क्रांति है अपना साक्षात्कार, महाक्रांति अपना सहज स्वीकार || आचार्य प्रशांत (2015)

Acharya Prashant

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क्रांति है अपना साक्षात्कार, महाक्रांति अपना सहज स्वीकार || आचार्य प्रशांत (2015)

श्रोता: सर, अभी दिमाग में ये चल रहा था कि ये बोलूँगी, ये बोलूँगी, ये बोलूँगी, ये बोलूँगी और फिर क्या हो जाता है पता नहीं? ये हो जाता है कि दबा लो, अन्दर रख लो?

वक्ता: देखो! तुम्हारे भीतर जो भी है, उसके साथ आत्मा भी तो है न? वो कोई बाहर से तो देता नहीं किसी को, वो वही है। आप जितनी भी चालाकियाँ कर लें, आपको, जो आप वास्तव में हैं, उसे ही आत्मा कहते हैं। ‘आत्म’ माने मैं। आपको पता होता है कि, ‘’मैं क्या कर रहा हूँ,’’ आपको पता होता है कि आपके सारे सवाल फ़िज़ूल हैं। भले ही आप बहुत ज़ोर से चिल्ला रहे हों कि मेरे पास ये-ये शक़ है, या संदेह है, पर आपको पता तो होता ही है कि फ़िज़ूल है। हर सवाल मूलतः झूठ है ये आप जानते हैं।

सच्चा कोई सवाल नहीं होता। हर सवाल में अगर गौर से देखा जाए तो कहाँ पर झूठ बैठा है , ये आपको दिख जाएगा। मूल झूठ तो हर सवाल का यही होता है कि, ‘’मैं जानता नहीं।’’

आप सवाल पूछोगे क्यों अगर आप कहोगे कि, ‘’मैं जानता हूँ।’’ सवाल के पीछे ये भावना तो होती ही है न कि, ‘’मैं?’’

श्रोता: नहीं जानता।

वक्ता: नहीं जानता। मूल झूठ तो ये है ही और और भी छोटे-मोटे झूठ हैं। और इसीलिए तुम वो सवाल ले कर के एक सात्विक वातावरण में नहीं जा पाते हो। ठीक वैसे जैसे किसी मौन जगह पर शोर मचाना तुम्हें अच्छा नहीं लगेगा। या किसी मंदिर में गंदे होकर जाना तुम्हें अच्छा नहीं लगेगा। ठीक उसी तरीके से सत्य के सामने अपने झूठ ले कर के जाना तुम्हें अच्छा नहीं लगता है। तुम्हारा खुद ही फिर मन ये नहीं करता कि इन बातों को यहाँ रखो। कोई तुक नहीं बनता है। क्या पूछें? ये कोई बातें हैं पूछने की? ये कोई पूछने की बात है? तुम्हारे सारे सवाल ऐसे हैं, जैसे किसी की पीठ में खुजली हो रही हो। अब माहौल है ऊँचे से ऊँचे सत्य का, परम का और तुम वहाँ पर क्या पूछो?

श्रोता: खुजली हो रही है।

वक्ता: कि पीठ खुजलाती है महाराज, क्या करें? ये कोई बात है पूछने की? और आज तक जिसने भी, जो भी सवाल पूछा है, उस सवाल की हैसियत यही है। क्या?

सभी साथ में: खुजली ।

वक्ता: कि पीठ खुजलाती है, तो ज़रा समाधान बताइए। तुम्हारे सामने तो परमात्मा भी पड़ जाए, तो सवाल यही रहेगा कि मरहम मिलेगा क्या ज़रा? पीठ खुजलाती है। अब ये भी कोई पूछने वाली बात है? तो इसीलिए नहीं पूछ पाते हो क्यूँकी पता है तुम्हें कि कुछ पूछने वाली बात है ही नहीं, इसमें क्या पूछें? हाँ, खुजली बहुत ही ज़्यादा हो रही हो, मजबूर हो तो फिर पूछोगे ही तो पूछ लो। करोगे क्या तुम?

