किस दिशा जाऊँ?

Acharya Prashant

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किस दिशा जाऊँ?

प्रश्न: सर, बचपन से एक सपना था, लगता था कि डॉक्टर बनना है| फिर थोड़े बड़े हुए तो सोचा कि डॉक्टर नहीं, इंजीनियर बनना है| कुछ और समझ आयी तो सोचा कि राजनीति में चला जाऊँ क्योंकि मेरा सम्बन्ध राजनीति से भी रहा है, पर फिर किसी ने कहा कि इसमें तो कुछ नहीं है| फिर एक समय आया जब पक्का मन बना लिया कि सेना में जाना है| चयन भी हो गया,पर फिर परिवार से संदेश आया कि मत जाओ, मर जाते हैं| और अब आखिर में इंजीनियरिंग|

इंजीनियरिंग कर रहा हूँ, एक साल हो भी गया, फिर भी अन्दर से मेरा दिल पक्का नहीं है कि मैं एक अच्छा इंजीनियर बन पाऊँगा| अब दोबारा राजनीति की तरफ मन हो जाता है कि इसी तरफ जाना है| कभी भी कोई चीज़ देखता हूँ, उसको अपने हिसाब से उचित ही पाता हूँ, और कोई निर्णय नहीं ले पाता| इस चीज़ को कैसे रोका जाए? मैं इसी दुविधा में हूँ| इंजीनियरिंग करनी है, डिग्री लेनी है, एक बेहतर इंजीनियर बनना है, इस चीज़ को कैसे पाऊँ? इधर भी जाना है मुझे, उधर भी जाना है| मन कुछ कह रहा होता है, कुछ और कर रहा होता हूँ| करना ये है, बातें उस चीज़ की कर रहा हूँ| इस मनोस्थिति को मैं रोकना चाहता हूँ| इस दुविधा से कैसे निजात पाऊँ?

वक्ता: ये हमेशा चलता रहेगा, और इसे किसी भी तरीके से रोका नहीं जा सकता| तुम्हारे ही साथ नहीं, पूरी दुनिया के साथ ये ही चल रहा है| यहाँ पर हो तो वहाँ पर जाना है, और इसी को हम ज़िन्दगी कहते हैं| हमें सिखा दिया गया है कि ज़िन्दगी का मतलब ही है कहीं से कहीं और पहुँचने की चाह, और कहीं से कहीं तक जाने की गति| इसी का नाम ज़िन्दगी है| और हमने इस बात को गहराई से सोख भी लिया है, आत्मसात कर लिया है| और अगर इसमें तुम सवाल ये करोगे कि मेरे लिए उचित क्या है, कहाँ को पहुँच जाना – तो कोई भी उत्तर आखिरी नहीं होगा|

उत्तर मिल जाएंगे| आज तुम जहाँ पर खड़े हो, वहाँ बहुत सारी बातों को ख़्याल में रख कर कहा जा सकता है कि चलो ये कर लो, उसकी कुछ उपयोगिता हो सकती है – लेकिन वो बात आखिरी नहीं हो सकती| जो तुम्हारे साथ हो रहा है कि ये कर लिया, वो कर लिया, चिकित्सा का क्षेत्र, राजनीति, इंजीनियरिंग, सशस्त्र बल, वो चलता ही रहेगा| आज भी तुम्हें कोई उत्तर दिया जा सकता है कि यहाँ पर हो, ये पढ़ रहे हो, आगे के लिए ये दिशा हो सकती है| लेकिन ये सवाल नहीं ख़त्म होने वाला| तुम दो साल बाद यही सवाल लेकर फिर खड़े होओगे, तुम यही सवाल लेकर पाँच साल बाद फिर खड़े होओगे| फिर से तुम्हें कोई उत्तर दे दिया जाएगा| और ऐसा नहीं है कि जो उत्तर दिया जायेगा वो गैरवाजिब होगा|वो उत्तर अपनी जगह ठीक ही होगा, दे दिया जाएगा| तुम बीस साल बाद भी खड़े होगे, और डरावनी बात ये है कि तुम मौत के दिन भी यही सवाल लेकर के खड़े होओगे कि कहाँ जाना है| फिर तुम पाओगे कि कोई उत्तर काम नहीं आ रहा| काम इसलिए नहीं आ रहा है क्योंकि तुमने एक गहरी धारणा बैठा रखी है| तुम जब ये पूछते हो कि कहाँ को जाएँ, तो तुम्हारी धारणा ये है कि कहीं को तो जाना ज़रूरी है| तुम्हारी धारणा ये है कि कहीं को पहुँच कर वो मिल जाएगा जिसकी बार-बार कमी दिखाई देती है|

