कुछ ज़रूरी परिभाषाएँ

Acharya Prashant

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कुछ ज़रूरी परिभाषाएँ
मन जिसकी तलाश में है उसको सत्य कहते हैं। चेतना एक पूरी दुनिया है जो अहंकार ने बसा ली है क्योंकि उसे वो नहीं मिल रही, एक चीज़ जो उसे चाहिए थी, उस एक चीज़ के अभाव में अहंकार पूरी दुनिया बसा लेता है। यहाँ तो सम्भावना तब भी, यहाँ तो कोशिश तब भी करी जाती है जब बता दिया जाए बिलकुल शून्य है सम्भावना। क्योंकि बात प्रेम की है। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता : आचार्य जी, एक बार मन और सत्य के बीच में थोड़ा सा और प्रकाश डाल दीजिए।

आचार्य प्रशांत: मन जिसकी तलाश में है उसको सत्य कहते हैं।

प्रश्नकर्ता: मन निकला तो सत्य से ही है, या सत्य का अभाव ही मन है।

आचार्य प्रशांत: मन सत्य से निकल आया है, तो अभी वो अभाव मानता है। मन अपनी नज़र में सच से दूर निकल आया है तो अपनी नज़र में वो अभाव में रहता है।

प्रश्नकर्ता: उसकी कोई सत्ता है?

आचार्य प्रशांत: आपकी सत्ता है? जैसे आपकी और मेरी सत्ता है वैसे ही मन की सत्ता है। हम सब मन ही तो हैं और क्या हैं हम? हर सवाल क्या है? सवाल माने अपूर्णता, सत्य पता ही हो तो सवाल आएगा क्या? तो सत्य का अभाव ही तो प्रश्न बनता है न। तो हर प्रश्न, क्या है फिर? मन ही तो है न।

प्रश्नकर्ता: मन की इतनी पॉवर आ गई कि सत्य से वो सत्ता ले गया।

आचार्य प्रशांत: वो मन की नहीं है वो सत्य की ही पॉवर है। मन में ऐसी कोई ताक़त नहीं होती है कि वो कुछ कर ले जाएगा। पूछेंगे कि शुरू कैसे हुआ? जब उसमें कुछ ताक़त नहीं है तो वो निकल कैसे भागा? तो फिर तो आप बिग बैंग पूछ रहें हैं। फिर मुझे पूछना पड़ेगा किसके लिए निकल भागा, किसको लग रहा है निकल भागा? हो सकता है, निकल ही न भागा हो।

जिसको लगता है निकल भागा बस उसी के लिए निकल भागा, उसको लिए क्यों निकल भागा? क्योंकि उसे लगता है। उसे क्यों लगता है? उसकी मर्ज़ी है। तो यही उत्तर है। क्यों निकल भागा? ये सत्य की मर्ज़ी है।

आप ऐसे पूछ रहे हो कि मन सच से क्यों निकल भागा जैसे कोई चूहा बिल से निकल भागा हो। चूहा बिल से निकल भागेगा अगर तो आपके लिए भी निकल गया, मेरे लिए भी निकल गया, इनके लिए भी निकल गया और इनके लिए भी निकल गया, सबके लिए निकल गया न।

चार लोग देख रहें हैं तो चारों लोग क्या गवाही देंगे? चूहा बिल से निकल भागा। लेकिन आप कह सकते हो मन सत्य से निकल भागा। ये आपकी मर्ज़ी है, आपका चुनाव है। और हो सकता है कि वो कहे मन सत्य से नहीं निकल भागा, मन तो सत्य में ही स्थापित है, ये उनका चुनाव है, तो उत्तर क्या मिला? मन सच से क्यों निकल भागा क्योंकि ये आपका चुनाव है भाई।

