क्रिया और कर्म के बीच अंतर || आचार्य प्रशांत, श्रीकृष्ण पर (2014)

Acharya Prashant

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क्रिया और कर्म के बीच अंतर || आचार्य प्रशांत, श्रीकृष्ण पर (2014)

प्रश्न: ‘क्रिया’, ‘कर्म’ और ‘फल’ में क्या सम्बन्ध है?

वक्ता: तीन तल होते हैं किसी भी घटना के। एक तल है क्रिया का, एक तल है सकाम कर्म का, और एक तल है निष्काम कर्म का। क्रिया वो तल है, जहाँ पर वृत्तियाँ काम करती हैं और कर्ता को कर्ता होने का भी विचार नहीं रहता। घटना घटेगी, और बिना विचार के घट जाएगी – ये क्रिया हुई। जैसे यंत्र, जैसे मशीन, ये क्रिया है। इसमें प्रतीत ऐसा होता है जैसे कर्ता अनुपस्थित हो। कर्ता अनुपस्थित नहीं है, कर्ता मात्र परोक्ष है, छुपा हुआ है। उसे स्वयं अपना ज्ञान नहीं है क्योंकि कर्ता विचार के साथ उठता है और यहाँ पर क्रिया वृत्ति से निकल रही है, विचार से नहीं। इसीलिए घटना घट जाएगी और उस घटना का प्रत्यक्ष रूप से कोई कर्ता नहीं होगा।

जैसे मशीन दावा नहीं कर पाती है कि मैंने क्रिया की। क्रिया होती है, कर्ता दिखाई नहीं पड़ता। है ना? कर्ता कौन? जो दावा करे, “मैंने किया।” किसी भी मशीन ने जो कभी किया, वो उसका दावा नहीं करने आती – ये क्रिया हुई। ठीक है? क्रिया वृत्तियों से उठती है, और उसकी एक ही वासना होती है कि वृत्तियाँ बची रहें।

वृत्तियों में वृत्ति है: अहम् वृत्ति।हर क्रिया की इच्छा, हर क्रिया का उद्देश्य एक ही होता है कि अहम् कायम रहे।

कैसे पहचानें कि क्रियाएं चल रही हैं? बिना विचार के जब आप किसी घटना को अपने माध्यम से घटता देखें, तो समझ लें कि क्रिया चल रही है। आपने सोचा नहीं पर आपके माध्यम से वो घटना घट गयी। किसी ने आपको बोल दिया और तुरंत आप रुआंसे हो गए। विचार आया ही नहीं; आँसु पहले आ गए। ये क्रिया है। ये क्रिया है और याद रखियेगा, प्रत्येक क्रिया एक प्रकार की प्रतिक्रिया ही है क्योंकि क्रिया उठती ही किसी बाहरी घटना के जवाब में है। क्रिया का हमेशा कोई कारण होता है, वो अकारण नहीं होती और उसका कारण होता है: कोई और घटना। क्रिया हमेशा सकारण होती है। उसका मूल कारण होता है वृत्ति और तात्कालिक कारण होता है उससे बहार की कोई घटना। तो यदि आपसे किसी ने कुछ कहा और आप सुनते ही आप क्रोधित हो गए, तो तात्कालिक कारण क्या था? किसी दूसरे द्वारा कहे गए कुछ शब्द और मूल कारण क्या था? आपके भीतर जो वृत्ति बैठी हुई है। ये क्रिया है। ठीक है?

क्रिया से हट कर होता है: सकाम कर्म। सकाम कर्म में कर्ता प्रत्यक्ष रूप से उपस्थित रहता है। सकाम कर्म पैदा होता है विचारों से। वृत्ति, विचार का रूप ले चुकी है। वृत्ति अति सूक्ष्म होती है। विचार वृत्ति की अपेक्षा स्थूल होता है। वृत्ति, विचार का रूप ले चुकी है और वो विचार क्या है? कि, ‘’मुझे कुछ पाना है।’’ कुछ पाने की अभीप्सा से जो कर्म किया जाये, सो कहलाता है सकाम कर्म। कर्ता इसमें प्रत्यक्ष रूप से उपस्थित है। कौन है कर्ता? ‘’मैं कर रहा हूँ, मुझे कुछ पाना है।’’ वृत्ति में कर्ता बिल्कुल था पर?

