प्रश्नकर्ता: क्षमा करना इतना कठिन क्यों है?
आचार्य प्रशांत: अच्छा लगता है घाव लेकर चलना। क्षमा कर दिया तो फिर घाव को भुलाना पड़ेगा। आपके शरीर में जहाँ घाव होता है, देखा है, वो जगह कितनी महत्वपूर्ण हो जाती है? क्षमा कर दिया तो घाव भुलाना पड़ेगा। घाव भूला तो घाव को जो महत्व मिलता था, वो भी गया और अहम् को लगातार क्या चाहिए? महत्व। क्योंकि उस बेचारे को यही लगता रहता है कि हमारी कोई हैसियत नहीं है। तो वो बार-बार इसी फ़िराक में रहता है कि कोई मिल जाए जो कह दे कि तुम कुछ हो, तुम्हारी हस्ती है। उसकी सबसे बड़ी परेशानी यही है कि उसे ये पता नहीं कि वो है भी या नहीं।
बाकी सब परेशानियाँ तो दुनिया में छोटी होती हैं। तुम अहम् की परेशानी समझो। तुम्हारी क्या परेशानी है? तुम्हारी परेशानी है, पैसा तो नहीं कम हो गया। परेशानी है कि कहीं, कुछ भी, गाड़ी कौनसी खरीदें। आपकी परेशानी है, बच्चे कौनसे स्कूल में डालें। आपकी परेशानी है कि पाँव में दर्द हो रहा है। अहम् की क्या परेशानी है? मैं हूँ या मैं हूँ ही नहीं।
तुम सोचो, तुम्हारे सामने यही संशय खड़ा हो जाए तो तुम जियोगे कैसे? कि हम हैं भी या नहीं हैं। हम?
प्र: हैं भी या नहीं हैं।
आचार्य: तो क्या करता है वो? जिसी के पास जाता है, उसे कहता है, ‘हे भाई! हम हैं?’ कोई उसकी उपेक्षा कर दे तो बेचारा बड़ा निराश हो जाता है और उसे अच्छा कब लगता है? जब कोई बोले, ‘हाँ, तुम हो। तुम हो, निश्चित रूप से हो।’
‘अब तुम हो’ दो तरीके से बोला जा सकता है या तो ऐसे बोला जा सकता है कि तुम बहुत सुन्दर हो, बड़े कीर्तिवान हो, बड़े तेजस्वी हो तो भी महत्व मिला, राजा जी हो तुम! या फिर ‘तुम हो’ ऐसे बोला जा सकता है कि तुम बड़े घृणित, बड़े घायल, बड़े रोगी। दोनों ही स्थितियों में क्या मिला?
श्रोतागण: महत्व।
आचार्य: महत्व तो मिला न। तुम गाड़ी से चले जा रहे होते हो सड़क पर, सूर्यास्त हो रहा हो खूबसूरत, तुम थोड़ी देर के लिए गाड़ी रोक देते हो हाइवे पर। ठीक? तुम कहते हो, ‘देखकर जाऊँगा।’ सौन्दर्य को तुमने महत्व दिया और उसी हाइवे पर कोई दुर्घटना हो गयी होती है, वहाँ भी तो तुम गाड़ी रोक देते हो न। अभी तुमने किसको महत्व दिया? तुमने घाव को महत्व दिया। और अहम् के लिए सौन्दर्य से ज़्यादा सुलभ पड़ता है घाव, कुरूपता।
पहली कोशिश तो यही करता है कि हम ज़रा आकर्षक दिखें तो लोग हमें महत्व दे। पर अगर आकर्षक नहीं दिख पा रहे तो अगला रास्ता प्रस्तुत है, क्या है अगला रास्ता? कुरूप हो जाओ। इतने कुरूप हो जाओ कि लोग विवश हो जाए मुड़कर देखने को। ये क्या है! (मुड़कर देखने का अभिनय करते हुए)