जिसने चुना उसका निकल भागा, जिसने नहीं चुना, उसका नहीं निकल भागा। कोई ऐसा भी हो सकता है कि जिसने चुना कि निकल भागे, तो निकल भागा। फिर चुना कि वापस आ जाए तो वापस भी आ गया। आपकी मर्ज़ी की बात है। आप जो चाहेंगे वो होगा, क्यों होगा आपके चाहने से? क्योंकि वो आप हो नहीं जो आप अपने आप को सोचते हो।

आप अपने आप को सोचते हो बहुत छोटा सा, आप हो बहुत ज़बर्दस्त, तो आपका चाहा हुआ हो जाता है। आप इतने ज़बरदस्त हो कि जब आपने चाहा कि आप निकल भागो तो आप निकल भागे। जब आपकी चाहत में ये दम है कि आपको वो निकाल सकती है, सच से दूर कर सकती है तो आपकी ही चाहत में ये दम क्यों नहीं हो सकता कि वो आपको वापस भी पहुँचा सकती है। सच ने आपको कोई देश निकाला तो दिया नहीं था। आप खुद ही उठकर भागे थे।

जिन पाँवों से उठकर भागे थे उन्ही पाँवों से वापस भी जा सकते हो, अपने चुनाव की बात है।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, चेतना और आत्मा में क्या अंतर है?

आचार्य प्रशांत: चेतना के केन्द्र पर अहम् होता है। चेतना उस दुनिया की तरह है जो तुमने बसा ली है क्योंकि तुम्हें तुम्हारा दोस्त नहीं मिल रहा। चेतना में क्या होता है? एक पूरी दुनिया। आपकी चेतना में इस वक्त क्या है? बहुत कुछ। अमेरिका में चुनाव हो रहें हैं, बिहार में भी हो रहें हैं, फ़लानी गाड़ी लॉंच हो रही है, फ़लानी किताब पढ़नी है, बच्चे की फीस जमा करानी है, घर में मरम्मत करानी है, दिवाली आ रही है, ये सब चेतना की सामग्री होती है न। तो चेतना एक पूरी दुनिया है जो अहंकार ने बसा ली है क्योंकि उसे वो नहीं मिल रही, एक चीज़ जो उसे चाहिए थी, उस एक चीज़ के अभाव में अहंकार पूरी दुनिया बसा लेता है।

चेतना के केन्द्र पर कौन बैठा है? अहम्। और चेतना उसकी पूरी दुनिया है। जो भी चीज़ वो जानता है, जो भी चीज़ उसके संज्ञान में है, जिस भी चीज़ का वो अनुभव कर सकता है, जिस भी चीज़ की वो स्मृति ले सकता है, जिस भी चीज़ को वो देख सकता है, छू सकता है वो सब उसकी चेतना के दायरे में आती हैं, ठीक है। तो अहम् के इर्द-गिर्द जो कुछ भी है, वो क्या है? वो उसकी चेतना का विस्तार। और अहम् को जो चाहिए उसको कहते हैं ‘आत्मा’।

और आत्मा उसको भी कहते हैं जो अहम् हो जाता है वो पाने के बाद जो उसे चाहिए। आत्मा को पाने के बाद अहम् भी आत्मा ही हो जाता है। तो अहम् को जो चाहिए उसे ‘आत्मा’ कहते हैं और अहम् को जो हो जाना है, अपनी चाहत के पूरा होने के बाद, उसे भी ‘आत्मा’ कहते हैं।

समझ में आ रही है बात?

चेतना का पूरा विस्तार हमारा है ही इसीलिए क्योंकि हम कुछ खोज रहें हैं। जो खोज रहें हैं वो मिल नहीं रहा, नहीं मिल रहा तो हम क्या करते हैं? हम कहते हैं, ‘विस्तार और बढ़ाओ, इतने में नहीं मिला तो क्या पता आगे मिल जाए।‘

हालत हमारी जानते हैं कैसी है? हम एक तारा खोज रहें हैं। एक तारा है जो ज़िन्दगी में मौजूद नहीं है, हम वो खोज रहे हैं और हम वो खोज कैसे रहें हैं? पहले हमने कहा कि यहाँ इसी कमरे में कहीं पर होगा, चलो खोजो-खोजो, तो हमारी चेतना का विस्तार कुल कितना हुआ, इस कमरे जितना। हम इसमें खोजबीन करते रहे। फिर इसमें मिला नहीं तो हमने कहा चलो पूरे मोहल्ले में खोजते हैं। तो हमने इस पूरे मोहल्ले में खोजा।

