एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह य:। अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ।। १६ ।।
अर्जुन इस प्रकार प्रवर्तित कर्मचक्र का जो अनुसरण नहीं करता, वह इन्द्रिय सुखासक्त पापी व्यर्थ ही जीवन जीता है।
~ श्रीमद्भगवद्गीता, तीसरा अध्याय, कर्मयोग, श्लोक १६
आचार्य प्रशांत: सोलहवें श्लोक से पहले चौदहवें और पन्द्रहवें में क्या समझा रहे थे श्रीकृष्ण? कि इस संसार का पूरा कारोबार कृष्ण चला रहे हैं निष्कामभाव से। कृष्ण कह रहे हैं, ‘यहाँ प्रकृति में जो कुछ भी चल रहा है, जिसको तुम अपना जीवन बोलते हो, अर्जुन। वो पूरी गति करके मुझे क्या मिलना है?’ ‘मैं’ कौन? कृष्ण अभी यहाँ पर एक दैहिक प्रतिनिधि हैं सत्य के, आत्मा के या ब्रह्म के। कह रहे हैं, ‘मुझे इसमें कुछ नहीं मिलना है लेकिन देखो फिर भी दिन-रात प्रकृति में गति है, और कामकाज चल रहा है, पूरी व्यवस्था चल रही है; पाता तो मैं कुछ नहीं न। तो जैसे मैं पूरी दुनिया को चला रहा हूँ बिना कुछ पाए, वैसे ही तुम्हें भी अपना कामकाज चलाना है बिना कुछ पाने की इच्छा रखे – यही तरीका है जीने का। वो करो जो उचित है, वो करो जिसमें धर्म निहित है और उससे कुछ पाने की उम्मीद मत रखो। जहाँ व्यक्तिगत लाभ के लिए तुमने पाने की इच्छा रखी, वहीं जान लो कि कुछ ग़लत करने जा रहे हो।’
तो उसी धारा में अर्जुन को कह रहे हैं, “अर्जुन इस प्रकार प्रवर्तित कर्मचक्र का जो अनुसरण नहीं करता, वह इन्द्रिय सुखासक्त पापी व्यर्थ ही जीवन जीता है।“
तो किस प्रकार जीने को कह रहे हैं वो? कह रहे हैं, ‘एवम’, इस प्रकार; किस प्रकार? यज्ञ की तरह। तभी इन श्लोकों में जो प्रतिपाद्य विषय है, वो यज्ञ है। और हम क्या कह चुके हैं, यज्ञ माने क्या? निष्काम कर्म। तो अर्जुन को कह रहे हैं, ‘जो निष्कामभाव से जीवन नहीं जी रहा, वो अपना जीवन व्यर्थ ही जला रहा है। जो मेरी तरह नहीं जी रहा अर्जुन, वो व्यर्थ ही जी रहा है।’ और मैं कैसे जीता हूँ? वो कह रहे हैं कि मेरा जैसे दूसरा नाम ही यज्ञ है।
ऊपर उन्होंने कहा है, “सर्वव्यापी परब्रह्म यज्ञ में ही प्रतिष्ठित है।”
परब्रह्म यज्ञ में ही प्रतिष्ठित है।
और अभी हमने कहा कृष्ण कौन हैं? कृष्ण यहाँ पर किसके प्रतिनिधि हैं? ब्रह्म के।
तो ब्रह्म किसमें प्रतिष्ठित है? यज्ञ में।
और कृष्ण क्या हैं? ब्रह्म।
तो कृष्ण ही क्या हो गए? यज्ञ।
और यज्ञ माने? निष्कामकर्म।
‘तो मैं कौन हूँ अर्जुन? मैं निष्काम कर्म हूँ, और मुझे कुछ मत मान लेना। मेरे बारे में खूब कहानियाँ सुनो, उपेक्षा कर देना; मैं कुछ नहीं हूँ, मैं निष्कामकर्म हूँ। बाकी मेरे बारे में जो भी बातें होती हैं, व्यर्थ हैं। मैं वो हूँ जो तुमसे कहता है कि जीवन की रणभूमि में भिड़ जाओ। जो तुम्हें लगातार बोलता रहे कि घुटने नहीं टेकने हैं। मोह के, माया के, अपनी आंतरिक दुर्बलताओं के विरुद्ध लगातार संघर्षरत रहना है; वो मैं हूँ। मैं वो हूँ, मेरे विषय में कोई और विचार-कल्पना-भ्रांति मत बनाना।’ समझ में आ रही है बात?