कुछ कमी तो दिखती ही है और उसी कमी के कारण तुम इधर-उधर जाना चाहते हो| वही बेचैन करती है| है ना? तुम उसको कई तरह के नाम दे देते हो| तुम कभी उसको सफ़लता बोल देते हो, कभी तुम उसको लक्ष्य बोल देते हो, कभी कर्त्तव्य बोल देते हो| तुमने उसको तरह-तरह के नाम दे रखे हैं| पर घूम-फिर कर बात बस इतनी सी है कि कुछ खालीपन है जो भरता नहीं, और बार-बार लगता है कि कुछ और मिल जाए तो खालीपन भर जाएगा|और ये खालीपन ऐसा नहीं है कि केवल व्यवसाय के क्षेत्र में पता चलता है| तुमने कपड़ा भी पहन रखा है तो भी कितनी जल्दी ऊब जाते हो कि नया चाहिए| खाना कुछ और चाहिए| लोग पति-पत्नियाँ तक बदल देने को तैयार हैं कि क्या पता इनको बदल देने से कोई नया आ जाये और उससे खालीपन भर जाये| आखिरी साँस तक यही चलता है कि जो है वो पूरा नहीं पड़ रहा,जच नहीं रहा| कुछ है जो मिला नहीं और तुमने अनजाने में मान ये लिया है कि कुछ पाकर के ये रिक्तता भर जायेगी|

दिक्कत ये है कि ये रिक्तता कुछ भी पाने से नहीं भरती है| कभी भी कुछ पा लो, ये भरेगी नहीं| तुम अपना ऊँचे से ऊँचा लक्ष्य भी हासिल कर लोगे तो एक तरफ तो लक्ष्य पाने की ख़ुशी होगी और एक तरफ गहरा अफ़सोस होगा कि इसको पाकर भी वो तो हुआ नहीं जो लगता था कि हो जाएगा| इससे ज़्यादा अच्छा तो वो समय था जब मैं इसे पाने की कल्पना किया करता था क्योंकि कल्पना में ये उम्मीद जुड़ी हुई थी कि जब ये मिलेगा तो कुछ ख़ास होगा| और जब मिल गया तो कल्पना भी गयी, उम्मीद भी टूट गयी| इसमें वो है ही नहीं जो सोचा था कि होगा|

ध्यान देना उसमें कभी वो नहीं होगा जैसा तुमने सोचा था कि होगा, क्योंकि अगर होता तो तुम्हारी दौड़ रुक गयी होती| और दुनिया में तुम किसी की दौड़ रुकते तो देखते नहीं| जिसको जो भी मिल गया, वहीं उसको धोखा होता है कि अरे ये वो नहीं है जो चाहा था| अच्छा चलो पूरी कोशिश करते हैं, कुछ और माँगते हैं और जान लगा देते हैं उसको पाने में| और जब वो मिल गया तो फिर – ये वो नहीं है जो चाहिए था| अब कुछ और, अब कुछ और| और फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हें क्या मिल गया, ऊँची से ऊँची चीज़ हो सकती है| हो सकता है कि तुम बड़े असफल आदमी हो, या हो सकता है कि तुमने बहुत कुछ पा लिया हो| हाल अंततः एक ही जैसा है, सबका एक ही जैसा है|

बाहर कुछ पाने की दौड़ निकलती कहाँ से है, उसको साफ़-साफ़ देख लोगे तो मामला खुल जायेगा| कुछ भी पाने की दौड़ निकलती है हीनता की भावना से| भावना ये होती है, मन का तर्क ये होता है कि पा लो तो पूरे हो जाओगे| और पूरे होने की इच्छा तब तक है जब तक तुमने ये मान ही रखा हो कि मैं अधूरा हूँ, मुझमें कोई हीनता है, मुझमें कोई कमी है| अब तुम मामला देखो कि चल क्या रहा है| बड़ा मज़ेदार है| तुम्हें इच्छा है कुछ पा लेने की| अगर पा लिया तो इच्छा का क्या होगा ?

