किस काम से पैसा कमाऍं? || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)

Acharya Prashant

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किस काम से पैसा कमाऍं? || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)

प्रश्नकर्ता: आज आचार्य जी आपने दो चीज़ें समझायीं, साथी और काम के बारे में, साथी कैसा चुनें और काम कैसा चुनें। साथी के बारे में तो काफ़ी कुछ समझ में आ गया, काम को लेकर इतनी स्पष्टता नहीं हुई। क्योंकि हर काम कहीं-न-कहीं अन्त में पैसे से जुड़ता है और पैसा अपनेआप को चलाने के ही काम आता है। तो काम को कैसे चुना जाए?

आचार्य प्रशांत: पैसा ख़ुद को चलाने के काम आये ये ज़रूरी नहीं है न। पैसा ख़ुद को चलाने के काम तभी आता है, जब तुम्हारी अन्तिम इच्छा ये हो कि तुम चलते रहो। पर अगर तुम पैसे से स्वयं को चला रहे हो ताकि कुछ और चलता रहे, तब बताओ पैसा तुम्हारे काम आया या उस चीज़ के काम आया जो तुम्हारे चलने से चल रही है?

नहीं समझे?

एक आदमी है जो पैसा कमाता है और खाता है, किसलिए? ताकि खाने-पीने से सुख पाये और सो जाए। एक आदमी है जो पैसा कमाता है और खूब खाता है, क्योंकि उसे खाने-पीने में ही सुख मिलता है। दूसरा आदमी है जो पैसा कमाता है इसलिए ताकि उस पैसे से कुछ और चला सके। वो खाना भी इसलिए खाता है ताकि उसमें ऊर्जा बनी रहे एक बड़ी लड़ाई लड़ने की। इन दोनों में अन्तर हुआ कि नहीं? एक आदमी खाना खाता है ताकि स्वाद मिले और बढ़िया नींद आये और एक आदमी खाना खाता है ताकि अगले दिन वो लड़ाई पर जा पाये। इन दोनों में अन्तर हुआ या नहीं?

प्र: अगर हम कोई काम करते हैं जो साफ़ है और सच्चा है, तो उस काम में पैसा कम आता है, उस काम में संघर्ष बहुत ज़्यादा होती है। अगर किसी के पास कोई चीज़ हो कि वो थोड़ा ग़लत काम भी कर सके और उस ग़लत काम से जो वो पैसा लाये, उसको सही काम में निवेश कर दे, क्या ये सही है?

आचार्य: बेकार की बात है। एकदम बेकार की बात!

(श्रोता हँसते हुए)

एक तो ये धारणा तुम्हारी एकदम ग़लत है कि सही काम करोगे तो उसमें पैसा नहीं है। नहीं, सही काम में पैसा नहीं है, पर्सनल कंजम्प्शन (व्यक्तिगत उपभोग) के लिए नहीं है। सही काम में पैसा नहीं है — मैं भी मानता हूँ — पर तुम्हारे अपने व्यक्तिगत उपभोग के लिए नहीं है।

बिलकुल सही बात है कि तुम सही काम कर रहे हो, वो करके तुम शायद अपने लिए चार मंज़िले की कोठी नहीं बनवा पाओ, शायद तुम अपने लिए हेलीकॉप्टर नहीं ख़रीद पाओ, बिलकुल होगा ऐसा। लेकिन अगर तुम सही काम कर रहे हो तो सही काम की परिभाषा ही होती है — वो काम जो तुम्हारे व्यक्तिगत सरोकारों से आगे का है।

ग़लत काम क्या है? जो तुम्हारे व्यक्तिगत सरोकारों की ही पूर्ति के लिए है, जो मेरे पर्सनल, सेल्फ़िश इंट्रेस्ट (व्यक्तिगत, स्वार्थपूर्ण रुचि) हैं, उनकी पूर्ति के लिए जो काम किया जाए, अपने निजी सरोकारों के लिए जो काम किया जाए, वही काम ग़लत है। ठीक?