तो हम अपने घाव बचाकर रखना चाहते हैं। हम अपनी ही नज़रों में कुछ हो जाते हैं जब हम घायल होते हैं। माफ़ करना इसीलिए मुश्किल है। माफ़ कर दिया तो फिर सोचते क्या रहोगे? माफ़ कर दिया तो फिर तो घाव की स्मृति से ही छुटकारा मिल गया न। भूल ही गये कि किसी ने चोट दी थी। भूल ही गये तो अब सोचते क्या रहोगे। और तुम्हें क्या चाहिए? कुछ चबाने के लिए हर समय। उसने मुझे चोट दी और उसने मेरा भला किया, अब यही सब चल रहा है दिमाग में। इसीलिए मन कहानियाँ बहुत याद रखता है। याद ही नहीं रखता, वो कहानियाँ गढ़ता है। न हो कहानी तो गढ़ लेगा।
प्र२: आचार्य जी, इसी से मिलता-जुलता हमारा भी प्रश्न है ― आलोचना से डर लगता है।
आचार्य: थोड़ा सा इसको विस्तार से बोलूँगा। आलोचना से मत डरिए। आप लोग जब अपने रिफ़्लेक्शन लिखते हो तो उसमें लिखते हो न अवलोकन। अवलोकन का ही पर्याय है आलोचन। अवलोकन माने क्या होता है? देखा। आलोचन माने भी यही होता है, मैंने देखा। लोचन माने क्या होता है?
श्रोतागण: नयन।
आचार्य: तो आलोचन माने देखना। आलोचना नहीं बुरी चीज़ है। आलोचना नहीं बुरी चीज़ है, निन्दा बुरी चीज़ है। निन्दा और आलोचना में अन्तर है। कबीर साहब भी तो कितनों को बुरा बताते हैं न। वो क्या कर रहे हैं? आलोचना कर रहे हैं और आलोचना सुन्दर बात है। आलोचना का अर्थ है साफ़ देख लेना, ये आलोचना है। आलोचना से मत घबराइए। आलोचना से घबराइए मत और निन्दा की परवाह मत करिए, खेल खत्म।
अगर कोई आपकी आलोचना करता हो तो आप तो उसकी आभारी रहिए कि तुमने हमें कुछ ऐसा दिखा दिया जो हम देख नहीं पाते। हमारी आँखें नहीं देख पा रही थीं, तुम्हारे लोचनों ने देख लिया। तुमने आलोचना कर दी, धन्यवाद तुम्हारा। तो आलोचकों के तो शुक्र-गुज़ार रहें और निन्दकों की परवाह न करें।
प्र२: कबीर साहब कहते हैं, “निन्दक नियरे राखिए।”
आचार्य: हाँ, वो इसलिए कहते हैं कि निन्दक आकर के आपको आपके दुर्गुण बता देगा। पर निन्दक अगर वाकई ऐसा है कि वो आपको आपके दुर्गुण बता पा रहा है, उसमें इतनी स्पष्टता है, इतना विवेक है तो फिर वो निन्दक नहीं, आलोचक हो गया।
कबीर साहब कहते हैं, “निन्दक नियरे राखिए।” कबीर साहब ये भी कहते हैं, “एक निन्दक के शीश पर सौ पाप का भार।” कि सौ पाप एक तरफ़ और निन्दा करना एक तरफ़। निन्दा इतना गहरा पाप है। आपसे कहा गया है कि उन निन्दकों को अपने पास रखिए जो आपकी सही निन्दा करते हों और सही निन्दा को कहते हैं आलोचना। ठीक है?