श्रोता: परोक्ष था।

वक्ता: परोक्ष रूप से उपस्थित था और उसकी कामना कुछ विशेष पाने की नहीं थी। उसकी एक मात्र कामना थी कि अहम् कायम रहे। जब विचार से कर्म होता है, जब विचार से सकाम कर्म होता है, तब कामना क्या होती है? कि मुझे ये मिल जाये और वो मिल जाये। जो मेरी इच्छित वस्तु है, जो मेरा इच्छित फल है, वो मुझे प्राप्त हो जाये। हालाँकि, उस इच्छित फल के प्राप्त होने में भी अंततः कामना यही है कि अहम् कायम रहे। ठीक है?

इनसे हट कर के होता है: निष्काम कर्म।

निष्काम कर्म वो, जिसमें कर्ता अनुपस्थित हो गया है। उसकी अनुपस्थिति मात्र प्रतीति नहीं है, तथ्य है।

ऐसा लग ही भर नहीं रहा है कि कोई कर्ता नहीं है, वास्तव में कोई कर्ता नहीं है क्योंकि जो कर्ता था, वो अपने ही स्रोत में मग्न हो गया है। अब जो घटना घट रही है, वो इसलिए नहीं घट रही कि उसका कोई फल अपेक्षित है। वो घटना बस घट रही है। अपेक्षाएं विलीन हो चुकी हैं, नहीं चाहिए आगे ले लिए कुछ। जो कर रहे हैं उसी में आनंद है। जो हो रहा है, वो अपनेआप में पूर्ण आनंद ही है। वो अपनी आदि में भी आनंद है, और अपने अंत में भी आनंद है। माहौल ही आनंद का है। ये निष्काम कर्म हुआ। बात आई समझ में?

निष्काम कर्म को और क्रिया को एक न जान लेना। दोनों में ही याद रखना, कर्ता अनुपस्थित सा दिखता है। ये वैसी ही बात है जैसे किसी ने मुझसे पूछा था कि, ‘’सर, डीप माइंडफुलनेस और एब्सेंट माइंडेडनेस एक से ही दिखते हैं।’’ बिल्कुल ठीक बात थी। एब्सेंट माइंडेडनेस में भी कर्ता विलुप्त सा दिखता है, कि कर तो रहे हैं पर करने का भाव नहीं है। मशीन की तरह करे जा रहे हैं। और डीप माइंडफुलनेस में भी कर्ता नहीं होता है। समझ में आ रही है बात? अंग्रेजी में ये जो अंतर है, वो अंतर तुम्हारे काम आएगा जब रिएक्शन और रेस्पोंस का अंतर समझोगे, और जब एक्शन और एक्टिविटी का अंतर समझोगे। समझ में आ रही है बात?

जब गीता लेंगे, तो उसमें कृष्ण तीसरे अध्याय से आगे कुछ शब्दों को ले कर के चलते हैं जैसे कर्म, निषिद्ध कर्म, विकर्म, अकर्म – इन सब को समझेंगे। पर जो बात अभी की गयी है अगर इतना भी समझ लिया, तो वो बात समझ ही ली। उसमें और इसमें कोई अंतर नहीं है। ठीक है?

श्रोता: क्रिया में आपने कहा कि हर क्रिया असल में प्रतिक्रिया ही है। साँस का चलना या शरीर में जो हो रहा है, उसमें हम हों ना हों, हो रहा है। वो, क्या है?

वक्ता: हाँ, ये सब प्रतिक्रियाएं हैं। ये सब प्रतिक्रियाएं हैं!

बाहरी कोई मौजूद है। अपने से बाहर कोई है, अन्यथा वो घटना नहीं घट सकती थी।

प्रतिक्रिया का अर्थ है कि घटना के घटने के लिए दो का होना आवश्यक है। एक मुझसे बाहर कोई, दूसरा मेरी वृत्ति।

हमने जब क्रोध का उदाहरण लिया था हमने कहा था कि मुझसे बाहर कोई है जिसका शब्द आ कर के आहत कर रहा है। दूसरा, मेरी वृत्ति है, जो आहत होने को तैयार खड़ी है। इन दो का होना ज़रूरी है। ठीक उसी तरीके से, आप जब साँस लेते हो, तो उसमें आप संसार को वैधता दे देते हो। साँस लेना बड़ी आदिम वृत्ति है। उतनी ही आदिम जितना कि संतान उत्पत्ति। आप साँस ठीक उसी वृत्ति से लेते हो, जिस वृत्ति से आप संतान पैदा करते हो। क्या? देह कायम रहे। साँस लेते हो, तो वृत्ति कहती है, “यह” देह बची रहे। संतान पैदा करते हो, तो वृत्ति कहती है, “यह” देह नहीं भी रहे तो “यह” देह दूसरी देह के रूप में बची रहे। वृत्ति एक ही है। अहम् कायम रहे; देहाभाव बचा रहे। देहाभाव बचा रहे! वृत्ति एक ही है।

