प्रश्नकर्ता: चौथा अध्याय, उत्तरगीता का, बीसवाँ श्लोक।
संयतः सततं युक्त आत्मवान विजितेन्द्रियः। तथा य आत्मनात्मानं सम्पृयक्तः पृपश्यति।।
जो साधक सदा संयमपरायण योगयुक्त, मन को वश में करनेवाला और जितेन्द्रिय है, वही आत्मा से प्रेरित होकर बुद्धि के द्वारा उसका साक्षात्कार कर सकता है।
~ श्री उत्तरगीता (अध्याय 4, श्लोक 20)
आचार्य जी, क्या बुदधि के द्वारा आत्मा का साक्षात्कार हो सकता है? या यहाँ कुछ और समझाया जा रहा है? कृपया मार्गदर्शन कीजिए।
आचार्य प्रशांत: जिसको समझाया जा रहा है, उसी की भाषा में समझाया जा रहा है। इसको समझाया जा रहा है वो तो अभी बस साक्षात जगत में ही विश्वास रखता है। उसकी स्थिति समझिए। उसकी स्थिति विचित्र है। संसारी है वो और संसार में रहते हुए साधक है। साधक है, साधना वो किसके विरुद्ध कर रहा है? संसार के ही विरुद्ध कर रहा है साधना लेकिन संसार में रहते हुए।
तो साधना भले ही कर रहा है वो लेकिन जानता अभी वो सिर्फ़ संसार को है। हाँ, संसार से उसको कष्ट बहुत मिला है तो साधना करने लग गया। संसार से मन उचट रहा है तो साधना करने लग गया। पर जानता तो वो संसार को ही है न! तो भाषा भी वो संसार की बोलेगा।
और संसार में प्राप्ति का अर्थ होता है— किसी चीज़ का हाथ में आ जाना। जानने का अर्थ होता है— किसी चीज़ का मन में आ जाना। देखा तब, जब कोई वस्तु साक्षात् हो गई। साक्षात् माने प्रकट, प्रत्यक्ष| प्रति-अक्ष— सामने। साक्षात् में भी वही भावना है – स-अक्ष। अक्ष माने आँखें। आँखों के सामने—साक्षात्, प्रत्यक्ष।
तो चूँकि प्रश्न पूछने वाला जो है, यह जो अभी साधक है नया-नवेला| जो अभी यात्रा शुरू ही कर रहा है| यह बड़ा दुनियादार आदमी है। यह संसार भर को ही जानता है। तो इससे इन्द्रियों के और मन की ही भाषा में बात करनी पड़ती है।
यह पूछे अगर कि सत्य मिलेगा? तो कुछ ऐसा ही जवाब देना पड़ेगा, ‘हाँ, बिलकुल तुम्हारी आँखों के सामने मिलेगा, प्रत्यक्ष मिलेगा।‘
क्योंकि तुम इससे बोलोगे कि सत्य कुछ ऐसा है जो आँखों से दिखाई नहीं देगा, कानों से सुनाई नहीं देगा, मन से जिसको सोचा नहीं जा सकता तो यह आदमी बड़ा विकल हो जाएगा और बड़ानिराश हो जाएगा। यह कहेगा कि इसका मतलब सत्य कुछ होता ही नहीं। क्योंकि आज तक जो भी चीजें हमें अस्तित्वमान मिलीं हैं| वो तो भाई आँखों से दिखी भी हैं, हाथ से पकड़ में भी आई हैं। कम से कम वो मन की कल्पना में तो आती ही हैं। कम से कम मन उनका ध्यान कर सकता है| उनका खयाल कर सकता है, उन्हें कोई नाम दे सकता है, उनके बारे में सोच सकता है।
और अब यह साहब आए हैं| हमसे कह रहे हैं कि सत्य तो ऐसा है कि मन की, आँखों की, कानों की, किसी की पकड़ में आता नहीं है। तो इसका मतलब यह है कि सत्य होता ही नहीं है। और जहाँ तुमने इस नए-नवेले साधक को बता दिया कि सत्य का कोई साक्षात नहीं होता| जहाँ तुमने बता दिया कि सत्य कभी प्रत्यक्ष नहीं होता तो फ़िर यह साधना से ही विमुख हो जाएगा। यह साधना ही छोड़ देगा। वो कहेगा, ‘जो आँख के सामने नहीं, माने है नहीं। जो दिखाई नहीं देता, जो सुनाई नहीं देता, जिसकी कल्पना ही नहीं की जा सकती, जिसका कोई खाका ही नहीं खींचा जा सकता, जिसके बारे में कोई वृतांत वर्णन ही नहीं दिया जा सकता, वो है ही नहीं।‘ साधना ही छोड़ देगा।
तो फ़िर समझाने वालों ने इसलिए साधक की भाषा में ही बात करी। तो उससे कह दिया कि तुम्हें आत्मा का साक्षात्कार होगा। आत्मा का वास्तव में कोई साक्षात्कार नहीं होता। साक्षात्कार अनात्मा का होता है। साक्षात्कार हर उस चीज़ का होता है जो आत्मा थी नहीं पर आत्मा जैसी प्रकट होती थी और हम उसे बिलकुल अपने पलक-पावड़ों पर सजाए बैठे थे। नैनों में बसाए बैठे थे।
अक्ष पर उसी को जड़ रखा था हमने।
क्या अर्थ है मेरा इस बात से कि हम तो आँखों में उन्हीं सब को बसाए रखते हैं जो आत्मा हैं नहीं, अनात्मा हैं पर आत्मा जैसे प्रतीत होते हैं?
