प्रश्नकर्ता: तो इस बार महाकुंभ लगने वाला है। बहुत तैयारियां चल रही हैं। तो हमने भी ठान लिया है कि इस बार लोगों को पकड़ पकड़ के सही धर्म बताएंगे। महाकुंभ का सही अर्थ बताएंगे। तो यह मेरा पूरे प्रयागराज टीम की तरफ से सवाल है कि सर एक बार आप और बेहतर तरीके से उसका वेदांतिक अर्थ बताएं ताकि लोगों को वहां और सही तरह से हम सब पूरा बता सके, समझा सके।
आचार्य प्रशांत: दो तीन जगह आता है पुराणों में कुंभ का। तो कहानियां भी दो-तीन अलग-अलग है। पर सब कहानियों में एक साझी बात है कि चार जगह बूंदे गिरी थी। जो सबसे प्रचलित कहानी है वो ले लेते हैं।
तो सबसे प्रचलित कहानी यह है कि देवता हैं, दानव हैं। लेकिन दोनों में जितने भी भेद हो, द्वेष हो उसके बाद भी एक साझी कामना है कि किसी तरह मरने से बच जाएं। किसी तरह मरने से बच जाएं।
ये देवता और दानव कौन है? ये दोनों अहंकार के रूप हैं। देवता भी अहंकार है। दानव भी अहंकार है। अहंकार मरने से बचना चाहता है। मुर्दे की जान खतरे में। तो अंतर बस यह है कि आप देवताओं को कह सकते हो कि वो आत्ममुखी अहंकार है। जो सत्य से दूरी तो बना के रखता है लेकिन मुख उसका सत्य की ओर ही रहता है। तो कम से कम जब पीटा जाता है तो भाग के जाता है फिर। कहते हैं ना कि फिर सारे देवता भाग करके महादेव की शरण में गए। तो कम से कम जब पिटता है तो उसको थोड़ी बुद्धि आ जाती है। मुख उसका सत्य की ओर है। लेकिन वो स्वयं सत्य नहीं है। सत्य से दूरी बना के रखता है। तो देवताओं में जितने तरीके के दुर्गुण हो सकते हैं वो भी आप पाते हो। छल कपट देवता भी करते हैं। लोभ देवताओं में भी होता है, डर देवताओं में भी होता है। चोरी चकारी भी कर ले आते हैं देवता। वासना संबंधित भी उनकी बड़ी कहानियां हैं। तो ये सब देवताओं में भी होती है।
और दानव भी अहंकार है पर दानव आप कह लो कि वो माया मुखी अहंकार है या असतमुखी अहंकार है। तो दानवों की जब पिटाई होती है तो हमें बहुत बार नहीं पढ़ने को मिलता है कि दानव जा रहे हैं, सीधे महादेव के पास या भगवान विष्णु के पास नहीं जा रहे। ऐसा नहीं होगा। उनके गुरु भी अलग हैं। दानवों के गुरु का क्या नाम है? शुक्राचार्य। तो उनके गुरु भी अलग हैं। असुराचार्य। शुक्राचार्य। ये अच्छा नाम मिला। वैसे अभी करूंगा इस्तेमाल। उस नाम से मेरे बारे में नहीं आपके बारे में पता चलता है।
तो वैसे तो इनमें मार-पिटाई चलती रहती थी पर इस एक मुद्दे पर इनमें समझौता हो जाता है। कहते हैं अब हम कोऑपरेशन करेंगे सहकारिता।
मुद्दा है कि किसी तरीके से अमर हो जाए। तो ये अमर होने के लिए जाते हैं और विष्णु इनको बताते हैं कि ये जो पूरा सागर है, समुद्र है, इसमें नीचे है कहीं पर अमृत।
तो इससे क्या अर्थ है? थल छोटा है और जो जलमग्न क्षेत्र है वह बड़ा है। देवों ने दानवों ने दोनों ने थल की माने जमीन की तो सारी चीज़ें भोग डाली थी पर उसके बाद भी उनमें लालच भी बना हुआ था। मौत का डर भी बना हुआ था। तो जो ज़्यादा बड़ा क्षेत्र है वो बाहर का नहीं है जिसको देवता दानव दोनों भोग चुके थे वो भीतर का है। तो जिस सागर के मंथन की अब यह शुरुआत करेंगे वह सागर भीतरी सागर है। वही भवसागर है।
माने बात यह है कि देवों-दानवों, तुमने दुनिया में जो कुछ भी हासिल करा जा सकता था रुपया, पैसा, ताकत, पद, प्रतिष्ठा, स्त्री, पुरुष; सब तुमने हासिल कर लिया। पर उससे तुम्हें कोई संतुष्टि तो मिली नहीं है। तो भगवान कहते हैं दोनों से कि अब दोनों मिलकर के आत्म मंथन शुरू करो। तो जो समुद्र मंथन है वास्तव में आत्म मंथन है। और आत्म मंथन ज़्यादा मुश्किल है बाहर किसी खोज से।