ये क्या था पहले एक, शुरुआत यहाँ से करी थी खोजने की, ये क्या था हमारा कमरा। इसमें खोजा, नहीं मिला। तो हमने विस्तार बढ़ा दिया विस्तार इतना कर दिया। अब ये क्या है पूरा हमारा? मोहल्ला। हम यहाँ भी खोज रहें हैं यहाँ भी नहीं मिला। हमने विस्तार और बढ़ाया हमने इतना कर दिया (अपनी टेबल के माध्यम से समझते हुए)। ठीक है न, ये पूरा ज़िला है या पूरा राज्य है। इसमें खोज रहें हैं, क्या पता यहाँ मिल जाए। इसमें भी नहीं मिला। हमने और बढ़ा दिया, ये क्या है? पूरा देश है। फिर और बढ़ा दिया ये क्या है? ये पूरा ग्रह है।

यहाँ खोजे जा रहें हैं, खोजे जा रहे हैं। खोज क्या रहें हैं हम? ट्विंकल-ट्विंकल, छोटा सा तारा। हम मेहनत पूरी कर रहें हैं, हम जान पूरी लगा रहें हैं। जैसे हम में से कोई भी निठल्ला नहीं बैठता न, दिन भर मेहनत करता है। ये हम दिन भर मेहनत वही तारा खोजने के लिए कर रहें हैं। हर आदमी सिर्फ़ एक उसी चीज़ के लिए मेहनत कर रहा है। क्यों नहीं मिल रहा? क्यों नहीं मिल रहा?

प्रश्नकर्ता: क्योंकि गलत जगह ढूँढ रहें हैं।

आचार्य प्रशांत: हाँ तो गलत जगह ढूँढ रहें हैं तो जगह बढ़ाते भी तो जा रहें हैं और बढ़ाई और बढ़ाई। कभी न कभी तो मिलेगा न। बढ़ाते ही जा रहें हैं या नहीं मिलेगा। अच्छा ठीक है मैंने बताया कि चलो मंगल ग्रह पर खोजो। इलॉन मस्क से प्रेरणा लो। क्या पता वहाँ मिल जाए। मिलेगा वहाँ भी? ये मैं हूँ, मैं अपना तारा खोज रहा हूँ। मैं यहाँ खोज रहा हूँ, मैं यहाँ खोज रहा हूँ, मैं यहाँ ही खोज रहा था, मैं यहाँ से और आगे जाकर खोज रहा हूँ, मैं उससे और आगे जाकर खोज रहा हूँ। मैं इस दिशा में भी और आगे जाकर खोज रहा हूँ। मिलेगा? मिलेगा कि नहीं मिलेगा?

प्रश्नकर्ता: नहीं मिलेगा।

आचार्य प्रशांत: क्यों नहीं मिलेगा आलोक जी?

प्रश्नकर्ता: पहले तो ये सोच लिया है तारा है, तारा है ही नहीं।

आचार्य प्रशांत: तारा नहीं है तो मैं परेशान क्यों हूँ? ऐसे कह लीजिए मेरे परेशानी के हटने का ही नाम ही तारा है। क्यों नहीं मिल रहा?

प्रश्नकर्ता: जहाँ खोजना चाहिए, वहाँ नहीं खोज रहें हैं।

आचार्य प्रशांत: कहाँ खोजना चाहिए?

प्रश्नकर्ता: ऊपर।

आचार्य प्रशांत: मैं ऊपर क्यों नहीं खोज रहा?