भई, आप बेहतर होना चाहती हैं या नहीं? तो आप चाहेंगी न कि कोई आकर के खोट निकाल दे, कहीं कोई कमी हो तो दूर कर दे। और कहीं भी कोई कमी दूर कर रहा हो तो वो आपका दोस्त हुआ या दुश्मन? दोस्त ही तो हुआ। थोड़ा बुरा लगेगा पर ठीक जब बुरा लग रहा हो, आप उससे कहें, ‘सुनो ज़रा, धन्यवाद।
प्र: ठीक।
आचार्य: अच्छा करा तुमने। धन्यवाद।’ (हाथ जोड़ते हुए)
निन्दक कौन? जिसके अहम् को चोट लगी है। तो वो इसीलिए अनाप-शनाप बक रहा है। उसको क्या आप ये हक देंगी कि वो आपके मन पर सवार हो जाए? आप उसके बारे में विचार करने लगें, आप उसे महत्व देने लगें, गम्भीरता। देंगे क्या? आप उसे अधिक-से-अधिक अगर कुछ दे सकती हैं तो करुणा है। करुणा न दे पाएँ तो उपेक्षा दीजिए। उपेक्षा तो ज़रूर ही दीजिए और मैं कह रहा हूँ कि अगर हो सके तो निन्दक को करूणा दीजिए, पर निन्दक को कम-से-कम गम्भीरता तो मत दीजिए।
बात समझ में आ रही है?
क्या कहा हमने? आलोचक हमारा मित्र है। क्योंकि वो हमें कुछ ऐसा दिखा देता है जो हम अन्यथा नहीं देख पाते और निन्दक के प्रति हमें क्या रवैया रखना है? पहली बात तो ये कि निन्दक के प्रति गम्भीरता नहीं रखनी। दूसरी बात ये कि निन्दक के प्रति उपेक्षा रखनी है और तीसरी बात ये कि अगर दिल बहुत बड़ा हो, कलेजा बहुत बड़ा हो तो फिर निन्दक के प्रति हम करूणा रखें। हम कहें कि बेचारा कितने दर्द में होगा कि दूसरों को दर्द देने की कोशिश कर रहा है।
समझ रहे हो न?
दूसरों को दर्द कौन देना चाहता है? जो खुद तकलीफ़ में हो। तो कोई आपको सुई चुभो रहा है, कोई आपको किसी तरीके से कष्ट देना चाहता है तो इसका मतलब वो खुद भी तो कहीं-न-कहीं तड़प ही रहा है। जो आनन्द में होता है, वो तो आनन्द बाॅंटता है। वो किसी को तकलीफ़ क्यों देगा? या बात में कुछ और हो तो पूछिए, बताइए।
प्र२: ये ही मेरा जैसे अद्वैत से जुड़ना, इसमें मेरे को लगता है कि मेरे अपने ही बहुत आलोचना या क्या ज़रूरत है?
आचार्य: नहीं समझा। घर वालों से?
प्र२: घर वालों से, मित्र भी कह लीजिए, परिवार के सदस्य भी। तो उनका सबका रवैया भी हमेशा रहता है कि क्यों।
आचार्य: अगम्भीरता, उपेक्षा, करूणा। हँसकर टाल दें। आप कबीर साहब को गाती हो और कोई पूछे कि क्या ज़रूरत है, तो बाल बुद्धि हुई न? इसको क्या महत्व दें। आप ये सब भजन लेकर, आप लेकर आयी हैं?
प्र२: नहीं, अंशु जी ने दिये हैं।
आचार्य: अच्छा, अंशु जी ने दिये हैं। अब आप ये सब लिये फिरती हो और आपने तो दर्जनों भजन गाये। आप उनका मर्म समझती हैं और आपको पता है कि बात कितनी दूर की है, और कोई आपके आगे आकर कहे कि क्यों गा रहे हो, इससे क्या मिल जाएगा। तो आप आहत होंगी या मुस्कुरा देंगी?