श्रोता २: पूरी हो जायेगी|

वक्ता: और पूरी होते ही क्या होगा?

श्रोता ३: ख़त्म हो जायेगी|

वक्ता: ख़त्म हो जायेगी| तो इच्छा है किस बात की? पूर्ति की| और पूर्ति का अर्थ है, इच्छा की मौत| इच्छा की पूर्ति, इच्छा की मौत है| इच्छा क्या है? इच्छा है कि इच्छा ख़त्म हो जाए| इच्छा यही है कि इच्छा ख़त्म हो जाए, और यहाँ पर चूक क्या हो रही है, इसको समझो| इच्छा यही है कि कुछ मिल जाए और अगर वो मिल गया, अगर वो वास्तव में मिल गया, तो इच्छा ख़त्म हो गयी| इच्छा यही है कि इच्छा ख़त्म हो जाए| इच्छा कर-कर के तुम चाह रहे हो कि इच्छा ख़त्म हो जाए| तुम देखो कितनी विपरीत कोशिश कर रहे हो| तुम और-और इच्छा कर के ये चाह रहे हो कि इच्छा ख़त्म हो जाये| देखो, है ना ऐसा? ये वैसा ही काम है कि जैसे कोई आग को पेट्रोल से बुझाने की कोशिश कर रहा हो| तुम इच्छा ख़त्म करने के लिए और इच्छा कर रहे हो| ‘मैं इच्छा कर रहा हूँ कि इच्छा ख़त्म हो जाए’| वो कभी ख़त्म होगी नहीं|

ये सारी इच्छा निकल रही है हीनता के भाव से| वो जो भाव है, वो बड़ा शैतान है| वो बने रहना चाहता है| कुछ हद तक हम ये भाव लेकर पैदा होते हैं पर बहुत हद तक हमें ये भाव समाज देता है| कुछ हद तक तो हम लेकर ही आते हैं और बहुत हद तक हमें वो भाव समाज दे देता है कि तुझमें कोई कमी है, कुछ हीनता है, कोई खोट है, उसको पूरा कर| जैसे-जैसे ये भाव मन में गहरा होता जाता है वैसे-वैसे बेचैनी बढ़ती जाती है और हमारे दौड़ने की गति बढ़ती जाती है, कि किसी तरीके से ये जो छेद है, ये जो रिक्तता है, मैं इसको भर दूँ| ये बहुत कष्ट देती है|

दो तरीके के लोग होते हैं| एक, जिनको तुम कहते हो कि ये तो हार मान कर बैठ गया| इस तरह के लोग कहते हैं, ‘मैंने पूरी कोशिश कर ली पर कुछ हो नहीं सकता| मुझे पक्का ही है कि मैं एक छोटा आदमी हूँ| मुझे पक्का ही है कि कुछ बदल नहीं सकता| ये अकर्मण्य हो जाते हैं| ये कहते हैं कि हीन तो हूँ और उस बारे में अब कुछ करूँगा भी नहीं क्योंकि ये हीनता अब मेरी नियति है| ये हीनता मेरा भाग्य है, कुछ बदल नहीं सकता’|

