प्रश्नकर्ता: नमस्ते, आचार्य जी। आज आपने बताया और समझाया कि अध्यात्म जो है, आत्मज्ञान है, सरल चीज़ है, ऑब्वियस है। ऐसा कुछ नहीं है जो बहुत हमारे दूर है। तो उसी से मुझे याद आया कि बहुत समय से मेरे साथ ये चलता आया है कि मैं मानता आया हूँ कि जो साधना होती है, वो बहुत अलग चीज़ है साइंटिफिक एनालिसिस से।
जैसे कि मैं अपने आप को जो जान रहा हूँ, और जो साइकोलॉजिस्ट किताबों में लिख रहा है, उसमें बहुत अंतर होना पड़ेगा। नहीं तो फिर कृष्णमूर्ति और फ्रॉयड एक ही चीज़ हो जाएँगे। तो मुझे उसी में सवाल अभी उठ रहा था बार-बार, जब आपने इनसाइट की बात की — कि कैसे कबीर साहब ने पत्ता गिरता हुआ देखा और उसमें पुनर्जन्म का उनको तथ्य समझ में आ गया।
तो उसी तरह से न्यूटन को भी ऐसा कहते हैं — जो गलत बात है — कि गिरा सेब और उन्होंने ग्रेविटी समझ लिया वहाँ से। दोनों अलग-अलग जगह से आ रहे हैं। पर क्या ये दोनों प्रोसेस — इनसाइट और ग्रेडेशन सेम हैं? या फिर इनमें अंतर है?
आचार्य प्रशांत: बहुत क़रीब के हैं। और अच्छा सवाल पूछा है बहुत उपयोगी सवाल है, बहुतों के लिए। बहुत निकट की चीज़ है। एक बस वो ‘मैं’ वाला अवरोध रह जाता है — अन्यथा, निकट के भी नहीं हैं, दोनों की प्रक्रिया बिल्कुल एक है। बस एक की प्रक्रिया बाहर जो है, उसको निष्पक्षता से देखने तक में पूरी हो जाती है, और दूसरे की प्रक्रिया में ‘मैं’ को भी एक तरफ रखना पड़ता है।
देखो, धर्म का आधार दर्शन होता है, वो कोई धर्म नहीं होता जिसके आधार में दर्शन ही न हो। बिना फ़िलॉसफी के स्पिरिचुअलिटी नहीं हो सकती। स्पिरिचुअलिटी का मतलब प्रैक्टिसेस वग़ैरह नहीं होता, और स्पिरिचुअलिटी का मतलब बिलीफ़्स भी नहीं होता — ना प्रैक्टिसेस, ना बिलीफ़्स।
ना तो ये कि फ़लानी क्रिया है या विधि है, ना ये कि फ़लानी धारणा है, कि मान्यता है। अध्यात्म इन दोनों में से कुछ नहीं होता। अध्यात्म दर्शन होता है — दर्शन। आप अगर पढ़ोगे कि दर्शन की शाखाएँ क्या-क्या होती हैं, तो उसमें आप पाओगे — मनोविज्ञान भी एक शाखा है। साइकोलॉजी, फ़िलॉसफी के ही वृक्ष की एक शाखा भर है।
तो जो साइकोलॉजिस्ट हैं, वो फ़िलॉसॉफ़र ही है और कृष्णमूर्ति हैं, वो भी फ़िलॉसॉफ़र हैं। तो अपने आप को ये क्यों जताना कि फ्रायड में और कृष्णमूर्ति में कोई मूल अंतर है — नहीं है।
हमने क्या किया है? कि हमने जो भी क्षेत्र हैं फ़िलॉसफी के, उनको तो तार्किक और वैज्ञानिक रहने दिया है — ठीक है? ऑन्टोलॉजी हो, एपिस्टेमोलॉजी हो, साइकोलॉजी हो — इनको तो हमने कह दिया कि हाँ, ठीक है, इसमें तर्क चलेगा, इनकी विधियाँ हैं, ये सब है। और अध्यात्म के क्षेत्र में हमने क्या डाल दी चीज़ें? तमाम तरह का हूल्लड़ — हंबू-पंपू और रहस्य और मिस्टिसिज़्म और ये-वो। यहाँ तक कि अध्यात्म में आप जिस मेटाफिज़िक्स की बात करते हो न, वो मेटाफिज़िक्स भी फ़िलॉसफी का ही एक हिस्सा है — तो ये सब कुछ फ़िलॉसफी ही है।
हम यहाँ ये जो बातें कर रहे हैं — आचार्य नागार्जुन क्या हैं? दार्शनिक हैं भाई, फ़िलॉसॉफ़र हैं। ये अलग बात है कि वो जो दर्शन है, वही फिर एक जीवित धर्म की शक्ल ले लेता है, ताकि वो लोगों द्वारा अभ्यास में आ सके, पर है तो वो दर्शन ही न।
बुद्ध क्या हैं? बुद्ध सबसे पहले एक दार्शनिक हैं — और क्या हैं? उनको कहते हैं, वे धर्म के जगत के वैज्ञानिक हैं, तो कोई ऐसा अंतर नहीं है। बस जो एक चीज़ है, जहाँ मैंने कहा कि अध्यात्म और फ़िलॉसॉफी या साइकोलॉजी थोड़े से अलग हो जाते हैं — वो ये है कि अध्यात्म अंततः ‘मैं’ की मुक्ति पर ज़ोर देता है।
आप साइकोलॉजी में जाओगे तो वहाँ "लिबरेशन" शब्द नहीं मिलेगा आपको। वहाँ पर मन और उसकी प्रक्रियाओं का ज्ञान पर्याप्त होता है। साइकोलॉजी कभी नहीं कहेगी कि "द एन्ड ऑफ साइकोलॉजी इज़ लिबरेशन ऑफ द सेल्फ," ये साइकोलॉजी नहीं बोलेगी। अध्यात्म बोलेगा — "साइकोलॉजी हैज़ टू बी यूज़्ड फॉर द सेक ऑफ लिबरेशन।”
बस इतना-सा अंतर है, और कोई अंतर नहीं है।
प्रश्नकर्ता: सर, तो क्या ये जो लिबरेशन पर फोकस है, ये एक फ़िलॉसॉफीकल स्टैंड है या फिर ये कहीं और गहराई से आ रहा है?