ठीक वैसे जैसे पृथ्वी पर तीस प्रतिशत क्या है? थल। और सत्तर प्रतिशत क्या है? और एवरेस्ट की ऊंचाई है नौ किलोमीटर (कि.मी.) लेकिन समुद्र में जो सबसे गहरा बिंदु है उसकी गहराई है ग्यारह किलोमीटर। थल का एक-एक क्षेत्र, एक-एक बिंदु हमने अब नाप लिया है। कार्टोलॉजी से, सेटेलाइट से, नक्शे पर उतार लिया है। लेकिन आपको पता है हम अभी भी यह नहीं जानते हैं, जो हमारी जो ओशियन बेड मैपिंग है वो अभी भी पूरी नहीं हुई है। हम नहीं जानते हैं समुद्रों का पूरा नक्शा बिल्कुल हमें नहीं पता है।
एम.एच थ्री सेवेंटी (३७०) याद है, क्या था? मलेशियन एयरलाइंस वो उड़ा था मलेशिया से और फिर वो गायब हो गया। वो आज तक मिला नहीं है। अब आठ-दस साल होने को आए हैं। जमीन पर गिरा होता तो पक्का मिल जाता। समुद्र में गिरा, मिला नहीं क्योंकि हमारे पास आज भी समुद्र का पूरा-पूरा नक्शा ही नहीं है। हम चांद पर पहुंच गए, मंगल पर पहुंच गए। लेकिन हमारे पास अपने समुद्रों की पूरी जानकारी नहीं है। जिसकी जानकारी ना हो उसको समुद्र बोलते हैं।
आशय यह है कि देवताओं दानवों तुम दोनों दुनिया को जानते हो। दुनिया पर राज़ करते हो। स्वयं को नहीं जानते। यह जो भीतर वाली चीज़ है इसको तुम नहीं जानते। अमृत यहीं मिलेगा। मंथन शुरू करो। समझ में आ रही है बात? समुद्र किसका द्वेतक है? मन का। अहम् के पूरे क्षेत्र का। तो वो छोटा-सा दिखता है। लगता है दुनिया तो इतनी बड़ी है। पर आमतौर पे हम इससे इंगित करते हैं कि ये तो इतना छोटा है। दुनिया इतनी बड़ी है। नहीं। ये दुनिया से कहीं ज़्यादा बड़ा है। पूरी दुनिया छान मारना आसान है। इसको जानना मुश्किल है। इसके अलावा पूरी दुनिया तुम छान भी लो तो भी अमरता नहीं मिलती। अमरता तो इसको छानने पे ही मिलेगी और इसको छानना कहीं ज़्यादा मुश्किल है। तो समुद्र मंथन से यह आशय है। समझ में आ रही है बात यह?
अब यह काम इन दोनों ने पहले कभी नहीं करा था। नहीं तो जितने तरीके के लोक हैं और यह है और वो हैं ये सब तो कभी देवता जीतते रहते थे, कभी दानव जीतते रहते थे। इनके और काम क्या था? एक के बाद इनकी हजारों कथाएं हैं। फलाना दानव है। उसने ये कर लिया, वो कर लिया। सब कुछ ही जो दृष्टव्य जगत में हो सकता है। वो तो यह भोग चुके थे। और भोगने के बाद भी कैसे थे? हिले हुए बिल्कुल, डरे हुए। तो इनको कहा आत्म मंथन शुरू करो।
अब आगे जितना होगा आत्म मंथन में, वो सब भीतरी घटनाओं के प्रतीक है। तो मंदर, मंदराचल पर्वत उसको क्या बनाया? मथनी। और सांपों के राजा वासुकी उनको क्या बनाया? रस्सी और सागर में डाला कि इसको धोएंगे तो कुछ निकलेगा। अब ये इसको तथ्य की तरह नहीं लेना है कि पहाड़ डाला था और बहुत बड़ा सांप था जिसके मुंह को दानवों ने पकड़ा था। पूँछ को देवों ने पकड़ा था और खींच रहे थे और इस तरीके से चर्निंग हो रही थी, मथा जा रहा था। मतलब समझो।
कि भीतर अपने जाकर के है क्या, उसको देखना इतना कठिन काम होता है कि एक बड़ा पहाड़ चाहिए और सबसे बड़ा सांप चाहिए माने सबसे बड़ी रस्सी चाहिए। बड़ा कठिन काम है भीतर जाना अपने। बाहर तो कोई भी अपना घूम लेता है एरागेरा, भीतर देखना कि चल क्या रहा है- आत्म अवलोकन वो सबसे मुश्किल है।
उन्होंने यह सब शुरू करा अपना और कहते हैं कि वह रस्सी में फिसल के ना गिर जाए पर्वत तो विष्णु भगवान नीचे कछुआ बन के बैठे। यह फिसल के गिरे तो मैं नीचे से रोके रहूंगा। माने यह कि जो सबसे बड़ी ताकत है, उसका सहारा लेना पड़ता है। तब यह आंतरिक प्रक्रिया पूरी होती है। जो वो अपना कच्छप रूप धर के बैठे हैं पर्वत को अपनी पीठ पर टिका के उसका मतलब क्या है? कि जो उच्चतम है अगर उसका सहारा नहीं है, अगर उसके प्रति निष्ठा और समर्पण नहीं है तो आत्म अवलोकन, आत्मज्ञान कभी नहीं हो पाएगा। माने क्या?
