कृष्ण ही ब्रह्म, कृष्ण ही माया || श्रीमद्भगवद्गीता पर (2020)

Acharya Prashant

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कृष्ण ही ब्रह्म, कृष्ण ही माया || श्रीमद्भगवद्गीता पर (2020)

तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च। अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन।।

मैं ही सूर्यरूप से तपता हूँ, वर्षा का आकर्षण करता हूँ और उसे बरसाता हूँ। हे अर्जुन! मैं ही अमृत और मृत्यु हूँ और सत्-असत् भी मैं ही हूँ। —श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ९, श्लोक १९

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। इस श्लोक में श्रीकृष्ण बताते हैं कि वे ही मृत्यु और अमृत, सत् और असत् हैं। आचार्य जी, हम यह तो समझते आए हैं कि कृष्ण अमृत हैं और कृष्ण ही सत्य हैं, तो कृष्ण अपने-आपको मृत्यु और असत् से क्यों जोड़ रहे हैं? कृपया समझाइए।

आचार्य प्रशांत: हमारे जीवन में अगर सिर्फ़ अमृत ही होता, सिर्फ़ सत्य ही होता तो श्रीकृष्ण को कोई आवश्यकता नहीं थी मृत्यु का नाम लेने की या असत् का नाम लेने की। पर हम तो प्रकृति में जीने वाले लोग हैं न। प्रकृति में यदि जन्म है, तो मृत्यु भी है। प्रकृति में तो असत्-ही-असत् सर्वत्र है।

यह जो त्रिगुणात्मक प्रकृति है, यह क्या है? यह कृष्ण की योगमाया ही है न? कृष्ण की ही प्रकृति है। तो वे कह रहे हैं कि, "ये जो जन्म-मृत्यु का खेल चल रहा है पूरा, ये मेरी माया में चल रहा है। तुम चाहो तो माया के तल पर जी लो, माया के तल पर जियोगे तो तुम भी जन्म, जरा, मृत्यु के वशीभूत रहोगे और अगर तुम चाहो तो माया का स्वामित्व करने वाला मैं जो अध्यक्ष बैठा हूँ ऊपर, तुम मुझमें जी लो, मुझमें जियोगे तो सतत जीवन मात्र होगा, न जन्म होगा, न मृत्यु होगी।"

दो तरह के जीवन होते हैं, एक जीवन होता है मायावी। वो जीवन समय का एक हिस्सा है, कालखंड है वो। आमतौर पर हम उसी को जीवन जानते हैं। वह जीवन एक समय के पल से जन्म के साथ शुरू होता है और समय के एक दूसरे पल में मृत्यु के साथ ख़त्म हो जाता है। ठीक है?

आप कहते हो कि १ जनवरी १९७५ ई. को हमारा जन्म हुआ था और ३१ दिसंबर २०२५ ई. को हम ५०-५१ वर्ष की अवस्था में पधार गए। सन् १९७५ से सन् २०२५ के बीच का जो यह अंतराल है, कालखंड है, इसको आप नाम दे देते हो जीवन का। यह जीवन अपने दोनों ही सिरों पर किससे घिरा हुआ है? जन्म से और मृत्यु से। सामान्यतः इसे हम जीवन मानते हैं। यह मायावी जीवन है, अध्यात्म बार-बार यही सिखाता है। इसे नहीं जीवन बोलते।

जो कभी शुरू हुआ हो और लगातार ख़त्म होने की दिशा में बढ़ रहा हो, उसे जीवन नहीं बोलते। हमारा यह जो जीवन है, यह काल में एक विस्तार है। यहाँ से शुरू हुआ (एक तरफ इशारा करते हुए) , इस बिंदु का क्या नाम? सन १९७५। 'बधाई हो! लड़का हुआ है।' और ये यहाँ पर (समान तल पर उसके बिलकुल विपरीत जगह पर इशारा करते हुए) खत्म हुआ है, इसका नाम? 'बुढ़ऊ सिधार गए।' तो बधाई से लेकर बुढ़ऊ तक की ये यात्रा है, पधारने से सिधारने तक की।

अध्यात्म समझाता है कि ऐसे नहीं (विस्तृत नहीं), ऐसे होता है जीवन (गहरा)। विस्तार नहीं, गहराई—ऐसे होता है जीवन। उसको तुम समय में नहीं नाप सकते। समय में तो ऐसे (क्षैतिज) विस्तार नापते हो न? कितने सेकंड, कितने मिनट, कितने महीने, कितने साल, यह सब नापते हो। अध्यात्म कहता है इसको (समान तल का इशारा करते हुए, हॉरिजॉन्टल) नहीं, जीवन इसको (ऊपर से नीचे की ओर इशारा करते हुए, वर्टिकल) बोलते हैं, उसको गहराई बोलो, ऊँचाई बोलो, जो भी बोलना है। आयाम अलग है, वह ऑर्थोंगोनल है, परपेंडिकुलर (लंबरूप) है।