आत्मा का आशीर्वाद होता है आनन्द। आत्मा का आशीर्वाद होता है नित्यता। आत्मा का आशीर्वाद होता है निर्द्वन्दता। आदमी सब द्वन्दों से मुक्त हो जाता है। आदमी संदेहों से मुक्त हो जाता है। निर्भय हो जाता है। लेकिन हम जिनको अपने अक्षों में जड़े रहते हैं, अपनी पलकों पर बिठाए रहते हैं, उनको पलकों पर बिठाने से क्या हममे निर्भयता आ जाती है? क्या निर्द्वन्दता आ जाती है? क्या हम आशा-निराशा के पार निकल जाते हैं? क्या हम पूर्ण भरोसे और सुरक्षा में चैन पाते हैं? ऐसा तो होता नहीं न! इसका मतलब हमने अपनी आँखों में, और आँखों से मेरा तात्पर्य है अपने मन में। इसका मतलब हमने अपनी आँखों में अनात्माओं को बसा रखा है बहुत ज़्यादा और नाम उनको दे रखा है आत्मा।
आत्मा का साक्षात्कार होने का वास्तविक अर्थ है कि अब तुम अनात्मा को अनात्मा जान लोगे। पहले तुम अनात्मा को आत्मा समझे बैठे थे। आत्मा माने सच। पहले तुम झूठ को सच समझे बैठे थे। अब तुम झूठ को झूठ जान लोगे। तो आँखों से दिखेगा अभी भी झूठ। पहले भी झूठ दिखता था| और पहले झूठ दिखता था, लगता था सच। अब झूठ दिखेगा और तुम जानोगे कि झूठ है। यह सच का आशीर्वाद है। यह आत्मा का आशीर्वाद है।
चूँकि यह झूठ का प्रकटीकरण सच के आशीर्वाद से हो रहा है तो इसी बात को काव्यात्मक तौर पर कह दिया गया है कि मुझे तो सच दिख गया। मुझे तो साक्षात सच दिख गया। सच नहीं दिख गया। दिख झूठ गया। लेकिन सच की अनुकम्पा से दिख गया तो हम कह देते हैं कि सच दिख गया। ऐसे कहना चाहिए, ‘मुझे सच से दिख गया, सच नहीं दिख गया। मुझे सच की कृपा से दिख गया। सच से दिख गया। सच होकर देखा, सच दिख गया। जब सच होकर देखा तो चारों तरफ झूठ का ही विस्तार दिखाई दिया।‘
तो यह है— आत्मा का साक्षात्कार। इसीलिए साफ़ कहा गया है, कि जो साधक संयमपरायण होगा, योगयुक्त होगा, मन को वश में करे होगा, जितेन्द्रिय होगा, वही भाई आत्मा का साक्षात्कार कर सकता है।
माने कि वही ऐसा होगा जिसकी बुद्धि इतनी कुशाग्र हो जाएगी कि वो झूठ को पकड़ लेगी। नहीं तो हमारी बुद्धि झूठ द्वारा ही प्रेरेत और पोशित होकर बड़ी भूथरी हो जाती है। एकदम कुंदबुद्धि हो जाते हैं हम। कुछ हमें दिखाई, सुनाई, समझ में नहीं आता। झूठ को बुद्धि द्वारा ही पकड़ा जाता है। पर वो बुद्धि बड़ी पैनी, बड़ी धारदार होनी चाहिए। महीन एकदम। जैसे पैना चाकू, पैनी कोई तलवार, एकदम काट दे झूठ को। सट! साफ! उतनी पैनी हमारी बुद्धि रह नहीं जाती। हमारी बुद्धि पर जंग चढ़ जाता है। और जंग तो फ़िर भी मिटाया जाए। हमारा हाल ऐसा रहता है जैसे हम जान-बूझ कर अपनी बुद्धि की तलवार को कुंद करते हों। क्योंकि कुंद अगर नहीं होगी तो वैसा हम जीवन जी ही नहीं पाएँगे जैसा जीवन हम जीते हैं, मूर्खता भरा।
