जहाँ सत्य नहीं , वहां दर्द का निवास है |

Acharya Prashant

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जहाँ सत्य नहीं , वहां दर्द का निवास है |

प्रश्नकर्ता: सर, सुबह जब मैं आया था और बैठा था गंगा किनारे। तो जो लोग घूमने आये थे, अभी भी जैसे हैं, तो लोग चिल्लाते क्यों हैं? जैसे मैंने भी अपने पर ध्यान दिया है, मैं भी बहुत चिल्लाता हूँ। तो ये चिल्लाहट क्यों है? कोई अभिव्यक्ति होती है?

आचार्य प्रशांत: हाँ, हम अपनेआप को बताना चाहते हैं कि हमारे जीवन में भी कुछ उमंग है, तरंगित होने के लिए कुछ है।

प्र: अच्छा सर, एक चीज़ और बताओ, जैसे कि मैंने सुना है कि पहाड़ों में जाकर बहुत सारे लोग, मेरे दोस्त भी, बहुत ज़्यादा ड्रग्स वगैरह लेते हैं। तो पहाड़ों में तो ऑलरेडी (पहले से ही) इतनी शान्ति दिखती है, तो उन्हें और, एक्स्ट्रा शान्ति के लिए नशा क्यों करना पड़ता है?

आचार्य प्रशांत: जहाँ परमात्मा नहीं होगा, वहाँ कोई-न-कोई नशा चाहिए। जहाँ परमात्मा नहीं होगा, वहाँ कोई-न-कोई नशा ज़रूर चाहिए। शराब नहीं करोगे, तो कुछ और करोगे। परमात्मा नहीं है, तो बहुत दर्द होता है। उतना दर्द झेला नहीं जाता, नशा करना पड़ता है फिर। जहाँ सच्चाई नहीं है, वहाँ बेइन्तेहा दर्द होता है। कोई उतना दर्द झेल नहीं सकता, फिर आप नशा करोगे। कोई भी नशा कर सकते हो — कमाने का नशा कर सकते हो, ज्ञान का नशा कर सकते हो, वासना का नशा कर सकते हो, प्रसिद्धि का नशा कर सकते हो। कोई भी नशा कर सकते हो, पर करना पड़ेगा, दर्द झेला नहीं जाएगा।

नशेड़ी कौन है? वो जिसे परमात्मा चाहिए, लेकिन कहीं और ढूँढ़ रहा है, कोई विकल्प पकड़ा है। जो शराब में मिल नहीं सकता, उसे शराब में तलाश रहा है। शराब पीकर क्या होता है? जो ये विचारों का पूरा चक्र चलता है, घूर्णन, ये ज़रा रुक जाता है और साथ-ही-साथ भीतर जो तुम दबाये बैठे हो उसको थोड़ी सरलता से अभिव्यक्ति मिल जाती है। जो तुम अन्यथा न बोल पाते, वो तुम शराब पीकर बोल देते हो। और जो विचार तुम्हें आमतौर पर आतंकित किये रहते हैं, वो शराब पी लेते हो तो ज़रा थम जाते हैं। ये तो काम परमात्मा का है, ये तो काम आध्यात्मिकता का है कि तुम्हारे विचारों को स्थिरता दे दे, पर उसमें तुम प्रविष्ट हुए नहीं, तो फिर तुम विकल्प की तरह शराब का इस्तेमाल करते हो।

शराबी को भगवान चाहिए, उसको बड़ी आसानी से भक्त बनाया जा सकता है। शराबी को देवालय चाहिए, पहुँच गया है मदिरालय। चला था देवालय ही जाने को, रास्ते में कोई मिल गया उसने बहका दिया, तो मदिरालय पहुँच गया। तलाश उसको परमात्मा की ही है, बस गलत जगह ढूँढ़ रहा है। थोड़ा और कोई बहका दे, तो वैश्यालय पहुँच जाएगा। वहाँ भी वो ढूँढ़ परमात्मा को ही रहा है।

