किसी से मत डरो || आचार्य प्रशांत

Acharya Prashant

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किसी से मत डरो || आचार्य प्रशांत

आचार्य प्रशांत: आप गुड़गाँव जाइए, आप बम्बई जाइए, वहाँ एक बड़ी इमारत है पचास मंज़िली, सत्तर मज़िली। आप उसके नीचे खड़े हो। आपको दिख नहीं रहा कि वो इमारत आप पर चढ़ी आ रही है? भीतर ये सतर्कता रहे — जैसे ही दिखे कोई चढ़ा आ रहा है तुरन्त क्या बोलना है? ‘है कौन?’

आप कहीं पर गये हैं नौकरी का इंटरव्यू देने और बड़ा मल्टीनेशनल का ऑफ़िस है और आप उसके रिसेप्शन पर बैठे हैं। और वो बड़ा इम्पोज़िंग होता है, वो आपके ऊपर एकदम चढ़ा आता है। बहुत पैसा लगाकर वो रिसेप्शन बनाया जाता है ताकि आप जल्दी से प्रभावित हो जायें, सरेंडर कर दें जल्दी से।

जैसे ही देखिए कि रिसेप्शन इस हिसाब से बनाया गया है, वहाँ फिर ऐसे बैठिए (कुर्सी की बाज़ू पर कोहनी टिकाकर, एक हाथ चेहरे पर रखते हुए)। हम उल्टा करते हैं। बदतमीज़-से-बदतमीज़ आदमी भी जब किसी बड़ी कम्पनी के रिसेप्शन पर बैठा होता है, किसी फ़ाइव स्टार होटल में जाता है तो वहाँ वो बहुत तमीज़दार और अदब वाला हो जाता है। कुल मिलाकर पालतू हो जाता है। जर्मन शेफ़र्ड फ़ाइव स्टार में पहुँचकर क्या बन गया? देसी पिल्ला।

ये बाहर ऐसे ही घूमते थे, पर जैसे ही देखा ये पाँच-सौ-करोड़ की इमारत, वहाँ बिलकुल — ’यस, यस। व्हाट, व्हाट डू आई हैव टू गिव? वेयर डू आई सिट?’ (जी, जी; क्या, मुझे क्या देना है? मैं कहाँ बैठूँ?) और ये बाहर निकलकर के दुनिया भर से गाली-गलौज और बदतमीज़ी।

पालतू नहीं बनना है। समाज के बाहुबल के सामने झुक नहीं जाना है। जितनी विनम्रता सच्चाई के सामने होनी चाहिए, उतनी ही ऐंठ माया के सामने होनी चाहिए। सच के सामने सिर उठे नहीं और माया के सामने सिर झुके नहीं। बदतमीज़ी सीखिए, ख़ासतौर पर जो संस्कारी लोग हैं उन्हें बदतमीज़ी आनी चाहिए। जिन्हें ऊँचा बोलना नहीं आता क्योंकि बहुत संस्कारवान बनाया गया है, ख़ासतौर पर — वो मुस्कुरा रही हैं (एक श्रोता) — लड़कियों को, मैं उनसे कह रहा हूँ — ऊँचा बोलना सीखो। कुछ गालियाँ देना भी सीखो। कहेंगे, ‘आचार्य जी, आप तो गलियों के ख़िलाफ़ थे।’ वो निर्भर करता है न। वेदान्त क्या बोलता है? ’फॉर हूम? , किसके लिए?’

जो बहुत ज़्यादा बोलते हैं उनसे बोलता हूँ — ‘चुप! गाली ही दिये जा रहा है, चुप कर!’ और जो संस्कारों की बेड़ियों के चलते मुँह ही नहीं खोल पाते, आवाज़ नहीं ऊँची कर पाते, उनसे मैं कहूँगा कि आवाज़ भी ऊँची करो और गाली देना भी सीखो। आ रही है बात समझ में?

प्रेम में मौन हो जाना एक बात होती है और डर की चुप्पी बिलकुल दूसरी बात।

मुझे बड़ा मज़ा आता है देखने में कि लोग कितने तमीज़दार हो जाते हैं एअरपोर्ट पर, फ़्लाइट के अन्दर, बड़ी कम्पनियों में, बड़े अफ़सरों के सामने, नेताओं के सामने, बड़े रेस्टॉरेंट में कितने तमीज़दार हो जाते हैं! जहाँ बदतमज़ीज़ी करनी चाहिए, वहाँ तुम तमीज़दार हो जाते हो और जहाँ विनम्रता आनी चाहिए, जहाँ मृदुभाषण आना चाहिए, वहाँ तुम तेवर दिखाते हो।

कोई सब्ज़ी वाली बैठी होगी बूढ़ी, उससे लगे हुए हैं बहस करने में कि पाँच रुपया बच जाये। और उसको उल्टा-पुल्टा भी बोल रहे हैं। ऑटो पर बैठकर के रेस्टरॉं पहुँचे हैं, ऑटो वाले से बदतमीज़ी कर रहे हैं। हाँ, रेस्टरॉं में घुसते ही वहाँ पर सभ्य बन गये हैं। वहाँ गेट पर ही खड़े हुए हैं दो भारी-बरकम गार्ड, बाउंसर। वहाँ बिलकुल एकदम सीधे हो गये।