'और फिर जैसे मैं हूँ, तुम्हें भी वैसे ही हो जाना है। तुम मेरी तरह अगर नहीं हो’, तो कृष्ण कह रहे हैं, ‘तुम्हारा जन्म व्यर्थ गया।‘ मेरी तरह होने का क्या अर्थ है? जीवन को यज्ञ बना दो। बस ये बात पकड़ लीजिए।
कृष्ण की तरह होने का क्या अर्थ है? जीवन को यज्ञ बना दो। तुम्हारे पास जो कुछ भी है, उसको भेंट करते रहो ऊँचाई, और ऊँचाई की तरफ़। सबसे महत्वपूर्ण हमारे पास जो संसाधन हैं, बार-बार कहता हूँ, वो क्या है? समय ही, जीवन ही। अपना समय लगाना है चेतना को ऊँचाई देने की तरफ़। जीवन के हर निर्णय में बात यही होनी चाहिए कि ये जो मैं निर्णय करने जा रहा हूँ, छोटा निर्णय बड़ा निर्णय कोई भी, इसका मेरे मन पर क्या असर पड़ेगा। बाकी बातें एक तरफ़!
बाकी सब बातें एक तरफ़ क्योंकि एक ही चीज़ है जिसका महत्व है, वो है चेतना। अपना सबकुछ होम कर दो चेतना को उठाने के लिए। कृष्ण कह रहे हैं ‘ऐसे मैं जीता हूँ, ऐसे ही तुम जियो और कोई इच्छा रखनी ही नहीं है।' निष्काम होने का अर्थ यही है कि एक ही कामना रहेगी, क्या? चेतना को ऊपर उठाने की। चेतना जब ऊपर उठती है तो कृष्णत्व कहलाता है। तो कृष्ण की कामना रहेगी बस, और कोई कामना नहीं रहेगी।
निष्काम होने का अर्थ ये नहीं होता कि कामना-शून्य हो गए। निष्काम होने का अर्थ होता है कि कामना अब एकाग्र हो गई है, एकनिष्ठ हो गई है। कामना प्रतिबद्ध हो गई है, कामना कमिटेड हो गई है, कमिटमेंट (प्रतिबद्धता) है कामना में, ये है निष्कामता। किसके प्रति प्रतिबद्ध हो गई है कामना? कृष्ण के लिए। कह रही है, ‘बाकी सब नहीं चाहिए।’ जब बाकी सब नहीं चाहिए तो बाकियों के लिए तुम निष्काम हो गए। बाकी कामनाओं को कह दिया ‘हम निष्काम हैं।’ क्योंकि एक कामना बची है बस। बस एक कामना; जैसे कृष्ण हैं वैसा हमें हो जाना है। कृष्ण से मिलने का एक यही तरीका है।
कृष्ण से ऐसे नहीं मिलोगे कि कृष्ण महान हैं और हम ज़मीन पर लोटेंगे तो कृष्ण हमें स्वीकार कर लेंगे – ऐसे नहीं मिलोगे। उनसे वही मिल सकता है जो उनके जैसा हो जाए। सागर से नदी मिलती है न, क्योंकि दोनों की मूल गुणवत्ता एक होती है। तुम ये थोड़े ही कहोगे कि, ‘मैं तो कीचड़ भरा नाला हूँ, लेकिन मुझे जाकर मिलना है सागर से।’ तुम्हारे भीतर जो है, वो भी वैसा तो हो पहले जैसा सागर के भीतर है। नहीं? कृष्ण जैसा होना पड़ेगा कृष्ण को मिलने के लिए।