प्र: तो सर, इस तरह तो जितने भी गलत काम किये जाते हैं, वो एक स्पेशल तरह के परमात्मा को पाने के लिए किये जाते हैं।

आचार्य प्रशांत: बहुत बढ़िया, ये तुम समझ जाओ अगर, तो बिलकुल समझ जाओगे कि ये पूरी दुनिया चल-फिर क्यों रही है। और फिर तुम्हारे मन से सही काम और गलत काम का भेद भी ज़रा हटेगा। फिर तुम उचित-अनुचित की कोई दूसरी व्याख्या कर पाओगे।

प्र: सर, पता नहीं आप ही बता रहे थे किसी वीडियो में, कोई गुर्ज़िएफ करके एक फ़िलॉसफ़र (दार्शनिक) हैं। उन्होंने यही कहा था कि जो भी अननेसेसरी (अनावश्यक) है वो ही सारा पाप है।

आचार्य प्रशांत: वही पाप है, हाँ, वही पाप है। हम बड़े टेढ़े लोग हैं। जो काम सीधे-सीधे हो सकता है न उसके लिए हम (टेढ़े तरीके चुनते हैं)।

प्र: आचार्य जी, ये बच्चे जैसे बैठे हैं, ये छोटी उम्र के हैं, इन्हें वो स्टेट (स्थिति) मिलनी अभी ज़्यादा इजी (आसान) है, हमारे मुकाबले।

आचार्य प्रशांत: बहुत बढ़िया। बच्चों को हिन्दी में एक कहानी पढ़ाई जाती है ‘सोर्सराम की महिमा।’ पढ़ी होगी आपने छोटी कक्षाओं में, किसी को याद हो तो? सोर्सराम जी की महिमा, पढ़ी है? वो हमारी कहानी है। व्यंग है वो। कहानी बताती है कि सोर्सराम जी वो इंसान हैं जो ऐसी जगहों पर भी सोर्स लगा देते हैं जहाँ सोर्स की ज़रूरत नहीं।

बस का टिकट है, रेल का टिकट है जो तुम सीधे ही खरीद सकते हो, वो उसको भी कहते हैं, ‘न, न, न, सीधे खरीदा तो मजा क्या है, किसी सोर्स से करवाएँगे।’ तो वो रेलवे के किसी अधिकारी को फ़ोन करेंगे, कहेंगे, ‘टिकट चाहिए’, तो अधिकारी कहेगा, ‘अभी मैं अपने पद का प्रयोग करता हूँ और तुम्हें टिकट दिलवाता हूँ।’ हम सब ऐसे ही हैं, जो काम सीधे हो सकता है उसमें हम किसी मध्यस्थ को ले आते हैं, सोर्सराम को ले आते हैं।

परमात्मा तो उपलब्ध है, सहज है, अकिंचन है। हम बीच में हज़ार तरीके घुसेड़ते हैं, शराब उनमें से एक तरीका है। और भी तरीके हैं, हम बात कर ही चुके हैं। पाप है सीधे को सीधे की जगह टेढ़े-टपड़े तरीकों से पाने की चेष्टा, ये पाप है। और यही तो अनावश्यक है इसीलिए गुर्ज़िएफ ने कहा, ’जो अनावश्यक है वही पाप है।’

एक व्यक्ति है, वो चोरी कर रहा है। एक व्यक्ति है, वो हत्या या बलात्कार कर रहा है। ये क्या कोशिश कर रहे हैं? ये शान्त ही तो हो जाना चाहते हैं न? ये सोच रहे हैं कि ये जो हासिल कर रहे हैं, उसको हासिल करके ये शान्त हो जाएँगे। शान्ति के लिए इन्होंने बड़ा ही विकृत रास्ता चुना, यही पाप है। पाप की ये परिभाषा अच्छे से समझ लो — जो सीधे-सीधे हो सकता था उसको तुमने घुमा-घुमाकर किया, यही पाप है। जो अभी हो सकता था उसको तुमने आगत पर टाल दिया, कहा कि दस साल बाद, कि दस जन्म बाद, यही पाप है।