मैं कोई काम करता हूँ, सिर्फ़ किसके लिए? अपने लिए या अधिक-से-अधिक अपने दो-तीन लोगों के परिवार के लिए। यही काम तो ग़लत है। और सही काम की परिभाषा ही होती है वो काम जो सबके लिए किया जाए। अगर कोई काम तुम सबके लिए करोगे, तो सब उसमें सहयोग देंगे या नहीं देंगे? क्योंकि वो काम सबके लिए है। हाँ, इतना ज़रूर है कि कोई तुमको तुम्हारे मौज के लिए पैसा नहीं देने वाला, और क्यों दे! तुम्हारी मौज के लिए तुमको पैसा तभी मिलेगा जब तुम दूसरे की मौज कराओ।

ये काम नौकरियों में होता है, यही काम व्यवसाय में होता है। कि भई, तुम कहते हो कि मैं तुम्हारे लिए इतना काम करता हूँ, बदले में तुम मुझे इतना पैसा दे दो। 'मैं वो काम करता हूँ जिससे तुम भोगोगे, कंजम्शन करोगे और तुम मुझे पैसा दो बदले में, जिससे मैं भोगूँगा, मैं कंजम्प्शन करूँगा।' ये जो है, ये इगोइस्टिक मॉडल ऑफ़ वर्क (काम का अहंकारी प्रारूप) है।

मैं तुम्हारे लिए काम कर रहा हूँ ताकि तुम मौज करो, तुम्हें मैं प्रॉफ़िट (लाभ) बनाकर दूँगा। मान लो तुम धन्धे के मालिक हो, तो मैं काम करके दूँगा ताकि तुमको महीने का दस लाख का मेरी वजह से मुनाफ़ा होता रहे और उस दस लाख में से एक लाख तुम मुझे तनख़्वाह के तौर पर दे दोगे। यही चलता है न? उस दस लाख का तुमने क्या किया? तुमने मौज मारी। एक लाख मुझे दिया, उसका मैंने क्या किया? मैंने मौज मारी। दोनों खाये-पिये मस्त सोये। ये ट्रेडिशनल मॉडल ऑफ़ वर्क (काम का पारम्परिक प्रारूप) है। इसको मैं इगोइस्टिक मॉडल (अहंकारी प्रारूप) बोल रहा हूँ।

कर्म का दूसरा भी तरीक़ा हो सकता है — मैं देख रहा हूँ क्या करना ज़रूरी है और जो करना ज़रूरी है, वो सिर्फ़ मेरे लिए ज़रूरी नहीं है, वो सार्वजनिक हित में ज़रूरी है। मैं जो कर रहा हूँ, सबके लिए कर रहा हूँ और अपने लिए मुझे बहुत चाहिए नहीं। अपने लिए मुझे उतना ही चाहिए, मुझे बस उतना देते रहो, जितने में मैं काम करता रहूँ। अगर मुझे कुछ नहीं दोगे, तो मैं काम ही नहीं कर पाऊँगा। तो मुझे अपने लिए बहुत ज़्यादा चाहिए नहीं।

अब भी तुमको लोग देंगे। अब तुमको इसलिए नहीं देंगे कि तुम उससे मौज मारो। अब तुमको इसलिए देंगे ताकि तुम उससे कुछ अच्छा करके दिखाओ। या तुम ये सोचते हो कि तुमने कमाया सिर्फ़ तब, जब तुम दूसरे की मौज कराओ, ये मुझे समझ में ही नहीं आती बात! क्या तुमने सिर्फ़ तब कमाया, जब तुमने दूसरे की मौज करा दी? तब तुम कहते हो बहुत शान से, कि ये मेरी अर्निंग (कमाई) है और तुम दूसरे को अगर मुक्ति दिला रहे हो, तुम कुछ ऐसा कर रहे हो जिससे इस पूरे ग्रह का ही फ़ायदा हो रहा है, आने वाली दस पुश्तों का फ़ायदा हो रहा है, तो क्या तुमने कोई सार्थक काम नहीं करा?

बल्कि ऐसा काम करने में तुम्हारे लिए अस्तित्व भर के संसाधन खुल जाते हैं, उनका तुम्हारे पास कोई सम्मान नहीं है। क्योंकि भूलो नहीं, कोई भी व्यक्ति मौज भी इसीलिए चाहता है, क्योंकि वो पीड़ित है। ठीक? तो गहरी पीड़ा है, सतही मौज है। किसी व्यक्ति को तुम मौज कराते हो, उस चीज़ के अगर वो तुमको एक लाख दे सकता है, तो वो तुम्हें कितने देगा अगर तुम उसकी गहरी पीड़ा ही मिटा दो? जल्दी बोलो!