परमात्मा, परमात्मा है; तुम तो तुम ही हो, तुम्हारी पीठ खुजलाती है। परमात्मा से भी वरदान माँगोगे तो क्या माँगोगे हम ज़रा झुके जाते हैं, पीठ खुजला दो ज़रा। परमात्मा से भी हम माँगते हैं, तो क्या माँगते हैं? यही तो माँगते हैं कि पीठ खुजला दो। भाई लोग मंदिर जाते हैं, तो कैसी चीज़ें माँगते हैं? कुछ पैसे मिल जाएँ, लड़की मिल जाए ये सब चीज़ें क्या हैं यही तो हैं कि पीठ खुजला दो। लेकिन ज़रा अगर ध्यान गहरा बैठता है, तो फिर ये बातें पूछते लाज आती है, शर्म आती है। मन से उतर ही जाती हैं। मन ही नहीं करता इन्हें पूछने का। बाद में हो सकता है फिर से वही सवाल बड़ा बन जाए।

श्रोता: सर, लेकिन आपके सामने रख दी जाती है, वो खुजली तो काफी देर के लिए शांत हो ही जाती है।

वक्ता: शांत नहीं होती। जिन लोगों को खुजलियाँ होती हैं, ज़रा उन लोगों से पूछो। उनके कभी यहाँ होगी, कभी यहाँ होगी, कभी यहाँ होगी कभी वापस आएगी। वो दूसरे रूप में आएगी वापस। कभी पेट का दर्द देखा है? वो पता ही नहीं चलता उठ कहाँ रहा है? कभी यहाँ उठता है ,कभी यहाँ जो ख़ास तौर पर गैस की मरोड़ होती है। गैस से इधर-उधर भागती रहती है कभी यहाँ पिराती है, कभी यहाँ दर्द करती है। तो वो ऐसे ही होता है। तुम एक सवाल पूछोगे मैं उस पर कुछ बोल दूँगा, पर सवाल पूछने वाली वृत्ति थोड़े ही ख़त्म हो गयी है। ये एक विचार था उस विचार के बारे में कुछ बातें कह दी गयीं है पर जो मूल वृत्ति है, वो सवाल पूछने से नहीं शांत होगी, वो तो शांत होने से ही शांत होगी। तुम्हारा सवाल कहीं चला नहीं जाएगा, वो बस दूसरा सवाल बन जाएगा। कहीं चला नहीं गया है। सवाल क्या है? सवाल मूलतः तुम्हारी बेचैनी है। जो कभी एक रूप लेती है, कभी दूसरा रूप ले लेगी। आज तुम एक चीज़ के लिए भाग रहे हो, कल दूसरी चीज़ के लिए भागोगे। तुम्हारी एक दौड़ ख़त्म हो गयी इसका अर्थ ये नहीं है कि तुमने दौड़ना बंद कर दिया है। इसका क्या अर्थ है?

श्रोता: कोई दूसरी दौड़ शुरू कर दी है?

वक्ता: कोई इस बात को न कहे कि, ‘’पहले मैं दौड़ता बहुत था, अब मैं दौड़ता नहीं हूँ।’’ इतना ही पता चलता है कि तुम कहीं और दौड़ रहे होगे।

श्रोता: सर, ट्रांसक्रिप्शन में एक बात थी कि आपने कहा था कि सवाल पूछने का मतलब ये नहीं कहा जा रहा है कि सवालों को दबा दो। सवालों को जब तुम दबा दोगे, तो वो बाद में चल के कुंठित हो जाएँगी। फिर वो तुम्हारी विकृतियाँ बन जाएँगी। इस पर बता दीजिये ज़रा सा?

वक्ता: आज दोनों बातें हुई हैं ना। आज जब वीडियो चल रहा था, तो बात चल रही थी कि सवाल मूर्खता है। उसके बाद मैंने कहा कि दबाना मूर्खता है। दोनों ही मूर्खताएँ हैं। एक है कि सवालों को बहुत ज़ोर-ज़ोर से पूछ रहे हैं।

और एक है कि सवालों को बहुत ज़ोर-ज़ोर से?

सभी साथ में: दबा रहे हैं।

वक्ता: दोनों ही स्थितियों में महत्त्व किसको दिया?

