प्रश्नकर्ता: यूट्यूब पर टिप्पणी आयी है, लिख रहे हैं, ‘ऋषि-मुनि बड़े कायर होते हैं। जितने भी सन्त, बाबा, गुरु लोग मंच पर बैठकर भाषण देते हैं, जीवन के बारे में ज्ञान देते हैं, वो बड़े कायर लोग होते हैं, किसी को थप्पड़ मारने तक की उनमें हिम्मत नहीं होती। इसीलिए वो प्रवचन देने का रास्ता लेते हैं।
आचार्य प्रशांत: थप्पड़ मारना आमतौर पर हिम्मत का काम नहीं होता है। थप्पड़ मारना प्रतिक्रिया का काम होता है, उसमें हिम्मत नहीं लगती है, वो एक प्रतिक्रिया होती है। तो ऋषि-मुनि प्रतिक्रियात्मक नहीं रह जाते। प्रतिक्रिया करने का मतलब होता है — सामने वाले का गुलाम हो जाना कि उसने एक चीज़ करी तो अब बँधी-बँधाई प्रतिक्रिया स्वरूप हमें दूसरी चीज़ करनी ही पड़ेगी। समझ रहे हो? कि उसने बोला ‘अ’, तो मुझे ‘ख’ बोलना ही है। उसने बोला ‘अ’ तो मुझे बोलना है ‘ख’। ये प्रतिक्रिया है तो अब अगर वो मुझसे ‘ख’ बुलवाना चाहता है तो ऐसा वो कर सकता है। जब चाहे तब कर सकता है तो मैं तो उसका गुलाम हो गया न।
अगर वो चाहता है कि मैं ‘ख’ बोलूँ तो उसे बस क्या करना है? वो बोल दे ‘अ’, मुझे ‘ख’ बोलना पड़ेगा तो मैं गुलाम हो गया न। इसी तरह तुमको अगर पता है कि कौन किस बात पर हाथ चला देगा और तुम उससे वही बात बोलो और वो व्यक्ति हाथ चला दे तो उस व्यक्ति ने ये वीरता दिखायी है, साहस दिखाया है या गुलामी दिखायी है?
अब देखो, तुम इतनी बेहूदी बात बोल रहे हो कि ऋषि-मुनि कायर होते हैं। ये भी तो हो सकता था न कि तुम मेरे सामने होते, मैं तुम्हें इस बात पर थप्पड़ मार देता। हो सकता था न? पर अगर मैं ऐसा करता तो इसमें मेरी कोई वीरता नहीं होती। क्योंकि मैंने तुम्हारे ही तल पर आकर के तुम को तुम्हारे ही तल की प्रतिक्रिया दे दी होती कि तुमने मूर्खता की बात बोली, मैंने फटाक से थप्पड़ चला दिया, तुम्हारा मुँह लाल कर दिया।
ऋषि वो जो अब मालिक हो गया अपना। वो इतना बड़ा बहादुर है कि वो अन्दरूनी तौर पर मालिक हो गया अपना। तुम उससे कोई प्रतिक्रिया उगाह नहीं सकते, ऐक्सट्रैक्ट नहीं कर सकते। तुम लाख कोशिश कर लो, वो वैसा कुछ नहीं करेगा जो तुम उससे करवाना चाहते हो। तभी तो वो फिर आत्मिक है न, अपने में जीता है वो। तुम्हारे अनुसार थोड़ी ही चलेगा।
तुम उसे गालियाँ दे लो; तुम चाह रहे हो कि तुम गाली दे रहे हो तो पलट कर वो भी गाली दे दे। नहीं, न तो वो ये कहेगा कि मुझे गाली आयी है तो मुझे पलट कर गाली देनी है, न उसने ये नियम बना रखा है कि गाली आयी है तो गाली नहीं देनी है। वो तो कुछ ऐसा करेगा जो अपूर्व होगा, जो पहले से संचालित नहीं हो रहा होगा।
एकदम कुछ नया करेगा, तुम फँस जाओगे एकदम। तुम्हें समझ में ही नहीं आएगा। तुमने उसे दस बार गाली दी, वो हो सकता है कोई तुमको उत्तर न दे। तुम कहोगे, ‘अच्छा, तो इसने ये नियम या सिद्धान्त बना रखा है कि गाली देने पर उत्तर नहीं देना है, मौन रहना है।’ और ये भी हो सकता है, तुम उसे ग्यारहवीं बार गाली दो, वो पत्थर उठाकर तुम्हारा सिर फोड़ दे! तुम्हें समझ में ही नहीं आएगा, ये कैसे हो गया। अब तुम कहने लगोगे, ‘ये खतरनाक आदमी है, खतरनाक आदमी है।’ और एक दिन तुमने उसे बारहवीं बार गाली दे दी और तुम एकदम डर गये कि पिछली बार सिर फोड़ा था, इस बार गर्दन काट देगा। इस बार उसने तुम्हें गले से लगा लिया।