प्र: मुस्कुरा ही देते हैं।
आचार्य: पर आहत होकर मुस्कुरा देती हैं।
प्र: मगर शब्दों में शायद हम वो व्यक्त नहीं कर पाते हैं कि हम क्यों, मेरे वो दिल के पास है।
आचार्य: अरे, करना ही नहीं चाहिए शब्दों में व्यक्त। स्वयं कबीर साहब कभी व्यक्त करते हैं क्या कि उनका और राम का नाता क्या है, करते हैं? उन्होंने कभी बताया कि राम उन्हें प्रिय क्यों है, ये तो नहीं बताते न? सौ बातें और बताते हैं और खूब गाते हैं पर ये कभी बताया उन्होंने कि राम किस कारण मुझे पसन्द है। ये तो बताया जा ही नहीं सकता। ये तो प्रेम की बात है, दिल की बात है, ये तुम्हें कैसे बता दें? आप गाती रहिए।
एक बात पक्की है, आपके गाने में अगर जान होगी तो सब समझेंगे, बस धीरज रखिएगा। दिल में तो सबके राम ही बसते हैं न? आप गाएँगी तो उन्हें भी कुछ याद आएगा। देर-सवेर, जब भी, आएगा। फिर थोड़ा उनकी दृष्टि से भी देखिए।
अध्यात्म के इतिहास में हम एक संक्रमण काल से गुज़र रहे हैं। नाम बहुत खराब हो गया है। इधर-उधर की खबरें आप पढ़ती ही होंगी? एक के बाद एक कांड। क्यों किसी को ये न लगे कि ये सब व्यर्थ है? क्योंकि जो लोग इनका नाम लेते भी हैं, वो भी तो हिंसक भी हैं, लालची भी हैं, कपटी भी हैं, उथले भी हैं, बलात्कारी भी हैं। और जो इन सब मामलों में अब बेपर्दा हो रहे हैं, वो भी तो बीसों साल से क्या कर रहे थे? भगवत् कथा ही तो कर रहे थे। तो लोगों की शंका एक हद तक जायज़ भी तो है। उन्हें दोष क्या दें, बात तो ठीक ही है।
अभी तो हुआ था, जाने इस महीने, जाने पिछले महीने के खुले सत्र में, ग्रेटर नोएडा में था न? तो लोग आते हैं तो उनके फ़ोन बाहर रखवा दिये जाते हैं। फ़ोन सब अपने दे दो, बाहर रख देते हैं।
एक लड़की आयी थी, पहली-दूसरी बार ही आ रही थी। सत्र का जो प्रकाशित समय था, साढ़े-सात का था पर हम तो हम हैं, शुरू होते-होते नौ बजे। भजन इत्यादि हुए, नौ बजे शुरू हुआ। बारह से आगे हो गया और चले जा रहा है। बातचीत खिंच रही है अभी। ग्रेटर नोएडा, फ़ोन उसका बाहर रखा है। लड़की की माँ और उसके जो भी सब घरवाले, सब हड़बड़ा गये बिलकुल। इंटरनेट से देखकर, इधर से, उधर से, पहले वो जितने फ़ोन कर सकते थे उन्होंने जितने नम्बरों पर, सब करे फ़ाउंडेशन (संस्था) के और ऐसा हर बार ही होता है। जब भी सत्र खिंचता है तो लोगों के फ़ोन-वोन आने शुरू हो जाते हैं।
आप शायद बाज़ार गये हों और देर से घर लौटें तो लोगों को इतनी चिन्ता नहीं होगी पर आप किसी आश्रम गये हैं और देर हो गयी तो मामला बहुत खतरनाक है, बहुत खतरनाक है। और मैं ऐसे चिन्तित होने वाले लोगों से संवेदना रखता हूँ। उनकी चिन्ता एक सीमा तक तो जायज़ है ही। कई पक्ष हैं इस मुद्दे के।
विज्ञान का दौर है। आदमी पचास तरीके से वस्तुओं पर ही अवलम्बित जीवन जी रहा है। आपको किसी से बात भी करनी होती है तो आपकी बात भी प्राकृतिक नहीं होती। आपकी बात भी इसके (मोबाइल फ़ोन) माध्यम से होती है। हम पूरे तरीके से किस पर आश्रित हैं? विज्ञान पर आश्रित हैं। बच्चे का जन्म भी होता है तो प्राकृतिक नहीं होता। अस्पताल में होता है, दवाइयों के और उपकरणों के बीच में होता है। अब तो प्रेम भी होता है तो प्रेम में भी व्यक्तियों के बीच में कहीं-न-कहीं विज्ञान और मशीनें मौजूद होती हैं।
तो सबसे बड़ी ताकत आदमी की नज़र में फिर कौनसी है?
