कृष्ण के अथक प्रयास || आचार्य प्रशांत, श्रीमद्भगवद्गीता पर (2022)

Acharya Prashant

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कृष्ण के अथक प्रयास || आचार्य प्रशांत, श्रीमद्भगवद्गीता पर (2022)

न मे पार्यास्ति कर्तव्य त्रिषु किंचन । नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एवं च कर्माणि ।।३.२२।।

अर्जुन मेरे लिए तो कहीं कोई कर्तव्य नहीं है। मैं तो सदा कर्म में ही लगा रहता हूँ।

~ श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ३, श्लोक २२

आचार्य प्रशांत: ‘अर्जुन मेरे लिए तो कहीं कोई कर्तव्य नहीं है।‘ कर्त्तव्य उसके लिए होता है जिसको कुछ पाना अभी शेष होता है, कर्तव्य उसके लिए होता है जिसके भटकने की आशंका होती है; मेरे लिए क्या कर्तव्य? मेरे लिए कोई कर्तव्य नहीं है। लेकिन मुझे देखो, मैं तो सदा कर्म में ही लगा रहता हूँ, मैंने कभी कर्म छोड़ा? जब मैं नहीं छोड़ता तो तुम छोड़ने का विचार भी कैसे कर सकते हो?

सही कर्म छोड़ने को ही कहते हैं सकामता। जो सही काम है वो नहीं किया, यही सकाम काम हो गया। जो सही कर्म है, वो न करने को ही कहते हैं सकाम कर्म।

क्योंकि सही को छोड़ने का एक ही कारण हो सकता है न, कामना बीच में आ गई। व्यक्तिगत कामना बीच में आ गई, लालची मन डोल गया तो जो सही था वो नहीं किया। तो कृष्ण को ऐसे मत कल्पित किया करिए कि कहीं बैठे हुए हैं, मुरली बजा रहे हैं, शांत अपना चुपचाप, निस्पृह। कृष्ण अपने बारे में स्वयं ही क्या कह रहे हैं? मैं तीनों लोकों में निरंतर –तीनों लोकों माने जहाँ-जहाँ हो सकता है, हर जगह और निरंतर माने बिना एक पल का भी विलम्ब करे या अंतराल करे – मैं क्या करता रहता हूँ? मैं कर्म करता रहता हूँ, मैं रुकता ही नहीं।

तो आध्यत्मिक आदमी की ये छवि बिलकुल त्याग दीजिए कि वो रुका हुआ होता है। हम ऐसा ही कहते हैं न ‘जो रुक गया उसे मुक्ति मिल गई।’ कृष्ण बिलकुल उल्टी बात बता रहे हैं, कह रहे हैं कि जो लगातार चलता ही जा रहा है, वही मुक्त है। जो रुक गया उसके पाँव तो माया ने पकड़ लिए हैं। क्योंकि राह है मुक्ति की और अभी राह पर हो तो रुक कैसे गए भाई? तुम तो यात्रा पर हो, पथिक हो तुम, ये रुकने-रुकाने की क्या बात है? तुम्हें किसने अधिकार दे दिया रुकने का? तुम पहुँच गए हो क्या? तुम शिखर पर विराजे हो क्या? तुम चढ़ाई कर रहे हो, तुम कहाँ से रुक गए? रुक मत जाना। रुकना अच्छा लगता है, तामसिक बात है। है न? हम निवृत्त हो गए, हम रुक गए, अब हम विश्रांत हैं, कुछ करने को नहीं।

सो जाओ, यही चाहते थे। जिस हालत में हो, ऐसे ही सो जाओ – ये पशुओं का काम है। जो हालत है, उसी में सो रहे हैं। गंदगी पड़ी है, मैला पड़ा है, उसी में सो गए – ये पाशविक चेतना होती है। मनुष्य की चेतना वो है जो कहे कि जब तक ठीक नहीं कर लूँगा, रुकूँगा नहीं; रुकने के लिए नहीं पैदा हुआ हूँ। अगर रुके ही रहना था तो जन्म काहे को हुआ? जन्म से पहले भी रुके हुए थे, जन्म के बाद भी सब रुका ही हुआ है। ये बीच में गति का अवसर मिला है, इसमें अबाध गति रखनी है; रुकना नहीं है, ठहरना नहीं है। न किसी झूठी मंज़िल को पा लेने का हर्ष मनाना है, न बीच की किसी बाधा से चोट खाने का शोक, बस चलते जाना है। साधना ऐसे ही है जैसे सैन्य अभ्यास। मंदिर को शांत जगह मत बना लेना, मंदिर होना चाहिए योद्धाओं का गढ़, सैन्य छावनी।

संघर्ष ही वास्तविक त्याग है। झूठी शांति ही मोह है, जिसने व्यक्तिगत सुरक्षा की कामना का त्याग कर दिया, वही तो संघर्षरत होगा न। तो आध्यात्मिक त्याग का मतलब संघर्ष होता है।