सभी साथ में: सवालों को।

वक्ता: बात आ रही है समझ में? एक आदमी है, जो सवाल पर ही जीता है, खाता है, पीता है। भाई, मेरा सवाल है, मुझे तो जवाब चाहिए ही चाहिए। और एक आदमी होता है, जो सवाल को दबाने में लगा हुआ है। सवाल अर्थात वो स्थिति, जिससे सवाल पैदा हो। वो जीवन में प्रश्नों को उठने ही नहीं देता। वो डरता है प्रश्नों से। तुम जिसका समर्थन करो, वो तुम्हारे लिए महत्वपूर्ण, और तुम जिसके विरोध में खड़े हो?

श्रोता: वो भी महत्वपूर्ण।

वक्ता: वो भी तो तुम्हारे लिए महत्वपूर्ण। जो सवाल ज़ोर-ज़ोर से पूछ रहा है, वो सवालों के समर्थन में खड़ा है। जो सवाल को उठने ही नहीं दे रहा। सवाल के उठने का अर्थ होता है: डिज़ोनेंस को देखना। यही तो इमानदारी की बात होती है ना? कि, ‘’मैं जो अपनेआप को समझता हूँ, और जो मैं कर रहा हूँ वो अलग-अलग हैं।’’ यही तो सवाल है। इसी से तो सवाल उठेगा। सवाल का उठना इस अर्थ में शुभ होता है कि आपको एक शिज़्म दिखाई देता है, आपको एक बटवारा, एक सेपरेशन , एक खाई दिखाई देती है। आपको एक विभाजन दिखाई देता है। जब वो डिज़ोनेंस आप देखने से ही इनकार रहे हो।

हम जिस इमानदारी की बात कर रहे थे, वो क्या थी? उस इमानदारी का मतलब था कि मेरे होने और मेरी छवि के बीच में डिज़ोनेंस है। जो चल रहा है, और जो मैं अपनेआप को प्रोजेक्ट करता हूँ, उन दोनों में अंतर है। इसको दबा दिया तो भी तुमने किसको बचाया? तुम ध्यान से देखो तुमने किसको बचाया? छवि को बचाया ना? और सवाल खूब पूछ रहे हो, तो भी वो सवाल निकल तुम्हारी छवि से ही रहे हैं। और उनके ऐसे उत्तरों को तुम बर्दाश्त करते नहीं, जो छवि तोड़ दें। तुम अगर ये कहती भी हो ना कि अगर हम आपसे कुछ पूछते हैं तो उसको सुन के शान्ति हो जाती है, वो शान्ति इसलिए नहीं हो जाती है, इस भ्रम में मत रहना कि तुम्हारा सवाल कीमती था या कि उस सवाल से सम्बंधित तुम्हें कोई उत्तर मिला। अगर तुम्हें कभी शान्ति मिलती भी है, तो इसलिए नहीं कि उत्तर तुम्हारे सवाल से सम्बंधित होता है। तुम्हें शान्ति इसलिए मिलती है, क्योंकि उत्तर व्यापक होता है। जनरल होता है। अगर तुम जो पूछती हो, मैं उसी का जवाब देने लग जाऊँ तो शांति-वांति कुछ नहीं। नहीं समझ में आ रही बात?

श्रोता: सर,नहीं।

वक्ता: तुम तो पूछने आती हो आलू कितना रुपए किलो? इससे ज़्यादा तुमने आज तक पूछा नहीं कुछ। अब मैं इसका ही जवाब देने लग जाऊँ, तब तो मिल चुकी शान्ति। तुम्हें शान्ति मिलती है क्यूँकी मैं तुम्हारे सवाल कि उपेक्षा करता हूँ। मैं बहुत गंभीरता से लेता ही नहीं कि तुम पूछ क्या रही हो। मुझे वो बोलना होता है, जो मुझे बोलना है। नहीं तो तुम तो यही पूछोगी कि पीले मटर किधर हैं, और नीले मटर किधर हैं? इन सवालों में क्या मिलना है किसी को? आ रही है बात समझ में? क्या समझ में आ रहा है? जो है, उसको ध्यान से देखो और उसको स्वीकार करो ताकि डिज़ोनेंस ना रहे। और जो दिखाई दे, उस बारे में बहुत हाय तौबा मत मचाओ कि हाय दुनिया ऐसी क्यों है? मैं ऐसा क्यों हो? हो, बस बात ख़त्म। चें-चें की ज़रूरत नहीं है।