श्रोता: विज्ञान।
आचार्य: विज्ञान माने आदमी का मन, आदमी की बुद्धि। जब सबसे बड़ी ताकत बुद्धि ही है, तो और किसी बड़ी ताकत की उपासना क्यों की जाए? तो फिर लोग सवाल उठाते हैं। लोग कहते हैं, ‘फ़ालतू बात है। तुम ये क्या भजन गा रहे हो ‘राम-राम’? राम से क्या होगा? जो होता है इससे (मोबाइल फ़ोन) होता है। इससे बड़ी ताकत है क्या राम में?’
और आप उनकी नज़र से देखिए तो ठीक ही तो कह रहे हैं। जो काम ये (मोबाइल फ़ोन) आपके लिए कर सकता है, वो राम तो नहीं कर सकते। समझा पाना मुश्किल है। यहाँ पर भी आप देखिए, बात हो रही है राम की। लेकिन ये, ये (आस-पास की वस्तुओं को इंगित करते हुए) सब क्या हैं? विज्ञान, तकनीकी, इन सबसे आयी चीज़ें। तो लोग कहते हैं, लोग कहते हैं, ‘तुम्हें समय ही लगाना है तो किसी दुनियादारी की चीज़ को सीखो। इसको (माइक्रो-फ़ोन) सीखो, इसको (मोबाइल) सीखो, कुछ सीखो, ये सब जानो। ये तुम क्या जानने निकल गये?’
उनके सब तर्कों से परिचित होना ज़रूरी है। ये जानना ज़रूरी है कि उन्हें क्यों अध्यात्म एक गैर-ज़रूरी चीज़ लगती है। उनके मन में घुसकर समझिए। जब आप ये समझ जाएँगी कि उनके सारे तर्क और विरोध कहाँ से आ रहे हैं, तो फिर आप ये भी समझ जाएँगी कि उनके तर्कों और विरोधों के आगे क्या है। और फिर धन्यवाद उनको। उनके सवालों, उनके ऐतराज़ के कारण ही तो हमें पता चल पाता है कि हमारी श्रद्धा में जान कितनी है।
कल मैंने ज़िक्र किया था न। क्या बोल रहे थे फ़रीद साहब? कि बारिश हो रही है और पिया से मिलने जाना है। जाऊॅं तो कपड़ों में कीचड़ लगता है, न जाऊँ तो प्रेम टूटता है तो ये द्वन्द्व, ये संघर्ष, ये विकल्प, ये दोराहे तो फ़रीदों के सामने भी थे। और उनकी फिर खासियत ये है कि जब भी उनके सामने ऐसे दोराहे आये, उन्होंने सही राह चुनी।
कपड़ों पर कीचड़ लगता है, मतलब समझ रहे हो न इससे क्या है? ये प्रतीक है। इसका क्या अर्थ है कि पिया से मिलने जाना है बारिश हो रही है और अगर मैं जाती हूँ तो कपड़ों पर कीचड़ लगेगा। ये कीचड़ किसका प्रतीक है? सामाजिक लाँछनों का प्रतीक है। जाऊँगी तो समाज लाँछन, अभियोग लगाएगा। इसी को तो कहते कीचड़। कहते हैं न, ‘तुम्हारे मुँह पर कीचड़ मल देंगे।’ ये क्या है? ये ही, सामाजिक रूप से हम तुम्हारी बदनामी, अपमान कर देंगे।
तो फ़रीदों के सामने भी ये स्थिति आती थी। करें क्या? अभी क्या धर्म है? “किंकर्तव्यविमूढ़ता।” ‘क्या है अभी मेरा कर्तव्य?’ “किम् कर्तव्य?” जाऊँ कि न जाऊँ? अगर जाती हूँ तो पक्की बात है कि दुनिया के ताने सहने पड़ेंगे। आपको पहली बार नहीं पड़ रहे हैं। फ़रीद साहब आठ-सौ, हज़ार साल पहले थे। उस ज़माने में भी जो चलते थे मिलने, उनको कीचड़ ही खानी पड़ती थी। पर फिर जिन्हें जाना होता है, वो जाते हैं।