बहुत पहले मैंने किसी से हँसते हुए कहा कि कृष्ण की गीता भी उन्हीं को समझ में आती है जो कम-से-कम थोड़े बहुत कृष्ण जैसे होते हैं। अगर आप ज़रा भी नहीं हैं कृष्ण जैसे, अगर आपका जीवन ज़रा भी कृष्णमय नहीं है, माने आपका जीवन ज़रा भी यज्ञ जैसा नहीं है, निष्काम होकर नहीं जी रहे हो अपने जीवन को, तो गीता नहीं समझ में आने की। उसको वही समझ सकता है जो उसके जैसा होने लगता है। और जितना ज़्यादा उसके जैसा होने लगते हो, वो उतना ज़्यादा समझ में आने लगता है। उपनिषद् कहते हैं, ‘जो उसको जानता है वो उसके जैसा ही हो जाता है।’ और ज्ञानी अगर वैसा हुआ नहीं जिसका उसे ज्ञान है, तो वो ज्ञान अधूरा है, ‘ब्रह्मविद ब्रह्मभवेत’।
जो ब्रह्म को जानता है, वो ब्रह्म ही हो जाता है। और कोई कहे, ‘मैं ब्रह्म को जानता हूँ' और ब्रह्म जैसा हुआ नहीं तो वो जानता नहीं। कृष्ण बिलकुल वही बात कह रहे हैं यहाँ पर; गीता, उपनिषद् ही है। कृष्ण कह रहे हैं, ‘जैसा मैं हूँ, वैसा जो नहीं है वो अपना जीवन बर्बाद कर रहा है। और मैं कैसा हूँ? जो बिना किसी लाभ की आकांक्षा के वो करता ही रहता है जो उचित है।’
'अब इस रण के मैदान को ही ले लो न अर्जुन! सिंहासन या तो तुमको मिलेगा या दुर्योधन को मिलेगा, मेरा क्या? लेकिन मैं लगा हुआ हूँ। एक तरफ़ मैंने अपनी सेना खड़ी कर दी है, दूसरी तरफ़ मैं स्वयं खड़ा हो गया हूँ। ये भी हो सकता है एक-आध बाण आकर मुझे लगे और मेरी हानि हो जाए, मृत्यु हो जाए। अभी तो शारिरिक ही हूँ न’ – अंततः कृष्ण की मृत्यु बाण लगने से ही हुई थी। तो रणक्षेत्र के खतरे होते हैं – ‘मैं ये सब खतरे क्यों उठा रहा हूँ? मुझे क्या मिलना है? मुझे तो सिंहासन मिलने का नहीं, लेकिन फिर भी मैं मौजूद हूँ।’ जो ऐसे जिएगा, उसका ही जीवन सार्थक है। बाकियों को कह रहे हैं, ‘बाकी लोग तो बस इंद्रियासक्त होकर के, अघायु (पापी) होकर के, वृथा अपना जीवन गँवाते हैं।’ ये कृष्ण के शब्द हैं।
कुल-मिलाकर बात ये कि जो लोग अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं की पूर्ति में ही लगे रहते हैं जीवनभर, उनका जीवन बर्बाद जाता है। लेकिन हमारी संस्कृति हमें क्या शिक्षा देती है? खासतौर पर आजकल जो बाज़ारू संस्कृति प्रचलित है, वो क्या बताती है? कि जीवन की धन्यता ही इसी में है कि तुम अपनी इच्छाओं को पूरा करो। किसका जीवन कितना सफल है? जिसने अपनी इच्छाएँ जितनी ज़्यादा पूरी कर लीं। और कृष्ण यहाँ बिलकुल उल्टी बात बोल रहे हैं, कृष्ण बोल रहे हैं, ‘जो अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए जीता है, यही वो आदमी है, जिसने अपना जीवन बर्बाद किया।’
और आज जो समकालीन दर्शन है वो यही है, क्या? फुलफिलमेंट लाइज़ इन सैटिसफाइंग योर डिज़ायर्स (अपनी कामनाओं को पूरा करने में ही पूर्णता है)। जीवन की सार्थकता इसी में है कि कामनाएँ पूरी कर लो, और जिसने अपनी जितनी कामनाएँ पूरी कर लीं उसको आप कहते हैं, ‘देखो बड़ा सफल आदमी है, बड़ा सफल आदमी है।’
