जीवन में जो भी तुम्हें ऊँचे-से-ऊँचे अनुभव हों, उनको एक सीमा से ज़्यादा गम्भीरता से नहीं लेना चाहिए। और जो लोग सच्चाई के रास्ते पर आगे बढ़ते हैं उनको थोड़े अलग तरह के अनुभव होने शुरू हो जाते हैं, इससे मैं सहमत हूँ। और वो अनुभव आपको तभी नहीं होते जब आप ध्यान करने बैठें, आँखे बन्द करें या कोई क्रिया वगैरह करें। वो आपको साधारण जीवन में चलते-फिरते भी होने लग जाते हैं।
ऐसे अनुभव जो आम आदमी को होते नहीं और आम आदमी को जो अनुभव नहीं होते वो आपको हो रहे हैं इसका मतलब ये नहीं है कि आपको काली-पीली लहरें दिखने लग गयी हैं या कुछ विशिष्ट तरह की स्वर लहरियाँ सुनाई देने लग गयी हैं। नहीं,नहीं,नहीं; विशिष्ट अनुभव का मतलब ये भी होता है कि आपको कहीं ऐसे प्रेम का अनुभव हो गया जो साधारण आदमी को नसीब नहीं होता।
कि एक जो सड़क पर कुत्ता है उससे आपने बात कर ली। हिंदी-अंग्रेज़ी में नहीं, हो गयी बात; बस। साधारण आदमी नहीं कर पाता, आपकी बात हो गयी। आँखों-ही-आँखों में हो गया। (1:18ये) आपको पता है, बात हुई है। मैं इन अनुभवों की बात कर रहा हूँ। मैं जो कह रहा हूँ वो बात आपने कुछ ऐसे सुन ली जैसे साधारण आदमी सुन ही नहीं पाता; ये खास अनुभव हैं।
लोग कहते हैं हम बड़े योगी हैं, बड़े ध्यानी हैं। हमें तब अनुभव होते हैं जब हम आसन मारकर बैठते हैं, आँख बन्द करते हैं और समाधि में जाने की कोशिश करते हैं। तब तो तुम अभी बहुत निचले स्तर की साधना पर हो। तुमको इतना आयोजन करना पड़ता है, आसन बिछाना पड़ता है, ये करना पड़ता है वो करना पड़ता है तब तुमको खास अनुभव होने शुरू होते हैं। बड़ी कोशिशों के बाद तुम्हें खास अनुभव होते हैं।
असली आध्यात्मिक आदमी तो वो है जिसको रसोई में खास अनुभव हो जाए। उसको नहाते-धोते खास अनुभव हो जाए। जो यहाँ ऐसे सामने बैठा हो और उसको खास अनुभव हो गया। उसने तो कोई प्रबन्ध भी नहीं किया था, कोई कोशिश, तैयारी, आयोजन नहीं किया था लेकिन उसको अनुभव हो गया। ऐसा होता है आध्यात्मिक आदमी के साथ। उसको दिन में सौ दफे खास अनुभव होते हैं। ऐसे भी कह सकते हो कि उसका जो पूरा जीवन ही है वो विशेष अनुभवों की एक लड़ी बन जाता है। पल-पल जैसे एक शृंखला चल रही हो विशेष अनुभवों की, उसका हर अनुभव ही विशेष है।
तुम जो सुन रहे हो उससे कुछ अलग सुनता है वो। तुम जो देख रहे हो उससे कुछ अलग देखता है, तुम जो सोच रहे हो उससे कुछ अलग सोचता है वो। तुम्हारा दर्द उसके दर्द से अलग है, उसका दर्द ऊँचा है। उसकी हँसी भी एक अलग अनुभव है। उसको जो ही अनुभव हो रहा है एक इतने ऊँचे तल पर हो रहा है कि उसके सब अनुभव विशेष हैं। तो जब तुम उससे पूछो, ‘ह्वट आर योर स्प्रिचुअल एक्सपीरिएंसेस’ (आपके आध्यात्मिक अनुभव क्या हैं)? तो वो बता ही नहीं पाएगा क्योंकि उसका तो हर एक्सपीरिएंस ही खास है।
जिनको दो साल में एक दफे कोई खास अनुभव हुआ हो, वो बता सकते हैं कि “एक दिन मैं ध्यान में बैठा था। तभी मुझे ऐसा लगा कि मेरी पीठ के पीछे विष्णु जी तैर रहे हैं”। भई तुम्हें लगा होगा, तुम झूठ नहीं बोल रहे, मान लिया। पर ऐसा तुमको दो साल में एक दफे लगता है। हमारा तो ये है कि हम जहाँ जाते हैं विष्णु जी साथ-साथ ही चल रहे हैं तो हमें तो अब कुछ लगता ही नहीं, हर अनुभव खास है हमारा।
खासियत माने क्या? ‘विशिष्टता’, एक ऊँचाई जो सबको उपलब्ध नहीं है उसको ही तो ‘विशेष’ कहते हैं न। जब जीवन ही विशेष हो जाए तो हर अनुभव विशेष हो गया कि नहीं हो गया। लेकिन इनको बहुत गम्भीरता से मत लेना क्योंकि गम्भीरता से ले लिया तो जो चीज़ विशेष लगने लग गयी उस पर अटक जाओगे। समझ में आ रही है बात?
