प्रश्नकर्ता: अर्जुन की भक्ति और सौभाग्य कि उन्हें श्रीकृष्ण का मार्गदर्शन प्राप्त हुआ, वो कर्म और कर्त्तव्य के मार्ग पर चल सके। पर साधारण मन और जीवन के लिए ये इतना सरल नहीं लगता। अपनों के विरुद्ध जाकर विजय उत्सव मनाना कैसे सहज है? कृपया कुछ स्पष्ट करें।
आचार्य प्रशांत: वो तो इसपर निर्भर करता है कि 'अपनों' की आपकी परिभाषा क्या है। और अपनों की आपकी परिभाषा क्या है, वो इस पर निर्भर करता है कि स्वयं की आपकी परिभाषा क्या है।
स्वयं को अगर आप देह मानेंगी तो आप अर्जुन को भी देह मानेंगी क्योंकि आपके अनुसार फिर इंसान देह ही होता है। और अर्जुन अगर देह है तो उसके अपने हुए वो सब जिनसे उसका देह का रिश्ता है – कुल-कुटुम्ब वाले, भाई, चाचा, ताऊ, पितामह। तो उनको आपने तत्काल कह दिया कि 'अरे, वो तो अर्जुन के अपने हैं।' कैसे हैं वो अर्जुन के अपने? समझाइए तो।
थोड़ा विचार करिए, कैसे आपने कह दिया कि कोई आपका अपना है? अपना कैसे? किस दृष्टि से अपना? और किनको अपना कह रहे हो? उन्हीं को न जिनसे रक्त, माँस और गर्भ का सम्बन्ध है। जिनकी रगों में तुमसे जुड़ा हुआ ख़ून दौड़ रहा है, उनको तुरंत कह देते हो, 'ये मेरे अपने हैं।' या जो सहोदर हैं तुम्हारे, उनको कह देते हो 'ये मेरे अपने हैं।' सब बात शरीर की ही है न? ख़ून, माँस, उदर।
तो देख रहे हो कि 'अपनेपन' के पीछे क्या बैठा हुआ है? सघन देहभाव। जो ही मेरे शरीर से सम्बन्धित है, मैं उसको बोल दूँगा 'अपना'। यानी कि तुम सबसे पहले अपना किसको बोल रहे हो? अपने शरीर को।
आप कह रही हैं कि अपनों के विरुद्ध चला गया अर्जुन कृष्ण की बात सुनकर। अपनों के विरुद्ध नहीं गया, वो अपने के साथ रहा। अर्जुन अगर देह नहीं है, अर्जुन अगर बोध और शांति के लिए छटपटाती चेतना है, तो अर्जुन का अपना तो बस एक है, कृष्ण। तो अर्जुन अपनों के ख़िलाफ़ गया या अपनों के साथ गया? युद्ध करके, मैं पूछ रहा हूँ, अर्जुन अपनों के ख़िलाफ़ गया, या जो एकमात्र उसका अपना था उसके साथ गया?