कृष्ण उल्टी बात कह रहे हैं। कृष्ण कह रहे हैं, ‘जो जितना अपनी कामनाओं के पीछे भागा, वो उतना बर्बाद आदमी है।’ ये बात पल्ले नहीं पड़ती आसानी से। क्यों? क्योंकि हम सब प्राकृतिक जीव हैं, और प्रकृति में तो वही बात चलती है जो आजकल चल रही है कि जिस चीज़ की इच्छा हो उसको पा लो, सुख मिलेगा; सार्थक हो गया जीवन। तो वो बात हमको ज़्यादा आसानी से पकड़ में आ जाती है। 'हाँ, ये बात तो ठीक है; जो चाहिए था, वो मिल गया, मज़ा आ गया।'
कृष्ण उल्टा बोल रहे हैं, कृष्ण कह रहे हैं, ‘जो तुम्हें चाहिए, अगर वो तुम्हें मिल गया तो बर्बाद हो गए तुम।’ जो तुम्हें चाहिए, अगर वो मिल गया तो बर्बाद हो गए तुम और आपमें से जिन भी लोगों ने बर्बादी झेली है – असल में झेली तो सभी ने होगी पर स्वीकार कम ही लोग करेंगे, तो जो लोग ईमानदारी से स्वीकार करने को तैयार हों कि हाँ, झेली है – वो थोड़ा खोजेंगे तो पाएँगे कि वो बर्बादी आप पर आपकी कामनाओं ने ही बरसायी थी। आप तक बरबादियाँ आपकी कामना के विषय ही लेकर के आते हैं। देखिएगा ग़ौर से!
जिससे भी आपको घोर दुख मिल रहा हो, वो वही विषय होगा जिससे आपने कभी बड़े सुख की कामना करी होगी। भई! आप जिस रास्ते पर चल रहे हो, उस रास्ते पर ही तो आपको दुख वगैरहा मिला है। और जिस रास्ते पर चल रहे हो, उस पर यही तो सोचकर चले थे कि इसपर सुख मिलेगा? कोई दुख के लिए थोड़े ही चलता है, चलते तो सब इसीलिए हैं कि कामना पूरी होगी तो सुख मिलेगा और मिल कुछ और जाता है। यही कृष्ण यहाँ पर कह रहे हैं।
और फिर भी उनका सौभाग्य है जो मानने को तैयार हैं कि बर्बाद हो गए। जिनको अभी दिखाई भी नहीं पड़ रहा है कि बर्बाद हो गए, उनके लिए तो कृष्ण भी बेकार जाएँगे। गीता भी उन्हीं के लिए है जो गीता के पास आएँ सर्वप्रथम। जिनको अपनी बर्बादी दिख ही नहीं रही, वो गीता के पास ही नहीं आएँगे। वो कहेंगे, ‘ठीक है।’ कैसा हाल चल रहा है? वो कहेंगे, ‘बढ़िया।’ नहीं, बढ़िया भी नहीं बोलते, आजकल तो आप लोग वड़िया बोलते हो न। संस्कृति! और जो जितना मौज में आकर बोले ‘वड़िया’, ऐसा लगता है इससे धन्यभागी तो कोई होगा ही नहीं, ऐश चल रही है इसकी।
