कुछ बातें जो माँ-बाप नहीं बता पाते || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

Acharya Prashant

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कुछ बातें जो माँ-बाप नहीं बता पाते || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

प्रश्नकर्ता: बचपन में मुझे मम्मी-पापा और स्कूल ने सिखाया कि कोई काम छोटा या बड़ा नहीं होता और साथ ही मुझपर दबाव बनाया कुछ गिने-चुने काम ही करना। मैंने कहा — मुझे गायक बनना है। वो बोले — नहीं, तुम्हें एमबीए करना है। आज मैं एमबीए हूँ और बहुत दुख में हूँ। आज मुझे पता चल रहा है कि वास्तव में कुछ काम छोटे और कुछ काम बड़े होते हैं। मेरे माँ-बाप मुझे गलत बात क्यों सिखाते रहे? मुझे गलत काम की ओर क्यों ढकेलते रहे?

आचार्य प्रशांत: देखो भाई! एमबीए भी करने गए, भले ही उससे तुम्हें दुख और निराशा मिला हो, तो किसी एमबीए कॉलेज मे न? कोई प्रबंधन संस्थान रहा होगा, इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट। वहाँ ही गए होगे एमबीए करने? मैनेजमेंट सीखना है तो कहाँ गए? मैनेजमेंट इंस्टीट्यूशन में। ठीक है न? चिकित्सा सीखनी होती तो कहाँ जाते? मेडिकल कॉलेज में। इतनी-सी बात तो हम भौतिक विषयों पर भी जानते हैं कि लागू होती है, क्या? जो चीज़ सिखाने का जो हकदार हो, विशेषज्ञ हो, उसके पास जाओ न।

तुमने एमबीए घर पर ही क्यों नहीं कर लिया? पापा कमा कर लाते हैं वो फाइनेंस सिखा देते और मम्मी घर चलाती हैं वो ऑपरेशन मैनेजमेंट सिखा देती, ह्यूमन रिसोर्स सिखा देती। दादा-दादी स्ट्रेटजी सिखा देते। बहन मार्केटिंग सिखा देती। घर में ही क्यों नहीं कर लिया एमबीए?

अजीब तो हमारी स्थिति है, एमबीए करने के लिए भी जोकि कुल मिला करके कोई बड़ी चीज़ नहीं है, निन्यानवे प्रतिशत लोगों से बाद में पूछो तो वो स्वीकार कर लेंगे कि समय ही ख़राब किया और बहुत पैसा ख़राब किया। नहीं भी पूछो तो, अगर वो दो पेग डाउन हैं तो खुद ही गरिया रहे होंगे अपने कॉलेज को कि "बीस-पच्चीस लाख लग गए, दो साल भी मारे गए, ये क्या हो गया हमारे साथ?"

उस एमबीए के लिए भी, जो इतनी छोटी चीज़ है, जिसको हमने बहुत हौवा बना रखा है उसके लिए भी तुम घर से बाहर निकल करके किन्हीं विशेषज्ञों के पास जाते हो। ठीक? और जब जीवन के बड़े-बड़े निर्णयों की बात आती है, जीवन के अर्थ की ही बात आती है, जीवन के मूल सिद्धांतों और शिक्षा की बात आती है, तो उसके लिए तुम मम्मी-पापा से सीख लेते हो! मम्मी-पापा से ही सीखना है तो तुम एमबीए, एमबीबी एस, एम.टेक, पी.एचडी, एम.डी, डी.एम सब घर पर ही किया करो।

पर हमें जीवन के विशेषज्ञों से डर लगता है या ऐसा भी होता है कि उन विशेषज्ञों से हमें रूबरू ही नहीं होने दिया गया, उनसे हमें अपरिचित रखा गया। जीवन के उन विशेषज्ञों का नाम होता है — ऋषि। ऋषि कौन है? ऋषि जीवन का वैज्ञानिक है, ऋषि जीवन का विशेषज्ञ है।

माँ-बाप से ये सब पूछ लो तुम कि, "कपड़े कहाँ से खरीद रहे हो, रसोई में क्या पक रहा है?" इतना वो बता देंगे। दुकान में क्या माल रखते हो? वो माल कहाँ से लेकर के आते हो? इतनी बातें माँ-बाप बता सकते हैं। जीवन के बारे में बताने के लिए माँ-बाप कहाँ से अधिकारी हो गए, हुनरमंद हो गए, विशेषज्ञ हो गए भाई?