सीधा न रहना, टेढ़ा खेल खेलना, इसके अलावा अस्तित्व में कोई पाप होता नहीं। वक्रता ही पाप है, टेढ़ापन, और सहजता ही पुण्य है। हम तो छोटी-छोटी बातों में भी कहाँ सीधे, सहज, सपाट हो पाते हैं। तुम जा रहे हो किसी से हज़ार रुपए माँगने और पहले पूछोगे, ‘और बताइए बच्चे कैसे हैं?’ तुम्हें उनके बच्चों से कोई मतलब है? पर ऐसा तुम कर नहीं पाओगे कि हज़ार रुपए माँगने गये हो तो सीधे बोलो, ‘हज़ार।’ तुम्हें अभद्र लगेगा, सामने वाले को चुभेगा। क्या पता वो न भी दे। और तुम पाँच-सात बार उससे उसके बच्चों के बारे में और पत्नी के बारे में पूछ लो, तो हो सकता है हज़ार के दो हज़ार दे दे।

इससे तुम्हें और शह मिलती है, इससे तुम और वक्र हो जाते हो। तुम कहते हो, ‘यही तो चलता है, दुनिया ऐसी ही है, जितना टेढ़े चलोगे उतना मुनाफ़ा।’ और ये नहीं समझ पाते हो कि इस दुनिया से ज़्यादा असली, ज़्यादा आन्तरिक लेकिन अदृश्य कोई दूसरी दुनिया भी है। उस दुनिया में चोट खा बैठे, वहाँ नुकसान हो गया, यहाँ तो कर लिया मुनाफ़ा।

प्र: सर, इसी वजह से स्वर्ग और नर्क की कल्पना हुई होगी।

आचार्य प्रशांत: हाँ, सब। नर्क वो जगह है जहाँ कुछ भी सीधा नहीं है। सब साँप-सीढ़ी है। शून्य से सौ पर जाना है, तो कभी सीढ़ी लेंगे, कभी साँप के मुँह में आएँगे। सीधे-सीधे चलकर एक-दो-तीन-चार-पाँच-छह-सात-आठ-नौ-दस शून्य तक नहीं पहुँच जाएँगे। ये चाल चलेंगे, ये खेल रचेंगे, ये कुदाल मारेंगे, ये लम्बी चला दी। नर्क में सब साँप-सीढ़ी खेलते हैं।

प्र: यही टेढ़ापन, सर, आध्यात्मिकता में भी देखने को मिलता है।

आचार्य प्रशांत: बहुत ज़्यादा। कितनी ही आध्यात्मिक विधियाँ लोग आज़माते हैं, सहज समर्पण नहीं कर पाते। तुम पचास तरह के यज्ञ करने को तैयार हो, तुम योग में दक्षता हासिल किये बैठे हो, ये आसन, ये मुद्रा, तुम व्रत रखने को तैयार हो, तुम ग्रन्थ पढ़ने को तैयार हो, तुम सारी परोक्ष चालें चलने को तैयार हो, पर सहज प्रत्यक्ष समर्पण तुमसे नहीं किया जाता। अहंकार छोड़ने को तैयार नहीं हो।

दस जगह तुम तीर्थ कर आओगे। बाबा बुल्लेशाह ने कितना सुन्दर गाया है न, ‘मक्के गयो ते मुक्ति नाहिं, सौ-सौ हज़ कर आइये। गंगा गयो ते मुक्ति नाहिं, सौ-सौ गोते खाइये।’ फिर आगे कहते हैं कि मुक्ति का तो एक ही तरीका है, क्या? ‘मैं को गँवाइये।’ पर आप उतनी दूर जाने को तैयार हो, ‘चलो रे गंगा चलें, चलो रे काबा चलें’, और जो सहज काम है, सीधा कि इस मैं-मैं से बाज़ आओ, इस अकड़ को छोड़ दो, उसको कहाँ तैयार होते हो? टेढ़ी चाल चलने को तैयार हो।