कोई व्यक्ति मौज भी इसीलिए करता है क्योंकि सर्वप्रथम वो पीड़ित है। पीड़ा गहरी है, मौज सतही है।

तुम उसकी मौज में मददगार बनते हो, इस बात का वो तुमको एक लाख दे देता है और अगर तुम उसकी पीड़ा ही हटाने में मददगार हो जाओ, तो वो तुम्हें कितना दे देगा? न जाने कितना दे देगा! बस एक शर्त होगी — ‘बेटा, जैसे मैं तुमको ये नहीं दे रहा हूँ अपनी मौज करने के लिए, वैसे ही तुमको इसलिए नहीं दिया जा रहा कि तुम इससे मौज करो। तुमको ये दिया जा रहा है ताकि तुम ज़माने भर की पीड़ा हटाओ।’

और जब आप एक सार्थक काम में लगे होते हो न, तो सार्थक काम में ही मौज आ जाती है। फिर आपको बहुत चाहिए भी नहीं होता है कि मैं विदेश यात्रा करूँ और सौ तरीक़े के और जो झंझट-झवार होते हैं, वो करूँ तब जाकर के मुझे थोड़ा सुख मिलेगा।

आनन्द गहरा होता है, लेकिन आर्थिक तौर पर सस्ता होता है। सुख उथला होता है, लेकिन आर्थिक तौर पर महँगा होता है।

बहुत पैसे लगते हैं सुख ख़रीदने में, बहुत पैसे। और कितने ही पैसे खर्च कर लो, तब भी पूरा मिलता नहीं। आनन्द के लिए उतने पैसे नहीं चाहिए, वो सस्ते में आ जाता है।

समझ में आ रही है बात?

थोड़ा करोगे तो और समझ में आएगी, इतना मुश्किल नहीं है। मुश्किल तुम्हें लगता है जब तुम अपने आस-पास के लोगों को देखते हो और तुलना करते हो, और पाते हो कि जो बात मैं बोल रहा हूँ यहाँ पर, वैसा करने वाला तो कोई है ही नहीं, तो तुमको लगता है कि कहीं मैं ही अकेला न छूट जाऊँ। वही फ़ियर ऑफ़ मिसिंग आउट (पीछे छूट जाने का डर) कि सब लोग तो वो फ़लानी इंडस्ट्री में आगे बढ़ रहे हैं और — जैसे कहते हो न — उसने वहाँ चेंज़ मारा और सीधे छः लाख की सीटीसी से चौदह की सीटीसी पर आ गया।

जवान लोगों के लिए इससे बड़ा उत्तेजक नशा दूसरा नहीं होता — खट से आता है, फ़लाने ने चेंज़ मार दिया है। और ऐसा लगता है कि मार ही दिया, मरा हुआ चेंज़ तड़प रहा है बिलकुल। और वहाँ तुम बोलो, ‘नहीं, अब मैं कोई सार्थक काम करने जा रहा हूँ’, तो ये सब जितने चेंज़मारू हैं, ये तुमको ऐसे अजीब-अजीब तरीक़े से देखते हैं, 'हो! हो! शेम-शेम ! पोटी शेम!’ तुम्हें लगता है कि ये क्या हो गया! इतना भी कुछ नहीं है।

प्र: इसी में थोड़ा सा पर्सनल सवाल है। मैं थोड़ा ज़्यादा पर्सनल हो गया।

आचार्य तुम्हें अपोलोजिस्टिक (क्षमाप्रार्थी) होने की ज़रूरत नहीं है, तुम खुलकर पूछ सकते हो।

प्र: सर, पैसे थोड़े कम ही आते हैं सही काम में। अब हम अगर यूट्यूब पर एक वीडियो बनाते हैं तो उसमें बहुत सारा पैसा लगता है, प्रमोशन में लगता है, और चीज़ों में, जब किसी भी सही चीज़ को हम सामने लाते हैं।

तो कुछ ऐसे लोग हैं जो यूट्यूब कर रहे हैं लेकिन वो बिलकुल ही कुछ बकवास बनाते हैं और वो बहुत चलता है। तो एक वहाँ पर चीज़ आयी कि भई, अगर अपने पर्सनल मज़े नहीं मारने हैं — मुझे शौक नहीं है अगर इन सब चीज़ों में — मुझे मेरे काम से मतलब है, जो करना चाहते हैं जीवन में। तो जैसे कि ये चैनल्स हैं, इनको आप कुछ समय के लिए बना लो, कुछ समय की मेहनत करो फिर ऑटोमोशन (स्वचालन) में चलते रहेंगे, आपको पैसा आता रहेगा। जो पैसा आये, वो आप निवेश कर लो।

आचार्य: शुरू करने के लिए कर सकते हो ऐसा, पर इस पर रुक नहीं सकते।

प्र: नहीं, नहीं, बिलकुल भी नहीं रुकना, सर।

आचार्य: अगर इतनी ईमानदारी है कि ये काम सिर्फ़ शुरू करने के लिए किया जा रहा है, ये मेरी इंडलजेन्स (आसक्ति) नहीं है, ये मेरी विधि है, मेरा मेथड है, तो ठीक है। इन दोनों में अन्तर समझते हो न?