त्याग को इतनी छोटी चीज़ मत बना लो कि प्याज-लहसुन त्याग दिया तो आध्यात्मिक हो गए; उससे नहीं हो जाओगे। अपनी हस्ती का कोई मोह बाकी न रहे। जितना समझ में आता है, जो सही लगता है उसको अपना शत-प्रतिशत दे दो, कुछ बचाने की आवश्यकता नहीं है – ये है वास्तविक त्याग। हमने बहुत ऊँचे शब्दों को बहुत साधारण बना डाला है। त्याग, व्रत, उपवास – ये बहुत ऊँची बातें हैं, ये सूरमाओं के लिए हैं। हमने उनको यूँ ही बना दिया, ज़मीनी।

यदि ह्यहं न वर्ते जातु कर्मण्यतन्द्रितः । मम वतर्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश: ।।२३।।

हे पार्थ! जैसे तुम कह रहे हो कि युद्ध नहीं करूँगा, वैसे ही अगर मैंने कर्म करना छोड़ दिया तो बताओ तुम्हारा और बाकी सबका क्या होगा?

~ श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ३, श्लोक २३

‘मैंने कर्म करना छोड़ दिया’ से क्या आशय है? कि ये जो पूरी प्रकृति है इसको गति तो मैं ही देता हूँ न। उससे क्या आशय है?

प्रकृति माने द्वैत। प्रकृति माने वो जो दिखाई देता है और वो जो देखता है, इसको ही प्रकृति कहते हो न? प्रकृति में हमेशा यही दोनों होते हैं – एक देखने वाला और एक दृष्टव्य विषय। दृश्य और दृष्टा, यही दो होते हैं प्रकृति में। इनको गति कौन देता है? इन दोनों को ही गति कृष्ण देते हैं; कृष्ण माने मुक्ति। चूँकि तुम्हें मुक्ति चाहिए इसलिए तुम इतना देखते हो इधर-उधर। तुम बेचैन नहीं होते तो इतना कुछ नहीं देख रहे होते। पूरी दुनिया में तुम खोज रहे हो, किसको खोज रहे हो? कृष्ण को खोज रहे हो और जिसको भी देखते हो वो कृष्ण जैसा दिखता नहीं, इसलिए खोजे जा रहे हो, खोजे जा रहे हो।

मन में एक छुपी हुई, धुंधली-सी कृष्ण की तस्वीर है और पूरे ब्रह्माण्ड के जितने दृश्य हो सकते हैं, तुम उन सब दृश्यों में वही धुंधली-सी छवि खोज रहे हो। इसीलिए तो आदमी इतना देखता रहता है; आँखें देखते हो न कभी थिर नहीं होतीं, इधर-उधर… कान भी लगातार सुनते रहते हैं, मन भी लगातार भटकता है, पाँव भी चल-चलकर इधर से उधर जाने को गति करते हैं। क्यों करते हैं? कुछ खोज रहे हैं हम। तो दृष्टा और दृश्य का ये जो पूरा खेल है द्वैतात्मक, जिसको हम प्रकृति बोलते हैं, इसके मूल में कृष्ण बैठे हैं। नहीं तो गति नहीं होगी। गति का मतलब ही है इधर से उधर पहुँचना, चीज़ों का बदलना, समय का होना, यही गति कहलाता है। ये गति हो ही इसलिए रही है क्योंकि प्रकृति को कृष्ण की तलाश है।

एक-एक जीवित चेतना किसी खोज में है, अन्यथा वो जीवित न हो। एक-एक जो हम साँस ले रहे हैं, उस साँस का एक उद्देश्य है; भले ही हमें पता न हो पर साँस जानती है कि वो क्या चाह रही है। और साँस को जैसे ही लगता है कि वो मिलने वाला है, साँस तेज़ हो जाती है, धड़कन बढ़ जाती है। जैसे दिल धड़क ही रहा हो किसी एक ख़ास को पाने के लिए, साँस भी इसीलिए चल रही हो।

तो इस पूरी प्रकृति के आधार में वही ख़ास है जो बैठा हुआ है, वही सब जीवों को गति देता है और काव्यात्मक तरीके से कहें तो उसी के कारण चाँद, सूरज, तारे सब अपनी गति करते हैं, क्योंकि वो सारी गति करते ही किसके लिए हैं? हमारे ही लिए तो करते हैं। हमारी ही चेतना तो कहती है न कि चाँद, सूरज, तारे ये सब गति कर रहे हैं। वरना वो और किसके लिए गति कर रहे हैं? आइंस्टीन को जब ये बात पता चली थी तो उनका बड़ा प्रसिद्ध वक्तव्य है, वो बोले ‘समझ तो गया हूँ पर मानने में बड़ी दुविधा हो रही है कि चाँद की गति मेरे देखने के कारण है, कि चाँद है ही तब जब मैं उसे देखता हूँ, अन्यथा चाँद नहीं है।’ ये बात पूरे तरीके से औपनिषदिक है। मेरे लिए ही तो चाँद है, क्यों? क्योंकि मैं कृष्ण को खोज रहा हूँ, इसलिए चाँद गति करता रहता है। बात को समझिएगा!

