प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मैं ये जानना चाह रहा था, कि हम अगर अपने जीवन में किसी की मदद करना चाहते हैं और हमें लगता है कि उसको हमेशा मदद की ज़रूरत है, लेकिन बार-बार मदद करने पर ऐसा महसूस होता है कि ये एक ज़िम्मेदारी बन गयी है। फिर आगे मदद ना करें तो ग्लानि उठती है। कैसे तय करें कि किस सीमा तक मदद करनी है?
आचार्य प्रशांत: अगर नहीं समझ पा रहे हो कि किसी की कितनी मदद करें, और करें तो कितनी करें, तो इसका मतलब नहीं समझ पा रहे हो। समझ अटक रही है, इसका मतलब अधूरी है। और अगर अभी समझ अटक रही है, अधूरी है, तो अभी समझ की ज़रूरत किसको है?
प्र: मुझे।
आचार्य: तुम्हें है न?
तो अपनी मदद करो। ये दोनों चीज़ें साथ-साथ चलनी चाहिए – अपनी मदद और दूसरों की मदद। जो लोग कहते हैं, “सिर्फ अपनी मदद करनी है”, उनकी बहुत ज़्यादा मदद हो नहीं पाएगी, क्योंकि उनकी मुक्ति का अभियान भी स्वार्थ से भरा हुआ है। वो पचास तरीकों से अपनी मुक्ति चाहते हैं, लेकिन ‘अपनी’ ही मुक्ति चाहते हैं। ‘अपनेपन’ से उनको मुक्ति नहीं चाहिए, ‘मैं’ भाव से उनको मुक्ति नहीं चाहिए।
वो कहते हैं, “मैं मुक्त हो जाऊँ, काश ऐसा हो जाए।”
“मैं तो मुक्त हो जाऊँ, पर ‘मैं’ से मुक्त हो जाऊँ” – ये वो नहीं चाहते। तो उन्हें मुक्ति मिलेगी नहीं।
ये एक सिरे के लोग हुए, जो कहते हैं, “किसी की मदद नहीं करनी, बस अपनी मदद करनी है।” ये कहते हैं, “दुनिया गई भाड़ में, हम एकांत साधना करेंगे। हम कमरा बंद करके ध्यान करेंगे। दुनिया में जो हो रहा हो, होता रहे।” ये कह रहे हैं, “हमें हमारी व्यक्तिगत मुक्ति चाहिए। दूसरे, तीसरे, चौथे का क्या हो रहा है, उससे हमारा क्या लेना-देना?”
ऐसों को सज़ा ये मिलती है कि वो दूसरों की मुक्ति में तो सहायक नहीं ही हो पाते, उन्हें अपनी मुक्ति भी नहीं मिलती।
और इसके विपरीत दूसरे सिरे पर वो लोग हैं जो कहते हैं, “हमें अपनी ओर तो देखना ही नहीं है। हम तो दूसरों की मदद करना चाहते हैं।” ये दूसरों की मदद कर कैसे देंगे, जब अभी इनकी आँखें ही नहीं खुली है? जैसे कोई सपने में पूँजी बाँटे। जैसे कि तुम कहीं गए हो दावत में, और तुम कहो, “नींद आ रही है यार”, और पचास किलोमीटर गाड़ी चलाकर जाना है। और तुम्हारे जिस दोस्त ने तीन बोतलें खाली की हैं, वो बिलकुल उत्साह में तेज़ी से तुम्हारे पास आए और बोले, “हम किसलिए हैं? हम करेंगे न तुम्हारी मदद। हम तुम्हें आज छोड़कर आएँगे। यारी है ईमान मेरा यार मेरी ज़िंदगी।” ये मदद करने के बड़े आकांक्षी हैं। और बोतलें अंदर हैं?
प्र: तीन।
(सभी लोग)
आचार्य प्रशांत: अधिकाँश मददगार लोग इसी कोटि के होते हैं। ख़ुद होश है नहीं, दूसरों का नशा उतारने चले हैं। ख़ुद बहके हुए हैं, दूसरों का हाथ थामने चले हैं।
तो इस सिरे पर जो हुए, वो भी बेकार ही हुए। तो उस सिरे पर होना है, ना इस सिरे पर होना है।
अपनी मदद और दूसरों की मदद एक ही चीज़ है, और वो साथ-साथ चलेगी। दूसरों की जितनी मदद करोगे, तुम्हारी उतनी मदद होती रहेगी। और तुम अपनी जितनी मदद करोगे, दूसरों की मदद करने के उतने काबिल बनोगे।
दूसरों के लिए जब कुछ करते हो न, तो बड़ी शक्ति उतरती है। अपने लिए जब कुछ करते हो, तो अपने व्यक्तिगत सामर्थ्य जितना ही करोगे। जब दस और के लिए करने निकलते हो, तो तुम्हारी व्यक्तिगत ऊर्जा और सामर्थ्य के अलावा भी तुम्हें ताक़त मिल जाती है।
वो ताक़त कहीं और से आती है।
दूसरों की सहायता करने में तुम्हारी सहायता हो जाती है।
प्र: आचार्य जी, तो दूसरों की मदद करने में हमें भी ये पता होना चाहिए कि हम कितनी मदद करने के काबिल हैं?
आचार्य: जितनी करने के काबिल हो, उससे थोड़ी और ज़्यादा करो। पर थोड़ी ही ज़्यादा।
ये ना हो कि तुम्हारी क़ाबिलियत इतनी ही है कि मरीज़ को डॉक्टर तक पहुँचा दो। और तुमने कहा, “नहीं साहब! सर्जरी भी तो हम ही करेंगे। हम इतने बेवफ़ा थोड़े ही हैं कि इसको डॉक्टर के पास छोड़कर आ जाएँ।”
“निकालो रे गंडासा।”
(श्रोतागण ठहाके लगाकर हँसते हैं)