देह बनकर देखेंगी तो यही लगेगा कि अर्जुन अपनों के ख़िलाफ़ गया और चेतना बनकर देखेंगी तो समझ में आएगा कि अर्जुन का अपना तो कोई था ही नहीं, अर्जुन का अपना तो कृष्ण भर थे। जो अपना था उसी के साथ अर्जुन चला गया, ठीक ही किया, स्वाभाविक बात है।
इतनी जल्दी आग्रह मत पकड़ लिया करिए इन गंभीर मसलों पर। बहुत विचार करके, बड़े ध्यान के साथ कहा करिए कौन अपना, कौन पराया। जिसको आपने अपना कह दिया, अब आप उसी के जैसे हो जाएँगे। और जिस नाते आपने किसी को अपना कह दिया, वो नाता ही आपके जीवन का केंद्र बन जाएगा। जिसको आपने देह के नाते अपना कह दिया, उसकी उपस्थिति आपको देहाभिमानी ही बना कर रखेगी।
समझिए बात को। जो आपके साथ मौजूद है क्योंकि उससे आपका शरीर का रिश्ता है, उसकी संगति में, उसके संपर्क में आप लगातार देह ही बने रहेंगे। देह बने रहेंगे क्योंकि देह नहीं बने तो रिश्ता टूट जाएगा, भाई। आप किसी के साथ चल रहे हैं जिससे आपका रिश्ता देह का है, तो वो रिश्ता आपके लिए अनिवार्य करके रखेगा कि आप देहभाव में ही जियें। क्योंकि जहाँ आपका देहभाव घटा, तहाँ वो रिश्ता टूटा। इतनी आसानी से रिश्तों पर ठप्पे मत लगाया करिए, इतनी आसानी से तय मत कर लिया करिए कि कौनसा रिश्ता अपना है, कौनसा पराया है।
गीता पर बहुत बात करी है मैंने और हैरान रहा हूँ कि बार-बार, बार-बार, यही मुद्दा उठता है कि राजपाट के लिए अपनों के ख़िलाफ़ जाना कैसे ठीक है। और किसी को ध्यान ही नहीं आता कि ये 'अपने' शब्द का अर्थ क्या है। अपना कौन? अपना कैसे?
अध्यात्म के मूल में ही है स्वयं को जानना – 'मैं कौन?' अभी यह तो पता नहीं कि 'मैं कौन?' तो यह कैसे पता कि 'मेरा कौन?' आप कौन हैं आपको पता नहीं, अपना कौन है ये पहले पता है? शाबाश! ये तो बड़ा तीर चलाया।
ऋषिकेश में था मैं, तो एक युरोपियन देवी जी मिलीं।
मैंने पूछा, “यहाँ कैसे?”
बोलीं, "यहाँ मैं ‘हू एम आई’ साधना करने आयी हूँ, 'कोहम' पता करना है, मैं हूँ कौन?" मैंने कहा, “और ये आपके साथ कौन?”
बोलीं, “ये मेरे बॉयफ्रेंड हैं।“
देवी जी समझ भी नहीं पा रही थीं कि उन्होंने कितनी विरोधाभासी बात कर दी है, कितनी सेल्फ-कॉन्ट्रेडिक्टरी बात कर दी है। अगर तुम्हें अभी नहीं पता है कि तुम कौन हो तो तुम्हें ये कैसे पता है कि जो तुम्हारे साथ है, वो तुम्हारा अपना है?
'मुझे ये तो नहीं पता कि मैं कौन हूँ, वो तो आप बताएँगे, पर मुझे ये पता है कि ये मेरे पति हैं, ये मेरा बच्चा है।' अगर तुम्हें ये पता है कि ये तुम्हारे पति हैं और ये तुम्हारा बच्चा है, तो फिर तुम्हें ये भी पता होगा कि एक तुम कौन हो।
'नहीं, वो तो हमें नहीं पता, वो आप बता दीजिए।' अगर अपना नहीं पता तो अपनों का कैसे पता, भाई? पर अपनों का हमें खूब पता होता है, फ़िल्में खूब देखी हैं न।
अब हिंसा का आरोप तो लग ही गया है, तो दिल दुखाने वाली एक-दो बातें बोल ही देता हूँ। कोई नहीं है अपना। तुम लाख गा लो कि प्रियतमा अपनी हैं, या प्रियवर अपने हैं, या लाडला अपना है, या दोस्त-यार अपने हैं, कोई नहीं है अपना। जब तक ये अपना-पराया खेल रहे हो तब तक 'अपने' तक नहीं पहुँच सकते, आत्मस्थ नहीं हो सकते। आत्मा तो असंग होती है, उसका कोई संगी-साथी होता ही नहीं है, उसका कोई कुटुम्ब, कोई रिश्तेदार नहीं होता।
और चलो, आत्मा तो दूर की कौड़ी है, अभी भी जो तुम हो, एक छटपटाती रूह, एक अतृप्त चेतना, उसका अपना तो वही होगा न जो उसकी छटपटाहट शांत करे और तृप्ति दे। जिनको अपना बोल रहे हो, वो तुम्हारी छटपटाहट शांत कर पाते हैं? तुम्हें तृप्ति दे पाते हैं वास्तव में? नहीं, तो फिर वो अपने कैसे हो गए? सिर्फ़ इसलिए कि डीएनए-डीएनए सेम टू सेम (डीएनए एक जैसा है)? ये हमारे 'अपनेपन' की परिभाषा है — 'हमारा-तुम्हारा डीएनए सेम-टू-सेम ।' और वो भी कई बार सेम-टू-सेम होता नहीं, ऐसा घोर 'अपनापन' है हमारा। जैसे छोटे बच्चे करते हैं, 'अरे वाह, तेरी पेंसिल भी कैमल की है, मेरी भी कैमल की है, हम दोनों भाई-भाई', वैसे ही डीएनए लेकर घूम रहे हो। जिससे ही अपना डीएनए मिल गया, 'तू मेरा भाई!'