सीधे वेदांत की भाषा में सत्य के प्रति प्रेम होना चाहिए और नीति की भाषा में सत्य के अलावा किसी से प्रेम नहीं होना चाहिए। तो जब बाकी सारे सहारे ठुकरा देते हो तब वो सहारा अपने आप उपलब्ध हो जाता है जिससे फिर अमृत उपलब्ध होता है। जिसने बाकी सारे सहारे पकड़ रखे हैं वो सहारे ही मृत्यु हैं। उसको अमृत कैसे मिलेगा? जिन्हें अमृत चाहिए हो वो सबसे पहले सहारों को छोड़े क्योंकि सहारे ही तो मृत्यु है। तुमने जिसको पकड़ रखा है वो खुद मरण धर्म है। तो उसके भरोसे तुम कैसे तर जाओगे?
तो इन्होंने अपना मंथन शुरू करा। जोर लगा के। शुरुआत में ही दिक्कत आ गई। क्या दिक्कत आ गई? क्या निकल पड़ा? तो माने जब आप अपनी भीतरी प्रक्रिया शुरू करते हो तो सबसे ज़्यादा खतरा एकदम शुरुआत में ही होता है। सबसे पहले ही क्या निकल पड़ा? हलाहल। हलाहल बिल्कुल निकल पड़ा। अब वो ऐसा गर्म था, दहक रहा था और उसमें से ऐसी धुआ फ्यूम्स निकल रहे थे कि लगे कि पूरा जगत जो है वह जल जाएगा।
इससे तो हुए सब बड़े परेशान और विष्णु कहां बैठे हुए हैं वो तो सागर के नीचे बैठे हैं। तो ये सब ले भागे किसके पास? महादेव के पास भागे। बोले वो निकाल लिया हमने मंथन करके जहर, और वो पूरी दुनिया जलाई दे रहा है क्या करें? महादेव ने कहा होगा मुझसे पूछ के कर रहे थे यह सब? पर वो नहीं पूछेंगे। बोले लाओ। अब तुम पूरी सृष्टि ही खत्म कर दो तो यह तो मेरे अधिकारों का उल्लंघन होगा। सृष्टि को खत्म करने का काम तो मेरा है। तुम बच्चों को मैं इजाजत नहीं दूंगा यह करने की। जब करेंगे हम करेंगे। बोले ले आओ। तो गटक गए और वह सारा जो था यहां (गले की ओर इशारा करते हुए) उनके बैठ गया। तो फिर उनको बोला नीलकंठ।
माने हम वह हैं जो विष को धारण कर सकते हैं। बिना विष को यह अनुमति दिए कि वो हमारे केंद्र को, हमारे प्राण को स्पर्श कर ले। यह शिवत्व है। हम घबराते नहीं है जहर से। जहर से वह घबराता है जिसको मरने का खौफ होता है। हम तो आगे बढ़-बढ़ के जहर पीते हैं। यह शिवत्व है। समझ में आ रही है बात?
गंदगी। हम गंदगी से पीछे नहीं हटते। दुनिया जिस गंदगी से डर जाती है, हम कहते हैं लाओ हम धारण करेंगे। हम धारण करेंगे। क्योंकि तुम डरते हो क्योंकि तुम गंदे हो जाओगे। तुम गंदे हो जाओगे क्योंकि तुम गंदे हो। हम डरते इसलिए नहीं क्योंकि हम कितनी भी गंदगी में उतर जाए हम गंदे हो नहीं सकते। हम शिव हैं। तो इसलिए हम बेखौफ होकर गंदगी में उतरते हैं। अर्थ समझ में आ रहा है?
