्चतम साधना, ऐसे कह लो कि सबसे सीधी, सबसे डायरेक्ट साधना तो यही है कि बात समझो, बात सुनो, काम हो गया।
देखो कौनसी विधि सबसे बढ़िया उपयुक्त है। ये जानने के लिए तुम्हें बार-बार पूछना पड़ेगा कि समस्या क्या है।
समस्या है मन की अशान्ति और मन की अशान्ति का ही नाम है विचार। मन में विचारों की जो उहापोह, कोलाहल चलता रहता है वही तो समस्या है।
तो जब विचार माने बात ही समस्या है, हर विचार कुछ कह रहा है माने हर विचार एक बात है, जब विचार ही समस्या है तो सबसे अच्छी विधि बात ही है। हाँ, जिन पर बात नहीं चलती या जो बात समझने के क़ाबिल ही नहीं होते उनको फिर बच्चों की तरह दूसरे प्रतीक बनाकर समझाये जाते है। वो प्रतीक भी वास्तव में तुम्हें बात ही बता रहे है।
लेकिन जब कोई चीज़ पुरानी पड़ जाती है, कोई प्रतीक, कोई उदाहरण बहुत पुराना पड़ जाता है तो फिर उसका दुरूपयोग होना शुरू हो जाता है। दुरूपयोग भी होना शुरू हो जाता है और लोग उसके बारें में भ्रमित भी हो जाते हैं। लोग सोचने लगते हैं कि वास्तव में चक्र होते हैं, वास्तव में कोई शक्ति ऊपर को बढ़ती है, वास्तव में यहाँ रीढ़ की हड्डी का इस्तेमाल करके कोई शक्ति ऊपर को बढ़ेगी। नहीं, ऐसा कुछ नहीं है आपकी रीढ़ में खुजली हो रही है। तो वो पूरी शारीरिक बात है, उसकी चेतना के उर्ध्वगमन से कोई सम्बन्ध नहीं है।
प्र२: आख़िरी सवाल आचार्य जी, जो यहाँ पर ये तर्क आ सकता है और आता ही है कि अगर मन में अत्यधिक विचार आ रहे हैं या फिर आप भयभीत, चिन्तित हो रहे हैं या आपको एंग्ज़ाइटी हो रही है तो इसका सम्बन्ध सीधे शरीर से भी है तो अगर आप शरीर का ध्यान रख लें या फिर कुछ क्रियाएँ कर लें तो उससे आपके विचार आने भी रुक सकते हैं।
आचार्य: हाँ, बिलकुल कर सकते हो। शरीर का ध्यान रखों पर भूलों मत कि शरीर का ध्यान मन की सफ़ाई के लिए रख रहे हो। ये न हो जाए, शरीर का ध्यान रख रहे हो, शरीर को पोषण दे रहे हो, शरीर की सफ़ाई कर रहे हो और मन की हुई ही नहीं।
मैंने साफ़-साफ़ कहा, हर चीज़, हर क्रिया, हर गतिविधि, हर कर्म अपनेआप में ध्यान की विधि है और हो सकता है अगर सही नियत से उसका इस्तेमाल किया जाए तो। अगर शरीर की सफ़ाई इसलिए कर रहे हो ताकि मन साफ़ रहे तो बहुत अच्छी बात है। नहीं तो फिर वहीं हालत होगी कि "मीन सदा जल में रहे” और “धोये बास न जाए।"
नहाए धोए क्या हुआ, जो मन मेल ना जाए। मीन सदा जल में रहै, धोये बास न जाय। ~ कबीर साहब
बिलकुल नहाओ, जो करना है करो लेकिन जो भी करो याद रखो कि वास्तव में वो किसलिए कर रहे हो। वो इसलिए कर रहे हो ताकि मन साफ़ रहे, मन पर बोझ न रहे। अगर ये उद्देश्य याद है तो फिर जो कुछ भी करोगे सही चुनाव करके करोगे और उसका परिणाम भी सही होगा।