ज़्यादातर वो सबकुछ जिससे हमने जीवन भर रखा है, वो सब हमारे टेढ़ेपन का नतीजा है। आप सीधा जीवन जीना शुरू कर दो, बहुत सारी चीज़ें आपको चाहिए ही नहीं होंगी। आपको किसी का प्रेम चाहिए, आप उससे मिलने जा रहे हो, आप अपने चेहरे को, शरीर को, कपड़ों को, कितनी कृत्रिमता से भर लेते हो। ये टेढ़ापन है न? और क्या है? तुम सीधे-सीधे बोल नहीं पाओगे, ’प्यार है’, उसकी जगह तुम क्या कर रहे हो? तुमने पूरा बाज़ार अपने ऊपर लाद लिया, ये टेढ़ापन है कि नहीं?

जो काम सीधे-सीधे हो सकता था उसके लिए तुमने कितनी चाल चली। तुमने सबकुछ नकली कर लिया अपना — मन, तन, वस्त्र, मुस्कान, बातें, खयाल। अब तो बड़ी सुविधा, बड़े-बड़े उपकरण उपलब्ध हैं, पूरा जिस्म ही नकली हो जाता है। भर लिया न अपने जीवन को? देखो, शरीर को, कितनी चीज़ों से प्लास्टिक, बोटॉक्स।

वो पूरा ऊपर से नीचे तक। होंठ पर नकली रंग चढ़ा हुआ है। आँखो पर नकली भौं चढ़ी हुई है। पुतलियाँ भी नकली, बाल भी नकली। वो पूछेगा, ‘शॉपिंग मॉल से प्यार करूँ क्या? तुम कहाँ हो? ये तो पूरा मॉल आ गया। तुम कहीं दिखाई देतीं तो इश्क भी होता। इस पूरे बाज़ार में तुम तो कहीं नज़र आ नहीं रहीं, तो प्यार करें भी तो किससे?

श्रोता: इसके पीछे आन्तरिक अपूर्णता है।

आचार्य प्रशांत: देखिए, इसके पीछे तो जाते जाएँगे, जाते जाएँगे, कारण-दर-कारण मिलेंगे। इसका उद्गम क्या है, कौन जाने। उद्गम तो शायद स्वयं परमात्मा ही है कि उसने माया रच दी। लेकिन इसका अन्त सम्भव है। अन्त अभी सम्भव है, उद्गम तो बहुत पीछे, पीछे, पीछे, पता नहीं कहाँ है। अन्त अभी है, अभी कह सकते हैं कि बहुत हो गया। अब ज़रा सीधा खेल लें? तुम भी ज़रा सीधी बात करो, हम भी ज़रा सीधी बात करें। हमारा तो खेल ऐसा चलता है कि जिससे सबसे ज़्यादा प्यार होता है उसी पर सबसे ज़्यादा गुस्सा आता है। बेगानों को आप माफ़ भी कर दें।

प्र: बहाना होता है कि जिससे जितना प्यार होता हैं उतना ही गुस्सा करने का हक होता है।

आचार्य प्रशांत: ‘मेरा तो हक है तुम पर, तो मैं गुस्सा करूँगा।’

प्र: ‘प्यार में तो लड़ाइयाँ होती ही हैं।’

आचार्य प्रशांत: और ‘प्यार में तो लड़ाईयाँ होती ही हैं, अजनबियों से थोड़े ही लड़ते हैं। अपनों में तो अपना खून होता है न? तो अपनों का ही तो खून बहाएँगे। ये तुम्हारा खून थोड़े ही है, हमारा तुम्हारा साझा खून है, तो बहेगा।’ ये वक्रता है। हम कुछ भी इसलिए नहीं कर रहे कि वो करना है, हम जो भी कर रहे हैं इसलिए कर रहें हैं, ताकि उसके माध्यम से कुछ और हासिल कर लें, यही पाप है।