आचार्य प्रशांत: ये एक ऑन्टोलॉजिकल स्टैंड है — एक्ज़िस्टेंशियल। मैं हूँ और मैं कैसा हूँ?
प्रश्नकर्ता: दुखी हूँ।
आचार्य प्रशांत: मैं दुखी हूँ। तो बस ये है, समझ में आ रही है बात? जैसे वैज्ञानिक का काम है — मलहम तैयार करना, तरह-तरह के रसायनों का इस्तेमाल करके और अध्यात्म का काम है — विज्ञान में जोड़ दो करुणा। तो विज्ञान ने क्या किया? — मलहम तैयार किया। और अध्यात्म ने क्या किया? — उस मलहम को लेकर के जो दुखी था, उसे मल दिया — कि “तुम्हें अब तुम्हारे दुख से मुक्ति मिल जाएगी।”
तो ये विपरीत तो किसी भी तरह से नहीं होगा न? बिना विज्ञान के अध्यात्म हो सकता है क्या? मैं "विज्ञान" कह रहा हूँ, तो मैं दर्शन की बात कर रहा हूँ। लेकिन विज्ञान अपने आप में ये नहीं कहेगा कि इस मलहम को अब ले जाओ और लोगों को लगाओ। विज्ञान कहेगा: “ये मलहम तैयार है।”
अब इसके बाद कोई चाहिए — जिसको मुक्ति की या करुणा की क़द्र हो और वो उसको ले जाकर के लोगों को मलहम लगा दे।
जिन्होंने जाना है — अब आप जो भी जिस भी तरीके से देखो — हम हेगेल की पिछले कुछ दिनों से बात कर रहे हैं — हेगेल को ऋषि बोलते हैं, मार्क्स को ऋषि बोलते हैं। कुछ लोगों ने नीचे नीत्शे को संत बोला है, तो ऐसा कोई अंतर नहीं हो गया है। जो दार्शनिक है और जो ऋषि है, उनमें एक कृत्रिम भेद मत पैदा करिए — गड़बड़ हो जाएगी।
अगर आप अध्यात्म से दर्शन को निकाल दोगे, तो अध्यात्म में क्या बचेगा? — अंधविश्वास — ऐसे कर लो, वैसे कर लो, ऐसा करना चाहिए, बेकार की रूढ़ियाँ, व्यर्थ की बातें, सब बचेंगी। अध्यात्म में दर्शन नहीं है, तो बस बहुत गंदगी बचनी है और कुछ नहीं। इसीलिए, जिन धर्मों के पीछे या नीचे एक ठोस दार्शनिक आधार होता है, वो धर्म फिर चिरंतन होते हैं — सनातन होते हैं।
और धर्म के नीचे कोई दर्शन है ही नहीं — तुम पूछो, "आपकी फ़िलॉसॉफी क्या है?" फ़िलॉसॉफी अगर है ही नहीं, तो वो फिर बुलबुला है,आती-जाती लहर है अभी उठी है, अभी गिर भी जाएगी।
सनातन धर्म वो है जिसके पीछे ठोस दर्शन है — वही धर्म 'सनातन' कहलाने योग्य है।
जो मैं बीच-बीच में बात करता रहता हूँ पश्चिमी विचारकों की, इसीलिए, क्योंकि आधुनिक काल में भारत में तो दर्शन में प्रगति हुई ही नहीं न। भारत ने तो दर्शन के शिखर को शंकराचार्य के साथ छू लिया था। उन्होंने जो बात आख़िरी बोल दी, उसके आगे तो प्रगति हुई नहीं, क्योंकि प्रगति होनी मुश्किल भी बहुत थी। अद्वैत वेदांत से आगे अब और क्या बात करोगे?
तो आज जो दर्शन में नई लहरें हैं, बातचीत है — वो तो सब पश्चिम में ही हो रही हैं। "आज" से मेरा आशय आधुनिक काल में। तो इसलिए उनकी मैं चर्चा करता रहता हूँ, उनको ऋषि के जैसा ही मानिए। ऋषि माने — ये थोड़ी होता है कि वो एक तरह के कपड़े पहने, और जंगल में ही बैठा हो या कि वो भारतीय ही हो, तभी ऋषि है।