प्रश्नकर्ता: क्योंकि ऊपर हम देख ही नहीं रहें हैं।

आचार्य प्रशांत: ऊपर मैं इसलिए नहीं खोज रहा क्योंकि मुझे शरीरगत सहूलियत है नीचे खोजने में। नीचे मेरे कदम मुझे ले जा सकते हैं, नीचे मेरे हाथ टटोल सकते हैं। तो मैं खोज ही उन जगहों पर रहा हूँ जहाँ मुझे सहूलियत है। हालाँकि उन जगहों पर खोजने पर मैं मेहनत बहुत कर रहा हूँ पर जो मेरा अपना व्यक्तिगत, शरीरगत आयाम है, मैं अपने आप को सीमित उसी तक रखे हुए हूँ। मैं मेहनत खूब करूँगा लेकिन इसी आयाम में, इधर नहीं देखूँगा (आचार्य जी आसमान की ओर इशारा करते हुए), ये हमारी ज़िन्दगी की कहानी है।

मेहनत हम खूब कर रहें हैं लेकिन एक शर्त लगाकर के कि हम अपनी शरीरगत सीमा के भीतर ही मेहनत करेंगे। हम शरीर हैं न। मैं क्या हूँ?, मैं शरीर हूँ। मैं शरीर हूँ तो मैं गुरुत्वाकर्षण का तो पालन करूँगा न, मैं शरीर हूँ तो कदमों से ही तो जाऊँगा न, हाथों से ही तो उठाऊँगा न। उधर जाने के लिए शरीरभाव कुछ कम करना पड़ेगा, वज़न की सीमाओं को चुनौती देनी होगी। उठ ही जाना पड़ेगा।

समझ में आ रही है बात?

यही कारण है कि चेतना का विस्तार होता रहता है, बेचैनी नहीं मिटती। संसार हमारा बढ़ता रहता है, बढ़ता रहता है, ज्ञान बढ़ता रहता है, अनुभव बढ़ते रहते हैं, उम्र बढ़ती रहती है, तारा नहीं मिलता। वो तारा किसी भी तरह के विस्तार के साथ नहीं मिल सकता। चाहे आपके पैसे का विस्तार हो, आपके अनुभवों का, उम्र का, रिश्तों का, ज्ञान का, कोई भी आपका विस्तार होता रहे, उसके साथ वो नहीं मिलेगा। हाँ, इस विस्तार में कोई ऐसा मिल जाए जो बोले (आचार्य जी आसमान में तारे की ओर इशारा करते हुए) तो मिल सकता है। पर इसकी सम्भावना बहुत कम है।

हर आदमी उम्र भर और क्या करता है? जानवर तो इधर-उधर फिरते रहते हैं, आदमी क्या करता है? खोजता है। खूब खोजता है। लेकिन ऐसे खोजता है, ऐसे नहीं खोजता है। इस दुनिया में खोजता है, ये चेतना है। ऐसे नहीं खोजता, ऊपर नहीं खोजता। चाहे तो ये कह सकते हो ऊपर नहीं खोजता या इसी उदाहरण को ऐसे भी कह सकते हैं कि अंदर नहीं खोजता। क्योंकि आँखें ऐसी हैं हमारी कि न तारे की बात करना चाहतीं हैं और अंदर तो वो बिलकुल ही नहीं देख सकतीं।

तारे की बात क्यों नहीं करना चाहतीं आँखें क्योंकि हाथ हमारे तारे तक पहुँचेंगे नहीं। जब हाथ पहुँचने ही नहीं हैं तो आँखें कहतीं है उधर देख कर क्या करेंगे। इसी तरीके से भीतर क्या है वो देखने में आँखें यूहीं असमर्थ हैं। ये हमारी कहानी है। खूब मेहनत की, खूब मेहनत की, इधर दौड़े, उधर भागे, चेतना फैलती रही, चेतना फैलती रही, आत्मा से दूरी उतनी ही रही जितनी हमेशां थी।

प्रश्नकर्ता: ये चेतना को उठाने की बात क्या है फिर? कि मतलब चेतना ऊँची होनी चाहिए।