एक दूसरे तरीके का आदमी होता है| वो कहता है, ‘नहीं, ये हीनता भरी ज़िन्दगी जा सकती है, मैं इससे लड़ूँगा और मैं इसको भर डालूँगा’|और वो बहुत कोशिश करते हैं|’किसी तरीके से मैं कुछ ऐसा पा लूँ, पहाड़ पर चढ़ जाऊँ, चाँद पर पहुँच जाऊँ, समुद्र की घाटी, तलहटी को छू लूँ, देशों पर विजय पा लूँ , खूब सारा धन इकट्ठा कर लूँ, सब जगह अपनी शौहरत फैला दूँ , कुछ ऐसा कर दूँ जिससे हीनता का ये अहसास ख़त्म हो जाए’| ये दूसरे तरह का आदमी है|

हमें लगता है कि दूसरे तरह का आदमी बहुत श्रेष्ठ है| और हमें लगातार यही कहा जाता है कि दूसरे तरह के आदमी बनो, ऐसा ही होकर दिखाओ| तुम्हारी पूरी शिक्षा तुम्हें यही सन्देश दे रही है, ‘उठो, आगे बढ़ो, और प्राप्त करो’| ये दोनों आदमी मूलतः एक ही हैं, इनमें कोई अन्तर नहीं है| इन दोनों ने एक बात तो मान ही रखी है कि हीनता है| पहले ने हीनता के आगे सर झुका दिया,दूसरा हीनता से लड़ रहा है, दोनों ने एक बात तो मान ही रखी है कि हीनता है ज़रूर| है तो| हाँ, दूसरे आदमी को तुम्हारी दुनिया पूजती है, दूसरे आदमी की मूर्तियाँ लगती हैं, दूसरा आदमी तुम्हें बहुत प्रेरणा देता है| जब तुम पर निराशा छाती है तो तुम उसकी तरफ देखते हो, उसके वचन सुनते हो और तुम्हारे भीतर भी उत्साह आ जाता है|

लेकिन ये दूसरा आदमी, पहले आदमी से किसी भी हालत में बेहतर नहीं है बल्कि और ज़्यादा ख़तरनाक है क्योंकि दूसरा आदमी तुम्हें बहकावे में रख रहा है, तुमसे यह कह कर के कि तुम जीत रहे हो| उसने तुम्हें बड़ा मधुर सपना दे दिया है कि एक दिन जीत तुम्हारी होगी| ‘एक दिन तुम जीतोगे, एक दिन तुम्हें वो मिल ही जाएगा जो आखिरी होता है और उस लालच में तुम ज़िन्दगी भर दौड़ते रहो’| जो दूसरा आदमी है वो बड़ा खतरनाक है, उससे बचना| ये लगता बड़ा प्रेरक है| उसके सामने बैठोगे तो तुम्हें लगेगा कि हाँ, अब कुछ ऊर्जा उठी मेरे अंदर भी| इसकी तो बातें ऐसी होती हैं, वाह| ये दूसरा आदमी पहले जैसा ही है, और पहले से ज़्यादा ख़तरनाक है|

एक तीसरे तरीके का आदमी भी होता है, जिसको हम जानते नहीं| वो कौन है? ये तीसरा पहले और दूसरे से अलग नहीं है|जिस एक दिन अचानक पहले को, या दूसरे को, या दोनों को ये बोध हो गया – ‘अरे हीनता तो है ही नहीं! ये मैं क्या फ़िज़ूल काम कर रहा हूँ! एक कहता है कि हार गया हूँ, दूसरा कहता है कि जीत गया हूँ पर तुम जिस जीत की बातें कर रहे हो वो है ही नहीं| ये क्या फ़िज़ूल की दौड़ लगा रखी है| मैं पूरा हूँ’ – सिर्फ ये तीसरा आदमी है जो जीवन को व्यर्थ नहीं करता| ये जो तीसरा आदमी है ये मरते वक़्त खाली हाथ नहीं मरता| सिर्फ ये तीसरा आदमी है जो ये कह सकता है कि जीवन सार्थक रहा| तुम मुझसे जो भी सवाल पूछते हो कि वो ये होता है, कि मैं पहले से दूसरा कैसे बन जाऊँ, आज भी सवाल यही आया है, कि मुझे सही दिशा दिखा दो, मैं कह रहा हूँ कि दिशा की ज़रूरत ही नहीं, तुम व्यर्थ भाग रहे हो| भाग-दौड़ ही व्यर्थ है| तुम दौड़ की दिशा पूछ रहे हो, मैं कह रहा हूँ कि भागना छोड़ो| तुम कह रहे हो कि मैंने पाँच दिशाएँ पकड़ीं, पाँचों में संतोष नहीं मिला, कहाँ मिलेगा, कोई छठी दिशा बताओ| मैं कह रहा हूँ, जैसी पाँच व्यर्थ थीं, छठी भी वैसे ही व्यर्थ होगी|

