किसने बाँध रखा है तुम्हें? || (2019)

Acharya Prashant

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किसने बाँध रखा है तुम्हें? || (2019)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, माँ-बाप के चंगुल से कैसे छूटूँ? जब भी वो मुझसे कुछ कहते हैं, मैं मन-ही-मन उनके खिलाफ़ सोचता हूँ, लेकिन कह नहीं पाता। हालाँकि मुझे पता है कि उन्होंने मेरे लिए बहुत सारे संघर्ष किए हैं, लेकिन फिर भी मैं उनकी बातों से सहमत हो नहीं पाता, और बंधा हुआ महसूस करता हूँ।

क्या करूँ?

आचार्य प्रशांत: नीरज, सैंतीस वर्ष के हो, तो माँ-बाप तो अब सत्तर के पहुँच रहे होंगे। कह रहे हो कि – “माँ-बाप के चंगुल से कैसे छूटूँ?” सत्तर वर्षीय माता-पिता ज़बरदस्ती हाथ पकड़कर तो बैठा नहीं लेते होंगे। ये चंगुल है क्या, जिसकी बात कर रहे हो? शारीरिक बेड़ियों में तो उन्होंने जकड़ नहीं रखा है न? क्या बंधन है? तुमने तो अपने प्रश्न में सारा दोष माँ-बाप पर डाल दिया। बंधन उनकी ओर से है, या कोई लोभ तुम्हारी ओर से है?

साथ-ही-साथ ये भी कह रहे हो कि उन्होंने तुम्हारे लिए संघर्ष किया है। तुम्हें आत्मीयता दी है, संसाधन दिए हैं। तो फिर तो रिश्ता प्रेम का होना चाहिए न।

ग़ौर से देखो कि किस चीज़ ने तुम्हें वास्तव में बाँध रखा है। उससे स्वयं भी मुक्त हो, और माँ-बाप को भी मुक्त कराओ। यही प्रेम का तकाज़ा है।

दोषारोपण करके बात नहीं बनेगी।

सब बंधे हुए हैं, और सबको मुक्ति चाहिए। मुक्ति मिलती इसीलिए नहीं है, क्योंकि हम अपने बंधनों को ही लेकर ईमानदार नहीं होते। हम साफ़-साफ़ स्वीकारते ही नहीं हैं कि बंधन वास्तव में क्या हैं, क्या नाम है उनका, क्या स्वरूप है। जब हम बंधनों को लेकर ही स्वयं से झूठ बोलते रहते हैं, तो फिर हमें सच्चाई कहाँ से मिलेगी, मुक्ति कहाँ से मिलेगी।

मैं चाहूँगा कि ध्यान से, सच्चाई से, अपने आप से पूछो कि – “क्या ‘माँ-बाप’ वास्तव में बंधन हैं?” ‘बंधन’ की तरह मत देखो उनको। बंधन हैं तुम्हारे, पर वो बंधन दूसरे हैं।

असली बंधनों को पहचानो, उन्हें काटो, और माँ-बाप की भी सहायता करो। अगर उन्होंने दिया है तुम्हें कुछ, तो तुम भी उन्हें कुछ दो। और किसी को अगर कुछ देना ही है, तो मुक्ति से बेहतर क्या हो सकता है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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