अहंकार पर प्रभाव पड़ते हैं ना, आत्मा पर तो नहीं पड़ते ना। तो संगति का ख्याल किसको करना पड़ता है? अहंकार को। जो आत्मस्थ है वह तो जान-बूझकर के कुसंगति चुनता है। किसलिए? सफाई करने के लिए। बोले लाओ, लाओ सारा ज़हर हमें दो। तो इनकी जान बची है भागे।
अब शुरू में ही ज़हर निकल पड़ा इसका क्या अर्थ है? इसका अर्थ यह है कि जब भी आप कोई आध्यात्मिक प्रक्रिया शुरू करते हो तो सबसे ज़्यादा खतरा शुरुआत में ही होता है। सबसे तगड़ा ज़हर एकदम शुरू में ही मिल जाएगा।
मैं उदाहरण देता हूं। जो लोग गीता समागम छोड़ छोड़ के भागते हैं, उसमें से नब्बे प्रतिशत वह होते हैं जिनका पहला या दूसरा महीना होता है। जिनका पहला, दूसरा महीना चल रहा है या अधिक से अधिक तीसरा वो सबसे ज़्यादा खतरे में होते हैं। वही भागते हैं। बहुत तगड़ा रिकॉइल आता है। बहुत ज़बरदस्त। जिसने उसको झेल लिया उसके लिए अब खतरा बहुत कम हो जाता है। पर जिसको मरना है, गिरना है, टूटना है, वह आरंभ में ही टूट जाएगा। सबसे संभावना इसी की है। यह है आरंभ में ही हलाहल के प्रकट होने से तात्पर्य।
तुम्हारे भीतर कोई बैठा है जो जानता है कि कोई खतरनाक चीज शुरू हो रही है। वो कहता है इसको शुरू होने ही मत दो। इसको शुरुआत में ही रोक दो। तो शुरू के जो महीने होते हैं वह सबसे खतरनाक, सबसे संवेदनशील होते हैं। अगर शुरू के महीनों में बच गए तो बच गए। जो गिरेगा वह शुरू में ही गिर जाएगा। और जो टिक गया छह महीने, आठ महीने, साल भर; अब उसको लात भी मारोगे तो वापस आएगा। मैंने जाना ही नहीं। जाना ही नहीं। समझ में आ रही है बात?
वो तब भी हो रहा था। वो आज भी हो रहा है। क्या करें? आत्म मंथन शुरू करोगे और शुरू में ही फनफनाता उबलता ज़हर मिलेगा और ज़हर डरा देगा। कहोगे हमें ये करना ही नहीं है। देखो, इसमें तो शुरू में ही ज़हर मिला। शुरू में ज़हर मिल रहा है। आगे पता नहीं क्या मिलेगा। मौत ही आएगी सीधे। रोक दो रोक दो रोक दो। रुक मत जाना। वो आरंभिक बाधा पार कर लोगे तो आगे बहुत मौज आती है। क्या मौज आई आगे? अरे बाप रे बाप। क्या-क्या मिला? एरावत हाथी आ गया। लक्ष्मी वगैरह, देवियां आ गईं, अप्सराएं आ गईं, कामधेनु आ गई, कल्पवृक्ष आ गया। तरीके के रत्न मोती ये सब आ गए। वो धनवंतरी वैद्य आ गए और वो कौन है भाई आर्किटेक्ट; क्या नाम है उनका? विश्वकर्मा।
देव शिल्पी विश्वकर्मा आ गए। ये सब एक के बाद एक निकल के आ रहे हैं। गुडीज। ये अभी दो ही चार; और भी होंगे। हां, उच्चैःश्रवा घोड़ा था बहुत मस्त, वो निकल पड़ा। क्या क्या नहीं निकल रहा है? चौदह एरावत हाथी। इस तरह के चौदह प्रकार कि वहां से विभूतियां प्रकट हो रही हैं। अब इससे क्या आशय है?