हम दोनों ही काम नहीं करते हैं। पहला: हम इमानदारी से देखते नहीं कि हम हैं कौन? दूसरा कोई ज़बरदस्ती पकड़ के दिखा भी दे, तो हम क्या शुरू कर देते हैं? हाय तौबा कि मेरी तो ज़िन्दगी ही खराब है। न इस सिरे पर जाना है, न उस सिरे पर जाना है। न तो सवाल से डर के सवाल को दबाना है, और न ही सवाल को बहुत महत्त्व दे देना है। बेख़ौफ़ होकर देखना है कि माजरा चल क्या रहा है? और जो चल रहा है, उस बारे में कूल रहना है। हाँ है। यही तो है, मैं क्या करूँ? हाँ, है ऐसे ही है, तो क्या करूँ? नहीं समझ में आ रही बात?

श्रोता: ये वाली भावना तो बहुत बार आती है कि अब बताओ कि आगे क्या करना है?

वक्ता: नहीं, ये नहीं है कि अब बताओ आगे क्या करना है? यह कहने से तात्पर्य यह है कि कुछ करन उपयोगी है। कुछ नहीं करना है। यही तथ्यता है।

श्रोता: जो है, उसके साथ कूल नहीं हैं अगर तो?

वक्ता: हाँ, तो ये छवि आ गई न तुम्हारी यही तो डीज़ोनेंस है कि जो है, और जो तुम अपनेआप को देखना चाहते हो, उसमें गैप है। कूल इसीलिए नहीं हो तुम क्यूँकी तुम्हें कुछ और हो जाना है, बिकमिंग है। कूल रहो तुम ऐसे ही हो फुद्दू, सुद्धू (हँसते हुए)। कूल। जब आप स्वीकार नहीं करते हो कि क्या चल रहा है, तो आप पाखंडी हो जाते हो। और जब आप जोर-जोर से चिल्लाते हो कि जो चल रहा है, वो मुझे पसंद नहीं है, तब आप नास्तिक हो जाते हो।

पाखंडी कौन है ? नास्तिक जो झूठा आस्तिक होने कि कोशिश कर रहा है

उदाहरण के लिए तुम्हें पता है कि तुम्हारा सत्य में और ब्रह्म में कोई यकीन नहीं है पर तुम्हें बचपन से ये बताया गया है कि ईश्वर बड़ी बात, तो तुम अपनी छवि ये रखना चाहते हो कि, ‘’हूँ तो मैं आस्तिक।’’ हो तुम गहराई से नास्तिक, ये तुम अच्छे से जानते हो। ठीक है न? पर तुम इस बात को एकनोलेज नहीं करोगे कि, ‘’मैं किसी ईश्वर-विश्वर को मानता नहीं हूँ।’’ ये पाखंड है और तुम ये मान जाओ कि, ‘’मैं ऐसा ही हूँ और फिर खूब चिल्लाओ कि हाय मेरे साथ ऐसा क्यूँ है? हाय मेरे साथ ऐसा क्यूँ है? तो ये गहरी नास्तिकता है कैसे?

श्रोता: खुद को बदलना है।

वक्ता: कि मुझे पसंद ही नहीं है कि एसा क्यूँ है मुझे बदलना है। जानो कि क्या है, और जो है, उसके साथ शान्ति से जीयो। पहले तो जानो कि तुम क्या हो? और वो गन्दा लगेगा, उसमें से बदबू उठेगी। ठीक है, कोई बात नहीं। अब सूअर को क्या हक़ है ये शिकायत करने का कि चारों तरफ बदबू उठती है। उसने अर्जी दी थी कि नाली में पैदा होना है? है, ऐसे ही है। ऐसा ही जन्म मिला है, कुछ हुआ होगा पहले ऐसे ही पैदा हुए हैं। हमारे पोर-पोर से झूठ और वासना उठती है। दुर्गन्ध है क्या करें? है, ऐसे ही है। और फिर ये छवि मत बनाओ कि जिनके ऐसे होता है वो पतित, व्यव्चारी, राक्षस होते हैं। ऐसे ही है।