दो ही तरह के अपने होते हैं हमारे: एक, जिनसे डीएनए मिल रहा होता है। दूसरा, जिनसे मिलाना होता है। चेतना वग़ैरह की बात ही बहुत दूर की है। मैं कहता हूँ कि हम अतृप्त चेतना हैं, तुम बोलते हो, 'न, हम अतृप्त डीएनए हैं।' कोई रिश्ता बताओ न जिसमें डीएनए न शामिल हो।
प्रेम भी करते हो किसी से तो मानते ही नहीं जब तक डीएनए-डीएनए मिल न जाए, और डीएनए-डीएनए नहीं मिल पाए तो बोलते हो, 'अरे, मेरा इश्क़ तो नाकामयाब रहा, कामिल नहीं हो पाया।' देश का कानून भी विवाह को मान्यता तभी देता है जब शारीरिक संसर्ग हो जाए, उसको बोलते हैं, 'कॉन्स्युमेशन ऑफ मैरिज ' । देह से देह नहीं मिली तो कानून भी कहता है कि फिर ये विवाह ठीक नहीं है। डीएनए का खेल चल रहा है।
तुम किसको अपना बोलते हो, ये तय कर देगा कि तुम कौन हो, तो खबरदार रहना!
प्र२: आचार्य जी, आपने कहा कि हमारा तादात्मय शरीर और मन से है, और ऐसा है भी, परंतु इससे अलग कुछ और अनुभव में है ही नहीं।
आचार्य: अभी जैसे जी रहे हो, वो सब तो अनुभव में है न?
प्र२: हाँ, वो अनुभव में है।
आचार्य: तो उससे चिढ़ नहीं उठ रही?
प्र२: चिढ़ उठ रही है लेकिन कुछ सीमित समय के लिए।
आचार्य: तो ठीक है, बढ़िया है।
प्र२: लेकिन वो सीमित है।
आचार्य: तो सीमित होने से चिढ़ नहीं उठ रही?
प्र२: होती है।
आचार्य: तो वही चिढ़ जब ज़ोर से उठेगी तो कृष्ण की तरफ़ भागोगे। जब तक वो चिढ़, वो वेदना, वो ख़लिश, ऐसे ही है हल्की-हल्की, मद्धम-मद्धम, तब तक यूँही थोड़ा-बहुत सत्संग वग़ैरह कर लिया, खुजली मिट गई।
जब अपनी हस्ती से चिढ़ होने लग जाती है तब आदमी कहता है कि कोई कृष्ण चाहिए।
कृष्ण का अनुभव नहीं चाहिए। आप कह रहे हैं कि 'आचार्य जी, आप जो बातें बता रहे हैं वो मेरे अनुभव की ही नहीं हैं।' मैं कह रहा हूँ कृष्ण का अनुभव चाहिए ही नहीं, तुमको जो रोज़मर्रा के अनुभव हो रहे हैं वही काफ़ी नहीं हैं क्या? अगर ज़रा सी तुम में अपने प्रति संवेदना हो तो तुम्हें दिखाई देगा कि तुम्हारे रोज़मर्रा के अनुभवों में तुम्हारे लिए कितनी यातना है। रो नहीं पड़ते हो कि ये किन अनुभवों में जी रहा हूँ? और अगर अभी नहीं रो पड़ते हो तो, मैं कह रहा हूँ, कोई बात नहीं, दुनिया के मज़े लो, मेला-ठेला घूमो।
अध्यात्म कोई ज़बरदस्ती थोड़े ही है। जिनको समस्या ही नहीं उठ रही, उनको बाँध-बाँध कर ले आओ अस्पताल तो अस्पताल में दंगा कराओगे बस।
अध्यात्म उनके लिए है जिनमें अपनी वर्तमान स्थिति के प्रति एक वितृष्णा उठी है। उस वितृष्णा के बिना काम नहीं होने वाला। कोई शौक़ नहीं है अध्यात्म कि कई काम कर लिए, अब अध्यात्म भी करके देखेंगे।
'आजकल हमने दो नए काम शुरू किए हैं'
'क्या?'