कमज़ोर के साथ नर्म रहो और अत्याचारी के साथ एकदम गर्म।

समाज उल्टे सिद्धान्त पर चलता है। समाज और अध्यात्म की इसीलिए बनती नहीं आपस में। समाज कहता है, ‘ऊँचे लोगों से रिश्ता बनाकर रखो न — नेटवर्किंग। अध्यात्म कहता है, ‘ऊँचा तो सिर्फ़ एक है, हमारी नेटवर्किंग तो सिर्फ़ उसके साथ होगी। और बाक़ी जितने दुनिया में अपनेआप को ऊँचा कहते हैं, मेरी जूती पर’ — बोलना सीखो। एक है जो पूज्य है, एक है जिसको दिल दे दिया है, सिर्फ़ एक है जिसको सम्मान — बाक़ी सब? बोला ही नहीं जा रहा, संस्कारी लोग हैं! (श्रोताओं को सम्बोधित करते हुए) कहें, ‘पर आचार्य जी, हम तो श्लोक सुनने आये थे, ये आप किस क़िस्म की बातें कर रहे हैं ‘जूती पर’ वगैरह? संस्कृत कब शुरू होगी?’ (सभी हँसते हैं)

न किसी से पैसा लो, न किसी से इज़्ज़त लो — बहुत आज़ाद जियोगे। एकदम सरल सूत्र है न? न किसी से पैसा लेना है, न किसी से प्रतिष्ठा लेनी है। पैसा होता है स्थूल शरीर के लिए, प्रतिष्ठा होती है सूक्ष्म शरीर के लिए। पैसा मिल जाता है तो इसको बहुत मज़ा आता है, शरीर को। बढ़िया कपड़ा मिलेगा, खाने पीने को मिलेगा, ये सब पैसे से। पैसे से मज़ा अन्दर वाले को भी आता है, पर पैसे से ज़्यादा मज़ा बाहर वाले को आता है। और प्रतिष्ठा इस मज़ा इस शरीर को नहीं आता। प्रतिष्ठा से मज़ा आता है जो भीतर का सूक्ष्म शरीर है, मन — उसको। और यही दो हैं। नहीं फँसना। यही आध्यात्मिक आदमी की निशानी है। न वो पैसे में फँसता है, न वो प्रतिष्ठा में फँसता है।

इसीलिए कह रहा हूँ आध्यात्मिक आदमी वास्तव में कभी सामाजिक हो नहीं सकता। क्योंकि समाज में जो रिश्ते बनते हैं, वो इन्हीं दो चीज़ों के रहते हैं — पैसा और प्रतिष्ठा। या कि प्रेम के रहते हैं? प्रेम के तो रिश्ते नहीं बनते न समाज में? प्रेम तो बल्कि वर्जित हैं समाज में। समाज जहाँ प्रेम को देख लेता है, परेशान हो जाता है, ‘ये क्या हो गया!’ ये कुछ अलग हो रहा है। और मैं स्त्री-पुरुष के ही प्रेम की बात नहीं कर रहा। आप यदि ऐसे व्यक्ति हैं जिसको अपने काम से भी गहरा प्रेम हो गया है तो समाज आप पर फब्तियाँ कसेगा। आप ऐसे हो जाइए, आप कहिए कि डूब गया हूँ अपने काम में। लोग कहेंगे, ‘ये देखो!’ ये क्या है न!’ समाज माने स्वार्थों का ताना-बाना। और स्वार्थों के ये दो नाम — पैसा और प्रतिष्ठा।

बहुत लोग विचलित दिख रहे हैं, ‘आचार्य जी, सचमुच? आध्यात्मिक हो गये तो सामाजिक नहीं हो सकते? (सिर हिलाते हुए) सॉरी। ‘नहीं, पर हमने देखा है, मतलब इतने अच्छे-अच्छे लोग सामाजिक भी होते हैं, उन्हें सब लोग मानते हैं, उनके सबसे अच्छे मधुर सम्बन्ध होते हैं, वो सबसे हँसकर मिलते हैं।’ समझ लो बेटा, कुछ गड़बड़ होगी! वोट के लिए मिलना पड़ता है सबसे हँस-हँसकर। ज़रूर कुछ उगाहा जा रहा होगा तुमसे। ज़रूर कोई प्रछन्न स्वार्थ होगा।

सत्य सामूहिकता और समाजिकता की बात नहीं होती। जिन्हें सच्चा जीवन जीना है, वो अकेले होने का भय त्याग दे। जिसको सत्य प्रिय हो गया उसे लोकप्रियता से बहुत मतलब नहीं रह जाता। लेकिन ये भी अजीब बात है! मानव इतिहास में जो लोग सबसे ज़्यादा जाने गये हैं, वो सब वही हैं जिन्हें सत्य सबसे ज़्यादा प्रिय था। और जिन्हें सत्य की अपेक्षा समाज प्रिय था, समाज ने भी उन्हें समय की धूल बना दिया। कोई भी नहीं उनको याद रखता।

करोड़ों-अरबों लोग मर गये न, समाज को ही खुश करने में पूरा जीवन बिताकर? यही करा न उन्होंने ज़िन्दगी भर? कि वो बुरा न मानें — न वर्मा जी बुरा मानें, न शर्मा जी बुरा मानें — ‘मैं तो सबको खुश करके रखता हूँ। हें-हें-हें (खुशामद में हँसने का अभिनय करते हुए), हम तो सामाजिक आदमी हैं। सबसे बनाकर चलनी पड़ती है, भाई।’ कहाँ हो तुम? कहाँ हो?

