किया कुछ न होत है || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

Acharya Prashant

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किया कुछ न होत है || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

वक्ता:

कबिरा किया कुछ ना होत है, अनकिया सब होए। जो किया कुछ होत है, करता और कोए।।

कबीर कर्म में बहुत गहरे ले जा रहे हैं हमें। कौन कहता है कि ‘मैं कर रहा हूँ’? अहंकार! और ये बात अब इतनी बार हमने कही है, सुनी है, इस पर ध्यान दिया है कि यह बात हमें बड़ी साधारण सी लगती है कि अहंकार कहता है कि ‘मैं कर रहा हूँ’। मैं आपसे एक सवाल और पूछना चाहता हूँ। कौन कहता है कि कुछ भी हो रहा है? कुछ भी हो रहा है, ये किसको लगता है? कि आप कर नहीं रहे हैं, यहाँ तक आना तो एक सीढ़ी है। और ज़रा उससे आगे भी देखें कि ‘कुछ हो भी रहा है?’ क्या वास्तव में कुछ हो रहा है? अरे कोई करेगा तो तब ना जब कुछ हो रहा हो, कुछ होने के लिए हो।

एक ज़ेन कथा है। दो साधक हैं और मंदिर के ऊपर झंडा लगा हुआ है, हवा चल रही है, झंडा लहरा रहा है। पहला साधक कहता है, ‘झंडा लहर खा रहा है, झंडा हिल रहा है’। दूसरा साधक कहता है, ‘न, झंडे का हिलना उसका अपना है ही नहीं, झंडा अपनी गति का कर्ता है ही नहीं, झंडे को तो हवा हिला रही है, तो यह मत कहो कि झंडा हिल रहा है, हवा हिल रही है’। दोनों साधक विवाद में पड़ जाते हैं। एक कह रहा है कि झंडा हिल रहा है, दूसरा कह रहा है कि न, झंडा कर्ता नहीं है, हवा चला रही है, तो हवा हिल रही है। उनका गुरु आता है, ये दोनों आपस में लगे हुए हैं, विवाद गुरु तक पहुँचता है। गुरु दोनों की ओर देखता है, फिर कहता है कि न झंडा हिल रहा है, न हवा हिल रही है, तुम्हारा मन हिल रहा है।

कुछ हो भी रहा है, या बस मन ही मन में सब कुछ है? जो स्वप्न देखा हो आपने, जिसमें बड़े-बड़े काम किये जा रहे हों और आप बहस कर रहे हों कि उन कामों को करने वाला कौन है। अरे कुछ हो रहा होगा तभी ना कुछ करने के लिए होगा। कुछ हो ही कहाँ रहा है? ‘कर्ता’ का प्रश्न तो बाद में आता है। कबीर आपसे कह रहे हैं कि ज़रा कर्म तो दिखाओ मुझे। कर्म कहाँ है जो कर्ता होगा उसका। तुमसे किसने कह दिया कि कुछ हो भी रहा है? तुम्हारे अलावा कौन है जो दावा करेगा कि कुछ होता है?

हम बड़ी आसानी से कह जाते हैं कि ये जो द्वैतात्मक संसार है यह हमारी इन्द्रियों ने रच रखा है। आपको कोई असुविधा नहीं होगी कहने में कि ये जो दीवार है, ये दीवार वास्तव में एक वस्तु है जो स्पर्श की जा सकती है, देखी जा सकती है। स्पर्श और द्रश्य के अलावा इस दीवार का कोई अस्तित्व नहीं है। स्पर्श होना बंद हो जाए ये, और दिखाई देना बंद हो जाए ये, तो आप कहोगे ही नहीं कि यहाँ कोई दीवार है। आप इसके आर-पार जा सको, बिना इसको स्पर्श करे और आपको दिखाई भी न देती हो, तो आप कह नहीं पाओगे कि दीवार है। तो इस दीवार का होना एक तरीके से आपकी इन्द्रियों द्वारा आया है, यह तो हम कह देते हैं। पर यही बात आप सीधे-सीधे कर्म के विषय में क्यों नहीं कहते? ‘दीवार नहीं है’, यह तो कह दिया। पर अगर कोई आकर इस दीवार को धक्का दे दे और दीवार को गिरा दे तो आप कहोगे, ‘उसने दीवार को गिरा दिया’, कर्म हो गया। सवाल ये है कि अगर दीवार ही भासित हो रही थी, तो जो कर्म है, दीवार के गिरने का, वह वास्तविक कहाँ से हो गया? ‘कर्म’ है कहाँ जो ‘कर्ता’ होगा? बीज है। बीज से संसार अस्तित्व में आता है, आकाश अस्तित्व में आता है, समय अस्तित्व में आता है। आकाश और समय जो है पूरा, उसी में जब कुछ गति करता प्रतीत होता है। गति ना हो तो, कर्म नहीं है। और गति होने के लिए क्या चाहिए? टाइम-स्पेस। जब यही नहीं है तो कर्म कहाँ है? कुछ हो कहाँ रहा है?