मैं सोचता हूँ कि दुनिया में इतना दुख है, लोग मिलते हैं, कोई पूछता है, ‘क्या हाल है?’ कभी कोई बोलता क्यों नहीं, ‘बुरा हाल है’? सब एक-दूसरे को यही बता रहे हैं, ‘बढ़िया, खुशियाँ!’ और दुनिया रसातल में जा रही है। जहाँ खुशियों का जितना नाच होगा, जान लीजिएगा कि आप देख नहीं पा रहे हैं, वहाँ उतनी ही ज़्यादा बर्बादियाँ चल रही हैं। इसी जगह को ले लीजिए, गोवा को। यहाँ खुशियाँ मनाने ही आते हैं न सब? मातम की जगह तो ये है नहीं, मौज की ही जगह है। ये एक इकोलॉजिकल हॉटस्पॉट (पर्यावरण संवेदनशील क्षेत्र) है। ये भारत के उन चुनिंदा क्षेत्रों में है जहाँ इकोलॉजी का सबसे ज़्यादा नुकसान हो रहा है। और सड़कों पर देखें, बीचों (समुद्र किनारों) पर देखें, तो वहाँ मौज का आलम है; ये कैसी बात है? ये वो जगह है जहाँ सर्वनाश चल रहा है इस समय।
पूरा वेस्टर्न घाट है, खासतौर पर उसमें जो कोंकण पोस्ट वाला इलाका है, वो बहुत रिच बायो डाइवर्सिटी (समृद्ध जैवविविधता) का है और उसमें ही ज़बरदस्त बायोडायवर्सिटी लॉस (जैवविविधता विलुप्ति) भी हो रहा है। और उसमें बहुत बड़ा योगदान पर्यटन का है; खुशियाँ! कामनाएँ हमारी हैं ही ऐसी कि हमें मज़ा लाशों पर नाचकर ही आता है। जहाँ खुशियाँ मन रही होंगी, वहाँ जान लीजिए कि इधर-उधर कहीं आठ-दस लाशें छुपाकर ज़रूर रखी गईं हैं, नहीं तो खुशियाँ मन नहीं सकती।
इसलिए भारत ने बड़ा ज़ोर दिया खुशी और आनंद को अलग-अलग रखने पर। भारत के नाम के साथ कभी सुख नहीं जुड़ेगा, आनंद जुड़ेगा आनंद। आपको कोई सन्यासी नहीं मिलेगा जिसका नाम हो सुखीलाल, पर वो अपना नाम आनंद के साथ ज़रूर जोड़ते हैं। आपको कोई सन्यासी मिला, उसका नाम होगा योगानंद। मिल जाएँगे बहुत, योगानंद, योग का आनंद। आपको कोई मिला है भोगसुख? कोई सन्यासी मिला जिसको उसके गुरु ने नाम दिया था ‘भोगसुख’? योगानंद हो सकता है, भोगसुख नहीं हो सकता। ये भारत है – भोग नहीं योग, और सुख नहीं आनंद; यही कृष्ण यहाँ समझा रहे हैं। और भोग में आनंद नहीं होता ज़्यादा, तो इसीलिए भोगानंद नहीं मिलेंगे आपको। कहें ‘भोगानंद महाराज आए हैं’, बात बनेगी नहीं।
डर मत जाओ! जैसे ही बोलो कि भोग, सुख, इसमें बात नहीं बनेगी, हवाइयाँ उड़ने लग जाती हैं। कह रहे हैं, ‘फिर तो वो गोवा में जिस-जिस चीज़ की बुकिंग कराई है, वो बेकार जाएगा। एडवांस में ही करके आए हैं।‘ एकदम परेशान हो जाते हो कि ‘ये क्या हो गया? यही सब करना था तो यहाँ काहे को बुलाया?’ आपके मन में जो कल्पना है न निष्कामता की, वो कल्पना समस्या है। निष्कामता की आपकी कल्पना कुछ ऐसी है कि नगें-पुंगे होकर घूमना पड़ेगा। त्याग की आपकी अवधारणा ऐसी है कि रुपया-पैसा सब छोड़ देना पड़ेगा। घर, गाड़ी, परिवार, इससे दूर हो जाना पड़ेगा। खाने को भी ठीक से नहीं मिलेगा, दो हड्डी बचेंगी बस, ऐसे ही इधर-उधर कृष्णा-कृष्णा करते फिर रहे हैं। नहीं, ये नहीं मतलब है!