अगर ठान ली हो कि ज़िंदगी मूर्खता भरी जीनी है तो बहुत आवश्यकता बढ़ जाती है निर्बुद्धि हो जाने की। अगर बेवकूफी भरी ज़िंदगी जीने का संकल्प ही कर लिया हो, कसम ही खा ली हो तो बहुत ज़रूरी हो जाता है बदअक्ल हो जाना, बेअक्ल हो जाना, निर्बुद्धि हो जाना।
अच्छे-अच्छे लोग ज़िंदगी के मस्लों पर अपनी बुद्धि को किनारे रख देते हैं। मूर्खतापूर्ण फैसले करते हैं। एक बार वो उन फैसलों से आसक्त हो गए तो अब बुद्धि का प्रयोग करना ख़तरनाक हो जाता है क्योंकि ज़रा सी अगर अक्ल लगाएँगे तो साफ़ दिखाई देगा कि ज़िंदगी मूर्खता से भरी हुई है। और दिख गया कि ज़िंदगी मूर्खता से भरी हुई है तो फ़िर अपने ऊपर ज़िम्मेदारी आ जाएगी मूर्खता को हटाने की। वो ज़िम्मेदारी पूरा कर पाने का दम बचता नहीं है जब आप बार-बार, बार-बार ग़लत फैसले लेते हो, जब आप बार-बार ग़लत फैसलों पर ज़िद करके अड़े रहते हो| जब पहले तो आप मूर्खतापूर्ण जीवन जीते हो और ऊपर से धौंस बताते हो कि नहीं, मेरी ही ज़िंदगी सही चल रही है| मैं ही अपना हिसाब-किताब देख लूँगा| मैं ही अपने अनुसार निर्णय कर लूँगा| उसके बाद अक्लमंदी ख़तरनाक हो जाती है। उसके बाद अक्ल की मंदी ही ठीक है। बात आ रही है समझ में?
मनुष्य की बुद्धि ही वास्तव में उसकी सबसे बड़ी मित्र है। बुद्धि ही अगर शुद्ध हो तो बोध है। लेकिन बुद्धि की शुद्धता बुद्धि की सेवापरायणता पर निर्भर करती है। बुद्धि साफ़ है कि नहीं, बुद्धि शुद्ध है या अशुद्ध, वह इसपर निर्भर करता है कि बुद्धि किसकी सेवा में लगी हुई है।
बुद्धि अगर लगी हुई है अहंकार की सेवा में, वही पुराना जो किस्सा है, शरीर में बसी हुई जो वृत्तियाँ हैं| अगर बुद्धि उन्हीं की सेवा में लगी हुई है तो बुद्धि बड़ी जड़ रहेगी, कुंद रहेगी, भोथरी, *ब्लन्ट*रहेगी।
और बुद्धि अगर मुक्ति की सेवा में लगी है| बुद्धि अगर विस्तार की, उड़ान की सेवा में लगी है तो बुद्धि में एक अनूठा पैनापन आता है। यह बुद्धि सब जटिलताओं को काटती चलती है। गहरी से गहरी बातें समझ में आने लगती है। समस्याएँ सुलझने लगती हैं। व्यक्ति ग्रंथियों के मूल में पहुँच जाता है| नज़र ऐसी साफ़, ऐसी सूक्ष्म हो जाती है कि सब दिखाई देने लग जाता है। और यह सब कुछ इसपर निर्भर करता है कि आप अपनी बुद्धि को किसकी सेवा में लगा रहे हो।
बुद्धि को अपने अहंकार और व्यभिचार की सेवा में मत लगाओ। बुद्धि को अपनी आज़ादी की सेवा में लगाओ और फ़िर देखो बुद्धि के कमाल। वही अक्ल जो आजतक हमारी बदहाली का और बरबादी का सबब बनी थी, वही अक्ल देखिए कि कैसे आपको खुशहाल कर देती है। वही अक्ल कैसे आपको उड़ान के लिए पंख और आसमान दोनों मुहैया करा देती है। चुनाव आपका है।