वो अपना मालिक है। उसका कोई ढर्रा, कोई पैटर्न नहीं है जो तुम पकड़ लो। कहो कि अब मुझे इसका जो फ़ॉर्मूला है, वो समझ में आ गया। वो किसी फ़ॉर्मूले पर चलता नहीं है। उसकी कोई चाबी नहीं है जिसको तुम घुमा सको। उसका कोई बटन नहीं है जिसको तुम दबा सको।
वो न जाने कहाँ से आता है, वो न जाने कहाँ से अपने कर्म करता है। वो अन्दरूनी तौर पर सम्प्रभु है, वो अन्दरूनी तौर पर पूरी तरह आज़ाद है, वो कुछ भी कर सकता है। वो थप्पड़ मार भी सकता है, नहीं भी मार सकता है। ये भी हो सकता है कि तुम उसे गाली दो, वो तुम पर फूल बरसा दे। बिलकुल हो सकता है। ये भी हो सकता है कि तुम उसे गाली दो, उसने सुना ही नहीं। कुछ भी हो सकता है, तुम अनुमान नहीं लगा पाओगे।
इसीलिए सच को ‘अननुमेय’ कहते हैं कि अनप्रिडिक्टेबल है भाई, अप्रत्याशित। तुम नहीं पता कर पाओगे कि वो क्या करने जा रहा है। समझ में आ रही है बात? ये हुई उसकी अन्दरूनी मालकियत।
अब जहाँ तक ये बात कि बाहर के जगत में सन्तों ने कुछ नहीं करा। तो तुमने इतिहास नहीं पढ़ा है। सन्तों को जब ज़रूरी लगा है तो उन्होंने बन्दूक, तलवार, तोप सब चलायी है। ये तुम्हारे मन में छवि बैठी हुई है कि ऋषि लोग कायर होते हैं, किसी को थप्पड़ नहीं मार सकते वगैरह, वगैरह। ये तुमसे किसने कह दिया?
हाँ, उन्हें कोई खुजली नहीं हो रही होती किसी से लड़ाई करने की। न उन्हें लड़ाई करने की बहुत आतुरता है, न उन्हें मैत्री करने की या मोह करने की आतुरता है। वो किसी भी चीज़ को लेकर आतुर नहीं हैं। वो बस स्थिर हैं और शान्त हैं। लेकिन यदि जीवन-चक्र के किसी बिन्दु पर उन्हें ये लगा है कि हथियार उठाने चाहिए तो ऋषियों ने, गुरुओं ने, सन्तों ने हथियार उठाये भी हैं। थोड़ा इतिहास पढ़ लो।
और जब एक ऋषि हथियार उठाता है न, तो वो हार नहीं सकता, मर सकता है। तुम उससे ये नहीं कह पाओगे कि आगे मत बढ़ना नहीं तो मार दूँगा तुझे। वो अपना मालिक है माने वो शरीर की गुलामी से भी बहुत पहले आज़ाद हो चुका है। शरीर का डर दिखाकर तुम उसे रोक नहीं पाओगे। न तो तुम उसे विवश कर सकते हो हथियार उठाने के लिए, वो चुपचाप बैठा रहेगा। तुम उसे कितना भी उकसाते रहो, वो हथियार उठाएगा नहीं।
पर अगर उसने हथियार उठा लिये तो अब वो रोके रुकेगा नहीं तुम्हारे, क्योंकि उसने हथियार किसी के कहने से नहीं उठाया है। न उठाना भी उसका आन्तरिक बोध था और उठाना भी उसके आन्तरिक बोध से आ रहा है। न तुम उसे हथियार उठाने के लिए मजबूर कर सकते थे, न रखने के लिए मजबूर कर सकते हो। वो जो करेगा, अपने भीतर की रोशनी में देखकर करेगा।