जो विशेष लग रहा हो उसको बोलना ‘साधारण’। जब उसे साधारण बोलोगे तभी तो उसका अतिक्रमण करोगे। उसी को बोल दिया- ‘अहा! बड़ा विशेष है, बड़ा विशेष है, बड़ा अच्छा, बड़ा ऊँचा’ तो क्या होगा? जो ही चीज़ तुमको बहुत ऊँची लगने लग गयी, बहुत सुहा गयी, खास हो गयी, उस पर ही तुम क्या करोगे? पालथी मारकर बैठ जाओगे और क्या करोगे। कहोगे; अड्डा मिल गया, यही तो आखिरी है, कितना खास है।
इसीलिए असली आध्यात्मिक आदमी कभी किसी खास अनुभव की बात करेगा ही नहीं। शब्द स्पष्ट नहीं हुआ- कहेगा, 'ये सब साधारण, इनमें क्या रखा है।' अरे जो असली है उसकी तुलना में ये सब फीका है। और सच बताओ, उस असली की तुलना में अगर सब कुछ फीका नहीं है तो तुम्हें वो असली चाहिए ही क्यों? असली आदमी क्या बोलेगा? ‘हाँ, हुआ था एक खास अनुभव। आँखें बन्द करी थीं, सतरंगा चबूतरा दिखाई दिया था आसमान में’। और वाकई हो सकता है उसे दिखाई दिया हो, झूठ नहीं बोल रहा। उसने आँख बन्द करी तो उसको ऐसे दिखाई दिया अंतरिक्ष में सतरंगा चबूतरा है और उसकी पूरी देह उड़कर के उस चबूतरे पर बैठने के लिए चली जा रही है; हो सकता है उसे ऐसे लगा हो। लेकिन वो इस अनुभव को कभी कुछ बात देगा नहीं। कहेगा, ‘ए! छोटी बात’।
चबूतरा भी किसने देखा? आँखों ने देखा, मन ने देखा। मन तो अभी भी मौजूद ही था न। मन नहीं होता तो चबूतरा कौन देखता? और हमें ऐसा लगा होगा ज़रूर कि हमारी देह उड़कर चबूतरे पर जा रही है पर देह तो बची ही रह गयी न, देह से तो मुक्त नहीं हो पाए न? तो इस अनुभव को खास क्यों मानें? समझ आ रही है बात।
तो इसलिए इस श्लोक में विशेषतया स्पष्टीकरण किया गया है कि जीवात्मा, जिन ऊँचाइयों का विशेष ऊँचाइयों का भी अनुभव कर सकता है वो परमात्मा नहीं है। परमात्मा का, सत्य का कोई अनुभव नहीं होता; एकदम कोई अनुभव नहीं होता। और आप किसी से ऐसे से मिलें और मैं पहले ही कह चुका हूँ और अभी भी सावधान कर रहा हूँ, जो कहे कि मुझे परमात्मा का अनुभव हुआ है, सत्य का अनुभव हुआ है; ये आदमी झूठा है, नादान है या दोनों है। इससे बचिएगा। इसकी मदद कर सकते हो तो कर दीजिएगा पर इसके बहकावे में मत आ जाइएगा।
सत्य का कोई अनुभव नहीं होता। सत्य वो, जहाँ अनुभोक्ता ही विगलित हो गया। अनुभव कौन करेगा? किसने किया? मुझे सच का अनुभव हुआ? किसने किया? तुम बड़े फन्ने खाँ हो। तुम सत्य के सामने भी मौजूद थे सत्य का अनुभव करने के लिए? सत्य सामने है और वो उसके सामने फन्ने खाँ खड़े हैं, ये क्या कर रहे हैं? ये सत्य का अनुभव ले रहे हैं और फिर वापिस लौटकर बता भी रहे हैं। हम गए थे, अभी सत्य का अनुभव करके आये हैं। ये आदमी खतरनाक है या मूरख है, जो भी है काम का तो नहीं है। समझ में आ रही है बात?
