प्रश्नकर्ता: जैसे आपने एक बार बताया था, अपने की फर्स्ट रिएक्शन देखना है हमें अपना जो पहला रिएक्शन होता है, जब हमें विचार करने का टाइम नहीं मिलता है। तो जैसे अभी हमने बिल्कुल क्लियर बात कर ली की है, जो हमें दिख रहा है, वो फ्लक्स है।
चाहे दिखने में हमें एक डेफिनेट शेप दिख रही है। लेकिन है वो फ्लक्स तो वो रिएक्शन तो अंदर से जैसे। अब नहीं वो रिएक्शन जो अभी सोचने से भी वैसा रिएक्शन नहीं आ रहा। कई बार अभी भी सोच के देखा मैंने, लेकिन आमतौर पर आता है वो रिएक्शन। तो उसको हम कैसे समझेंगे कि जैसे हमें लॉजिकली क्लियरली समझ में आ गया। ये वो रिएक्शन का आना बस। उसको हम यही मान लेंगे कि हाँ, ये देह के लिए है।
आचार्य प्रशांत: तीव्रता। बुखार होते हैं न। एक सौ छह डिग्री वाला बुखार भी होता है, एक सौ दो डिग्री वाला भी होता है, निन्यानवे वाला भी होता है, शीतल होता जाता है।
प्रश्नकर्ता: तो किस विधि से हम रिमाइंड करवाए बार बार अपने आप को पूरे दिन…
आचार्य प्रशांत: विधि तो एक ही है, जो भीतर बैठ कर के बोलता रहता है, मैं हूँ, मैं हूँ, उसके झूठ को बार बार रंगे हाथों पकडते रहो। इरादा नेक हो तो हर चीज़ विधि बन जाती है। घर पर जाएँगें अपने भाई बहनों को देखेंगे कहेंगे मैं कैसे कह दूँ मेरी शक्ल मेरी है, ये मेरा भाई है नालायक, इसकी शक्ल भी मेरे जैसी है।
फिर दादा को देखेंगे कहेंगे कैसे कह दूँ कि मेरी जो चपटी नाक है, यह मेरी है, ये तो दादा की नाक है। तो जब मेरा सब कुछ किसी और का है तो मैं कहाँ हूँ या तो मैं कह दूँ, ‘मैं हूँ ही नहीं या मैं कह दूँ कि सब मैं ही मैं हूँ, मैं ही मैं हूँ, मैं ही मैं हूँ,’ जैसे मुनि अष्टावक्र कहते हैं न, या तो मैं कुछ नहीं हूँ या फिर मैं सब कुछ हूँ।
आप खाना खाने बैठे और वहाँ बगल में आपके कुत्ता बैठ गया आपका और आप खा रहे हैं और आप कुत्तों की लार बहुत बेहतर है, जिनके पास होंगे वो जानते होंगे, फर्श हर्ष भी रूल करते हैं तो वो गीला कर देते हैं और आप कह रहे हो कि यही खाना है, मेरा भी हो रहा है सालिवेशन और उनकी भी बह रही है लार।
तो कैसे कह दूँ कि मुझमें और उसमें कोई बड़ा अंतर है। वही वायरस था, उसको लगा था वो मेरा घना दुश्मन ज़िन्दगी में न छूऊ मैं उसको और उसका वायरस आके घुस के सीधे मेरे छाती में चला गया है। बताओ गया था मैं उसको डंडा मारने हाथापाई हो गई और हाथापाई में वायरस लेकर आ गया।
मैं मेरे भीतर भी जो है वो वही से आ रहा है जिसको मैं अपना दुश्मन बोलता हूँ। तो बताओ कैसे कह दूँ की मैं और मेरा दुश्मन भी अलग है, मैं, मेरी पसंद, मेरी नाक, पसंद, मेरी चाहत, मेरे डर, वो सबकुछ जिसको मैं अपना बोलता हूँ वो जितना ज़्यादा सार्वजनिक और शारीरिक दिखाई देने लगता है। कहते है न शरीर, समाज, संयोग, समय वो जितना इन पर आश्रित दिखाई देने लग जाता है, उतना ज्यादा ‘मै’ भाव कम होता जाता है।
बहुत खुश होकर के बैठे हुए हैं। किसी का फोन आ गया, मुँह बिल्कुल एकदम लटक गया थोबड़ा तो बताओ तुम्हारी खुशी तुम्हारी है, क्या तुम्हारा दुख तुम्हारा है, क्या कुछ भी तुम्हारा है क्या?
अरे सोने दो, ये निरंतर अभ्यास की बात है, ऐसा नहीं है कि बस हो गया, थम जाओ तुम, क्या आप बताइए कुछ है किसी का?