आचार्य प्रशांत: हाँ, जो चेतना आप से कह रही है कि मुझे अपनी कमज़ोरियों को छोड़ना नहीं है, मैं बन्धी हुईं हूँ ज़मीन से और मुझे बन्धे ही रहना है, उस चेतना को कहते हैं निचले तल की चेतना। ठीक है। जो चेतना बन्धनों के समर्थन में खड़ी है उसको कहते हैं निचले तल की चेतना। वो क्या बोलती है? मैं तो ऐसी ही हूँ मुझे ऐसे ही रहना है। सुना है ये? मैं ऐसी ही हूँ और मुझे ऐसे ही रहना है। ये निचले तल की चेतना है।

चेतना को उठाने का मतलब है कि चेतना कहे ‘मैं ठीक नहीं हूँ मुझे बेहतर होना है’। मैंने जितने भी मोह पकड़ रखें हैं, मैंने जितने भी बन्धन अपने ऊपर ज़बर्दस्ती लगा रखें हैं, मुझे रुचि नहीं इनमें, तारा चाहिए। तारा ज़्यादा ज़रूरी है। ज़मीन की कोई भी चीज़ बाद में। दिक्कत हो जाती है, इधर-उधर चले थे आसमान का तारा खोजने और इधर-उधर ढूँढने में मिल गया कोई ज़मीन का ही तारा, बस हो गया। बोलो तारारारा। अब किसको याद है ऊपर वाला तारा नीचे ही तारारारा चल रहा है। ठीक है।

प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। सो उस तारे को हम पाना भी चाहते हैं लेकिन कितनी भी मेहनत कर लें वहाँ तक पहुँच नहीं पाएँगे क्योंकि जैसे लगता है कि जब तक अहम् है तब तक वहाँ पहुँचना मुश्किल ही है और चाहता भी अहम् ही है। तो फिर कैसे उस तक पहुँचा जाए? मतलब कैसे मैं वहाँ तक पहुँच सकूँ?

मैं आपको बहुत सुनता हूँ लेकिन कभी-कभी लगता है कि अगर मैं वहाँ नहीं पहुँच पा रहा हूँ तो क्या मतलब कि हर तरफ़ से विफ़ल ही न हो जाऊँ। वहाँ भी नहीं पहुँच पाया न यहाँ पर जो संसार है वहाँ पर ही मतलब अपने आप को उसमें चल नहीं पाया। सो ये व्यर्थ ही न हो जाए जीवन। मतलब बढ़ तो मैं वहीं रहा हूँ, मतलब उस तारे के लिए लेकिन दूर-दूर तक ऐसे लग रहा है कि शायद कुछ सही मीडियम नहीं मिल रहा या मैं किसी तरीके से पीछे हट जा रहा हूँ। ऐसा लग रहा है।

और इसका कारण ये भी लगता है कि जैसे कि बहुत ज़्यादा हर जगह से समर्थन खिंच जाता है मतलब कई सारे लोगों से हट गया है सपोर्ट। क्योंकि जैसे लगता है अकेला हो गया हूँ मैं। चाहे घर हो, चाहे दोस्त-यार हो क्योंकि मैं जैसी बातें बोलता हूँ उनके सामने तो लगता है कि अलग ही ग्रह का आदमी है तू। सो बस यही मैं जानना चाहता हूँ कि ये कैसे और कब तक मैं पहुँच पाऊँगा उस तक?

आचार्य प्रशांत: बड़ी चीज़ होती है, ऐसी शर्तें नहीं रखते। इतना ही बहुत मानते हैं कि कोशिश कर पाए। कोई तुम्हारा बहुत प्रिय हो दोस्त, यार, बच्चा, माँ-बाप, कोई भी और बहुत बीमार हो, डॉक्टर बोल भी रहे हों कि नहीं बच सकता तो क्या करते हो? अपनी ओर से भरसक कोशिश। एक चिकित्सक, दो, तीन, दस, ने बोल दिया है कि ये बचेंगे नहीं। फिर भी क्या कर रहे होते हो? कुछ कोशिश कर रहे होते हो, है न।