एक बड़ा सुन्दर पद था, अभी कुछ ही दिन पहले पढ़ रहा था। आशय उसका इस तरीके से था कि,

न कुछ हुआ, न हो रहा, न कुछ होवन हार। एक नूर का तेज़ है, पूरा यह संसार।।

न कुछ हुआ, न हो रहा, न होगा। कुछ होने-हवाने के लिए है ही नहीं। वही एक बिंदु है, वही एक शून्य है जो इक प्रकार हमें यूँ प्रकट दिखाई देता है। कहाँ कुछ होने के लिए है? कैसी गति? कैसा बदलाव? कहाँ कोई परिवर्तन है? कहाँ कोई घटना घट रही है? पर अहंकार को बड़ा धक्का लगता है, कुछ हो ही नहीं रहा है? समय ख़राब हो रहा है फिर तो।

कबिरा किया कुछ न होत है।आप ‘कबिरा किया’ को हटाइए, ‘कुछ न होत है’ पर ध्यान दीजिये। कुछ होता ही नहीं है, न किया, न अनकिया। ‘अनकिया सब होए’, जो है, वहाँ कर्म के लिए कोई स्थान नहीं है। और यदि वह कर्म है भी, तो उसी बिंदु का कर्म है, आपका नहीं है। आपका है यदि आप वह बिंदु हैं। अगर बाकी सब से मुक्त होकर के अपने को बिंदु रूप जान लें, तो फिर आपका किया है।

तो बड़ी मज़ेदार बात है। आपने कुछ किया नहीं अगर आप, आप हैं। और सब कुछ आपने ही किया है, चाहे वह कहीं भी घट रहा हो यदि आप, आप नहीं हैं। फिर तो आपकी पूरी ज़िम्मेदारी है, पकड़ा जाना चाहिए आपको। ‘जो किया कुछ होत है, करता और कोए’, जिसके करे से ये आभास हो रहा है कि कुछ घट रहा है, वो भी तुम नहीं हो।

दो बातें। पहला, आत्यांतिक अर्थ में, पारमार्थिक रूप से, कुछ हो ही नहीं रहा है, तो आप विश्राम करें। इतना ज़ोर लेने की ज़रुरत नहीं है। दूसरी बात, ये जो होने का आभास भी होता है, ये भी आपका किया नहीं है, ये भी इस पूरे तंत्र की अपनी व्यवस्था है। तो अगर आप गहराई से समझ सकें तो आप कह देंगे कि कुछ हो ही नहीं रहा। आप को वहाँ तक नहीं जाना है तो कम से कम वहाँ तक तो जाइये कि ‘हाँ, हो रहा है, पर जो हो रहा है उसको करने वाला पूर्ण ही है, पूरा तंत्र अपने आप काम कर रहा है। मैं नहीं कर रहा उसमें कुछ, और मुझे जो प्रतीत होता है कि मैं कुछ कर रहा हूँ, यह भी उस तंत्र का किया हुआ है। उस तंत्र के करने में यह भी शामिल है कि मुझे लगे कि मैं कर रहा हूँ। जो पूरा तंत्र खेल- खेल रहा, अपने आप से ही, कोई और नहीं है जो उसके साथ खेल रहा है, अपने आप से ही खिलवाड़ कर रहा है, छोटे बच्चे के जैसा’। आप देखेंगे कि वह अपने पाँव के अंगूठे के साथ खेल रहा है, उन्हें कोई चाहिए भी नहीं, वह मस्त हैं। पूरा तंत्र वैसा ही है, वह अपने साथ ही खेल रहा है, और इसके खेल में यह भी शामिल है कि इसने आपको यह अहसास करा रखा है कि, आप कर्ता हैं। आपका कर्ताभाव भी इस तंत्र का किया हुआ है। मैं फिर कह रहा हूँ, यह तंत्र भी वास्तविक नहीं है, क्योंकि इस तंत्र को भी आप तंत्र तभी तक कह रहे हैं जब तक आप हैं। इसलिए अगर आत्यांतिक बात सुननी है तो यह है कि कुछ हो ही नहीं रहा।