तो ग़लती तुम कर रहे हो। एमबीए करने तुम बारह की उमर में तो पहुँच नहीं गए थे। एमबीए का निर्णय तुमने बाईस-चौबीस की अवस्था में ही लिया होगा। बाईस-चौबीस साल के तथाकथित नौजवान हो तुम और जीवन का निर्णय तुम माँ-बाप से पूछकर कर रहे हो, तो फिर तुम्हें सज़ा मिले यही उचित है तुम्हारे लिए।

दुनियाभर के ज्ञान के स्रोत तुम्हें उपलब्ध हैं लेकिन तुम कह रहे हो — "मैं क्या करूँ, मैं तो गायक बनना चाहता था, माँ-बाप ने ज़बरदस्ती एमबीए करा दिया।" तुम पाँच साल के होते तुम कहते — "मैं क्या करूँ मुझे माँ-बाप ने ज़बरदस्ती फ़लाने स्कूल में दाख़िल करा दिया।" तो मैं तुमसे कुछ सहानुभूति रखता। लेकिन तुम पाँच के तो नहीं थे जब तुम एमबीए करने गए थे। तुम बाईस के थे, तुम चौबीस के थे।

तुम्हें अच्छे से पता था कि अगर दवाई चाहिए तो हलवाई के पास नहीं जाते। जानते थे कि नहीं बाईस की उमर में तुम? जूता खरीदने के लिए मिठाई की दुकान पर जाते थे? बोलो। और मिठाई की दुकान पर जाकर बूट पॉलिश माँगते थे? समझ चुके थे न बाईस-चौबीस की उम्र में कि जो चीज़ जहाँ मिलती है वहीं से लेनी चाहिए।

तो जीवन शिक्षा जहाँ से मिलती है, जीवन के बारे में सलाह जहाँ से मिलती है वहीं से क्यों नहीं ली? ऋषियों के पास क्यों नहीं गए? पर तुम क्या करोगे, जैसा समाज है हमारा, जैसी हमने व्यवस्था बना रखी है और हमारे अहंकार की जो हालत है उसमें हमने ये निर्धारित कर रखा है कि साहब ज़िन्दगी में छोटी-से-छोटी चीज़ के लिए विशेषज्ञ चाहिए पर जीवन शिक्षा के लिए कोई विशेषज्ञ नहीं चाहिए।

उसके लिए तो हम ही बहुत हैं। हमसे पूछो हम बताएँगे न और आपके पास पात्रता क्या है बताने की? हमारे पास पात्रता ये है कि हम साठ साल के हैं या हम चालीस साल के हैं। तो? चालीस साल तक कोई बेहोश पड़ा रहे, सोता रहे तो उससे उसमें बड़ी बुद्धि, बड़ा बोध आ जाएगा? और आपने तो अपना पूरा जीवन ही बेहोशी में गुज़ारा है। आप में कहाँ से पात्रता आ गई किसी को जीवन शिक्षा देने की? एमबीए, एमबीबी एस करने के लिए भी किताबें पढ़नी पड़ती हैं, प्रयोग करने पड़ते हैं और फीस माने कीमत माने शुल्क चुकाना पड़ता है, ठीक? ये तीन चीज़ें होती हैं? यही तीन चीज़ें आध्यात्मिक शिक्षा, जीवन शिक्षा में भी चाहिए।

कोई अगर आपको जीवन के बारे में ज्ञान दे रहा हो, तो ये तीन चीज़ें जाँच लेना — उसने क्या आध्यात्मिक साहित्य का गहरा पाठ, गहरा सेवन करा है? कोई डॉक्टर बन रहा हो और बोले, "मैंने मेडिकल की आज तक कोई किताब नहीं पढ़ी!" ऐसे डॉक्टर से इलाज करवाना चाहोगे? वैसे ही कोई गुरु बन रहा हो, ज्ञान दे रहा हो और बोले, "मैंने आज तक कोई आध्यात्मिक किताब नहीं पढ़ी!" ऐसे गुरु से ज्ञान लेना चाहोगे? ये हुई पहली शर्त।

दूसरी शर्त — उसने जीवन में प्रयोग करे हों। जो डॉक्टरी की पढ़ाई पढ़ रहे होते हैं छात्र, वो सिर्फ़ किताब ही नहीं पढ़ते वो प्रयोग करते हैं। क्या इस व्यक्ति ने किताब में पढ़ी हुई बातों को, जीवन में, समाज में आज़मा कर देखा है? प्रयोग करके देखा है? क्या ये किताब में लिखी हुई बात को अपने चारों ओर की ज़िन्दगी से जोड़कर देख पा रहा है?

