कितना पैसा ज़रूरी है? || आचार्य प्रशांत (2018)

Acharya Prashant

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कितना पैसा ज़रूरी है? || आचार्य प्रशांत (2018)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जीवन में पैसा कितना ज़रूरी है?

आचार्य प्रशांत: जितना किसी सत्कार्य के लिए चाहिए; दो रुपए में भी काम चल सकता है, दो अरब भी कम हो सकता है।

प्र: आचार्य जी, सत्कार्य मतलब?

आचार्य: काम ऐसा होना चाहिए जो पैसा माँगे। अपने लिए तो पैसा उतना ही चाहिए कि पेट भर जाए, और कितना माँगोगे भाई? नहीं तो जेब में ही भरना पड़ेगा। नहीं तो बैंक में डाल रखा है, स्टॉक में लगा रखा है, बुलियन में लगा रखा है और तुम उसकी पहरेदारी कर रहे हो। जैसे होता है न, पिक्चरों में देखते होगे कि वो सोने-चाँदी का ढेर पड़ा हुआ है, उस पर एक साँप बैठा हुआ है, और वो क्या कर रहा है? वो पहरेदारी कर रहा है; वो तो करना नहीं है।

अपने लिए कितना चाहिए होता है आदमी को? खाना, पहनना, सर के ऊपर छत; और करोगे क्या? उससे ज़्यादा तुम कमा भी लोगे तो उपभोग नहीं कर सकते, एक आदमी कितना उपभोग कर लेगा? लेकिन अगर जीवन में कोई महत् लक्ष्य हो तो धन की आवश्यकता पड़ सकती है।

महामना मदनमोहन मालवीय — कौन थे वो?

श्रोता: बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के संस्थापक।

आचार्य: वो देश-भर घूमे थे भिक्षापात्र लेकर, किसलिए? विश्वविद्यालय बनाने के लिए, और खुद कितना उसमें से इस्तेमाल करते थे? कुछ नहीं। पर धन तो उन्होंने बहुत इकट्ठा किया, साधारण जन से लेकर निज़ाम तक के सामने उन्होंने जाकर कहा — दीजिए, और गर्वपूर्वक कहा, “ दीजिए, कोई बड़ा काम कर रहा हूँ, उसके लिए धन चाहिए।“

तुम कोई बड़ा काम हाथ में लो, फिर उसके लिए धन इकट्ठा करो बहुत बढ़िया बात है। पर तुम कहो कि मुझे अपने भोगने के लिए चाहिए, तो ज़्यादा भोगोगे तो बीमार ही पड़ जाओगे। ज़्यादा खाए तो क्या होता है उसका, सेहत बढ़ जाती है? अपच और हो जाएगा।

तो कितना पैसा चाहिए? उतना जितना अपने को पच जाए और अपने काम को कम न पड़े।

प्र: तो इसका मतलब ये हुआ कि आदमी काम भी उतना ही करे जितने में उसका काम चल जाए?

आचार्य: नहीं-नहीं, काम चुने ऐसा जो करने लायक हो, काम कितना करे वो बाद की बात है। वास्तव में अगर तुम्हें काम मिल गया करने योग्य, तो उसको करने की कोई सीमा नहीं रह जाती। हमने अभी मालवीय जी की बात की, तुम्हें क्या लगता है वो समय देखकर काम करते थे?

श्रोता: वो तो उनका जुनून था।

आचार्य: ये तो सही बात है। तो पहले काम ऐसा चुनो जो करने लायक हो, और फिर तुम उसके बाद समय नहीं देखोगे, घड़ी नहीं देखोगे, कि इतने से इतने बजे तक ही करना है। और फिर अगर वो दो रुपया भी माँगता हो तो तुम दो रुपया कमाओ, और अगर दो अरब माँगता हो तो तुम दो अरब भी कमाओ। फिर शर्म-संकोच मत करना, कि, “अरे इतना कमाना क्यों, संतोष बड़ी बात है, संयम में जीना चाहिए।“ तुम्हें अगर विश्वविद्यालय खड़ा करना है तो कौन-सा संतोष और क्या संयम, तुम तो जाओ और धन एकत्रित करो। और अगर तुम्हें कोई ग्रन्थ ही लिखना है चुपचाप घर में बैठकर, तो फिर तुम्हें क्यों बहुत पैसा चाहिए? फिर तुम कहो कि मुझे तो थोड़ा ही चाहिए और थोड़ा यदि आ रहा है तो ठीक है; वो तुम्हारे काम पर निर्भर करता है।

धन अपने लिए मत माँगो, धन मा़ँगो अपने काम के लिए, और काम चुनो बहुत ध्यान से। काम ऐसा चुनो जो जीवन को पूर्णता देता हो, शांति देता हो; जिसको करने से जीवन सफल हो जाए ऐसा काम चुनो।

प्र२: आचार्य जी, कभी निर्णय लेने में समझ नहीं आता कि निर्णय सही है या गलत। जैसा कि मैं अपनी बात करूँ तो बचपन में ही मैंने माता-पिता को खो दिया था, तो नानी के साथ बड़ा हुआ मैं। तो कई सारे निर्णय कभी ले लेता हूँ मैं। जैसे अभी तमिलनाडु में नौकरी का निर्णय मैंने ले लिया मुम्बई को छोड़कर। तो समझ में नहीं आता कि सही है या गलत।

आचार्य: बेटा, सही निर्णय और गलत निर्णय हमेशा किसी परिप्रेक्ष्य में होते हैं न?