देखिये, इस बात को जब हम अपने छात्रों के साथ करते हैं, तो याद नहीं है बार-बार कहते हैं कि मन सिर्फ़ एक बात चाहता है। क्या? “बचा रहूँ! आगे बढ़ता रहूँ। कायम रहूँ।” और चूंकि अतीत से अभी तक की उसकी यात्रा में वो कायम ही रहा है, तो वो क्या करना चाहता है? अतीत के अनुभवों को दोहराना चाहता है। कहता है, उन अनुभवों पर चल कर के बचा रहा ना? तो आगे भी बचा ही रहूँगा। ये जो मन है, मस्तिष्क, ये वृत्ति का ही पूरा एक पिंड है। ये और कुछ नहीं है। समझ में आ रही है बात? वो कुछ और नहीं चाहता। वो नहीं चाहता है कि मुक्ति मिले और आनंद मिले और प्रेम मिले। वो बस एक बात चाहता है, भिखारी की तरह: जिंदा रहूँ। जिंदा रहने के अलावा कुछ नहीं चाहता इसलिए सदा डरा-डरा रहता है। बहुत डरा रहता है। उसको ज़िन्दा रहने के अलावा और कोई प्रयोजन ही नहीं है। जिंदा रहूँ और अपने मिट्टी हो जाने से पहले अपने जैसे कई और खड़े कर दूँ।

इसी बात को हम इस तरीके से भी कहते हैं कि प्रकृति मात्र फैलाव, प्रोलिफरेशन चाहती है। उदाहरण दे रहा हूँ: प्रकृति को आपसे कोई दिक्कत नहीं होगी यदि आप अनपढ़ रह जायें। प्रकृति को आपसे कोई दिक्कत नहीं होगी यदि आप एक शास्त्र ना पढ़ें, आप ना बैठें सत्संग में। प्रकृति खुश है आप बस पाँच-छ: बच्चे पैदा कर दीजिये। वो आपसे इतना ही चाहती है, और वो लगातार आपको इसकी याद दिलाती रहती है, बच्चे पैदा करो! बच्चे पैदा करो! दो ही चीज़ें हैं, जो याद दिलाती है। पहला: अपनी सुरक्षा करो!; दूसरा, बच्चे पैदा करो!

यहाँ तक कि वो आपको सज़ा देती है यदि आप बच्चे ना पैदा करें। प्रकृति ऐसी है, कि यदि आपने पाँच-छ: बच्चे पैदा किये, तो आप हट्टी-कट्टी रहेंगी पर यदि आप तय कर लें कि इस खेल से बाहर जाना है। “हम नहीं पड़ेंगे, संतान उत्पत्ति के खेल में।”, तो आपको सज़ा मिलेगी। कई बीमारियाँ सिर्फ़ उन्ही स्त्रियों को ज़्यादा होती हैं, जो माँ नहीं बनतीं। ऐसा खेल चल रहा है।

कोई दिक्कत नहीं होगी तुम्हें, तुम मूढ़ रहे आओ। तुम रहोगे हट्टे-कट्टे। मूढ़ लोग शायद ज़्यादा जीते होंगे। तंदरुस्त! कोई दिक्कत नहीं होगी। पर प्रकृति तुम्हें सज़ा देना शुरू कर देगी अगर तुम उसके चक्र से बाहर आना चाहोगे तो। जैसे ही तुम उसके चक्र से बाहर आना चाहोगे, वो तुम्हें सज़ा देना शुरू कर देगी।