कृष्ण ख़ुद ही बोल रहे हैं न, ‘मेरे जैसे हो जाओ।‘ कृष्ण स्वयं आपको कैसे दिखाई देते हैं? उन्होंने सब छोड़-छाड़ रखा है? दो हड्डी हो गए हैं? खाते-पीते नहीं हैं? उन्होंने क्या छोड़ रखा है? वो तो रण के मैदान में भी मौजूद हैं, उन्होंने छोड़ा क्या है? अलंकृत हैं वो तो, स्वर्ण भी पहन लेते हैं, मुकुट भी उनका सोने का है, उन्होंने छोड़ा क्या है? तो निष्कामता का वो मतलब नहीं है जो आपकी कल्पना में आता है, जिसके कारण आप बिलकुल ख़ौफ़ज़दा हो जाते हो। कृष्ण तो जीवन में पूरे तरीके से गहराई के साथ उतरे हुए हैं, यही निष्कामता है। क्योंकि गहराई ही कृष्णत्व है, जीवन को गहराई से जीना है। कामना करनी है, गहरी कामना करनी है। ऐसी कामना करनी है कि जिसको पूरा करने के लिए सर्वस्व लुटाना पड़ जाए; वो कामना करो, ये निष्कामता है।
निष्कामता का मतलब है छोटी-छोटी, सतही, क्षुद्र इच्छाओं में हम नहीं उलझते। प्रकृति जिन इच्छाओं की तरफ़ धकेलती रहती है, उधर को हम नहीं फिसलते – ये है निष्कामता। हम गहरा जीवन जीते हैं – ये निष्कामता है। अध्यात्म का अर्थ कहीं से भी संसार में बेवकूफ़ बनकर घूमना नहीं होता। अध्यात्म का अर्थ होता है जीवन को पूरा जीना, गहराई से जीना। अध्यात्म माने एक ताक़तवर जीवन। ये नहीं कि ज़िंदगी से लात खा रहे हैं कदम-कदम पर। आ रही है बात समझ में?
जब कहा जा रहा है भोगसुख बहुत व्यर्थ की बात है, तो आपसे कुछ छीना नहीं जा रहा है, आपको बचाया जा रहा है। राजा भर्तृहरि थे जिन्होंने जितना भोग हो सकता था पूरा कर लिया और उसके बाद जानते हो क्या बोलते हैं भोग के बारे में? कहते हैं, ‘तुम भोग को नहीं भोगते, भोग तुम्हें भोगता है।’ और ये आप बहुत अनुभवी आदमी के मुँह से सुन रहे हो, बहुत ज़बरदस्त राजा थे वो; भोगियों में नम्बर एक।
श्रृंगारषट्कम लिखा था; श्रृंगार माने पूरा रस-ही-रस बह रहा है उसमें। उसमें और कोई बात ही नहीं थी, बस यही थी कि किस-किस तरीके से स्त्रियों के साथ क्रीड़ा करनी चाहिए, और कहाँ मज़े आते हैं, और कैसा होता है, पूरा यही सब चीज़। और फिर वही आदमी आगे चलकर लिखता है वैराग्य षट्कम; वो सबकुछ कर-कुरने के बाद। ये नहीं है कि कोई ज़िंदगी से मार खाया हुआ आदमी या अनुभव-शून्य आदमी आपको ये बता रहा है। जिसने जाना है, जिन्होंने भी जाना है, उन्होंने यही कहा है कि प्राकृतिक बहाव में आकर तुम सोचने लगते हो कि भोग में सुख मिलेगा; सुख क्या मिलता है, भोग तुमको खा जाता है।
‘तुम भोग को नहीं भोगते, भोग तुमको भोग लेता है।‘
मामला थोड़ा पेंचीदा लगता है, है न? ये कृष्ण की तरह जीना माने क्या? एक तरफ़ तो कहा जा रहा है कि साधारण भोग में लिप्त होओगे तो ज़िंदगी बर्बाद हो जानी है। दूसरी ओर कुरुक्षेत्र में डटकर युद्ध भी करना है, ये कैसे करना है? पकड़ना है कि छोड़ना है? पता नहीं, आप जानिए! क्योंकि युद्ध में अर्जुन जीतेंगे तो सिंहासन पा रहे हैं, पांडवों को मिल रहा है। ऊपर-ऊपर से देखो तो यही लगता है कि देखो भोग करने को मिला न। लड़ाई करी, स्वजनों का वध करा तो इसमें निष्काम क्या था? लड़ाई जीती है तो अब देखो भोग का सुख मिल रहा है, सिंहासन सुख लेंगे। नहीं!