देखो, माया बैठी है भीतर। जब आत्म मंथन शुरू करते हो तो पहले वो रोकती है डरा के। तो क्या दिया उसने शुरू में ही? ज़हर। उसके बाद वो रोकती है लुभा के। तो अब उसने बढ़िया-बढ़िया चीज़ें दी, अप्सरा दे दी, गाय दे दी, घोड़ा दे दिया, पैसा दे दिया। अरे, इसपे रुक जाओ ना। इसपे रुक जाओ। आगे मत बढ़ो। इसपे रुक जाओ। मिल तो गई बढ़िया चीजें। आगे क्या जाना है? अमृत का क्या करोगे? अमृत माने आत्मा। “मृत्योर मा अमृतं गमय”। इसमें जो अमृत है। अमृत माने आत्मा। वही अमृत होती है। और तो कोई अमृत होता नहीं।
तो माया रोकती है आत्म अनुसंधान की प्रक्रिया में पहले डरा के। और जो तेज तर्रार निकले, डरे नहीं या कोई उपाय कर ले या जिसको महादेव जैसा कोई मिल जाए कि लाओ ज़हर तुम्हारा है पर धारण हम कर लेंगे, पी लेंगे। कोई ऐसा मिल जाए किसी वजह से कोई अगर बच जाए डर से तो फिर माया उसको रोकती है लुभा के। तो ये सब चीज़ें निकल रही हैं और बढ़िया मजेदार चीज़ें निकल रही है। अच्छा है, देव भी खुश हैं दानव भी खुश हैं।
अंत में यह कुंभ निकलता है। कुंभ माने पात्र, घड़ा, बर्तन यह निकलता है। अब यही असली चीज़ थी। ये निकल पड़ा। तो अब मची मार, जूतम-पैजार। हैं तो दोनों अहंकार के ही। देवता और दानव। दोनों में सारी वृत्तियां मौजूद हैं। इंद्र ने अपने बेटे जयंत को इशारा करा, ‘बेटा तू ले निकल ले इसको।’ सब ताली पीट रहे हैं अभी, मिशन सक्सेसफुल। वो लेके निकल गए और निकल लिया तो देव दानवों ने देख लिया कि ये बेईमानी शुरू।
उन्होंने उसका पीछा किया उसको धर दबोचा। उसको धर दबोचा तो जो देवराज इंद्र का बेटा था तो सारे देव आ गए उसके पक्ष में खड़े हो गए और लगे लड़ने। बारह दिन तक इनकी लड़ाई चल रही है। इसी बारह दिन पे वैसे कहते हैं कि कुंभ चार नहीं होते, बारह होते हैं। कहते, चार यहां पृथ्वी लोक पे होते हैं, आठ ऊपर होते हैं। कहते बारह दिन लड़ाई चली। और देवताओं का एक दिन मनुष्यों का एक वर्ष बराबर होता है। तो बारह कुंभ होते हैं तुम्हें चार ही मिलते हैं। बाकी आठ उधर हैं। वीआईपी। तो अभी लड़ाई चल रही है। अब लड़ाई जहां होती थी वहां आमतौर पे दानव ही भारी पड़ते थे। देवता लगे पिटने फिर से कभी देवी ही बचाने आए, कभी कोई बचाने आए। इनका तो यही रहता है तो अब तक भगवान विष्णु भी थोड़ा फ्री हो गए थे, मुक्त हो गए थे। अभी तक तो क्या बने हुए थे? कछुआ।
अब तो माल बाहर आ गया तो वो भी बाहर आए और देखा यह फिर पिट रहे हैं, देवता। तो बोले हद है फिर कछुए से वह बने मोहिनी। सब मिलकर के बेचारे दानवों के साथ बेईमानी हुई है उनके साथ बेचारों के। तो मोहिनी बनके उनको लुभा लिया। लगे नाचने। वो नाचने लग गए तो सब जितने असुर थे वो भी नाचने लग गए और इतने में उन्होंने वो जो कुंभ था इधर सरका दिया कि तुम झटके से पी लो। जितनी देर में मैं इनको नचा रहा हूं। तो एक था उनमें से। क्या नाम था उसका? वही ग्रहण वाला अपना। तो उसने देख लिया। यह तो धोखा हो गया। तो उसने कहा कि तुम मोहिनी बन सकते हो तो मैं देवता बन सकता हूं। तो देवता बन के गया। और अमृत पी लूंगा। इन सबके अर्थ समझना।
जो वेदांत में दीक्षित है उसको एक-एक बात का दिखाई देगा कि क्या मतलब है।
तो वो बोला कि मैं पी लूंगा। तो उसने उठा लिया और पी भी लिया और भगा कि बाकी असुरों को भी पिलाऊंगा। उतने में देवताओं ने उसका पीछा किया। उधर से दानव भी उसका पीछा कर रहे थे। दोनों मिलके उसका पीछा कर रहे हैं। तो बेचारा बड़ा घबराया। जब इतना घबराया तो उसके हाथ कांपने लगे। तो उड़ रहा था अपना आकाश मार्ग से तो कहते हैं बूंदे इधर-उधर गिर गई। चार जगह पे नदी किनारे फिर कुंभ मनाया जाता है। फिर वो पकड़ भी लिया गया। पर तब तक वो क्या हो गया था? अमर हो गया था।
वो पकड़ लिया गया, काट दिया गया। और जब वो यह सब चुरा रहा था तब वहां पर सूर्य और चंद्र ने जाकर उस पे रोशनी मारी थी। टॉर्च मार के पकड़ा था ना चोर, वैसे। जब उसको काट दिया तो बोला कि तुमने मुझे जैसे काटा ऐसे तुम्हें भी काटूंगा। तो फिर वो ग्रहण करता है। सूर्य ग्रहण और चंद्र ग्रहण करता है। तुम ही ने पकड़वाया था। तो साल के एक दिन मैं तुमको खा जाऊंगा। ये कहानी, ये है कुल इसकी कथा। मतलब आशय क्या है?
