किसी के साथ रहने पर अकेलापन दूर क्यों होता है? || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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किसी के साथ रहने पर अकेलापन दूर क्यों होता है? || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, कृपया मोह को थोड़ा और समझाइए। मोह एक वादा लेकर आता है कि "तुम्हारे अकेलेपन को दूर कर दूँगा।" कुछ पल का साथ भी कम-से-कम उस पल के लिए अकेलापन मिटा देता है। ये और बात है कि जब वो व्यक्ति या वस्तु नहीं रहती, तो अकेलापन पुनः हावी हो जाता है। यह क्या है?

आचार्य प्रशांत: उस समय भी जो तुम्हारा अकेलापन हटता है, वो तुम्हारी बेहोशी की दशा में ही हटता है। भीतर ये बड़ा ख़तरनाक खेल चलता है। अकेलापन तुम हटाना चाहते हो जब तक दूसरा व्यक्ति तुम्हारे साथ नहीं है। जब तक दूसरा व्यक्ति तुम्हारे साथ नहीं है, तब तक अकेलापन खाए जाता है।

जब दूसरा व्यक्ति साथ आता है तब अकेलेपन के हटने की संभावना पैदा होती है। लेकिन वो संभावना साकार तभी हो सकती है जब दूसरे व्यक्ति के साथ तुम बेहोश हो जाओ। दूसरे व्यक्ति के साथ रहते हुए भी यदि तुमने अपनी ‘चेतना’ थोड़ी भी जागृत रखी, तो तुम पाओगे कि दूसरे के साथ होते हुए भी तुम बड़े अकेले हो। यही वजह है कि हम अपने अकेलेपन में तो फिर भी थोड़ा होश बरकरार रख लेते हैं, जब दूसरे की संगत में आते हैं तब हमारे लिए बेहोश होना अनिवार्य हो जाता है, क्योंकि उस बेहोशी में ही तुम्हें अकेलेपन के मिटने की अनुभूति होगी।

तुम दूसरे की संगत कर ही इसीलिए रहे हो न कि अकेलापन मिटे? पर दूसरे की संगत अकेलापन नहीं मिटाती तुम्हारा। दूसरे की संगत में तुम पर जो बेहोशी छाती है, वो तुम्हारा अकेलापन मिटाती है। उस बेहोशी को अपने ऊपर छाने देना या न छाने देना चुनाव होता है। दूसरे की संगत में तुम्हारे लिए और ज़रूरी हो जाता है कि तुम बेहोश हो जाओ, नहीं तो रिश्ता ही बना नहीं रहेगा। दूसरा तुम्हारे साथ है, और उस वक्त तुम अपनी चेतना बरक़रार रख लो, रिश्ता टूट जाएगा। जब तुम दूसरे के साथ हो, ख़ासतौर पर उसके साथ जो तुम्हारा अकेलापन मिटाने का साथी है, और तुम अपनी चेतना सुदृढ़ रख लो, तुम उससे बातचीत ही नहीं कर पाओगे। तो ये मत कहो कि दूसरे के साथ रहने से अकेलापन मिटता है। ये कहो कि दूसरा जब निकट आता है, तो एक परस्पर बेहोशी का मादक माहौल छा जाता है। उस मादक माहौल में हम सो जाते हैं, नशे में आ जाते हैं, लगता है जैसे अकेलापन मिट गया; एक सपना छा जाता है और लगता है अकेलापन मिट गया।

अकेलापन मिटा नहीं है बल्कि और गहरे गिर गए हो, और गड्ढे में गिर गए हो।

प्रश्नकर्ता: वो तो नज़र आता है बाद में—आपसी टकराव, समझ की कमी—वो तो गड्ढा बाद में दिखता ही है, फिर और ज़्यादा अकेला महसूस करते हैं।

आचार्य प्रशांत: कोई मिल जाए तुम्हें ऐसा जिससे तुम होश का संबंध बना सको, कि चेतना उठी हुई है, और तब अकेलापन दूर हो, तब बात दूसरी है; वो बात अलग है। पर ऐसा कोई दूसरा मिला अगर तुम्हें तो उसके होने का परिणाम होगा तुम्हारे होश का खुलना। होश जितना खुलेगा, उतना तुम्हें दूसरे की ज़रूरत कम होती जाएगी।