सब संसाधनों का उपयोग करो, जीवन की हर हलचल में पूरी तरह मौजूद रहो। कोई नहीं कह रहा है छोड़कर भागने को। छोड़कर भागोगे तो भगोड़े हो, निक्कमे हो। कृष्ण छोड़कर भागते हैं क्या? नहीं। वो तो कह रहे हैं, ‘अर्जुन, तू पाँव डटा दे और भागना नहीं है बिलकुल। लड़!’ हर खेल में, हर लहर में मौजूद रहो, पर किसी ऊँचे लक्ष्य के लिए। करो कामना, पूरी जान से चाहो कुछ, पर अपनी गरिमा का थोड़ा ख़्याल करो न। अगर बड़े हो तो कुछ बड़ा ही चाहो न; छोटी-छोटी चीज़ों में क्यों ज़िंदगी खराब करते हो?
निष्कामकर्म का अर्थ है चाहत बड़ी रखनी है, छोटी बातों की उपेक्षा करनी है।
और जो चीज़ चाहनी है उसके लिए लुट भी जाना पड़े तो तैयार हैं। और वो चीज़ हो ही ऐसी कि उसके लिए लुटे बिना काम बने नहीं। छोटी-छोटी चीज़ें तो आसानी से मिल जाती हैं; दो रुपया दाम चुकाया वो मिल जाएगी। कुछ ऐसा माँगो जिसका दाम ज़िंदगी भर चुकाना पड़े। पूरी ज़िंदगी ही दाम बन जाए – चुकाए जाओ, चुकाए जाओ, तब भी वो चीज़ पूरी तरह मिले नहीं। अनंत कोई लक्ष्य होना चाहिए, अति विराट। तब मज़ा आता है जीने का, तब जीवन यज्ञ बनता है। समझ में आ रही है बात कुछ?
प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। मेरा प्रश्न ये है कि कृष्ण बाल रूप में भी हैं और गीता के कृष्ण भी हैं। तो जब हम कृष्ण को कर्मफल के समर्पण की बात करते हैं तो कौनसे कृष्ण को मन में रखकर समर्पण करना चाहिए?
आचार्य: आपने पूछा कि किस कृष्ण को कर्मफल समर्पित करना है। कृष्ण का क्या अर्थ है? जो ऊँचे-से-ऊँचा जीवन में संभव है उसे कृष्ण कहते हैं, उसकी ओर बढ़ना है। आपको जो कुछ भी उच्चतम लगता हो, श्रेष्ठतम लगता हो, उसकी ओर बढ़ना ही आपके सन्दर्भ में कृष्णत्व हुआ।
अब अर्जुन हैं, अर्जुन को कृष्णत्व ये नहीं है कि तुम जाकर के किसी प्रयोगशाला में कोई वैज्ञानिक प्रयोग करो। अर्जुन जहाँ खड़े हैं, अर्जुन के संदर्भ में कृष्णत्व क्या हुआ? तुम ऊँची-से-ऊँची लड़ाई लड़ो। अर्जुन अगर कहें कि, ‘नहीं, मैं तो जा रहा हूँ, मैं कुम्हार का काम करूँगा, मैं सुंदर-से-सुंदर घड़ा तैयार करूँगा।’ तो ये कृष्णत्व नहीं हुआ।
जीवन में आप जहाँ खड़े हुए हैं, वहाँ पर आपके लिए जो सबसे आवश्यक काम है – आवश्यक इसलिए नहीं कि वो सामाजिक मर्यादा ने आपको सिखाया है, आवश्यक इसलिए नहीं कि आम नैतिकता आपसे कह रही है कि करो; आवश्यक इसलिए क्योंकि आपका बोध आपको बता रहा है कि यही सही है और यही ज़रूरी है – उसको करना कृष्णत्व है।
प्र: अभी जो व्यवसाय कर रहा हूँ, उसमें कोई बोध या ऊँचा आदर्श नज़र नहीं आ रहा, तो उसको फिर त्याग करके…?