अमृत केंद्र में है इस कहानी के। अमृत केंद्र में है। और अमृत कहां से मिलना है? आत्म मंथन से। जो जितना स्वयं को जानता जाएगा उतना वो स्वयं से माने मृत्यु से मुक्त होता जाएगा। हम जो बने बैठे हैं वही मृत्यु है। जो आप अपने आप को समझते हो ना उसी का नाम मौत है। और जितना आप खुद को देखते जाते हो उतना समझ में आता जाता है कि मैं अपने आप को जो मानता हूं वो सब व्यर्थ है। मैं वो हूं ही नहीं।
“नकार नेति”। अमृत माने कुछ पाना नहीं। अमृत माने मृत्यु से मुक्त होना। यही अमृतत्व है। मृत्यु से मुक्त होना। जो विष पर रुक गया, वह भी मृत्यु से मुक्त नहीं हो पाएगा। और जो रत्नों पर और कामधेनु और कल्पवृक्ष पर रुक गया वो भी मृत्यु से मुक्त नहीं हो पाएगा। जो अपनी किसी भी झूठी पहचान और उससे उठती कामना पर रुक गया वो मौत में ही फंसा रहेगा। यह है कुंभ की कहानी का मर्म।
जो तुम हो और जो तुम्हारी कामनाएं हैं वही मौत है। हालांकि कामना आपकी ये होती है कि कभी मरे नहीं पर आप जो बने बैठे हो वो स्वयं मृत्यु है। इसीलिए वो बचने के लिए कई तरीके के प्रयास करती है। जिन भी चीज़ों से आप अपने आप को जोड़ते हो, जिस भी विषय की आपको कामना होती है, वह सब वही हैं जो लगातार बदलते हैं। पहली बात।
दूसरी बात जैसे दिखते हैं वैसे होते नहीं है। यही मौत है। मौत माने जो अभी है वह कल नहीं होगा। और हम जिन भी विषयों के साथ संयुक्त होते हैं वो सारे वही होते हैं। तो जैसा अभी दिख रहा है वैसा कल तो नहीं होगा। वैसा तो वो आज भी नहीं है। यही मौत है। तो अपने अज्ञान को काटना ही है अमृत। स्वयं के और दुनिया के विषय में जो कुछ भी मान्यता रखी हुई है, उन सब मान्यताओं को काटना ही है अमृत का अनुसंधान। और यह अनुसंधान सिर्फ तभी हो सकता है जब स्वयं से ज़्यादा सत्य के प्रति निष्ठा और प्रेम हो।
देवता और दानव में अंतर बस यही है कि देवता सत्य की सुन लेते हैं। अपने से ज़्यादा वह महादेव की सुन लेते हैं। तो इसलिए वो देव है। नहीं तो एक ही मां के दो बेटे हैं वो। यह सब पता है ना? एक ही मां के दो बेटे हैं। एक देव एक दानव। स्पष्ट हो रही है बात ये।
कहानी के सब हिस्से वो नहीं है कि जिनका कोई बहुत सारगर्भित अर्थ आपको बताया जा सके। अब आप पूछो चार ही बूंद क्यों है? छह क्यों नहीं है? तो इसका कुछ मतलब नहीं है। अब चार माने चार। ऐसे ही किसी के मन में आया चार बोल दिया। अब उसमें ये मत करना कि चार माने होता है तुरीय। ज़बरदस्ती का मत खींचना। बात में जहां तक मर्म था उतना बता दिया। बाकी सब ऐसे ही होता है। कहा है ना, कई बार हर चीज़ में कुछ होता है जो काल सापेक्ष होता है और कुछ होता है जो काल निरपेक्ष होता है। अब पूछो इतने सारे पर्वत हैं, मंदराचल को ही काहे पकड़ा? और भी तो हो सकते थे। कुछ और क्यों नहीं कर लिया? इसका कोई जवाब नहीं है। यह सब काल सापेक्ष बातें हैं। यह सब बस कॉन्टेक्स्चुअल बातें हैं। जिनका कोई कालातीत अर्थ या मर्म नहीं है।
जिस चीज़ का कालातीत महत्व है, वह है अमृत। और यह कि अमृत आता है ज़हर के बाद, अमृत आता है प्रलोभन के बाद। जो डर जाएगा…अच्छा। जो डर गया सो मर गया। देखो, पुराण बोल रहे हैं।
श्रोतागण: (हँसते हैं।)
आचार्य प्रशांत: गब्बर यूँही खुश हो रहा था।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आपने अभी वेदांतिक अर्थ बताया है तो बहुत सुनती हूं कि परिवार में बचपन से सुनती आई हूं कि गंगा जी में जाएंगे और पाप धुल जाएंगे तो अभी तो इसका सारा कांसेप्ट तो खत्म हो गया है।
आचार्य प्रशांत: गंगा जी अंदर है।
प्रश्नकर्ता: जी
आचार्य प्रशांत: वो जो बार-बार संतों ने गाया है ना, नदियों के गीत कितने हैं बताओ? वो जो भीतर की नदी है जिसको पार करके पिया मिलन होता है वो है गंगा जी। बाहर डुबकी मारने से नहीं होता। भीतर जो भवधार बह रही है उसको काटना होता है। तो चाहे वो सागर मंथन हो और चाहे वो गंगा स्नान हो। इन दोनों का अर्थ विशुद्ध आंतरिक है। आप चले जाओ कहीं गुजरात, गोवा, केरल और ज़बरदस्त बड़ी मथनी लेकर के और वहां मथना शुरू कर दो तो अमृत निकल आएगा। बाहर जैसे मंथन करके समुद्र को अमृत नहीं निकल सकता, उसी तरीके से किसी भी नदी में डुबकी मार के पाप नहीं धुल सकता। आ रही है बात समझ में?