तुम नौकरी इसलिए नहीं करते कि तुम्हें नौकरी में बड़ा आनन्द है, तुम नौकरी इसलिए करते हो कि नौकरी के माध्यम से तुम्हें कुछ और मिल जाएगा। नौकरी के माध्यम से तुम्हें जो मिलता है वो मिलना बन्द हो जाए, बताओ, कितनी देर अभी नौकरी करोगे? बोलो। नौकरी से तुम्हें जो मिलता है, क्या मिलता है? पैसा मिलता है, प्रतिष्ठा मिलती है, परिवार भी उसी से मिलता है। नौकरी से तुम्हें जो कुछ मिलता है अभी मिलना बन्द हो जाये, बताओ, नौकरी करोगे? एक क्षण को तुम नहीं बर्दाश्त करोगे।

‘फिर ले आये, फ़ाइलें हटाओ। ये तो हम सब बर्दाश्त कर रहे थे क्योंकि नौकरी साधन थी, कुछ और देती थी।’

हम जीवन ऐसे ही जी रहे हैं, सबकुछ हमारे लिए साधन मात्र है। और तुम साधनों को जीवन में जितनी जगह दोगे, साध्य से उतने ही दूर होते जाओगे। ये बड़ी अजीब बात है। सुनने में तो लगता है कि साधन तुम्हें साध्य तक ले जाते हैं, बात बिलकुल उल्टी है, साधन तुम्हें साध्य से दूर रखते हैं।

किस्सा यहाँ कुछ ऐसा है कि पुल ही दूरी है। तुम्हें लगता है कि पुल दो किनारों को जोड़ रहा है। नहीं, पुल दो किनारों को जोड़ नहीं रहा, पुल ने ही दोनों किनारों को जुदा रखा है। तुम पुल के प्रशंसक हो, तुमने पुल को ही आदर्श बना रखा है, ऐसे ही तो जीना है। न, पुल ने ही दूरी बनाई है, पुल हटा दो, दोनों घाट एक हो जाएँगे।

आप हैरान हो जाएँगे ये देखकर कि कुछ भी हमारे लिए एक अन्त नहीं है। सबकुछ हमारे लिए मात्र एक माध्यम है, एक मार्ग है, अन्त नहीं है। कोई आपको देखने वाला न हो, तो आप वैसे कपड़े पहनेंगे ही नहीं जैसे आप पहनते हैं। कपड़े इसलिए हैं ताकि कुछ हो जाए उनसे। और जिसको आप प्रभावित करना चाहते हैं, उसको भी आप प्रभावित इसलिए कर रहे हैं ताकि उससे कुछ मिल जाए। पढ़ाई क्यों करी? बहुत प्रेम था पढ़ाई से?

गणित, विज्ञान, फ़िलॉसफ़ी (दर्शन शास्त्र), हिन्दी, अंग्रेज़ी, इतिहास, जो कुछ भी पढ़ा, क्या इसलिए पढ़ा कि जो पढ़ रहे थे वो तुम्हें आनंदित किये देता था। क्यों पढ़ा? पढ़ा था कि अंक आ जाऍं, अंक आ जाऍं तो डिग्री मिल जाए, डिग्री मिल जाए तो नौकरी मिल जाए, नौकरी मिल जाए तो ये हो जाए, तो ये हो जाए तो ये हो जाए, तो ये हो जाए तो ये हो जाए, तो…। अन्ततः ये सब कर-करके परमात्मा मिल जाए। भग पगले।

डायोजनीज़ (यूनानी दार्शनिक) लेटा हुआ है नदी किनारे, जाड़े की धूप सेंकता हुआ, नंगा, वो ऐसे ही रहता था। पूरी सल्तनत का सबसे प्रबुद्ध दार्शनिक और शहर के बाहर एक स्थान पर जहाँ कुत्ते लोटते थे वहीं रहता था। और न बराबर कपड़े पहने, नंगा घूमे। और लोग कहें कि शहर में क्यों नहीं रहते, तो बोलता है, ‘जो ज़्यादा साफ़ जगह है वहाँ रहता हूँ।’ ये शहर का उसका मूल्यांकन था। कुत्तों के बीच रहता था और लोग पूछते थे, ‘शहर क्यों नहीं रहते?’ तो कहता था, ‘जो ज़्यादा साफ़ जगह है वहीं तो रहूँगा।’