आचार्य: तुम जानो! ये ऐसी-सी बात है, ‘मैं खाना खा रहा हूँ, उसमें न मुझे प्रोटीन दिखाई दे रहा है, न विटामिन दिखाई दे रहा है, न मिनिरल्स दिखाई दे रहे हैं, तो क्या मैं उसको त्याग दूँ?’ नहीं, और खाओ। मैं क्या बताऊँ इसमें? ये व्यर्थ प्रश्न नहीं है?
आप कोई ऐसा काम कर रहे हो, जवान आदमी हो, अपनी ज़िंदगी दे रहे हो एक ऐसे काम को जिसमें कोई ऊँचाई नहीं, कोई आदर्श नहीं; माने ले-देकर घटिया काम। और फिर मुझसे पूछ रहे हो, ‘इसका क्या करूँ?’ तुम जानो क्या करना है, मैं क्या बताऊँ! अगर अभी भी तुम्हें पूछना पड़ रहा है तो मनुष्य कैसे हो फिर? कुछ बातें पूछनी नहीं चाहिए, बहुत स्पष्ट होनी चाहिए अपने ही भीतर।
डरो नहीं! एक काम अगर छूटता है तो कुछ बेहतर ही करके दिखाओगे तुम, डरो नहीं। क्योंकि प्रश्न देखो सिर्फ़ तुम्हारा नहीं है, ज़्यादातर लोग जो काम करते हैं न, उस काम में कोई ऊँची चीज़ नहीं होती। उस काम का जो नेचर होता है, उस काम की प्रकृति बहुत ही गिरी हुई होती है। पैसे मिल रहे होते हैं बस उस काम के। बहुत ही बेकार-सा काम होगा, हो सकता है उसके पैसे भरपूर मिल रहे हों। तो लोग डर जाते हैं कि ये छोड़ेंगे तो करेंगे क्या।
मैं कह रहा हूँ कि थोड़ा भरोसा रखो, अपनी ताक़त को थोड़ा आज़माओ, फिर वो जगती है। तुम्हें ख़ुद नहीं मालूम तुम्हारे अंदर कितनी सामर्थ्य है और तुम क्या-क्या करके दिखा सकते हो। प्रयोग करोगे, थोड़ा खतरा उठाओगे तब पता चलेगा।
प्र२: शत-शत नमन, आचार्य जी। जैसे उपनिषद् में कहा गया है कि हम समझें कि शरीर की सब प्रक्रियाएँ प्रकृति की वजह से हो रही हैं और हमारे मन में जो विचार, कामनाएँ उठ रहे हैं वो हमारी नहीं हैं, बाहरी प्रक्षेपण हैं। जो सच में इनको समझ गया, उसमें फिर एक बोध जागृत होता है और जब इंसान को बोध होगा तभी वो निष्कामकर्म करेगा। अब आज मैं जिस स्तर पर हूँ, मैं अपने-आपको शरीर ही समझता हूँ और मुझे ये भी पता है कि मेरी जो इच्छाएँ, कामनाएँ हैं, सब बाहर से आ रहीं हैं। तो आज मैं जो ऊँचे काम के बारे में सोचूँगा तो क्या वो उन इच्छाओं से ही प्रेषित नहीं होगा?
आचार्य: ये प्रश्न कहाँ से प्रेषित है?
प्र२: ये तो पढ़ने से, मतलब कुछ रिलेशन (सम्बन्ध) से आया।
आचार्य: जब ये प्रश्न किसी और जगह से आ सकता है तो दुनिया में काम क्या करना है वो बात भी उसी जगह से नहीं आ सकती?