कोहम् का वास्तविक अर्थ है 'तुम कौन?' || आचार्य प्रशांत (2016)

Acharya Prashant

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कोहम् का वास्तविक अर्थ है 'तुम कौन?' || आचार्य प्रशांत (2016)

प्रश्न: ‘कोहम्’ का वास्तविक उद्देश्य क्या है?

वक्ता: यह विचार कोई ज़बरदस्ती करने वाली क्रिया नहीं है। साधना की कोई विधि अपनेआप में नहीं हो सकती। विचार आपके पास पहले ही बहुत सारे हैं। अध्यात्म है ही उनके लिए जिन्हें कहीं कुछ शंका हो, या जिन्हें कहीं कुछ दुविधा हो। तो आप शुरुआत यहाँ से करते हो कि कष्ट है, शंका है, दुविधा है।

फिर क्या होता है? अगर मैं वाकई ईमानदार हूँ, और मैं अपनी स्थिति के प्रति ज़रा जागरूक हूँ, तो मैं कहता हूँ: “भूल है”। कष्ट उसका प्रमाण है। फिर? फिर आप क्या कहेंगे?(श्रोतागण से पूछते हुए) बहुत कल्पना मत करिये। आम ज़िन्दगी में जो होता देखते हैं, बस वही बात दीजिये।

श्रोता १: वो गलती सुधारते हैं।

वक्ता: ठीक। यही होता है। तो अगली बात आप बोलते हो कि कष्ट है, कष्ट दूर करूंगा। कष्ट दूर हो। और आप कोशिश करते हो। उन्हीं कोशिशों में से एक कोशिश बोध और अध्यात्म भी होती है। ‘कष्ट दूर हो सके’, यह कोशिश कभी कुछ समय के लिए सफल होती है, कभी लम्बे समय के लिए सफल होती दिखती है, पर इसमें न आख़िरी सफलता मिलती है, न आख़िरी असफलता। आप इतना भी नहीं हारते कि आप टूट जाएँ, और कोई जीत आपको अंतिम भी नहीं मिलती। इतना ज़रूर होता है कि आप यदि सतर्कता से देख रहे हैं, तो पा जाते हैं कि आपका ज़ोर तो नहीं चल रहा है। आप वही-वही भूलें दोहरा रहे हैं, जो आप पहले कर रहे थे; नए रूप में हो सकता है, नई परिस्थितियों में हो सकता है। तो आप यह समझ जाते हैं कि जो दावा करने वाला है, वो अविश्वसनीय है। जो दावा करता है बार-बार कि अब यह करते हैं, अब वो करते हैं। उसपर यकीन नहीं किया जा सकता। आपने आज तक उस दावा करने वाले को क्या समझा था? विश्वसनीय? परिचित? यकीनी? हाँ?

आपने क्या कहा था कि आप उस दावा करने वाले को जानते हैं। जानते हैं, तभी तो आपका उसमें इतना यकीन था। पर अगर आप ईमानदार हैं और बार-बार आपके दावे टूट रहे हैं, तो आप स्वीकार करेंगे कि यह जो दावा कर रहा है, इसको आप बिल्कुल नहीं जानते। अगर आप इसे नहीं जानते, तो आपका अगला प्रश्न क्या होगा?

“यह कौन है?”

अभी भी ‘मैं कौन हूँ?’ नहीं, “यह कौन है?”। जिसपर मैं इतना यकीन करता रहता हूँ “यह कौन है?”। क्योंकि ये वो तो नहीं है जो मैं इसे समझता था। ये यदि वही होता जो मैं इसे समझता था, तो इससे मुझे इतने धोखे क्यों मिलते? यह है कौन?