अमर कौन हुआ? जिन्होंने कीचड़ फेंकी या फ़रीद साहब? कीचड़ फेंकने वालों का नाम पता कुछ याद है? बस वो कीचड़ ही हो गये। आप ही का प्रश्न ऊपर रखा हुआ था। आप जिस दिशा को सही जान रही हैं, उसमें बढ़ती रहिए। निन्दक अपना काम करते रहेंगे, आपको बुरा भी लगता रहेगा। आप बुरा लगने के बावजूद बढ़ती रहिए। जैसे-जैसे बढ़ती जाएँगी, बुरा लगना कम होता जाएगा। घावों का स्थान करुणा ले लेगी।
अभी तो ये होता है कि कोई आपको बुरा बोलता है तो आपको लगता है, ‘अरे! मुझे बुरा बोला है।’ एक मुकाम वो भी आता है जहाँ जब कोई आपको बुरा बोले तो आपको लगता है, ‘अरे! ये बेचारा कितनी बुरी हालत में होगा कि मुझे बुरा बोल रहा है।’ पर वो परिवर्तन यकायक नहीं होगा। आप बढ़ती रहिए।
प्र३: आचार्य जी, कभी-कभी ऐसी स्थिति में अपना मन भी तो सवाल करता है बहुत। क्या सही जा रहे हैं, क्या गलत जा रहे हैं?
आचार्य: तो अच्छी बात है। सवाल करें।
प्र३: इतने डाउट (सन्देह), इतने डाउट आते हैं।
आचार्य: अच्छी बात है डाउट आते हैं, उनको दबाओ मत। सन्देह का समाधान ये है कि सन्देह को उसकी परिणति तक ले जाओ। सन्देह को उसके आखिरी छोर तक ले जाओ ताकि उसका एक आखिरी उत्तर सामने आ जाए। मन में ये ग्लानि मत लेना कि अरे, कुछ चीज़ें ऐसी होती हैं जिन पर शक करना ही नहीं चाहिए, मैं शक क्यों कर रहा हूँ। अब कर तो लिया ही है, शक तो उठ ही गया है। जब शक उठे तो उसका पूरा-पूरा उन्मूलन करो। शक का मतलब होता है, बात ऐसी है या बात वैसी है।
किसी मुद्दे को लेकर जब तुम्हारे पास दो विकल्प हों तो वो स्थिति सन्देह की हुई। पूरा ही पता कर लो न कि बात ऐसी है या बात वैसी है। और अब जब बिलकुल स्पष्ट हो जाए कि बात ऐसी ही है तो उसके बाद फिर मन को ठहरा दो, मन को बार-बार शक करने की अनुमति मत दो।
तुम कहो कि तूने जिज्ञासा की थी और हमने पूरे तरीके से खोजबीन की, जाँच पड़ताल की, और हमें चल गया है पता कि बात क्या है। अब जब पता चल गया है कि बात क्या है तो उसके बाद हम तुझे अनुमति नहीं देंगे कि तू सिर्फ़ विचलित रहने के लिए व्यर्थ मुद्दे पैदा करे। मुद्दा सुलझ चुका है, निर्णय आ चुका है, न्याय हो चुका है।
हम दोनों गलतियाँ करते हैं। जब सन्देह उठता है तो हम कभी भी सन्देह को उसके शिखर तक नहीं ले जाते, ये पहली गलती है। दूसरी बात, अगर कभी-कभार सन्देह अपने शिखर तक पहुँच भी गया और मिट भी गया तो भी हम उस सन्देह को, ठीक उसी सन्देह को दोबारा उठने देते हैं जो कि मूर्खतापूर्ण बात है। तुमने कर तो ली पूरी खोजबीन। अब वही बात दोबारा क्यों पूछ रहे हो? दोनों में से कोई भी गलती मत करो। बेधड़क होकर जिज्ञासा किया करो। जिज्ञासा करने में कोई शर्म नहीं है।