कृष्ण से बड़ा पारखी कौन! || आचार्य प्रशांत, श्रीमद्भगवद्गीता पर (2022)

Acharya Prashant

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कृष्ण से बड़ा पारखी कौन! || आचार्य प्रशांत, श्रीमद्भगवद्गीता पर (2022)

संजय उवाच। तं तथा कृपयायपूर्णाकुशेषणम्। विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः ।।१।।

श्रीभगवान् उवाच कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् । अनार्य-जुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन ॥२॥

“संजय कहते हैं कि श्रीकृष्ण ने उस प्रकार भाव से आविष्ट और अश्रुपूरित नेत्रों वाले दुखी अर्जुन से कहा — हे अर्जुन! अनार्यो के योग्य, स्वर्गप्राप्ति का विरोधी, निंदाजनक यह मोह तुम्हें कहाँ से प्राप्त हुआ है?”

~श्रीमद्भगवद्गीता, श्लोक १–२, अध्याय २, सांख्य योग

आचार्य प्रशांत: चित्त के ज्ञाता, मन के विशेषज्ञ की यह निशानी होती है कि बहुत पैनी दृष्टि होती है और बहुत द्रुत गति से वह सामने जो भी बैठा है, शिष्य, रोगी, प्रार्थी, उसकी वास्तविक दशा को पकड़ लेता है। शिष्य अपनी लंबी-चौड़ी व्यथा-कथा सुनाता है। स्वयं भी उलझा हुआ है और बड़े उलझे हुए शब्दों में अपनी हालत का वर्णन करता है। लेकिन गुरु यदि ज्ञाता है तो वह बिल्कुल सार-संक्षेप में चिन्हित कर लेता है कि वास्तविक बात क्या है। जटिलताओं को काटकर जो सीधा, स्पष्ट, सरल यथार्थ है, गुरु उस पर उंगली रख देता है।

पूरे प्रथम अध्याय में अर्जुन ने अपने विषय में, युद्ध की स्थिति के विषय में, अपने परिजनों के विषय में, धर्म के विषय में, युद्ध के परिणाम के विषय में, कितनी ही बातें कहीं। लेकिन जिस बात का बहुत कम या एकदम नहीं उल्लेख किया वो थी मोह। मोह शब्द अर्जुन से उच्चारित ही नहीं हुआ पूरे अध्याय में। सब इधर-उधर की बातें करते रहे। कभी कह दिया कि ‘हम चूँकि श्रेष्ठ हैं धृतराष्ट्र पुत्रों से इसलिए हमें युद्ध नहीं करना चाहिए’। कभी कह दिया कि ‘युद्ध हो गया तो स्त्रियाँ भ्रष्ट हो जाएँगी, वर्णसंकर पैदा हो जाएँगे, फिर पितरों का क्या होगा’। कभी कोई तर्क दे दिया, कभी कोई बात कह दी।

बस एक बात नहीं कही – 'मुझे मोह है'। यह बात अर्जुन ने नहीं कही। यही बात असली है इसलिए यही बात अर्जुन को छुपानी थी। अर्जुन ने कही नहीं और श्रीकृष्ण जब बोलना शुरू करते हैं तब श्रीकृष्ण ने सबसे पहले कह दी।

अर्जुन जो भी तर्क दे रहे थे आप पाएँगे कि कृष्ण उनका खंडन करते ही नहीं हैं। कृष्ण सीधे पते की बात करते हैं। वृत्ति से ग्रस्त व्यक्ति सौ तरह के घुमावदार तर्क देता है, उलझाऊ बातें करता है। उसकी उन बातों में कुछ रखा नहीं है। वह व्यक्ति स्वयं भी उन बातों में बहुत विश्वास नहीं रखता है। वे बातें तो वह सामने बस इसलिए रख रहा है ताकि वह अपने बचाव में कुछ कह सके। ध्यान दीजिएगा, उन तर्कों में स्वयं भी उसका कोई गहरा विश्वास नहीं है। आप अर्जुन से पूछिए, “अर्जुन, यह वर्णसंकर वाली बात में आप वाकई विश्वास रखते हो?” अर्जुन बगले झाँकने लगेंगे। एक तर्क गढ़ा गया है। कहने को कुछ चाहिए, अपनी सुरक्षा के लिए कुछ तो कवच खड़ा करना है, तो कोई ऊटपटाँग बात ही सही, कहनी तो है।