तो ये अपना पड़ा हुआ है, औघड़। और लोगों को पता होता अघोरियों के बारे में, तो डायोजनीज़ को अघोरी बोलते, पर वो नहीं जानते थे। तो सिकन्दर वहाँ से गुज़र रहा है, डायोजनीज़ को जानता था, बड़ा सम्मान देता था, तो रुक गया, पास आया, बोला, ‘जा रहा हूँ विश्वविजय के लिए, आपके लिए कुछ ले आऊँ?’ डायोजनीज़ ने कहा, ‘मुझे जो चाहिए, मेरे लिए यहाँ बहुत है। धूप बढ़िया पड़ रही है, बड़ा मज़ा आ रहा है और यहाँ इतनी रेत है इस पर लेटा हूँ। मेरे लिए कुछ लाने की छोड़ो, तुम भी यहीं लेट जाओ।’

सिकन्दर बोला, ‘मैं बात आपकी समझता हूँ, पर अभी पालन नहीं कर सकता। एक दिन ज़रूर, जब पूरी दुनिया जीत लूँगा तब आपके पास आऊँगा।’ डायोजनीज़ हँसने लगा, बोला, ‘अरे, जो साक्षात है, प्रकट है, प्रत्यक्ष है, सुलभ है, उसको अभी ले लेने की जगह तू पूरी दुनिया जीतकर फिर आएगा?’ पूछा उसने, ‘अच्छा, ये कर लेगा तो क्या करेगा? ये कर लेगा तो क्या करेगा? ये कर लेगा तो क्या करेगा?’ सिकन्दर बताता गया, बताता गया।

अन्त में पूछा, ‘तो फिर क्या करेगा?’ सिकन्दर बोला, ‘तो फिर मैं विश्राम करूँगा।’ डायोजनीज़ ने कहा, ‘वही तो कर रहा हूँ, तू जहाँ इतना घूम-फिरकर के पहुँचेगा, देख, मैं वहाँ पहुँचा हुआ ही हूँ।’ और इतिहास और मिथ (कल्पित कथा) हमें बताते हैं कि सिकन्दर अपना वादा पूरा नहीं कर पाया। दुनिया उसने पूरी जीत ली पर वो दिन कभी नहीं आया जब वो डायोजनीज़ के साथ नदी किनारे लेट कर धूप सेक पाये।

जिन्होंने माध्यम बनाये, जिन्होंने टेढ़े रास्ते लिये, वो अन्त तक, लक्ष्य तक पहुँच ही नहीं पाये। कहानी है, कौन जाने ऐसा हुआ कि नहीं, लेकिन फिर भी कहानी सीख देती है। कहानी कहती है, ‘जब सिकन्दर मरने को था, तो उसने अपने चिकित्सक से यही कहा कि मुझे कुछ दिनों की मोहलत दे दो, इतना बच जाऊँ। चिकित्सक ने कहा, ‘आपकी बीमारी असाध्य है, नहीं हो पाएगा’, (सिकन्दर ने) कहा, ‘कुछ घण्टों की दे दो’, (चिकित्सक ने कहा), ‘नहीं हो पाएगा।’

शायद वो डायोजनीज़ को किया वादा ही पूरा करना चाहता था, नहीं कर पाया। फिर उसी की कहानी, आगे कहानी और है कि जब मरने लगा सिकन्दर, बिलकुल आखिरी साँस है, तो कहा कि मेरे ये खाली हाथ बाहर ही रखना, छुपा न देना कपड़े में, कफ़न में, लोगों को दिखे कि इतना कुछ हासिल करके भी वो हासिल नहीं कर पाया जिसके लिए ये सबकुछ हासिल किया था। जैसे कोई पुल पर ही दौड़-भाग करता रह जाये और अपने लक्ष्य तक कभी न पहुँचे।