परमात्मा से भिन्न है जीवात्मा। लेकिन वही जीवात्मा जब ऊँचाई पाता है तो आपको कुछ इशारे देता है। वो कम से कम से कम होता जाता है, कमतर होता जाता है। माने अहंकार जैसे-जैसे ऊँचा उठता है, अपना आकार घटाता जाता है। इतना सूक्ष्म हो जाता है जैसे ‘आरे की नोक’। उपनिषद् कह रहे हैं, “आरे की नोक जैसा छोटा हो जाता है”, ये उठते हुए अहंकार की निशानी है कि वो घटता जाता है। उठता जाता है, घटता जाता है, उठता जाता है, घटता जाता है। जितना उठेगा, उतना घटेगा। इतना छोटा हो जाएगा जैसे आरे की नोक। थोड़ी देर पहले क्या बोला था जैसे? अँगूठा बराबर।
चाहे अँगूठा बराबर बोलें चाहे आरे की नोक बराबर बोलें, इशारा एक ही तरफ़ है; “ऊँचाइयों पर अहंकार विगलित होता है, गलता है, घटता है, टूटता है”। (सूक्ष्म का इशारा करते हुए) इतना सा रह जाता है, इतना सा, इतना सा। अब इतना सा रह जाना भी ज़रूरी है नहीं तो श्लोक नहीं आता। यही तो बताया जा रहा है कि योगी माने पहुँचे हुए योगी, छोटे-मोटे योगी की तो बात करेंगे नहीं उपनिषद् कि नए नए अभी-अभी आए हैं अनाड़ी योगी, उनकी भी यहाँ पर थोड़ा सा हाजिरी लगा दो।
तो जो ज़रा किसी स्तर के योगी होंगे तो उन्हीं की चर्चा होगी न। तो जो पहुँचे हुए योगी होते हैं उन्होंने बताया है कि अहंकार इतना (अँगूठे बराबर) या इतना (अति सूक्ष्म), बस इतना सा बचता है। और उसके बाद क्यों नहीं बताया? ओह, बताने के लिए बचा ही नहीं। बस बताने ही जा रहे थे कि डिस्चार्ज हो गया मामला। ले रखा था; बस बताने ही जा रहे थे, बताने ही जा रहे थे और डिस्चार्ज हो गया, क्या? फ़ोन नहीं, बताने वाला। वही खत्म हो गया, अब बताएँ कैसे? तो जो आखिरी बात बतायी, वो ये बतायी कि आरे की नोक जितना सूक्ष्म है। उसके आगे का बता नहीं पाए, वो आखिरी बात थी। समझ में आ रही है बात?
और ये कब बताया, ये तब बताया जब “अभी वह अहंकार से युक्त है और आत्मा के विशेष गुणों से माने प्रकृति के विशिष्ट गुणों से येसे युक्त है”। ये तब बताया, इसके आगे क्या है? इसके आगे न संकल्प है, न अहंकार है, न गुण है। इसके आगे सब खत्म है, निर्गुण है, निरंकार है, उनकी कोई बात हो नहीं सकती। तो जो आखिरी बात हो सकती थी वो यहाँ तक कर दी।
ये बात साफ़-साफ़ समझिएगा। कोई पूछे कि आपने परमात्मा को देखा है तो इससे क्या समझना चाहिए? कि इस आदमी को कुछ पूछने का अधिकार ही नहीं है। जवाब मत देने लग जाना। क्योंकि खतरा है, जानते हो क्या? ऐसे बहुत हैं जिन्होंने देखा है। जिनसे पूछो, आपने परमात्मा को देखा है? कहें, “बिल्कुल देखा है। करीब सवा दो महीने हो रहे हैं जब आखिरी बार देखा था, ठीक-ठाक थे। हमने कहा था, आ रही है वैक्सीन , चिंता मत करो। मास्क, वास्क क्या लगाए घूम रहे हो तुम परमात्मा होकर”? ऐसों से बचना जो परमात्मा वगैरह से मिल कर आ गए हैं।