(माथे की ओर इशारा करते हुए) यहां, वो भवसागर यहां है। यहां।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। जैसे एक राक्षस ने अमृत पी लिया था तो वैसे ही हमारे भीतर कुछ है अहंकार जिसने अमृत पी रखा है। ऐसा कुछ इस का आशय है क्योंकि सारी कहानी हमसे ही संबंधित है।
आचार्य प्रशांत: जोड़ लो जोड़ना है तो मतलब किसी और दिन किसी और मूड में, शायद मैं भी जोड़ दूं। पर मुझे नहीं लगता उसका कोई बहुत महत्व है सोचना।
प्रश्नकर्ता: कि जैसे आपने बताया था….
आचार्य प्रशांत: वो सारी बात कि सब देवता दानव मिलके उसका पीछा कर रहे हैं और चार बूंदे गिर रही हैं चार जगहों पर। फिर राहु केतु ग्रहण… खींचतान के इसका भी अर्थ कुछ बनाया जा सकता है पर जो केंद्रीय मुद्दा है वो पकड़ के रखना चाहिए। बाकी कहानी में बहुत सारी बातें; कहानी पूरी भी तो करनी है ना।
कहानी भी तो पूरी करनी है। तो बहुत सारी बातें उसमें। बाकी मन है, वेदांत तो लगा दो कहीं भी लगा दो। उसमें क्या है?
वो आपके हाथ में माइक थोड़े ही है। (श्रोतागण हँसते हैं।)
वो साधन है। और ये जो तीन इधर तीन उधर बैठे हैं षड्रिपु हैं। खींचने को तो कितना भी खींच दो। है ना? उसमें कुछ गलती नहीं हो जाएगी बल्कि अच्छा ही होगा। अगर आपको हर जगह कहानी के हर हिस्से में वेदांत दिख रहा है तो शुभ बात ही है। उसमें कुछ गलत नहीं होगा।
प्रश्नकर्ता: इससे ये अर्थ निकाला जा सकता है या…
आचार्य प्रशांत: हां निकालो निकालो। मैं तो चाहता हूं हर चीज़ में निकालो। चश्मा दिखे, चम्मच दिखे। हर चीज़ में उसका कहो कि प्रतीकात्मक है। सब कुछ प्रतीकात्मक बन जाए। बहुत अच्छी बात है। हर चीज़ इशारा करे। अहम, आत्मा, अहंकार, सत्य, प्रेम, निष्ठा; बहुत बढ़िया। क्या दिक्कत है?
प्रश्नकर्ता: धन्यवाद।
प्रश्नकर्ता: जो ये मेला लग रहा है जो इसमें पचास करोड़ पॉपुलेशन मतलब पार्टिसिपेट करने वाली है। तो जिस नदी के किनारे लग रहा है वो गंगा नदी है। तो एक एनजीटी की रिपोर्ट आई थी कि एट्टी फाइव परसेंट, पच्चासी प्रतिशत, जो जीव नदी में मतलब वाश करते हैं. वह मर चुके हैं। उन्नीस सौ सत्तर (१९७०) और दो हज़ार पंद्रह (२०१५) तक के बीच में। तो क्या यह देश सीख नहीं दे सकता है कि जो आध्यात्मिक देश रहा है कि सही माध्यम में नदी को कैसे सम्मान दिया जाए।
आचार्य प्रशांत: कौन करेगा? आप करिए ना। हो तो सब कुछ सकता है। आप करिए ना। कर तो मैं भी सकता हूं। पर मेरा सारा समय तो बस इसमें जाता है कि अभी जितनी गाड़ी चल रही है किसी कदर इतनी ही चलती रहे। कुंभ में ही जाकर के बैठने के लिए और वो मुझे लेकर के प्रोग्राम करेंगे कुंभ में यह सब है। इसके लिए टीवी चैनल से भी आया हुआ है न्योता, मैं नहीं जा सकता।
प्रश्नकर्ता: अभी एक एनजीटी की रिपोर्ट अभी अभी आई कि उसमें जो पानी गंगा का है वो नहाने के योग्य
आचार्य प्रशांत: मुझे क्यों बता रहे हैं? ये सबको पता है ये बताने से क्या होगा?