यह जो प्रश्न है: ‘मैं कौन हूँ’, यह वास्तव में यह प्रश्न है: ‘तुम कौन हो’।

“मैं कौन हूँ?” नहीं। क्योंकि यह जानने के लिए कि यह ‘कर्ता’ कौन है, आपको उस ‘कर्ता’ से हमेशा ज़रा दूरी बनानी होती है। जब तक आप उस कर्ता के साथ पूरे सम्बद्ध हैं, तब तक आप कभी यह पूछेंगे ही नहीं कि यह ‘कर्ता’ कौन है। आप तुरंत कह देंगे: “यह ‘कर्ता’, ‘मैं’ हूँ।

तो ‘कोहम्’ वास्तव में यह प्रश्न है कि ‘तुम कौन’; ‘तुम कौन हो?’ हाँ, यह जो ‘तुम’ है, आप साथ ही साथ यह भी देखते हो कि आपका नाम लिए बैठा है। यह जिसे आप ‘तुम’ संबोधित कर रहे हो, यह जिससे आप कह रहे हो कि ‘तू’ है कौन। यह जो ‘तू’ है, यह नाम किसका लेकर चलता है? आपका ही नाम लेकर चलता है न। तो आपका जो ‘मैं’ है, यह उसने चुरा रखा है। तो इसलिए यह जो सवाल है कि ‘तुम कौन’, यह बन जाता है ‘मैं कौन’। ‘मैं कौन’ प्रश्न न आत्मा पूछती है, न उसका उत्तर कभी आत्मा हो सकता है। यह प्रश्न तो अहंकार के लिए पूछा जा सकता है, ‘तू है कौन?’।

“तू है कौन?”, यही उपयोगिता है।

आप अपने रोज़मर्रा के संसारी जीवन में किसी ऐसे का भरोसा नहीं करना चाहते न जो आपका यकीन तोड़ेगा, हाँ? तो कोहम् प्रश्न की यही उपयोगिता है। आपने पूछा था इसका उद्देश्य क्या है? उद्देश्य यही है। आप इस अनजाने को, अपरिचित को जानें कि ये अंजान है, अपरिचित है। यह आपके अज्ञान से साक्षात्कार है: “मुझे नहीं पता, ये है कौन, जो मन पर छाया रहता है। ये है कौन, जो मन ही बना बैठा है? ये कौन है, जो मेरे माध्यम से काम कर रहा है? और जिसने मुझे इतना जकड़ लिया है कि मेरा नाम भी चुरा लिया, जो मेरा ‘मैं’ ही ले गया, ये है कौन?”

इसीलिए ईमानदार होते हैं वो लोग जो सीधे यह कहते हैं कि ‘मैं कौन हूँ’ पूछता हूँ, तो उत्तर आता है: “पिता, पति, व्यापारी आदि।”, और अधम हैं वो जो बोलते हैं कि ‘मैं तो ब्रह्म हूँ’। ब्रह्म आता है तुम्हें पीड़ा देने? कोहम् की तो शुरुआत ही शंका में है। प्रश्न माने शंका। जो ब्रह्म है उसे शंका उठेगी क्या?

श्रोता ३: आप यह बात पहले भी बता चुके हैं कि दूरी बनाकर रखो और देखो। तो इसका अर्थ क्या है?

वक्ता: दूरी तब बनती है जब भरोसा टूटे। कोई तुम्हारा बहुत स्नेही यार है, प्रगाढ़ मित्र है, उससे दूरी तुम कब बनाते हो?

श्रोता ३: जब वो भरोसा तोड़ दे।

वक्ता: अन्यथा तो तुमने यारी कर ही रखी है न उससे। अब भरोसा भी अगर वो तोड़ रहा है लेकिन उस भरोसा तोड़ने में तुम्हें नुकसान बहुत ज़्यादा नहीं लग रहा, तुम्हें तकलीफ़ बहुत नहीं हो रही, तो भी यारी बनी रहेगी। तकलीफ होनी चाहिए।जब तकलीफ होती है, तभी यह प्रश्न उठते हैं। तकलीफ होनी चाहिए। बिना तकलीफ के काम नहीं होता।

शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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