तीसरी शर्त — क्या इसने शुल्क अदा करा है? कीमत चुकाई है? अब जो कीमत लगती है एमबीए, एमबीबी एस में वो तो यही है कि दस-बीस-चालीस लाख जो लगना है लग गया। जीवन शिक्षा पाने के लिए जो कीमत लगती है वो बहुत आगे की है। पैसे तो खर्च करने ही पड़ते हैं या कई बार पैसे कमाने के अवसर गँवाने पड़ते हैं। साथ-ही-साथ अपनी मान्यताओं की, अपनी धारणाओं की, अपने अहंकार की बलि देनी पड़ती है। बड़ी साधना करनी पड़ती है तब आप जीवन विशेषज्ञ बनते हो।

मैंने कहा, उसी जीवन विशेषज्ञ का, उसी जीवन वैज्ञानिक का नाम होता है — ऋषि। सिर्फ़ उससे जीवन के बारे में सलाह या निर्देश लिए जा सकते हैं। बाकी किसी से नहीं भाई! चाहे माँ-बाप हों, चाची-चाचा हों, चाहे ताऊ हो रामपुर वाले वही। ये कहाँ से आ गए तुम्हें जीवन के बारे में एक शब्द भी बताने के लिए? ये कौन हैं?

कोई आए और तुमसे बोले कि "मैं तुमको अभी बताता हूँ कि डीजल इंजन कैसे काम करता है!" कहेगा "मैं तुमको पूरा डीजल साइकिल बताता हूँ, इसमें कौन-सा प्रोसेस एडियाबैटिक है, कौन-सा आइसोथर्मल है, पूरा जो उसका पीवी कर्व है वो मैं तुमको बनाकर दिखाता हूँ अभी। कैसे-क्या काम करता है।" तुम बोलो, "आप ये सब कैसे करोगे?" वो बोले "मैं साठ साल का हूँ, हमने ज़िन्दगी देखी है।" पागल ज़िन्दगी देखी है उससे तू मुझे डीजल इंजन बता देगा?

और साठ साल का हो गया है, ज़िन्दगी देखी है तो फिर काहे को भागते हो डॉक्टर के पास जब पेट में दर्द होता है? तब ये साठ साल वाले ही काहे डॉक्टर के पास भागते हैं? अस्पतालों में सबसे ज़्यादा तो यह साठ साल वाले ही नज़र आते हैं। इन्होंने ज़िन्दगी देखी है ये अस्पताल में क्या कर रहे हैं?

जो भी लोग अपने बच्चों को ये तर्क देते हों कि "हम बताएँगे तुमको, हमने ज़िन्दगी देखी है।" इन्हें तो सबसे पहले अस्पतालों में दाखिला नहीं मिलना चाहिए। बाहर लगा होना चाहिए — 'जिन्होंने ज़िन्दगी देखी हो वो अपना उपचार खुद ही कर लें।' भाई तुम तो ज़िन्दगी देख-देख कर ही सब जान जाते हो न। "हम बताएँगे तुम्हें क्या पढ़ना चाहिए, हम बताएँगे तुम्हें क्या करना चाहिए, हम बताएँगे तुम्हारी शादी कब हो, यहाँ तक कि हम बताएँगे कि तुम बच्चा भी कब पैदा करो। हम बताएँगे तुम कौन-सी नौकरी करो, हम बताएँगे कि तुम गायन नहीं करो तुम एमबीए करो।"

तुम अपनी ज़िन्दगी को देखो मियाँ! साठ के हो गए। तुम अपने लिए क्या कर पाए कि अपने बेटे पर चढ़े जा रहे हो? तुम अपने-आपको देख कर गौरव अनुभव करते हो क्या? और तुम्हें अगर दूसरा मौका मिले अपनी ज़िन्दगी जीने का तो वैसे ही जियोगे जैसे तुमने जी है? तुम खुद तो सही जी नहीं पाए, तुम अपने लड़कों पर क्यों चढ़े जा रहे हो, बर्बाद किए जा रहे हो?

लेकिन ग़ुरूर सबको होता है। वजह बताए देता हूँ — आपके घर में एक छोटा-सा बिजली का कनेक्शन खराब हो गया हो, पंखा नहीं चल रहा। वहाँ आप विशेषज्ञ बनकर खड़े होने की ज़ुर्रत नहीं करोगे। क्यों? बहुत ज़ोर का झटका लगेगा और तत्काल लगेगा और शरीर पर लगेगा। चित्त गिरोगे और हाय-हाय काँपोगे बिलकुल।

पहले एक विज्ञापन आया करता था, न जाने कौन-से स्विच का, जिसमें सब एक दूसरे को पकड़कर नाचने लगते थे क्योंकि उनको बिजली का झटका लग रहा है। वो हालत हो जाएगी पूरे खानदान की। ये जितने जीवन विशेषज्ञ हैं सब नाच रहे होंगे बिजली का झटका खाकर और बात ज़ाहिर हो जानी है क्योंकि बात शरीर के तल की है, शरीर पर करंट लग रहा है न? तो वहाँ तुम ज़ुर्रत नहीं करोगे ये कहने की कि "हम ही विशेषज्ञ हैं, हमने ज़िन्दगी देखी है। हमने ज़िन्दगी देखी है तो हम इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग बताएँगे, पंखा हम ठीक करेंगे।"