तुम पचास साल जिए या सौ साल जिए, इसको नहीं जीवन बोलते, यह (गहराई) मिला कि नहीं मिला, इसको जीवन बोलते हैं। अब अगर तुम इस आयाम (गहराई) पर जी रहे हो तो शाश्वत जीवन है, कृष्ण-ही-कृष्ण हैं, उसके अलावा कुछ है ही नहीं। न जन्म है, न मृत्यु है—जीवन मात्र है।

इस आयाम (विस्तार) पर जी रहे हो तो जन्म भी है, मृत्यु भी है, यहाँ कृष्ण का कोई सवाल ही नहीं। यहाँ कृष्ण की संभावना है, कृष्ण नहीं हैं। यह माया का तल है। यह सामान्य जीवन का, प्रकृति का तल है। इस तल पर संभावना तो है, सत्य नहीं है। और यह तल (गहराई वाला) सत्य का है। संभावना क्यों है? मैं क्यों कह रहा हूँ, संभावना क्यों है? क्योंकि जब तुम ऐसे चल रहे हो (समय के विस्तार में) तो एक पल, दूसरा पल, तीसरा पल, चौथा पल, ऐसे चल रहे हो न, इसमें हर पल पर यह गुंजाइश है, यह संभावना है, यह पॉसिबिलिटी है कि ऐसे हो जाओ (गहराई पा जाओ)। यह ऊपर का रास्ता या नीचे का रास्ता, यह लगातार खुला हुआ है, संभावित है। संभावित है, साकार और सार्थक होगा कि नहीं होगा, वो तुम्हारी नीयत पर है। अध्यात्म तुम्हारी नीयत को नहीं जीत सकता।

सारा ज्ञान, सारा उपदेश देने के बाद भी तुम कहो ‘ठेंगा’, तो अध्यात्म कुछ नहीं कर पाएगा। अध्यात्म ज़बरदस्ती थोड़े ही न कर सकता है, समझा सकता है, दिखा सकता है; तुम्हें खींचकर ऊपर टाँग नहीं सकता। तुम्हारा इरादा हो, तो ही वह काम होगा।

तो यह हमारा सामान्य मायावी तल (विस्तार का तल) है जिसमें हमारा जीवन दो बिंदुओं की अवधि के बीच का नाम है, और जैसे-जैसे तुम इस तल पर यात्रा करते हो, हर बिंदु पर संभावना है कि तुम ऐसे जियो (गहराई से जियो)। ऐसे न जियो (विस्तार में न जियो), ऐसे जियो (गहराई में जियो)। इसको (गहराई) कहते हैं अकाल में जीना, इसको कहते हैं कालातीत में जीना। इसको (विस्तार) कहते हैं काल में जीना।

हममें से ज़्यादातर मृत्यु के तल पर जीते हैं। हम अकाल के तल पर नहीं जीते, ऐसे (गहराई में) नहीं जीते। संभावना लगातार है, कभी भी जी सकते हो। लगातार माने तभी तक है जब तक तुम मरे नहीं, अब मर ही गए तो कुछ नहीं, भैंसा है बस।

इसलिए कृष्ण अपने-आपको दोनों जगह बताते हैं। बोलते हैं कि, "यहाँ (गहराई में) तो मैं हूँ ही, यहाँ मैं कैसे हूँ? यहाँ मैं कृष्ण के तौर पर हूँ। और यहाँ (विस्तार में) मैं कैसे हूँ? यहाँ मैं कृष्ण की संभावना के तौर पर हूँ।" तो अगर तुम्हें बहुत ही सकारात्मक तरह से देखना है तो तुम कह सकते हो कि माया, माया नहीं है, माया कृष्ण की संभावना है।

बहुत पहले, चार-पाँच साल पहले, एक वीडियो पब्लिश (प्रकाशित) हुआ था, उसका बड़ा रोचक शीर्षक दिया था मैंने। मैंने कहा था – ‘माया नहीं दीवार ही, माया सत्य का द्वार भी’। माया को दीवार ही मत मानो, माया सत्य का द्वार भी है। वह यही बात थी कि माया है तो इस आयाम (समान तल) की, इस दिशा (जन्म से मृत्यु की दिशा) की, मगर उसमें लगातार संभावना बनी हुई है कि तुम ऐसे (गहरे) भी हो पाओ। हाँ, तुम उस संभावना का उपयोग करोगे कि नहीं करोगे, वो तो बादशाह साहब की मर्ज़ी की बात है। अब करें, चाहें न करें।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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