इसीलिए तो चाँद की इतनी कलाएँ हैं, रोज़ वो अपना चेहरा बदलता है क्योंकि किसी एक चेहरे में आपको कृष्ण दिखाई ही नहीं देते तो कहते हो, ‘अगला! नहीं, ये भी ठीक नहीं है, अगला। ये भी ठीक नहीं है, अगला!' एक ख़ास सूरत है जिसे आप सब सूरतों में खोज रहे हैं, पर वो मिलेगी नहीं। क्यों? क्योंकि वो निराकार है और आप खोज साकार में रहे हैं, लेकिन साकार में खोजने के अलावा कोई विकल्प भी नहीं है। तो साकार में ही इस तरह से खोजना है कि निराकार तक पहुँच जाएँ। जगत में ही इस तरह से जीना है कि जगत से मुक्ति मिल जाए, यही कला है।

तो कृष्ण कह रहे हैं, ‘मैं पूरी दुनिया को चला रहा हूँ, उसमें मुझे कुछ नहीं मिलना; मैं तो पूर्ण हूँ, मुझे क्या मिलेगा? और तुझे तो पूरी दुनिया को भी नहीं चलाना अर्जुन, तुझे तो धर्म का पालन करना है, तू उससे ही भागेगा? क्यों छोड़ता है अपना काम? मेरी ओर ही देख ले, मैंने छोड़ा क्या?’ पता नहीं अर्जुन को ये बात कितनी समझ में आयी होगी। बहुत तो समझ में नहीं आयी होगी, नहीं तो आगे इतने अध्याय और न बताने पड़ते। पर कृष्ण जो कर रहे हैं, वही है जो वो कर सकते हैं।

ब्रह्म में भी ये शक्ति नहीं है कि माया को प्रतिबंधित ही कर दे। किसी गुरु में ये शक्ति नहीं होती कि शिष्य को हाथ पकड़कर, ढकेल कर मुक्ति दिला ही दे। सत्य भी आपके सामने बस एक विकल्प की तरह आता है, अनिवार्यता की तरह नहीं। आपको चाहिए हो तो चुन लीजिए, न चाहिए हो तो मत चुनिए। सत्य भी एक तरह से बस प्रयास कर सकता है, निश्चित नहीं कर सकता। तो कृष्ण भी अर्जुन के साथ प्रयास करे ही जा रहे हैं। कभी इस तरीके से, कभी उस तरीके से; कभी अपकीर्ति का डर दिखाते हैं, कभी क्षत्रिय धर्म याद दिलाते हैं, कभी सांख्ययोग बताते हैं, अभी निष्कामता का पाठ पढ़ा रहे हैं।

निष्कामता का कहते-कहते ये कहने लग गए कि चलो मेरे उदाहरण से ही सीख लो! पर अर्जुन तो अर्जुन हैं, जैसे आजतक के सब श्रोता, सब शिष्य हुए हैं। बात ये नहीं है कि कृष्ण के समझाने में या तर्कों में कोई कमी है। बात ये है कि एक जादुई क्षण आता है जब अहंकार झुकने को राज़ी हो जाता है, वो जादुई क्षण अभी आ नहीं रहा है। और वो जादू ही होता है, उसको किसी विधि से या उपाय से या तिकड़म से नहीं लाया जा सकता। प्रयास पूरा किया जा सकता है कि वो क्षण आ जाए पर कैसे आएगा, कब आएगा, आएगा कि नहीं आएगा, कोई भरोसा नहीं होता। कृष्ण उसी विशेष क्षण की प्रतीक्षा में लगे हुए हैं; कृष्ण को भी लगना पड़ता है।

यहाँ पारब्रह्म थोड़े ही हैं, अवतार हैं, और अवतार तो मानवीय होता है। तो जैसे ही लक्ष्य की प्राप्ति हेतु हर साधारण मानव को बहुत सारे प्रयास करने पड़ते हैं, असफलताएँ भी देखनी पड़ती हैं, वैसे ही कृष्ण भी यहाँ प्रयास कर रहे हैं, और प्रयासों में अक्सर असफल भी हो रहे हैं।

गीता कितनी रोचक है न! कृष्ण को भी कितना श्रम, कितनी मशक़्क़त करनी पड़ रही है। जैसे अर्जुन के सामने बार-बार आवेदन कर रहे हों, ‘कृपया सुन लीजिए!’ और अर्जुन कह रहे हों, ‘न, ख़ारिज; अगला योग बताइए।’ (मुस्कुराते हुए)

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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