तीसरा जो है इसको जानो, तब कुछ बात बनेगी| और ये मत समझना कि ये जो तीसरा आदमी है ये रूक जाता है, ये मत सोचना कि जो तीसरा आदमी है वो ठहर जाता है| ये मत सोचना कि वो ऐसे ही कहीं पड़ा रहता होगा| पहला पड़ा रहता है,दूसरा भटकता रहता है, तीसरे की संगीतमय गति होती है| पहले का जीवन एक डरी हुई चुप्पी है, उसने हार मान ली है| एक हारी हुई चुप है उसका जीवन| दूसरे का जीवन एक बेतरतीब शोर है, वो बहुत कुछ कर तो रहा है पर जो कुछ कर रहा है उसमे कोई लय नहीं है, कोई ताल नहीं है, सिर्फ शोर है, सिर्फ भटकाव है, सिर्फ हिंसा है|

ये जो तीसरा आदमी है ये गति करता है पर इसकी गति संगीत जैसी होती है| ना तो यहाँ शमशान जैसा सन्नाटा है, और ना यहाँ फ़ालतू का शोर है| यहाँ संगीत है| अपने आप को देखना सुबह से शाम तक, या तो तुम सहम के चुप हो जाते हो या मौका मिलते ही तुम शोर मचाना शुरू कर देते हो| सिर्फ इन्हीं दोनों ध्रुवों के बीच में हमारी ज़िन्दगी बीत रही है| संगीत तुमने जाना नहीं – हल्का बहता हुआ संगीत – जैसे बाहर हवा चल रही हो तो पेड़ की पत्तियों से आवाज आये, या कि नदी का जो हल्का बहाव होता है| वो हमने नहीं जाना है|

तीसरे आदमी की जब भी बात उठती है तो हम डर जाते हैं| हम कहते हैं कि जब उसके जीवन से दौड़ ख़त्म हो गयी है तो अब लक्ष्यों का क्या होगा| अब उसे सम्मान कौन देगा क्योंकि वो कुछ पाने की कोशिश नहीं करेगा| तुम गलत सोच रहे हो| ये तीसरा आदमी दौड़ता नहीं है पर पाता बहुत कुछ है| ये तीसरा आदमी बहुत कोशिशें नहीं करता पर उसे बहुत कुछ मिल जाता है| ये कभी थकता नहीं पर ऊर्जा बहुत निकलती है इससे| तुम तो जब दौड़ते हो तो सिर्फ थकते हो और तुम्हारी दौड़ भी एक दिशा में नहीं होती| कभी एक दिशा में भागते हो, तो कभी दूसरी में| कभी इधर भागते हो, कभी उधर भागते हो| और घूम-फिर कर के भी तुम्हारा विस्थापन शून्य ही रहता है|

जो तीसरा आदमी है, ये तेज़ी से इधर-उधर को भाग नहीं रहा, इसे कुछ पाना नहीं है| पर ये जिधर को भी चलता है ऐसे चलता है कि जैसे नाच रहा हो| तुम या तो ठिठक के खड़े होते हो या पागलों की तरह दौड़ लगाते हो| वो नाचता है| वो मिलेगा कभी तो देखना कि वो नाच रहा है| और वो वाला नाच नहीं, जो तुम देखते हो, शादी-ब्याह वाला फूहड़ नाच नहीं| वो कुछ और ही नाच होता है, हर किसी को दिखाई नहीं देता वो नाच| तो वो आदमी तुम्हारे सामने से गुज़र भी जाएगा तो तुम्हें थिरकते हुए पाँव दिखाई नहीं देंगे| तुम्हारी आँखें ही नहीं हैं वैसी| ये जो तीसरा है सिर्फ यही ज़िंदा है, सिर्फ इसी ने जीवन को जाना है| पहला और दूसरा तो एक ही सिक्के के दो पहलू हैं| इधर का पकड़ो चाहे उधर का पकड़ो, सिक्का तो वही है| इसका एक एक कृत्य इस बात से निकलता कि मैं डरा हुआ हूँ, जिंदगी खाली है, परेशान हूँ, कोई दवाई दे दो ये कहता है कि सब कुछ मिला ही हुआ है| मस्त हूँ और नाच रहा हूँ| असली है वो मिला ही हुआ है, बाकि सब तो आता जाता रहता है| ठीक है, कोई बड़ी बात नहीं|