तुम अगर तुले ही हुए हो कि किसी की हत्या करनी है, तो बंदूक खरीदना सही निर्णय है। ये तो तुम किस संदर्भ में बात कर रहे हो ये इसपर निर्भर करता है न? तो तुम क्या चाहते हो वो निर्धारित करेगा कि काम तुम्हारा सही है कि गलत। बताओ चाहते क्या हो?

प्र२: फिलहाल तो पैसा।

आचार्य: पैसा किसलिए चाहते हो, गिनने के लिए?

प्र२: जीवन आगे बढ़ाने के लिए।

आचार्य: जीवन माने क्या? जीवन तो अभी भी है।

प्र२: जो रोज़ की ज़रूरतें हैं उसके लिए तो चाहिए।

आचार्य: उसके लिए कितना चाहिए? रोज़ ऐसा क्या-क्या करते हो जिसके लिए बहुत पैसा लग जाता है?

प्र२: मुम्बई में सभी चीज़ें महँगी हैं काफ़ी।

आचार्य: बेटा, हम भी गाँव में नहीं रहते।

प्र२: लेकिन जैसे कोई घर लेना हो गया या इसी तरह कोई बड़ा खर्च हो, तब तो लगेगा?

आचार्य: ठीक है, मुंबई को जानता हूँ, गुड़गाँव से कहीं आगे का हाल नहीं है। और कितना बड़ा घर लोगे, ताजमहल? दो आदमी-तीन आदमी के लिए कितना बड़ा घर चाहिए?

श्रोता: दो शयन-कक्ष और एक रसोई-घर।

आचार्य: तो? क्या ये इतनी बड़ी माँग है कि तुम इसके लिए दिमाग चलाते रहो, कि, “इतना कहाँ से आएगा, उतना कहाँ से आएगा”? या बात ये है कि चूँकि जीवन में कोई सम्यक् लक्ष्य नहीं इसलिए छोटी-छोटी बातें चलती रहती हैं।

जब किसी के पास करने को कुछ न हो तो फिर वो कुछ भी सोचेगा, कि, “जूते का फीता किस दुकान से खरीदूँ, उस दुकान से खरीदूँ कि किसी और दुकान से,” उसके लिए यही बहुत बड़ा निर्णय हो गया। और जब आपके पास जीने के लिए कोई उन्नत लक्ष्य होता है तो ये छोटी-मोटी बातों का आप ख्याल ही नहीं करते, आप कहते हैं, “ये तो हो जाएँगी, इनका कौन सोचता है।“

प्र२: लेकिन मुझे अभी भी ये स्पष्ट नहीं हो रहा है कि वहाँ जाकर सही किया कि गलत।

आचार्य: किस चीज़ के लिए सही किया? फिर पूछ रहा हूँ, तुम्हारा लक्ष्य क्या है, चाह क्या रहे हो? वो बताएगा कि तुमने सही किया कि गलत किया।

क्रिकेट खेलते हो?

प्र२: जी।

आचार्य: मैं बैट्समैन (बल्लेबाज़) हूँ, ठीक है? तुम बॉलर (गेंदबाज़) हो। तुमने बॉल (गेंद) डाली, मैंने उछाल के मारा, सही किया कि गलत किया?

प्र२: सही किया।

आचार्य: पागल, ये टेस्ट मैच था, और मैं चौथे इनिंग (पारी) में, आखिरी इनिंग में आठ विकेट खोकर खेल रहा हूँ, ड्रॉ के लिए। जीतने के लिए और तीन सौ रन चाहिए, वो बन नहीं सकते, मैं ड्रॉ के लिए खेल रहा हूँ। बताओ सही किया कि गलत किया?

प्र२: गलत किया।

आचार्य: तो सही या गलत किसपर निर्भर करता है? “स्थिति क्या है, चाह क्या रहा हूँ।“ ठीक है? तुमने फिर से गेंद डाला और मैंने फिर उछाल के मारी, बताओ सही किया कि गलत किया?

श्रोता: वो तो स्थिति पर निर्भर करता है।

आचार्य: अभी टी-ट्वेंटी है, और एक गेंद पर छह रन चाहिए। बताओ सही किया कि गलत किया?

प्र२: सही किया।

आचार्य: तो तुम पूछते हो, “निर्णय सही है कि गलत है,” मैं कैसे बता दूँ, पहले मुझे ये तो बताओ कि तुम हो कौन और चाहते क्या हो? जब ये ही नहीं पता कि तुम कौन हो, तो सही-गलत का क्या कर रहे हो?

पहले ये तो पता करो कि तुम कौन हो, उससे पता चलेगा कि तुम क्या चाहते हो; उससे फिर तुम्हें ये भी पता चल जाएगा कि तुम्हारे लिए क्या करना उचित है और क्या करना अनुचित है। और जब मैं पूछ रहा हूँ, “तुम कौन हो,” तो ये सब मत बता देना कि मैं तो आत्मा हूँ।

(श्रोतागण हँसते हैं।)

तुम ज़मीन पर आकर बताओ कि तुम इंसान के तौर पर क्या हो और क्या तुमको चाहिए।

प्र२: शरीर।

आचार्य: अपनी ज़िंदगी की ओर देखो, अपने तथ्यों को देखो, और मुझे बताओ कि क्या है जो तुम्हारी प्रेरणा है, क्योंकि तुम्हारी अपूर्णताएँ ही तुम्हारी प्रेरणा होती हैं। क्या है जो तुम्हें खा रहा है, किसकी तुम्हें प्यास है? फिर मैं तुम्हें बताऊँगा कि क्या सही है और क्या गलत है तुम्हारे लिए।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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