कृष्ण भलीभाँति जानते हैं कि ये सब बातें बिना सार की होती हैं, इनमें कोई दम नहीं। इनसे क्या उलझें, इन बातों का क्या जवाब दें! कोई कम गहरा व्यक्ति होता, कोई थोड़ा हल्का गुरु होता, तो वह अर्जुन के तर्कों को काटना शुरु कर देता; कृष्ण बहुत गहरे हैं। कृष्ण झूठे तर्कों में, उथली बातों में उलझते ही नहीं। उन्होंने सीधे केंद्र पर उँगली रख दी। बोले, "अर्जुन, तुम मोह ग्रस्त हो। क्या बहकी-बहकी बातें कर रहे हो? युद्ध चल रहा है यह।"

कृष्ण बिना केंद्र के होते हैं। इसीलिए परमसत्ता को सर्वव्यापक कहा जाता है क्योंकि वह किसी एक जगह नहीं होती। उसका कोई केंद्र नहीं होता, वह सर्वत्र होती है। तो इसीलिए जब कृष्ण को परास्त करना चाहते हैं अर्जुन, तो उन्हें हर दिशा में अपने छितराए हुए बाण मारने पड़ते हैं। कभी कुछ कहना पड़ता है, कभी कुछ कहना पड़ता है क्योंकि कृष्ण किसी एक जगह नहीं हैं। एक जगह होते तो उसी दिशा में बाण मार दिया होता और अपनी बात सध जाती, प्रयोजन सिद्ध हो जाता। कृष्ण किसी एक जगह हैं नहीं। तो अर्जुन को सौ तरह की बातें करनी पड़ती हैं, सौ दिशाओं में बाण मारने पड़ते हैं।

लेकिन अर्जुन सर्वव्यापी नहीं हैं। वो तो एक बिंदु से संचालित हो रहे हैं। जो एक बिंदु से संचालित होता है उसी को तो अहंकार बोलते हैं न। अर्जुन के पास अपना एक व्यक्तिगत केंद्र है। कृष्ण के लिए बहुत आसान है, उन्हें वह केंद्र दिख रहा है। वो मोह की वृत्ति का केंद्र है। तो कृष्ण को बहुत इधर-उधर शस्त्र संचालन नहीं करना पड़ता। कृष्ण सीधे जाकर बस उस एक केंद्र पर निशाना कर देते हैं। और कर दिया यहाँ पर!

पूरे पहले अध्याय में, ऐसे समझ लीजिए, जैसे आपने अर्जुन की बाण-वर्षा देखी। और दूसरा अध्याय ऐसे शुरू होता है कि जैसे सौ सुनार की एक लोहार की। सौ बातें कह ली अर्जुन ने पहले अध्याय में – ये है, वो है, न जाने क्या-क्या। दूसरा अध्याय आरंभ होता है और कृष्ण का एक तीर। बात खत्म हो गई। ‘अर्जुन, तुम मोह ग्रस्त हो!’

वास्तव में सरल व्यक्ति के लिए जटिलता कहीं होती ही नहीं। जटिलता सिर्फ़ जटिल-मना के लिए होती है। जो जितना जटिल है उसकी दुनिया उसके लिए उतनी ही जटिल रहेगी। आप आकर अपनी बड़ी लंबी-चौड़ी, उपन्यास सरीखी, कहानी सुना देते हैं। सुनने वाले के पास यदि साफ़ कान है तो वह जान जाता है कि इस पूरी कहानी का सार क्या है, लब्बोलुआब क्या है। और जो सार होता है उसमें कोई विशेषता नहीं होती। किसी को काम ने पकड़ रखा है, किसी को क्रोध ने, किसी को मोह ने, किसी को मद ने, किसी को भय ने, बस यही। क्योंकि इसके अलावा और कुछ होता ही नहीं है किसी भी व्यक्ति के जीवन में।

हाँ, ऊपर-ऊपर से देखो तो कहानियाँ सब की बड़ी अलग-अलग दिखाई देती हैं। और आप किसी से भी कहिए कि अपनी कहानी सुनाओ ज़रा, वह कम-से-कम दो घण्टा सुनाएगा। दो घण्टे की उसकी जो कुल कहानी होगी, वह एक शब्द में समेटी जा सकती है। वह एक शब्द कुछ भी हो सकता है – भय, अज्ञान, मोह। वास्तव में वह कुल कहानी एक ही शब्द की थी इसीलिए तो उसको इतना लंबा-चौड़ा बना कर बताना पड़ा। बताने वाला भी कहीं-न-कहीं जानता है कि उसकी कहानी में कोई दम नहीं, ज़रा-सी बात है यह। उस ज़रा-सी बात की खातिर इतना बड़ा किस्सा तैयार किया गया है।