एक घर है उसमें आग लग गयी है और उसमें कोई तुम्हारा प्रिय मौजूद है बड़ी ज़बर्दस्त आग है। क्या करते हो? बाहर खड़े हो करके इन्तज़ार करते हो, भुने हुए गोश्त की खुशबू आयेगी। क्या करते हो? भले ही पता है कि उसको तो नहीं बचा पायेंगे, भीतर गए तो शायद हम भी लौटेंगे नहीं। शर्त नहीं रखते न कि भीतर तभी जाऊँगा जब अच्छी सम्भावना हो उसको बचा पाने की। शर्त नहीं रखते न।

ये तो बड़े गम्भीर उदाहरण हो गये, एक हल्का उदाहरण ले लो। एक महत्वपूर्ण मैच खेल रहे हो, ठीक है और एक नाज़ुक मोड़ पर है मैच या तो इधर हो जाएगा या उधर हो जाएगा। कुछ आखिरी गेंदें हैं, क्रिकेट के मैच की बात कर रहा हूँ। और फ़ील्डिंग कर रहे हो, बहुत तेज़ शॉट मारा है बैट्समैन ने। तुम थोड़ा दूर हो, ये बोल देते हो अपने आप से कि ये तो अब गया ही चौका? इसमें मुझे हिलकर क्या करना है, ये शर्त रखते हो? कि लगेगा कि बच सकता है? तो कुछ करेंगे नहीं तो क्या करना है? बस खड़े रहो, गेंद निकल गयी, क्या करते हो?

तुम जान लगाकर के डाइव करते हो। और ये विचार करने का भी मौका नहीं होता कि गेंद रुकेगी या नहीं रुकेगी। तुम कहते हो मेरे पास जो कुछ है मैं सब कुछ दे देता हूँ, आगे क्या होगा ये सोचने का भी वक्त नहीं है। बहुत नाज़ुक मौका है और दाँव पर कुछ बहुत कीमती चीज़ लगी हुई है। यहाँ पर तो दाँव पर एक चौका है या एक मैच है, एक टूर्नामेंट है, दाँव पर अगर ज़िन्दगी ही लगी हो तो, शर्तें रखोगे?

तो ये क्या शर्तें बोल रहे हो कि पता नहीं तारा मिलेगा, नहीं मिलेगा, क्या होगा, नहीं होगा, तुम कोशिश कर पाए, तुम्हें इसी के लिए आभारी होना चाहिये। मैं कोशिश तो कर पाया। चीज़ इतनी बड़ी थी। क्या पता कोशिश में ही अंजाम निहित हो। क्या पता कोशिश करना तुम्हारे हाथ में हो, आगे की बात खुद होती हो। क्या पता कोशिश करने से पहले विचार करोगे तो कोई आशा दिखाई ही न देनी हो। क्या पता कोशिश करने के साथ कोशिश करने वाला ही बदल जाता हो।

बैठे-बैठे पूछोगे कि क्या सम्भावना है कि मैं तारे को पा लूँगा, तो सम्भावना शून्य है। सम्भावना शून्य इसलिए है कि तुम पहले ही पूछ रहे हो। यहाँ खेल सम्भावनाओं का नहीं होता, प्रेम का होता है। प्यार ऐसा होना चाहिए कि तुम कहो कि कोई सम्भावना नहीं है तो भी काम तो यही करना है। सम्भावनाएँ कौन पूछे?

ये हिसाब किताब गणित से नहीं होता कि भाई, कम से-कम देखिए एक प्रतिशत की तो सम्भावना होनी चाहिए न। एक प्रतिशत की सम्भावना है तो हम कोशिश करेंगे और नहीं है तो फिर कौन जीवन व्यर्थ करे। यहाँ तो सम्भावना तब भी, यहाँ तो कोशिश तब भी करी जाती है जब बता दिया जाए बिलकुल शून्य है सम्भावना। क्योंकि बात प्रेम की है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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