तुम्हारी ज़िंदगी में ‘दूसरा’ महत्वपूर्ण बना रहे, इसके लिए ज़रूरी है कि ‘दूसरे’ के होने से तुम्हारे जीवन में बेहोशी बनी रहे। तो दूसरे का स्वार्थ ही इसमें है कि वो तुम्हें बेहोश रखे, और तुम्हारा भी स्वार्थ इसमें है कि तुम ‘दूसरे’ को बेहोश रखो। जितना दोनों बेहोश रहोगे, उतना दोनों को एक दूसरे की ज़रुरत रहेगी। इसीलिए ये जो जोड़ों के रिश्ते होते हैं, ये बड़े ख़तरनाक होते हैं।

तुम्हारा जोड़ीदार कभी चाहेगा ही नहीं कि तुम होश में आ, क्योंकि होश में आने का मतलब है कि जोड़ा टूटा; और न तुम कभी चाहोगे कि तुम्हारा जोड़ीदार होश में आए। बल्कि थोड़ा-बहुत भी जहाँ दिखाई देगा कि होश की किरण उतर रही है, वहीं ख़तरा छा जाएगा। घंटियाँ टनटना उठेंगी—“कुछ ख़तरनाक हो रहा है। अरे! ये तो जग रहा है। सुलाओ रे!” ये व्यवस्था प्रकृति ने दी है।

होश के उठने और होश के गिरने का अर्थ समझो: जितना तुम प्रकृतिस्थ होते जाओ, जितना तुम देहभाव में, वृत्तिभाव में लिप्त होते जाओ, तुम्हारा होश उतना गिर रहा है, होश का उतना ही पतन हो रहा है, अधोगमन हो रहा है। और जितना तुम प्रकृति से छिटकते जाओ, दूर होते जाओ, उतना तुम्हारा होश चढ़ रहा है, ऊर्ध्वगमन हो रहा है।

जिसके होने से तुम और ज़्यादा शरीर ही अनुभव करो अपनेआप को, वो तुम्हारी ज़िंदगी में बेहोशी लेकर आया है। जो तुमसे संपृक्त ही इसीलिए है क्योंकि तुम किसी विशेष लिंग के हो, या रक्त इत्यादि से संबंधित हो। उस बेचारे की मजबूरी है कि वो तुम्हारी ज़िंदगी में बेहोशी ही लेकर आएगा। दोष नहीं दे सकते। ये व्यवस्था ही कुछ ऐसी बनी हुई है। इसमें किसी को दोषी ठहराने की कोई बात ही नहीं है। खेल ही गड़बड़ है, किसी खिलाड़ी पर क्या दोष रखें? खेल प्रकृति का है, हम क्यों बोले कि उसमें कोई खिलाड़ी है जो बड़ा अपराधी है?

तुम अपनी पत्नी के सामने अपनी प्रकृति को छोड़ सकते हो क्या? बड़ा मुश्किल है। उससे कहोगे क्या कि “मैं तो विशुद्ध चैतन्य मात्र हूँ”? क्योंकि विशुद्ध चैतन्य मात्र हो तो कौन किसका पति और कौन किसकी पत्नी? रिश्ता ही ख़तरे में पड़ जाएगा। तुम पति बने रहो इसके लिए आवश्यक है कि तुम में देहभाव बना रहे—“मैं कौन हूँ? मैं पुरुष हूँ।” और रिश्ता ऐसा है जिसमें देह के आदान-प्रदान की पूरी गुंजाइश है, तो मामला और गड़बड़ हो जाता है। और इसमें न स्त्री को दोषी बता रहा हूँ, न पुरुष, न पति, न पत्नी को। बस मैं तुमको बता रहा हूँ कि ये व्यवस्था ही इसी तरह से रची हुई है कि तुम इसमें फँसे ही रहोगे।