जो लोग बहुत बातें करते हैं अक्सर वो वही बात नहीं कर रहे होते जो बात वो करना चाहते हैं। जब कोई बहुत बोले, तो समझ लो बस एक बात है जो बोलनी है उसे और बोल पा नहीं रहा है। जब कोई बहुत कुछ करता दिखाई दे, इधर मेहनत कर रहा है, उधर प्रयत्न कर रहा है, यहाँ गोटियाँ बिठा रहा है, वहाँ पासे फेंक रहा है, संसार में हर तरफ़ दौड़-भाग कर रहा है, तो जान लो बस एक छोटा सा काम है जो उसे करना है, वो कर नहीं पा रहा है, और उसके विकल्प के तौर पर दुनिया भर के झंझट पाले है। “एक साधे सब सधे।”

ये भी जो हो रहा है, जिसकी आवाज़ें आ रही हैं आप तक, ये प्रयत्न अध्यात्म की ही दिशा में है। वो भी पहुँचना वहीं चाह रहे हैं जहाँ आप पहुँचना चाह रहे हैं। बस, बड़ा विचित्र माध्यम चुना है। पहले तो माध्यम चुना और माध्यम भी क्या विचित्र है? ऐसा माध्यम चुना है जो लक्ष्य से और दूर ले जाए। जैसे कोई देख तो सामने रहा हो और गाड़ी रिवर्स गियर में चलाये। दृष्टि तो उधर है, क्योंकि लक्ष्य वहाँ है और जिस माध्यम में बैठे हो वो जा रहा है पीछे।

दुनिया इसलिए नहीं है कि ये तुम्हें सत्य तक कि परमात्मा तक ले जाएगी। समझो बात को। दुनिया इसलिए है कि परमात्मा को जो प्राप्त कर ही चुके हैं वो इसमें खेलें। दुनिया में ऐसा कुछ नहीं है जिसे तुम साधन की तरह इस्तेमाल करके सत्य तक पहुँच जाओगे। सत्य तक तो तुरन्त पहुँच जाता है, वो इतना निकट है। उसको तो पाना पहली और सबसे आसान बात है। वो पहला काम है जिसे निपटाना है — और वो काम है ही नहीं, क्योंकि वो काम निपटा हुआ है — और उसके बाद जगत है, अब खेलो।

जिन्होंने जगत में परमात्मा को ढूँढ़ा, वो ढूँढ़ते ही रह गये और जिन्होंने परमात्मा को सदा प्राप्त ही जाना, जगत उनका क्रीड़ास्थल बना। जो दुनिया में ढूँढ़ रहे हैं शान्ति और सुख-चैन, दुनिया उनके लिए युद्धस्थल रहेगी। और जो पहले से ही शान्त हैं, जो पहले से ही चैन में हैं, दुनिया उनके लिए क्रीड़ास्थल रहेगी। खेलने वाला अगर जीतने के लिए खेल रहा है, तो क्या खाक खेलेगा? वो तो परेशान रहेगा कि जीतूँ कैसे।

वो खेल कहाँ रहा है, वो तो सिर फोड़ रहा है। बात-बात में उसे झंझट हो जा रही है, तनाव हो रहा है, रो पड़ रहा है। साँस अटकी हुई है, कहीं हार न जाऊँ। क्योंकि वो जीतने के लिए खेल रहा है। इसमें बात ये है कि जीत तो पहले ही जाओ और फिर खेल में उतरो। जीत गये, अब खेल शुरू करो। अब तुम खेल पाओगे। खेल की परिभाषा ही यही है कि जिसमें जीत-हार से मतलब न हो। इसीलिए वो जो बिलकुल छोटे बच्चे होते हैं वो खेलते हैं। बड़े थोड़ी ही खेलते हैं, बड़े तो युद्ध करते हैं। आप जिन्हें खेल कहते हैं, जो आप स्टेडियम, टीवी, इत्यादि में देखते हैं, वो कोई खेल हैं? वो तो नियमबद्ध लड़ाइयाँ हैं। खेल तब है जब तुम पहले ही या तो पूर्ण रूप से विजयी हो या तुम पूरे तरीके से हारे हुए हो। जो पूरे तरीके से हारा हुआ है वो भी खेलेगा, और जो पूरे तरीके से जीता हुआ है वो भी खेलेगा। पर जो जीतने के लिए खेल रहा है, वो तो बेचारा हार-ही-हार में डोलता रहेगा।