प्रश्न ‘कर्ता’ का नहीं है, प्रश्न ‘कर्म का है। यह बात जिसने समझ ली उसको खुद ही स्पष्ट हो जाएगा कि निष्काम कर्म क्या हुआ, कि विकर्म कर्म क्या हुआ, कि विशुद्ध कर्म क्या हुआ? वही सब बातें जो कृष्ण ने गीता में की हैं। हम कर्ता पर इतना ध्यान दे देते हैं कि मूल प्रश्न पीछे छूट जाता है, कर्म का। तो अगर सब अपने आप ही घट रहा है, यदि घट रहा है तो, तो आपका धर्म क्या है? आप क्या करें? घटने दें! आप विश्राम करिए। आपको क्या करना है? आपको आराम करना है। ‘आ-राम’, आप उसको आमंत्रित करें और आराम करें। और कुछ है नहीं करने के लिए, कुछ पाना नहीं है, कहीं जाना नहीं है। मेरा काम, चिर विश्राम! और कुछ नहीं है मेरा काम, बाकी जो होना है वह होगा ही। करने वाला कर रहा है, ‘तू रुलाए रोलें हम, तू हँसाए हंस ले हम। रो भी लेंगे, हंस भी लेंगे’। उसमें जोड़ दीजिये, ‘तू कराये, कर लें हम’।

श्रोता १: सर आराम करने का क्या मतलब है? क्या कुछ भी न करें?

वक्ता: यह तो बहुत बड़ा कर्ताभाव है कि मुझे कुछ करना नहीं है। नदी की लहर देखी है? कितना कुछ कर रही है। वो कह दे कि मुझे कुछ करना नहीं है, उसे बड़ा जोर लगाना पड़ेगा उसे। गंगा की लहरों को देख रहा था। अगर उनमें से कोई एक लहर अड़ जाए कि मुझे कुछ करना नहीं है तो तुम जानते हो उसको कितना जोर लगाना पड़ेगा? पूरी नदी का प्रवाह है जो उस से कह रहा है कि कुछ ‘कर’, और लहर अगर अड़ जाए कि कुछ करना नहीं है तो लहर को कितना ज़ोर लगाना पड़ेगा। पूरी नदी के विरुद्ध खड़ा हो जाना पड़ेगा। तुमसे किसने कह दिया कि विश्राम का अर्थ है कि कुछ करना नहीं है? विश्राम का अर्थ है नदी हो जाना।

श्रोता १: बहाव के साथ।

वक्ता: कौन सा बहाव? मोहल्ले का बहाव नहीं कि सब जगराते में जा रहे हैं तो हम भी चल दिए। कौन सा बहाव? अस्तित्व का।

सुमिरन मेरा हरी करें, मैं पाऊँ विश्राम।।

‘अपने आपको हरी के हवाले छोड़ दिया है, मैं विश्राम कर रहा हूँ’। लहर ने अपने आपको नदी के हवाले छोड़ दिया है, जब उठाओगे तो उठ जाएँगे, जब गिराओगे तो गिर जाएँगे। ज़रा से फासले पर कितनी ऊँची लहरे थीं और एक जगह पर झील। वही लहर है ना जो झील भी बन गयी? ‘तू उठाए उठलें हम, तू सुलाए सोलें हम!’। बड़ा साफ़ मन और गहरा बोध चाहिए ये देखने के लिए कि किस प्रवाह में बही जा रही हूँ। बह तो शायद सभी रहे हैं पर किस प्रवाह में? क्या है जो बहा रहा है?

श्रोता २: बहाव होना है, पर जागरूकता में।

वक्ता: क्योंकि उसके बिना बहाव नहीं है। उसके बिना तो आपकी पसंद या न पसंद ही है। बहाव सबको लग रहा है कि कर रहे हैं, पर बह वास्तव में वही रहा है, बड़ा साफ़ है जो, बड़ा खाली है। वही बह सकता है।

जो खाली है वह बहेगा, जो भारी है वह डूबेगा।

-ज्ञान सेशन पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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