जो सब बातें तुमने कहीं वो सब चलती रहेंगी, ठीक उनके बीच में तीसरे को जगा देना है| अगर समय है, जीवन है, तो उसमें कुछ ना कुछ तो चल ही रहा होगा| तुम ये नहीं कह सकते कि जब ‘वैसा कुछ’ हो जाएगा, एक ख़ास मुकाम मिल जायेगा, तब हम सोचेंगे कि अब क्या करना है, कितीसरे की तरफ भी ध्यान देना है या नहीं देना है| ना! ठीक अभी जहाँ पर हो, यहीं पर तीसरे को जगा दो| या तो वो यहीं जगेगा या कहीं नहीं| उसके लिए कोई विशिष्ट समय,कोई खास मौका होता नहीं है| मैंने कहा था ना कि तीसरा, पहले और दूसरे से अलग नहीं है| जब पहले और दूसरे की आँख खुल गयी तो उन्होंने पाया कि तीसरे तो हम ही हैं | तुम्हारी भी आँख अभी खुल जाए तो तीसरा अभी है, नहीं तो दौड़ते रहो इधर-उधर, दस दिशाओं में दौड़ लो|

अभी तुमने पढ़ाई की बात की, कल तुम काम के क्षेत्र में दस दिशाओं की बात करोगे| कोई अंत नहीं है, करते रहना बातें| ना इधर, ना उधर, जहाँ हो ठीक वहीं पर| ठीक वहीं पर आँख खोल लो, पाओगे कि मामला बिल्कुल बढ़िया है| ऊपर-ऊपर से सब कुछ ऐसा ही चलेगा, ऐसा नहीं होगा कि पहले, दूसरे की आँख खुल जायेगी तो उनके चेहरे पर कुछ और दिखाई देने लगेगा, कि यहाँ पीछे एक आभामंडल आ जायेगा| ऐसा कुछ नहीं होगा| वो वैसे ही रहेंगे, वज़न भी उनका वैसा ही रहेगा, दो-चार ग्राम भी नहीं बढ़ जाएगा, कम ज़रूर हो सकता है| तो बाहर-बाहर तो सब कुछ वैसे ही रहेगा, यही कुर्सियाँ रहेंगी, इन्हीं पर बैठे होंगे, वही सड़क होगी, उसी पर चल रहे होंगे| यही लोग होंगे, इन्हीं से बातें कर रहे होंगे, दिन में इतने ही घंटे होंगे, सब कुछ वही रहेगा लेकिन फिर भी कुछ होगा जो बिल्कुल बदल गया होगा| जैसे एक मुर्दा पड़ा हुआ हो, ताज़ा, अभी-अभी मरा हुआ हो,और एक ज़िंदा आदमी हो| दिखने में दोनों एक से लग रहे हैं पर दोनों में ज़बर्दस्त अन्तर हो | दिखने में दोनों बिल्कुल एक से ही लग रहे हों पर फिर भी उनमें ज़मीन-आसमान का अन्तर है| एक में प्राण हैं, एक में नहीं हैं|

तो सब कुछ दिखने में ऐसा ही रहेगा, पर कुछ ख़ास होगा जो बदल चुका होगा| उसकी ओर ध्यान दो|

-‘संवाद’ पर आधारित| स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं|

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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