जब जो होता है उससे तुम राज़ी हो जाते हो, तो तुम्हें फिर वो मिल जाता है, जो तुम्हारे राज़ी होने से आगे की बात है। परमात्मा कहता है कि जब तुझे वो ही पसंद नहीं, जो मैंने तुझे दिया तो तुझे देने वाला कैसे पसंद आ जाएगा? जो भी उसने तुम्हें दिया है, भले ही उसने तुम्हें बदबू दी है, तुम पहले उसका सहज स्वीकार करो। फिर जिसने दिया है, वो भी तुम्हें मिल जाएगा। मैं तुम्हें कोई उपहार दूँ, तुम्हें वही पसंद नहीं आ रहा, तो तुम्हें देने वाला कैसे पसंद आएगा? तुम जो भी हो, जैसे भी हो, तुम्हें वही मिला है। उसके साथ शान्ति रखो। स्वीकार रखो। वही मिला है तुम्हें।

श्रोता: सर, जैसे हमने किसी चीज़ को देखा है, हमने पहले ही कह दिया कि वो गन्दगी है, तो फिर हम उसे एक्सेप्ट करेंगे कैसे? जब हमने पहले ही बोल दिया कि वो गन्दगी है?

वक्ता: तुम्हारे पास चारा नहीं है क्यूँकी जो है, उसका नाम तो है नहीं। नाम तो सारे तुम्हारे दिए हुए हैं, चाहे गन्दा बोलो या साफ़ बोलो। तो जब भी तुम्हारे सामने तुम्हारा रूप आएगा, तो उसे कोई न कोई नाम तो दे ही दोगे। और संभावना यही है कि जो भी तुम नाम दोगे, वो नैतिकता के निचले तल का ही होगा क्यूँकी नैतिकता तो बनाई ही ऐसी जाती है कि उसमे ऊँची बातें वो रखो, जो अप्राप्य है। जो मिल ही नहीं सकती। तो नैतिकता की नज़र से जब भी अपनेआप को देखोगे, तो गन्दगी ही पाओगे। कोई विकल्प नहीं है तुम्हारे पास। क्यूँकी तुम्हारी नज़र ही कैसी है?

श्रोता: नैतिकता की।

वक्ता: नैतिकता की। तो जब भी अपनेआप को देखोगे, तो तुम्हारी विवशता ही यह रहेगी कि तुम्हें अपनेआप को कोई बदबू भरा ही नाम देना पड़ेगा। बदबू भरे हो नहीं, नाम। इसमें भी तुम्हारी कोई भूल नहीं, तुम्हें व्याकरण ही ऐसा पढाया गया है जिसमें तुम्हें सिर्फ गंदे नाम ही मिल सकते हैं। तुमने क्या किया? तुम भी बाहर से आए हो और तुम्हारा व्याकरण शास्त्र भी बाहर से आया है। उस व्याकरण के मुताबिक़ अगर तुम्हारा एक ही नाम हो सकता है: गंधाता। तो तुम ये रख लो ये नाम। ठीक हम कौन?

सभी साथ में: गंधाता।

वक्ता:- गंधाता। ठीक यही नाम है मेरा। और ये नाम मेरा नही है, ये नाम तो मुझे संसार के व्याकरण ने दिया है। दिया है ठीक। इस बात का जब सीधा स्वीकार कर लेते हो, तब इससे आगे चले जाते हो। इसको जानोगे नहीं, इसको रेसिस्ट करोगे या तड़पोगे कि ऐसी मेरी हालत क्यूँ है। ऐसी मेरी हालत क्यूँ है? बचाओ मुझे। छुड़ाओ, तो इसी में फसे रह जाओगे।