अभी दो-तीन साल पहले तक हम यह भी कर लेते थे कि जो लोग मुझसे व्यक्तिगत रूप से मिलना चाहें, उनका स्वागत करते थे। फिर यह चीज़ रोकनी पड़ी, अब रोके हुए लगभग तीन वर्ष हो गए हैं; उसकी वजह थी। पहली बात तो बहुत ज़्यादा लोग थे जो आतुर थे मिलने के लिए। दूसरी बात उसका समय निर्धारित किया गया था एक घण्टे का, याद है? कि आप आएँ और कुल एक घण्टे की वार्ता होगी। जो भी सज्जन या देवियाँ मिलने के लिए आएँ, एक घण्टे में बात निपटाना तो दूर कि कुल बातचीत ही निपट गई, दो घण्टे तक तो वे पूरा विस्तार से अपनी ही ओर से विवरण देते रहते थे। और बड़ी गंभीरता से।

मैं उनको थोड़ा-बहुत टोकने की कोशिश भी करूँ और वो धृष्टता जैसी लगे, तो विनम्रता के नाते मैं सुनता जाऊँ, सुनता जाऊँ। और जो बता रहे हैं उनको लग रहा है कि वह बड़ी गंभीर और महत्वपूर्ण बात बता रहे हैं। बताए ही जा रहे हैं, बताए ही जा रहे हैं, और दो घण्टे तक बताएँ। कईं बार तो चार-चार घण्टे चला है। अब वह बता रहे हैं, और जो बता रहे हैं वह मैंने तीसरे मिनट में ही पकड़ लिया था कि वह क्या बता रहे हैं। उनको बताते अब दो-सौ मिनट हो चुके हैं और जब वो हाँफने लग जाएँ, किसी तरह रुकें, तो मैं दो-चार उनको बातें बोलूँ और दो ही चार बातों में निदान हो जाए सारा। क्योंकि दो-चार बातों से आगे की किसी की कहानी होती ही नहीं। किसी की नहीं होती।

इसीलिए तो संत कहते हैं ‘एक अलफ़ पढ़ो छुटकारा है।’ मैंने तो शब्द कह दिया था, अक्षर काफ़ी है, शब्द की भी बात नहीं है। उससे आगे की किसी की कोई दास्तान नहीं। लेकिन लोगों को बुरा लग जाए। वे बोलें, “यह देखो, हमने ढाई घण्टे तक अपना रोना रोया और इन्होंने उसके बाद दो मिनट में बात निपटा दी!” अब मेरे पास उससे ज़्यादा बोलने को कुछ है नहीं; लेकिन विनम्रता के नाते, शालीनता के नाते, मुझे और बोलना पड़े, और समझाना पड़े। अब यह भी दिख रहा है कि मुझे जो बोलना था वह तो मैंने पहले ही वाक्य में बोल दिया था। लेकिन सुनने वाला जब समझने को राज़ी नहीं है तो फिर उसको और विस्तार से बताओ, समझाओ, चीज़ें खोलो, उसके कुतर्कों को निपटाओ।

वो मैं कर सकता था, करता भी था। ऐसी मैंने सैकड़ों मुलाकातें करीं लेकिन फिर वक़्त बहुत लग जाए। पहले तो जो दो मिनट की बात थी, उसको दो-ढाई घण्टे सुनो, फिर अपनी ओर से जो दो मिनट की बात है उसको दो-ढाई घण्टे समझाओ। फिर हमने कहा कि यह कार्यक्रम ही अब बंद किया जाए। कोई इसमें जादू नहीं होता। कुछ ऐसा नहीं है कि, "अरे! आपने कैसे पकड़ लिया? यह बात तो बड़ी छुपी हुई थी। आप कैसे खोज लाए? कहाँ से खोद लाए?" कोई जादू नहीं।

यह दो ही चार तो रोग हैं कुल मिलाकर के सारी दुनिया के, आपका रोग कुछ अलग थोड़े ही हो जाएगा। हर व्यक्ति को यही लगता है कि वह अनूठा है। अनूठा होता कोई नहीं। सबको यही लगता है कि उसका ही किस्सा कुछ अलग है, विचित्र है, विशेष है। कुछ नहीं होता किसी का अलग, विचित्र, विशेष। ठीक वैसे ही जैसे एक मिट्टी से सब उठे हैं, उसी तरीके से एक जैसे ही सब के किस्से हैं।