प्रश्नकर्ता: सर, फिर भी इतनी पापुलेशन क्यों जा रही है?
आचार्य प्रशांत: मैंने नहीं भेजा है। मुझसे क्यों पूछ रहे हो? आप मुझसे पूछ रहे हो कि लोग जाकर के नदी क्यों गंदी कर रहे हैं। मैं क्या बताऊं क्यों कर रहे हैं? आप मुझसे यह पूछो ना कि आचार्य जी, आप उन्हें रोक क्यों नहीं पा रहे हो? हां, मैं रोक सकता हूं। कैसे रोकूं? कैसे रोकूं? बताओ ना। कैसे रोकूं? जितने डर के साथ आप जी रहे हो, यह ना हो कि आपको किसी दिन अपने ऊपर यह इल्जाम भी देखना पड़े कि मौका था और अपने ही हाथों से आपने मौके का कत्ल कर दिया। एक तो होता है मौका गवाना और एक होता है मौके का गला घोट देना।
प्रश्नकर्ता: सर, एक जो पॉपुलेशन और ग्रोथ की बात थी तो एक व्यक्ति हैं जो प्रमुख हैं। उन्होंने कहा कि जो टू पॉइंट वन (२.१) फर्टिलिटी रेट जो डाउन हो रहा है तो वो इस हिंदुओं के लिए मतलब सही नहीं है।
आचार्य प्रशांत: यह मुझसे क्यों पूछ रहे हो आप? ये सब मैं नहीं समझ पा रहा हूं। मैं नहीं समझ पा रहा हूं। जिन्होंने बोला, क्यों बोला यह भी आप जानते हो। उन्होंने क्यों बोला वो भी जानते हैं। इसमें मैं क्या बता सकता हूं आपको?
हां, मैं वो सब कुछ शायद रोक सकता हूं, समझा सकता हूं। अगर मुझे समय मिले और संसाधन मिले। आप आकर के मेरे ही मुद्दों पर मेरे ही सामने आउटरेज करोगे तो उससे क्या हासिल हो जाएगा कि दो लोग एक दूसरे से कह रहे हैं, बहुत गलत हो रहा है। बहुत गलत हो रहा है। बहुत गलत हो रहा है। बहुत गलत हो रहा है। बहुत गलत हो रहा है। बहुत गलत हो रहा है। इससे क्या हासिल हो जाएगा?
जो मुद्दा आप मुझे बता रहे हो वो मुझे क्या बता रहे हो? वो मुद्दा तो मैंने ही आपको बताया हुआ है। नदी गंदी होती है तो मैंने ही बताया है आपको। धर्म के नाम पर मूर्खता होती है तो मैंने ही बताया आपको। आप मुझे क्यों बता रहे हो? आप मुझे यह बताओ ना कि आप साथ में मेरे खड़े होगे? यह बताओ ना। उसकी जगह मुझे बता रहे हो दुनिया बड़ी बुरी है। आपको तो दुनिया बुरी लगती भी नहीं। दुनिया बुरी है, ये भी मैंने ही आपको बताया है। मेरी बात ला के वापस मुझे सुनाने से क्या हासिल होगा? मैं आपको संबोधित कर रहा हूं। मैं यूनाइटेड नेशंस से क्यों नहीं संबोधित कर रहा हूं? क्यों नहीं कर रहा हूं? मैं पूछ रहा हूं। और एक से एक मूर्ख हैं जो वहां जाके खड़े हो जाते हैं। पार्लियामेंट को कर रहे हैं, ब्रिटिश पार्लियामेंट को कर रहे हैं, अमेरिकन संसद को कर रहे हैं। मैं क्यों नहीं कर रहा हूं? क्योंकि वो व्यक्ति को नहीं देखते। वो व्यक्ति के साथ वालों को देखते हैं। वो देखते हैं उसके साथ कैसे लोग खड़े हैं। उनकी कितनी ताकत है। और उनमें कितना दम है और कितनी निष्ठा है। और कितनी बेबाकी से वो आगे आकर कह रहे हैं कि हां, हम साथ हैं। यह बात मैं आपसे बोल रहा हूं तो इस पृथ्वी को ज़्यादा लाभ होगा या यह बात मैं संयुक्त राष्ट्र संघ में बोलता तो ज़्यादा लाभ होता। पर कैसे बोलूं, बताइए?