इसी को कहा गया है न दैन्यं, न पलायनम। ना तो अपनेआप को दीन मानो और ना ही अपनी वर्तमान अवस्था से इतना विरोध रखो कि मुझे इससे मुक्त होना है। जानो कि क्या है बस। और तुम्हारे मुँह से जब भी ये भाव निकले कि तुम्हारी हालत क्या है, तो बड़ी सहज भाव से निकले, कातर भाव से नहीं। कि अभी तुम्हारी हालत क्या है? अभी मेरी हालत ये है कि, ‘’मैं बिक रहा हूँ बाज़ार में।’’ अभी मेरी हालत ये है कि, ‘’मैं एक बिका हुआ जीव हूँ।’’ इस बात को ऐसे नहीं बोलो कि तुमने कितना जघन्य अपराध कर दिया है। इसको ऐसे बोलो कि, ‘’अभी तो मेरी हालत ऐसी है कि मैं बिका हुआ हूँ।’’ इसको ऐसे ही बोलो जैसे कोई बोलता है न कि, ‘’अभी मेरी हालत ये है कि मैं खिचड़ी खा रहा हूँ, अभी मेरी हालत ये है कि मैं साँस ले रहा हूँ। मैं किताब पढ़ रहा हूँ,’’ ऐसे ही बोलो कि, ‘’अभी तो मेरी हालत ये है कि मैं रोज़ बिक रहा हूँ।’’ जो आदमी ये देख लेता है कि दो बातें है कि साफ़ देख पा रहा है कि वो बिका हुआ है और दूसरा कि इस बिकने के प्रति उसमें कोई विरोध नहीं है। कोई आग्रह नहीं है कि परमात्मा तेने मोहे काहे बेचा? जो भी है, सो है अब। हम कौन है? हम बिके हुए हैं।

श्रोता: हमें कुछ नहीं पता क्या हो रहा है?

वक्ता: हमें कुछ नहीं पता, क्या हो रहा है। और कुछ नहीं पता क्या हो रहा है तो कोई बड़ी बात नहीं हो गयी। ‘’नहीं पता क्या हो रहा है।’’ क्रांतियाँ ऐसे नहीं होती हैं कि तुम बड़ा विरोध दर्शाओ। कि जो हालात हैं, तुम उन पर बड़ा विरोध दर्शाओ, तो क्रान्ति हो जाएगी। क्रांतियाँ ऐसे नहीं होती हैं। मेरे पास लोगों के मेल आते हैं या लोग बातें करने आते हैं, उनमें से जिनकी भी बातें गहरे विरोध से भरी होती हैं, मैं समझ जाता हूँ कि यहाँ कुछ बदलेगा नहीं। जहाँ कहीं भी ये लगता है कि ख़त, खून और आँसुओं से लिखा गया है, मैं समझ जाता हूँ कि यहाँ कुछ नहीं बदलेगा क्यूँकी गहरा विरोध है।

स्थिति के प्रति गहरा विरोध यही बताता है कि तुमने स्थिति को गहरा महत्त्व दे दिया।

महत्व सिर्फ़ सत्य को दिया जा सकता है , स्थिति को नहीं।

ये बात सुनने में अजीब लग रही। है ना? हमे सुनने में ये लगता है कि जिसके जीवन में जितना गहरा विरोध, उसके जीवन में उतनी ही गहरी क्रांति आ जाएगी। ऐसे ही लगता है ना? कि जो जितनी ज़ोर से नारे लगाएगा कि मुर्दाबाद-मुर्दाबाद, वही होगा जो तख्ता पलटेगा। ऐसा नहीं होता। जहां ज़ोर से नारे लग रहे हैं, वहाँ बस नारे ही लगेंगे। जहां कोई ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला के कह रहा है न कि, ‘’मैं बड़ी घुटन में हूँ, मैं ऐसा हूँ, मैं वैसा हूँ, मेरी मदद कीजिये उसको मदद नहीं चाहिए उसने अपनी सारी उर्जा अपने पत्र लिखने में ही लगा दी है।’’

