लोकोऽपि तावदेव भोजनादि- व्यापारस्त्वाशरी रधारणावधि।।१४
द वर्ल्डली ड्यूटीज़ इन द वेरियस कॉन्ट्रैक्टस आर ऑल्सो टू भी पर्फॉर्म्ड ओन्ली टू दैट एक्सटेंड (सो लॉन्ग एज़ द कॉन्शियसनेस ऑफ़ द एक्सटर्नल वर्ल्ड कंटिन्यूज़ विद अस) बट एक्टिविटीज़ सच एज़ ईटिंग एटˈसेट्रअ, इनडीड विल कंटिन्यू एज़ लोंग एज़ द बॉडी इग्ज़िस्ट।
भिन्न-भिन्न लोकों में सांसारिक क्रियाएँ भी उतनी ही (जितनी मात्रा में बाह्य जगत की चेतना अपने साथ ले जाती है) की जाती हैं, परन्तु भोजन आदि क्रियाएँ तब तक चलती रहेंगी जब तक शरीर है।
~सूत्र १४ (नारद भक्ति सूत्र)
आचार्य प्रशांत: जब तक लग रहा है कि अभी जगत महत्वपूर्ण है तब तक संसार और संसार में मौजूद समाज बना रहेगा और तुम उनको निभाओगे भी। लेकिन जैसे-जैसे तुम्हारे लिए ये सब गैर महत्वपूर्ण होते जाएँगे, तुम्हें निभाने की आवश्यकता भी कम महसूस होगी। अंततः आवश्यकता शून्य हो जानी है।
हमने बात करी थी कि हम तीन तलो पर होते हैं—सामाजिक, प्राकृतिक और आत्मिक। तो यह पहले तल की बात हो रही है। कहा जा रहा है कि “सामाजिक तल से शनै-शनै पूर्णतया मुक्ति मिल जानी है।“ लेकिन साथ ही यह भी कहा जा रहा है कि “प्राकृतिक तल से पूर्ण मुक्ति तब तक नहीं मिलेगी जब तक शरीर है।“ तो वही लिखा है कि जब तक शरीर है तब तक खाओगे तो है ही, उतनी तो क्रिया रहनी ही है।
प्रश्नकर्ता: यह सत्रहवाँ सूत्र है, “अ ग्रेट अटैचमेंट टू लिसनिंग टू दी स्टोरीज़ ऑफ़ हिज़ ग्लोरीज़” (उनकी महिमा आदि की कथा सुनने में बड़ी आसक्ति)।
आचार्य: कुछ नहीं, गर्ग ऋषि की अपनी व्याख्या है कि उसके किस्से सुनना। हमने कहा था कि सूफ़ियों का एक पसंदीदा शब्द है, ‘फ़िक्र’। उनका एक दूसरा पसंदीदा शब्द है, ‘ज़िक्र’। तो उसके किस्से सुनने लेने में ही बड़ा आनंद है, उसका ज़िक्र करो, उसका नाम लो, उसकी बातें करो, बड़ा रस है। अपन को बातें तो करनी ही हैं, उसी की बातें करेंगे। इसीलिए भक्ति में निर्गुण जैसा कुछ है ही नहीं।
भक्ति का तो अर्थ ही है कि “लाख रंग हैं परम के, और वो लाखों रंगों की बात करूँगा। एक-एक रंग उसका है, मुझे उसमें डूबने दो, नहाने दो। कि रात बीत जाती है लेकिन तेरा किस्सा ख़त्म नहीं होता।“ और बड़े गाने हैं इसी तरह के, कोई देगा उदाहरण?
प्रतिभागी: “कि तेरा ज़िक्र है या इत्र है महेकता हूँ, बहकता हूँ, चेहेकता हूँ”
इधर उधर से घिर रहे हैं, सौ बेवकूफ़ियाँ मन पर सवार हैं, और जहाँ उसका ज़िक्र करना शुरू किया तहाँ नशा सा आ गया। अहा! रिलीफ़ ! उसकी याद में उतरते नहीं हैं कि मन मस्त हो जाता है।
रात का समय बड़ा उपयुक्त होता है, भक्त को रात बहुत प्यारी होती है। सूफ़ियों की साधना में रात को जगने का बड़ा महत्व होता है। सूफ़ीपंथ ही पूरा भक्ति का पंथ है, पूरा भक्ति का पंथ है। नाम ही पूरा-का-पूरा भक्ति ही है। इस्लाम ही पूरा, पूरा भक्ति ही है—पूर्ण समर्पण।
रात भर जग करके (ज़िक्र करते हैं)। क्या है रात? जब पूरा कूड़ा-कचरा ज़रा सो गया होता है, तब हम जगते हैं और उसके साथ हो लेते हैं। कभी सुना है दोपहर को भजन गाए जा रहे हैं? बड़ी दिक्क़त है, भजन तो शुरू ही संध्या बाद होते हैं और कब रुकेंगे कोई नहीं जानता। अब अगर बंध गया तार, लग गई लगन, तो अब नहीं रुकेगा भजन।
हम हैं, रात है, चाँद है, गीत है, और वो है जो हमारी कहानी का असली हीरो है। अब गाएँ नहीं तो क्या करें! भक्त गाता है और गाता ही जाता है, बेसुध होकर गाता है। वैसे नहीं गाता जैसे तुम गा रहे थे कल।
प्रतिभागी: (हँसते हैं) नहीं बेसुध तो थे।
आचार्य: भक्त फिर इसकी परवाह नहीं करता कि कौन क्या कह रहा होगा, रिकॉर्डिंग हो रही है, यह सब। और ताल ठीक बैठ रहा है कि नहीं बैठ रहा है, और समय कितना हो गया, सुबह उठना कितने बजे है। दिल के भीतर एक समुंदर।