तो यह जो अर्जुन का किस्सा है यह बहुत पुराना है। कृष्ण ने हज़ारों-लाखों बार सुना हुआ है यह किस्सा। अर्जुन के ज़रा-सा बोलते ही, बल्कि अर्जुन के बोलने से पहले ही कृष्ण भाँप जाते हैं बिलकुल कि बात क्या है। और मैं फिर कह रहा हूँ, इसमें कोई जादू नहीं। यह तो बात नियम की है। धर्म से जो भी हटना चाह रहा है उसके पास कुल मिला-जुला कर यही दो-चार कारण होते हैं — लालच आ गया है, भ्रम छा गया है, डर ने पकड़ लिया, आसक्ति आ गई है। यही दो-चार बातें होती हैं। अब अर्जुन यहाँ पर धर्म से विलग हो रहे हैं तो यही दो-चार कुछ कारण होंगे। कृष्ण को क्षण भर लगा बात को पकड़ लेने में। अर्जुन चमत्कृत हो गए होंगे कि ‘अरे! मेरा इतना गहरा रहस्य, इतना खुफ़िया राज़, इन्होंने इतनी जल्दी कैसे पकड़ लिया!’

आपकी बातचीत में कुछ भी गहरा, रहस्यात्मक, गुप्त है ही नहीं। आपकी बात उतनी ही सार्वजनिक है, जैसे सूरज की किरणें, जैसे हवा का बहना। आपको हवा लगती है, आप कहते हैं, "वाह! बड़ी अच्छी हवा चली, ठंडी-ठंडी मुझे हवा लगी।" अरे! वह सबको लग रही है, वह बात सार्वजनिक है। आपके अपने अनुभव में आ रही है इसका मतलब यह नहीं है कि सिर्फ़ आप ही के अनुभव में आ रही है। वो घर-घर का किस्सा है, वो हर मन की कहानी है।

हम सब एक हैं वृत्ति के तल पर और हम सब कुछ नहीं हैं आत्मा के तल पर और हम सब विविध हैं, अनेक हैं, अनंत हैं, मन के तल पर।

तो थोड़ा सा चौंक गए हैं अर्जुन कि, "अरे! इतनी जल्दी पोल खुल गई! कृष्ण ने तो पहली ही बात में पकड़ लिया।" लेकिन अर्जुन के लिए सबसे अच्छी बात यही हुई कि कृष्ण ने सीधा ही पकड़ लिया है। जब कृष्ण ने सीधा ही पकड़ लिया है तो अर्जुन ने भी अपने सारे कुतर्क त्याग दिए और अब अर्जुन भी सीधे मुद्दे की बात पर आ गए।

देखिए अब क्या कहते हैं अर्जुन। अभी तक क्या कह रहे थे? कि ऐसा है वैसा है, धर्म हमें मालूम नहीं किधर है। मारें तो यह अच्छी बात नहीं है। और वह सब बातें कि स्त्रियाँ भ्रष्ट हो जाएँगी, इत्यादि इत्यादि। कितना लंबा-चौड़ा कल्पना का जाल बुना था। लेकिन जैसे ही कृष्ण ने कहा कि ‘अर्जुन, मोह है, सिर्फ़ मोह’, तो अर्जुन उत्तर आगे क्या देते हैं?

कृष्ण कहते हैं, "हे अर्जुन, अनार्यो के योग्य, स्वर्गप्राप्ति का विरोधी, निंदाजनक यह मोह तुम्हें कहाँ से प्राप्त हुआ है?" यह भी नहीं कह रहे हैं कि ‘अर्जुन कहीं यह मोह तो नहीं?’ प्रश्न यह नहीं करा है कि कहीं यह मोह तो नहीं। प्रश्न सिर्फ़ यह पूछा है – मोह तो है ही बताओ मिला कहाँ से है? बात करने का तरीका देखिए। प्रश्न तो करा ही है पर प्रश्न में संदेह इस बात पर नहीं रखा है कि अर्जुन विचार करो कि कहीं मोहग्रस्त तो नहीं। ना! कहा — मोह तो है ही है, यह बताओ मोह आया कहाँ से है? तो अर्जुन के पास भागने छुपने के लिए कोई उन्होंने रास्ता छोड़ा नहीं है।

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