महात्मा बुद्ध ने एक बार कहा था, ‘ये वहाँ हैं, और ये उतना ही हैं जितना गंगा के तट पर रेत के कण हैं।’ गंगा किनारे रेत के जितने कण हैं न, ये सब वही हैं जो कभी सामाजिक रूप से सफल होना चाहते थे और लोकप्रिय होना चाहते थे। कौन इन्हें याद रख रहा है? पाँवों तले हैं ये सब आज।

याद भी तुम किसको रख रहे हो? जिन्होंने समाज की कभी नहीं परवाह करी, जिन्होंने सत्य की परवाह करी। उन्हें उस समय पर जो भी बर्ताव मिला हो समाज से, जब तक समय रहेगा, इतिहास रहेगा, वो याद रखे जाएँगे।

बुद्ध सामाजिक थे या समाज छोड़कर हटे थे? बोलो। और जब समाज में वापस भी गये तो क्या समाज की शर्तों पर गये? समाज की किसी शर्त का पालन करते थे? और ऐसा नहीं है कि उस समय उनको तत्काल लोगों ने आदर और आसन ही दे दिया। उनके ख़िलाफ़ भी जो कुछ भी करा जा सकता था करा, आज़माया। मारने की कोशिश भी करी उनको। उन्होंने परवाह नहीं करी, उन्होंने कहा, ‘जो सही है वैसे जीना है।’ और सही जीने का नतीजा ये हुआ कि बाद में उन्हें समाज में भी स्वीकृति, प्रसिद्धि सब मिल गयी। और जो लोग समाज की स्वीकृति, प्रसिद्धि के लिए मरे जाते हैं, वो समय की धूल बन जाते हैं।

एक सवाल अच्छे से पूछ लीजिएगा अपनेआप से — जिन लोगों को खुश रखने में अपनी ज़िन्दगी ख़राब किए दे रहे हो, वो लोग किसी काम के भी हैं आपके? जिनके डर के साये में ज़िन्दगी बिता रहे हो, वो उखाड़ क्या लेंगे आपका? ये पूछिएगा अपनेआप से। या जिनको पैसा वगैरह दिखाकर के बहुत प्रभावित करते हो, वो तुमसे प्रभावित हो भी गये तो तुम्हें क्या मिल जाएगा? मिलता है कुछ? या जिनका पैसा-रुतबा देखकर के आप प्रभावित हो जाते हो, उनसे प्रभावित होकर के आपको क्या मिल जाता है?

ये सब किसी काम का है क्या? बस छाया रहता है लेकिन मन पर। अध्यात्म सर्वप्रथम एक विद्रोह होता है अतीत के और आन्तरिक ढर्रों के विरुद्ध। ‘जो अतीत में चला आया है, नहीं चलेगा अब। और जो भीतर-भीतर लगातार चलता रहता है, नहीं चलेगा अब।’ जो विद्रोही नहीं है, वो आध्यात्मिक नहीं हो सकता। कुछ जम रही है बात?

लेना एक न देना दो, दुनिया सिर पर चढ़ी आती है। और हम इसे सिर पर बिठाए भी रहते हैं। ‘तुम हो कौन?’ यही सवाल होना चाहिए। ‘हो कौन? क्यों सुनें तुम्हारी? कौन हो तुम? हाँ, सुनेंगे। ऐसा नहीं कि हमारे पास कान नहीं होंगे। हमारे पास कान उनके लिए होंगे जिनके पास प्रेम है। तुम्हारे पास प्रेम है तो मेरे पास कान हैं। और अगर तुम्हारे पास प्रेम है तो मेरे पास ज़बान भी है। बात भी उन्हीं से करूँगा, जवाब भी उन्हीं को दूँगा जिनके पास प्रेम है।’

सुनेंगे भी उनकी जो प्रेम करते हैं, बोलेंगे भी बस उन्हीं से जो प्रेम करते हैं। जो यूँही चले आये हैं, लेना एक न देना दो, यूँही घुसे चले आ रहे हो। कोई डर दिखा रहा है, कोई धौंस बता रहा है, कोई पैसा चमका रहा है। ‘जो भी लेकर आये हो अपने घर रखो। हमसे तुम्हारा ताल्लुक़ क्या? आज तक तुम्हारी मान भी ली तो तुमने हमें दे क्या दिया है? तुम्हारे क़ायदों पर चलकर तुमको ही कुछ नहीं मिला, हमें क्या मिल जाएगा?’

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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