देखिये, ये सब तो हम जानते ही हैं, सुना ही है खूब कि योगी हट्टा-कट्टा रहता है, तंदरुस्त रहता है, बलवान रहता है। ये आधा सच है। ये हठ योगियों के लिए ठीक है, जो प्राणायाम करते हैं, जो तरह- तरह के आसन लगाते हैं। ये बातें उनके लिए ठीक हैं कि योगी तगड़ा रहता है। जो वास्तविक योगी होता है, उसकी सेहत आपको अक्सर ख़राब मिलेगी। ये जो आप टीवी पर खेल देखते हैं, ये योग नहीं है कि पेट अन्दर-बाहर कर रहा है, कोई सर के बल खड़ा है। ये ठीक है। ये एक प्रकार की वर्जिश है। ये वर्जिश है, ये शरीर को हट्टा-कट्टा रखने के काम आती है। इससे आप परम को नहीं प्राप्त कर लोगे। शरीर के लिए ठीक है। इससे, हाँ! शरीर थोडा संतुलित रहता है। उससे आपके मानसिक उद्वेग शांत रहेंगे, इतना हो जायेगा पर उससे ज़्यादा कुछ नहीं।

वास्तविक योगी होगा, वो अक्सर बीमार मिलेगा। ये कोई संयोग मात्र ही नहीं है कि बहुत सारे तत्व ज्ञानी, कम उम्र में ही सिधार गए। कई उदाहरण हैं। प्रकृति सज़ा देती है। प्रकृति कहती है, “तुमने क्यों इतना ज्ञान प्राप्त किया? अब मरो!” मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि आवश्यक है। पर खेल इस हद तक चलता है। चाहे आदिशंकर हों, चाहे विवेकानंद हों, चाहे स्वामी राम हों। इनका बिल्कुल ही कम उम्र में देहावसान संयोग ही नहीं है।

श्रोता: जो लम्बा भी जिये, तो कृष्णमूर्ति कैंसर से मरे, निसर्गदत महाराज..

वक्ता: प्रकृति बहुत खुश रहेगी, आप सुबह उठ के खाया करो, पेड़ पर चढ़ जाया करो। मांस-पेशियाँ सुदृढ़ रखो और दिन में आठ दफ़े सम्भोग करो। प्रकृति आपसे इतना ही चाहती है। तंदरुस्त रहो। प्रकृति बिल्कुल नहीं चाहती कि आप साधना करो, सत्य को जानो। नहीं, कतई नहीं। सच तो ये है, आप साधना करने बैठोगे, सबसे पहला रोड़ा प्रकृति अटकाएगी। आपको खुजली-वुजली शुरू हो जाएगी। यहाँ जो लोग नहीं आते, उनसे पूछो कि उनके पास क्या कारण है और मैं दावे के साथ कह रहा हूँ, सौ में से सौ कारण प्रकृति के कारण हैं। कैसे? तबियत ख़राब थी? तबियत मने क्या? क्या ख़राब था? मन ख़राब था? क्या ख़राब था?

श्रोतागण: शरीर ख़राब था।

वक्ता: शरीर माने?

श्रोता: प्रकृति।

वक्ता: पीठ में दर्द था, पीठ माने? पीठ क्या है? प्रकृति! और मैं पक्का बता रहा हूँ, तबियत उस दिन ज़्यादा ख़राब होगी जिस दिन सेशन होगा। प्रकृति चालें चलना जानती है। देख लेना कभी। प्रकृति का दूसरा ज़रिया कि आप ज्ञान को उपलब्ध ना हो पाएं, वो है, ख़ास तौर पर स्त्रियों के लिए, यही, संतान उत्पत्ति। एक बार आ गया, अब आप के दरवाज़े बंद हो जाते हैं।

(श्रोतागण हँसते हुए)

वक्ता: बात हँसने की नहीं है। ये बहुत त्रासद बात है कि औरत को पहले तो प्रकृति हर महीने ये याद दिलाती है कि “तुम बच्चा पैदा करो। कि तुम्हारा शरीर ही अधूरा है अगर बच्चा नहीं पैदा कर रही हो।” पहले तो उसे हर महीने ये याद दिलाया जाता है, तो बेचारी करे क्या? उसकी एक-एक इंस्टिंक्ट पुकारती है कि “माँ बन! माँ बन!” माँ बन!” वो बन जाती है माँ और माँ बनने के बाद अब क्या करे? अब लग गया लंगूर साथ में।

(श्रोतागण हँसते हुए)

अब क्या करोगी? प्रकृति ने कर दिया, जो करना था। अब वो बैठी हँस रही है। तुम ढोओ। प्रकृति की कोई उत्सुकता नहीं है कि तुम सेशन अटेंड करो। प्रकृति की उत्सुकता इसी में है कि एक आ गया है, दूसरे की तैयारी करो। बात समझ में आ रही है?

शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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