कबीर साहब बड़े मीठे तरीके से बोलते हैं, वो कहते हैं, ‘पिया के संग खेलो, बाज़ी लगाओ।’ वो खेल होगा, क्योंकि उसमें दोनों ही स्थितियों में जीतोगे। ‘मैं जीती तो पिया मोरे, हारी तो मैं पिया के संग।’

प्र: सर, जब हम खेलते थे छोटे थे, तो एक कॉमन होता था। तो वो कोई सी भी टीम जीतती थी वो कॉमन, वो तो जीतने वाली साइड पर ही होता था।

आचार्य प्रशांत: हाँ, बढ़िया।

प्र: ऐसा कॉमन बनना है।

आचार्य प्रशांत: बिलकुल।

प्र: और सर, वो सिर्फ़ अपनी बैटिंग के लिए आता था। उसे मतलब नहीं होता था किसे जिताना है, किसे नहीं। उसे अपनी बैटिंग चाहिए होती थी। वो खेलता था, जिस तरफ़ से ज़्यादा रन बन गये...

आचार्य प्रशांत: बस, बस। तुम ये भी मान सकते हो कि तुम हारे हुए हो। अब भी खेलने में कोई दिक्कत नहीं। अब भी तुम मज़े लोगे। बस तुम ये मत मानना कि हार-जीत का फ़ैसला खेल पर निर्भर है। तुम यही मान लो, ‘मैं तो हारा हुआ हूँ’, अब भी खेलो, मज़े में खेलो।

प्र: हरिजन तो हारा…

आचार्य प्रशांत: “हरिजन तो हारा भला, जीतन दे संसार। हारा तो हरि से मिले, जीता जम के द्वार।”

तुम यही मान लो मैं हार गया। तो अपनी सारी कोशिशें, सारा संघर्ष छोड़ ही दो। ये उठा-पटक, ये हाथ-पाँव चलाना, ये प्रयास, ये प्रयत्न छोड़ ही दो। मिल गये हैं, ये समर्पण है।

प्र: सर, इसमें हार के भी जीत जाता है आदमी। जैसे कृष्णमूर्ति जी का मैं उदाहरण ले लेता हूँ। वो ये कहते थे, ‘कुछ नहीं होता ये’, लेकिन वो खुद बड़े ही, एनलाइटन्ड सी उनकी बातें लगती थीं। और वो ये बोलते थे कि ये एंटी मैडिटेशन, एंटी इनलाइटनमेंट, हर चीज़ में एंटी रहते थे। तो उन्हें खुद तो प्राप्ति हुई नहीं, लेकिन इसके बावजूद भी वो शान्त थे, अन्दर से। बाहर तो जैसे मैंने एमजीएम में भी ज़िक्र किया था उनके बारे में। तो आपने बताया था कि वो बाहर से ही वो कठोर दिख रहे हैं, अन्दर से वो शान्त ही हैं।

आचार्य प्रशांत: तुम शान्त होकर के भगवान को नकार दो, बिलकुल। तो भी तुम्हारा नकार ही भगवान का प्रमाण है, क्योंकि तुम्हारे नकार में शान्ति है। शान्ति ही तो भगवत्ता है। कोई अगर शान्त होकर के बार-बार बोले, ‘कोई ईश्वर नहीं है’, तो भी वो स्वयं ही ईश्वर के होने का प्रमाण है। इतनी शान्ति से वरना कैसे बोल पाते?

कोई ध्यान को नकार रहा है, कोई गुरु को नकार रहा है, कोई आत्मा को नकार रहा है। और उसके नकार में अगर जान है, तो वो जिसको नकार रहा है उसका नकार ही उसको प्रमाणित कर रहा है। वो ऐसी ही बात हुई कि मैं बोलूँ कि मैं बोल नहीं सकता। तो मेरा बोलना ही प्रमाणित कर रहा है कि मैं बोल सकता हूँ।

YouTube Link: https://www.youtube.com/watch?v=G-TZ-Rg_lCc

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