शायद तुमने ज़ेन साधकों के बारे में नहीं सुना, तुमने समुराई के बारे में नहीं सुना। शायद तुम सिख गुरुओं के बारे में कुछ नहीं जानते। परशुराम का तो लगता है तुमने नाम ही नहीं सुना। यहाँ तक कि अवतारों की भी जो भारत में संकल्पना रही है, उसमें अवतार के एक हाथ में शस्त्र होता है, दूसरे में शास्त्र होता है।
जिन्होंने तुम्हें गीता दी है, वो तो ऋषियों में भी ऋषि हुए न। और बता दो मुझे कि उन्हें शस्त्र चलाना नहीं आता था। हाँ, वो तुम्हें थप्पड़ नहीं मारते क्योंकि थप्पड़ मारने के लिए तुम्हारे नज़दीक जाना पड़ता और इतनी योग्यता तुम रखते नहीं हो।
लिबरल (उदारवादी) युग है भाई, कोई कुछ भी बोल सकता है। यही तो मतलब होता है न, मेरी मर्ज़ी, मेरे विचार। जो मेरे मन में आएगा, मैं बोलूँगा। माइ लाइफ़, माइ चॉइस।
श्रोता: ये जो कहना चाह रहे हैं, थप्पड़ से हो सकता है इनका आशय हो, इनका नहीं होगा पर अगर इनकी मनोस्थिति पढ़ने की कोशिश करें कि उनके पास वो ताकत नहीं थी कि वो संसार में किसी को दबा सकें या किसी पर अपना प्रभाव डाल सकें। तो ये कहना चाह रहे हैं कि ऋषि, मुनि, सन्त जितने हुए हैं, वो सांसारिक रूप से कमज़ोर रहे हैं।
आचार्य: उनमें इतनी ताकत थी कि आज अगर तुम थोड़े भी सभ्य हो और सुसंस्कृत हो तो उन्हीं की बदौलत हो। तुम्हारी ताकत की परिभाषा ही मूर्खता भरी है। तुम्हारे हिसाब से ताकत तब होती है जब तुम टैंकों में बैठे हुए हो या तुम्हारे पास बहुत सारा पैसा है। अशोक के पास ताकत थी या उन बुद्ध के पास ताकत थी जिनके सामने अशोक नतमस्तक हो गया? बोलो। पर तुम्हें लगेगा ही नहीं कि बुद्ध के पास ताकत थी। अशोक का तो नामोनिशान मिट गया और बुद्ध का धर्म देख लो कितना फल-फूल रहा है।
पर तुम जाते हो, वहाँ देखते — बुद्ध ऐसे इधर-उधर भटक रहे हैं, उनके पास तो कुछ था नहीं। तुम कहते, ‘इनके पास तो कोई ताकत ही नहीं है। कपड़े हैं दो जोड़ी और ऐसे ही वो अपनी इनकी संघ में कुटिया बनी हुई है, वहीं रहते हैं। इनके पास क्या है?’
बहुत ताकत है। इतनी ताकत है कि उन्होंने ही हमारी सभ्यता का, संस्कृति का निर्माण किया है। मैं सिर्फ़ बुद्ध की नहीं बात कर रहा। मैं उन सब प्रबुद्ध लोगों की बात कर रहा हूँ जिनमें बोध जगा।
“आग लगी आकाश में झर झर झरे अंगार। न होते जो साधु जन, तो जल मरता संसार।।”
ये उनकी ताकत थी। आज आप यहाँ कतारबद्ध होकर बैठे हुए हैं न, ये होती है ऋषियों की ताकत। नहीं तो जानवरों को ऐसे बैठा सकते हो? बाहर हमारे पास हैं दर्जन भर खरगोश, उनको ले आकर के ऐसे कुर्सियों पर सुव्यवस्थित और अनुशासित तरीके से बैठा कर दिखा दो। बैठेंगे?
हमको इंसान बनाया है उन्होंने, ये ताकत है ऋषियों की। आज जो आप कहते हो न कि हम इंसान हैं, उनकी ये ताकत है कि हमें इंसान उन्होंने ही बनाया है। वो चन्द लोग जिन्होंने तुम्हें समझाया कि प्रकृति क्या होती है, चेतना क्या होती है, मन क्या होता है, जीवन क्या होता है, मुक्ति क्या होती है, प्राण क्या होते हैं, प्रेम क्या होता है, उन्होंने ही हमें जीने की तमीज़ दी है। ये उनकी ताकत है।