'एक वॉयलिन सीख रहे हैं, दूसरा अध्यात्म।'
अध्यात्म कोई हॉबी है? जिनके पास कोई रास्ता नहीं बचता सिर्फ़ उनके लिए है अध्यात्म। अध्यात्म ऐसा थोड़ी है कि व्यक्तित्व बनाने, चमकाने की कोई चीज़ है। आजकल तो अध्यात्म को जोड़ देते हैं योग इत्यादि से भी कि सुबह-सुबह पहुँच गये जाकर के आसन लगाने, और कह रहे हैं कि अब आध्यात्मिक हो गए। इन बातों से अध्यात्म का क्या लेना-देना?
अध्यात्म उनके लिए है जो अपनेआप को अर्जुन जैसी स्थिति में पाएँ। पढ़ा न, अर्जुन कैसे अपनी स्थिति का विवरण दे रहा है? मुँह सूख रहा है, हाथ-पाँव काँप रहे हैं, खड़े होने की भी ताक़त बची नहीं है। जो निरंतर ऐसी स्थिति में जी रहे हों, अब वो सुनेंगे कृष्ण की। नहीं तो कौन सुनता है कृष्ण की। अर्जुन पर ये आपदा न पड़ी होती, ये धर्मसंकट न पड़ा होता, तो वो कभी गीता को स्वीकार न करता।
जब हालत बिलकुल ख़राब हो जाए, जब भागने का कोई तरीक़ा न बचे, सिर्फ़ तब सुनोगे तुम कृष्ण की। उसके पहले तो तुम्हारे जीवन में जो कृष्ण हैं, वो तुम्हारा शौक़ मात्र हैं, तुम्हारे घरेलू मंदिर की कोई मूर्ति मात्र हैं, जन्माष्टमी की खीर-मिठाई मात्र हैं। वो अर्जुन के प्राण नहीं हो सकते फिर।
कृष्ण तुम्हारे प्राण तभी बनेंगे जब तुम अपनेआप को पाओगे घोर विपदा में, और घोर विपदा में हम सभी हैं। बस कोई-कोई होता है जिसको ये अहसास हो जाता है, जिसमें ये ईमानदारी होती है कि उसकी ज़िंदगी बड़े संकट में है। बाक़ी तो यही कहते रहते हैं, 'ऑल इज़ वेल (सब बढ़िया चल रहा है)।'
कोई संत चाहिए फिर जो कहे, "आन पड़ा चोरन के नगर, दरसन बिना जिय तरसे रे।" हम कहाँ कहते हैं कि 'आन पड़े चोरन के नगर?' हम तो कहते हैं, 'बढ़िया है सब। घर तरक़्क़ी कर रहा है, नयी गाड़ी आने वाली है, लड़के को ऑस्ट्रेलिया भेज रहे हैं।' हमारे लिए तो सब अच्छा-ही-अच्छा है। जिनको दिखाई देने लग जाए कि अच्छा-अच्छा नहीं है, कृष्ण उनके लिए हैं।
तुम्हारा सब अच्छा-अच्छा चल रहा है तो चलाओ, अभी क्यों ज़बरदस्ती मुसीबत आमंत्रित कर रहे हो? खेल-खिलौना नहीं है अध्यात्म, जब अपनी ज़िंदगी से बिलकुल ऊब जाओ, तो आत्मदाह की आग है अध्यात्म, कि अब ख़त्म होना है, जैसा जीवन चल रहा है, ये जीवन ख़त्म होना चाहिए। तब अध्यात्म है। शगल नहीं है, 'दीज़ डेज़ आई एम ट्राइंग स्पिरिचुअलिटी, मेडिटेशन* (इन दिनों मैं अध्यात्म को आज़मा रहा हूँ, ध्यान कर रहा हूँ)।'