वहाँ पर तो तुम इस ज़रा-से काम के लिए भी मकैनिक को बुलाते हो — "जी! जी! हाँ, आ जाओ आ जाओ यार, बहुत देर कर रहे हो। दो दिन से कह रहे हो, अभी भी नहीं आए। अरे! आ जाओ भाई। अच्छा चलो पैसे थोड़े ज़्यादा ले लेना।" उसके नखरे भी सह लेते हो पर ये नहीं हिम्मत करते कि जा कर के खुद ही प्लग में उंगली डाल दे।

ज़िन्दगी के साथ लेकिन तुम तमाम तरह की ज़ुर्रतें कर जाते हो। तमाम तरह के दुस्साहस कर जाते हो। क्यों? क्योंकि वहाँ जो तुम्हें कर्मफ़ल मिलता है, जो दंड मिलता है वो तत्काल दिखाई नहीं देता, वो करंट के झटके की तरह नहीं होता और जब वो फल तुम पर बरसता भी है, वो दंड जब तुम्हें मिलता भी है तो शरीर पर नहीं मिलता न। एक तो तुरंत नहीं मिलता दूसरे शरीर पर नहीं मिलता। करंट तुरंत लगता है और शरीर पर लगता है।

ज़िन्दगी तुमने गलत जी, ज़िन्दगी के निर्णय तुमने गलत लिए तो तत्काल धमाका नहीं होता। बिजली के तार तुमने गलत जोड़ दिए तो धमाका तत्काल होगा। ज़िन्दगी के तार तुमने गलत जोड़ दिए, अपने लड़के को पकड़ कर एक गलत लड़की से शादी करवा दी, दो तार जो जुड़ने नहीं चाहिए थे, तुम्हीं विशेषज्ञ बनकर जोड़ आए और हो तुम कुछ नहीं। होगे साठ साल के, हो लल्लू ही। जोड़ दिए गलत तार। कोई धमाका तत्काल तो होगा नहीं। धमाका नहीं होता है फिर, फिर जीवन भर की यातना मिलती है और तुममें इतनी ईमानदारी भी नहीं कि तुम स्वीकार करो कि वो जो यातना मिल रही है अब तुम्हारे ही बच्चों को वो तुम्हारी ही वजह से मिल रही है।

तुम कह दोगे "नहीं! नहीं! वो तो और भी कई वजह हो सकती हैं।" क्योंकि तुमने ये जो तार जोड़ दिए, ये जो गठबंधन करा दिया, यातना दिखाई देनी उसके दो साल बाद शुरू होती है। तुम कहोगे "नहीं दो साल में उसने कुछ और कर लिया होगा। यही नालायक है। हमारे जैसे बाप के होते हुए भी ये सुधर नहीं पाया। हमारे जैसे बाप के होते हुए भी ये बेवकूफ़ निकल गया। यही नालायक है!"

धमाका तत्काल हो गया होता, अगर ऐसी कोई व्यवस्था होती अस्तित्व में कि विवाह की बेदी प्रज्वलित है और पंडित आता है और लड़की का वो वस्त्र लेता है और लड़के का लेता है और जहाँ गाँठ बाँधता है तहाँ भड़ाम। शॉर्ट सर्किट हो गया और पूरे मोहल्ले में अंधेरा। ज़बरदस्त विस्फ़ोट। तब ये जितने इकट्ठा हुए थे ताऊ-ताई, फूफा-फूफी दोनों तरफ़ के लड़की-लड़का तब बच्चू की अकल ठिकाने आती कि हमने कौन-सा तार, क्या जोड़ दिया। तत्काल होता ही नहीं धमाका।

फिर ये जो तुम्हारे लड़के-बच्चे होते हैं इनकी ज़िन्दगियाँ सुलगती रहती हैं। जल्दी से ये नहीं होता कि धमाका हो गया, आग लग गई, जीवन भर सुलगती रहती है और अद्भुत चमत्कार ये है कि ये जिनकी ज़िन्दगियाँ जीवन भर सुलगती हैं आगे फिर ये अपने बच्चों के साथ भी वैसे ही विशेषज्ञ बनते हैं जैसे इनके बाप इनके साथ बने थे। ये चमत्कार तो बुद्धि के बाहर का ही है बिलकुल। समझ में ही नहीं आ सकता।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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