माँ की गोद में बच्चा है, वो कैसे कह देगी कि “मैं तो चेतना मात्र हूँ,जिसको पूर्णता और मुक्ति की तलाश है”? वो बच्चा चिल्ला रहा है, उसका हाथ पकड़ रहा है, उसकी छाती पर हथेली मार रहा है और कह रहा है “दूध पिलाओ”—पूरा रिश्ता ही देह का है। बच्चे की उपस्थिति में “माँ” चेतना कहाँ से बन पाएगी भाई? बच्चा तो आ-आ कर माँ को बोलता है: “तू देह है। तू देह है। तू देह है। तू देह है। और तू मेरी देह का ख़याल कर।” और मैं फिर कह रहा हूँ, इसमें बच्चे के होने या न होने को मैं अच्छा-बुरा नहीं ठहरा रहा। मैं बस आपको बता रहा हूँ कि ये व्यवस्था किस तरह से निर्मित है। मैं नहीं कह रहा हूँ कि बच्चा बड़ी बुरी चीज़ होता है। नहीं। मैं बस बता रहा हूँ कि बच्चा क्या चीज़ होता है।

आपका अकेलापन दूर नहीं होता है, आप बस बेहोश हो जाते हो। बेहोशी में कौन-सा अकेलापन? अकेलापन अनुभव हो उसके लिए भी थोड़ा होश, थोड़ी चेतना चाहिए न?

किसी की उपस्थिति आपको एकदम ही बेहोश कर दे, तो अकेलापन मिट गया! और अकेलापन मिट सकता है, अगर किसी की उपस्थिति आपको उठा दे, आत्मा की तरफ़ बढ़ा दे, तब भी अकेलापन मिट सकता है। वैसा साथी हमें मिलता नहीं।

आमतौर पर जिनकी मौजूदगी में हमारा अकेलापन दूर होता है, वो वही होते हैं जो हमारी चेतना को गिरा देते हैं। कृष्ण के साथ हैं अर्जुन, अर्जुन का भी अकेलापन दूर हो रहा है, पर अब उसकी चेतना गिर नहीं रही है, उठ रही है। वैसी पत्नी मिल जाए तो बात क्या है—वैसा पति मिल जाए, दोस्त मिल जाए, बात क्या है।

और हम प्रकृति विरोधी नहीं हैं। समझिएगा। प्रकृति जब तक बाहर-बाहर है, बड़ी प्यारी है। प्रकृति जब भीतर बैठ गई, बड़ी ख़तरनाक है। ये जो बाहर की प्रकृति है, इससे प्रेम करो, इसकी सुरक्षा करो—पौधे, जीव-जन्तु, जंगल, नदी, पहाड़, झरने, रेगिस्तान। जब तक वो दृष्टि का विषय हैं तब तक बड़े सुंदर हैं, बड़े प्यारे हैं, लेकिन जैसे ही तुमने प्रकृति से तादात्म्य किया, तुम कहीं के नहीं बचोगे। तुम कहीं के नहीं बचोगे और फिर जो बाहर की प्रकृति है तुम उसे भी आग लगा दोगे, जंगल काट दोगे, नदियाँ ख़राब कर दोगे, पौधों को खा जाओगे, जानवरों की हत्या करोगे। इसी बात को सांख्ययोग कहता है—“प्रकृति और पुरुष का सम्यक रिश्ता है कि प्रकृति अपना खेल करे, नाचे और पुरुष चुपचाप ज़रा दूरी से बस देखे, निहारे, मौन रहे, मुस्कुराए।”

प्रकृति को देखो, उसके साथ लिप्त मत हो जाओ। देखने भर में बड़ा आनंद है, लिप्त हो गए तो कहीं के नहीं बचोगे।

सुंदर फूल खिला है, उसकी ख़ुशबू है। ख़ुशबू सूंघ लो, फूल को निहार लो; लिप्त मत हो जाना—तोड़कर बालों में मत लगा लेना। अब तुमने प्रकृति का भी नुक़सान कर दिया और अपना भी। दूर-दूर से फूल बड़ा सुहाना है। सब फूलों को दूर से ही निहारा करो। और ये फूलों के बहिष्कार की बात नहीं हो रही है, हम फूल विरोधी नहीं हैं। शुरू में ही कहा कि ये प्रकृति के विरोध की बात नहीं हो रही है, ये प्रकृति से उचित रिश्ता रखने की बात हो रही है।

ख़रगोश खेल रहे हैं—देखोगे उनको, या उनके ऊपर कूदोगे? क्या करोगे?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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