जब आपको स्थिति का सहज आभास होता है , तब होती है क्रांति।

रोना, चीखना ,चिल्लाना ये तो एडजस्टमेंट के तरीके हैं, समायोजन के। कोई मर जाता है, आप छाती पीटते हो, ये क्या है? ये एक एडजस्टमेंट मेथड है। आप स्थिति से निपटने की कोशिश कर रहे हो। बात को समझो ध्यान से। इसीलिए जो छाती नहीं पीटता, लोग चाहते हैं कि वो छाती पीटे और रोए। ये एडजस्टमेंट मेथड्स हैं। यहाँ अब कोई क्रान्ति नहीं होगी। आपका मुर्दे को दोबारा प्राण देने का कोई इरादा नहीं है। या है? आप कह रहे हो, जो होना था, वो तो हो गया। ये तो है। अब हम ज़रा समायोजित हो लें, हम जरा कोप कर लें, एडजस्ट कर लें, तो आप रोते हो। ध्यान से देखो क्या हो रहा है। क्या किसी का भी ये इरादा है कि इसे दोबारा प्राण दे? है इरादा? आप कहते हो कि मर तो गया ही है। तो अब हम जरा एडजस्ट हो लें । तो रोना वो एडजस्टमेंट है।

जब भी कोई रो रहा हो घर से जोर-जोर की विलाप की आवाज़ आ रही हो साफ़ समझ लो कि मुर्दा अब जीएगा नहीं। सबने मान लिया है कि मौत आखिर ही है, इसी लिए इतना जोर से रो रहे हैं। जो रो नहीं रहा, उसने कम से कम ये आशा बाकी रखी है कि जिलाऊँगा। बहुत ज़ोर से विरोध मत प्रदर्शित करो। इतना चिल्ला-चिल्लू के, इतना हाय-हाय करके तुम सिर्फ़ एक तरीका पैदा कर रहे हो: जो है, उसी को चलते देने का। कि ये चलता रहे।

जिन्हें बदलाव करना होता है, वो शांत लोग होते हैं, चीख-पुकार नहीं मचाते। इमानदारी और शान्ति। इमानदारी से जानते हैं कि क्या हालत है झूठ नहीं बोलते और शान्ति से परिवर्तन को आने देते हैं क्यूँकी जानना परिवर्तन को लाएगा ही। तुम्हें हाथ-पांव थोड़ी चलाने हैं। जहाँ चेतना है, वहाँ परिवर्तन होकर रहेगा। तुम एक बार जान गए कि मामला क्या है, अब परिवर्तन अपनेआप होगा। हमें शांत रहना है।

श्रोता: यानि कि अगर हम भावुक हो रहे हैं, तो जान जाओ कि मामला गड़बड़ है।

वक्ता: मामला गड़बड़ है। मामला गड़बड़ नहीं है, तुम गड़बड़ मामले को बचाए रखना चाहते हो।

श्रोता: हाँ, क्यूँकी मैं विरोध में हूँ, बदलाव के।

वक्ता: बदलाव के लिये शोर मचा के तुम बदलाव को बाधित करते हो। तुम जितना चिल्लाते हो न, यही बदलना चाहिए। वो बदलना चाहिए। बदलाव तुम्हारे शोर मचाने से थोड़े ही होगा। वो तो बोध से होता है। तुम जानोगे बदलाव स्वयं आएगा।

श्रोता: सर, तो फिर ये इसमें बोल रहे हैं कि बाधा पता तो है, पर मुझे दिख ही नहीं रही है।

वक्ता: वही तो कह रहा हूँ न कि देख लो। शोर मत मचाओ। देख भी लो, और शोर भी मत मचाओ। हम दोनों में से एक काम भी नहीं करते हैं या तो देखेंगे नहीं और अगर देख लेंगे तो?

सभी साथ में: शोर मचाएँगे।

वक्ता: शोर मचाएँगे। मैं कह रहा हूँ कि जान भी लो कि सब कितना फ़ालतू है और फिर शोर भी मत मचाओ। शान्ति से क्रांति को होने दो। शान्ति से क्रांति को होने दो। क्रान्ति शोर मचा के नहीं आती, शान्ति से आती है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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