कृष्ण अर्जुन को मेडिटेशन करने को थोड़े ही बोल रहे हैं। वो बोल रहे हैं, 'खड़ा हो जा, तीर चला।' वो वहाँ पर बैठ जाए महामुद्रा मारकर, तो सबसे पहले कृष्ण ही उसको मार दें। नहीं, अहिंसावादियों को बड़ा अच्छा लगेगा। और मेडिटेशन-वादियों को भी बड़ा अच्छा लगेगा।
प्र३: अर्जुन जो गीता के छत्तीसवें श्लोक में कह रहा है, 'इन आतताइयों को मारकर हमें पाप भी लगेगा'। एक तरफ़ तो आततायी कह रहे हैं और दूसरी तरफ़ कह रहे हैं पाप भी लगेगा?
आचार्य: आप उस शब्द पर ध्यान नहीं दे रहे हैं जिसपर देना चाहिए – 'हमें'। अर्जुन ने कृष्ण को भी लपेट लिया। वो ये नहीं कह रहा है कि आतताइयों को मारकर मुझे पाप लगेगा। उसकी चाल की बारीकी देखिए। वो कृष्ण को कह रहा है, 'देखिए, ये सामने जो हैं, ये भले ही दुष्ट हैं, आततायी हैं, पर इन्हें मारा तो 'हमें' पाप लगेगा। मैं ही भर नर्क नहीं जा रहा, आप भी जा रहे हैं।' इतना ही नहीं है, आने वाले अध्याय में आप पढ़ेंगे, अर्जुन कृष्ण को स्पष्ट कह रहा है, 'कृष्ण,आप मुझे भ्रमित कर रहे हैं।' सीधे-सीधे इल्ज़ाम भी लगा दिया कि कृष्ण आप मुझे भ्रमित कर रहे हैं।
जो आदमी कमज़ोर पड़ गया हो वो कुछ भी कर सकता है। जो बात सोची नहीं जा सकती वो कह सकता है। और कमज़ोरी तो एक ही होती है – आत्मबल का अभाव। जो अपनेआप को देह मानकर जी रहा है उसको आत्मबल कहाँ से मिलेगा? तो फिर वो तमाम तरह की बेकार की बातें, उल्टे-पुल्टे तर्क, बेहूदे आक्षेप, सब लगाएगा।
एक विसंगति तो आपने देख ही ली कि एक ही साँस में कह रहा है कि वो सब आततायी हैं और ये भी कह रहा है कि इनको मारकर पाप लगेगा। पर उससे बड़ी विसंगति से आप चूके, मैंने कहा ये नहीं देखा कि कह रहा है 'हमें' पाप लगेगा। दबे-छुपे उसने करीब-करीब कृष्ण को पापी ही घोषित कर दिया क्योंकि ख़ुद तो वो यही कह रहा है कि मैं भाग रहा हूँ। मारने का तो ठीकरा फोड़ा जा रहा है कृष्ण के सिर। तो पाप भी फिर किसको लगना है अर्जुन के अनुसार? कृष्ण को लगना है।
ये तो छोड़िए कि जो दुनियाभर की दुष्टात्माएँ होती हैं और अधर्मी होते हैं वो ही कृष्ण को कहेंगे कि पापी हैं कृष्ण। यहाँ तो हमें दिखाई दे रहा है कि अर्जुन के भी तेवर कुछ वैसे ही बन रहे हैं।