प्र: हाँ, जी।

आचार्य: एक होता है कि मैं एक मिश्रित, मिलावटी, एडल्टरेटेड काम इसलिए कर रहा हूँ, क्योंकि उसमें मेरा स्वार्थ है और एक दूसरी चीज़ होती है कि वो काम मैं इसलिए कर रहा हूँ, क्योंकि वो मेरी रणनीति है, कि अभी शुरुआत ऐसे करूँगा, फिर कुछ और करूँगा।

तो अगर रणनीति के तौर पर कर रहे हो, स्वार्थ के तौर पर नहीं, तो ऐसे शुरू कर लो। पर फिर रणनीति, रणनीति होनी चाहिए। ये नहीं होना चाहिए कि दस साल तक वो तुम उस मेथड के, उस विधि के पहले ही पायदान पर अटके हुए हो।

प्र: छः-आठ महीने अधिकतम?

आचार्य: हाँ, बस ठीक है, छः-आठ महीने।

प्र२: सर, मतलब आपके कहने का मतलब है कि सही काम है तो उसके लिए जो जुगाड़ लगे, वो कर लो?

(श्रोतागण हँसते हुए)

आचार्य: मैंने एक शब्द इस्तेमाल किया था ‘ईमानदारी’ (मुस्कुराते हुए)।

प्र२: मतलब वही, ईमानदारी से जो जुगाड़ लगे, वैसा ही काम करना है। तो दम लगा दो पूरा, ऐसा बोला आपने?

आचार्य: तुम्हारे शब्द सही हैं, पर तुम्हारा चेहरा अभी सही नहीं है।

(सभी हँसते हैं)

कहा तो मैंने बिलकुल वही है जो तुम कह रहे हो, पर वहाँ से नहीं कहा है जहाँ से तुम कह रहे हो।

प्र२: सर, मैं भी आपसे कम ही जानता हूँ, आप ज़्यादा ही जानते हैं।

आचार्य: ये बताने की बात तो है नहीं (मुस्कुराते हुए) — ईमानदारी! इसका फ़ैसला सिर्फ़ तुम कर सकते हो। कि अगर शुरुआत में तुम कोई मिश्रित काम कर रहे हो जिसमें कुछ मिलावट है, तो वो मिलावट तुम्हारी स्ट्रैटेजी (रणनीति) है या तुम्हारी डिसऑनेस्टी (बेईमानी), ये सिर्फ़ तुम तय कर सकते हो।

अगर तर्क देने पर उतरोगे, तो तर्क देकर के तुम मुझको या किसी और को बिलकुल समझा सकते हो कि तुम जो मिलावट कर रहे हो, वो तुम्हारी बेईमानी नहीं है, तुम्हारी रणनीति है। पर सिर्फ़ तुम्हारा दिल जानेगा कि तुमने क्या खेला है। ठीक है? तो तुम्हें ही तय करना है।

प्र२: अन्त में मुझे पता चल ही जाएगा?

आचार्य: शुरू से पता होता है, अन्त में क्या पता चलेगा। अन्त में पता नहीं चलता, अन्त में कर्मफल पड़ता है, डंडा। शुरू से ही पता होता है कि तुम कहीं अपनेआप को ही धोखा तो नहीं दे रहे। शुरू से ही पता होता है।

प्र२: धन्यवाद आचार्य जी।

आचार्य: एक लक्षण होता है जिससे पकड़ सकते हो। अगर मिलावट सिर्फ़ तुम एक विधि के तौर पर कर रहे हो, तो प्रतिपल उस मिलावट से तुमको एक कोफ़्त रहेगी, तुम उसका सुख नहीं भोग पाओगे। तुम लगातार अपनेआप को बताते रहोगे कि ये जो मिलावट मैंने करी है, इसको जल्दी-से-जल्दी ख़त्म करना है, क्योंकि मिलावट मुझे बहुत दुख, पीड़ा, लज्जा दे रही है।

तीन साल मैंने कॉर्पोरेट में काम करा था, तो मैं जानता हूँ कि जब आप कोई ऐसा काम कर रहे होते हो, जिसमें आपका मन नहीं है, तो आपके मन की क्या दशा होती है और होनी चाहिए। मुझे लगातार घड़ी दिखाई देती रहती थी। मैं कॉर्पोरेट सैलरी से मज़े नहीं मार पाता था। मुझे लगातार ये एहसास रहता था कि जल्दी-से-जल्दी, जल्दी-से-जल्दी बाहर निकलना है, कुछ और है जो प्रतीक्षा कर रहा है।

तो अगर आपने सिर्फ़ एक विधि के तौर पर एक मिलावटी शुरुआत करी है तो उसका प्रमाण ये होगा, आपकी ईमानदारी का प्रमाण ये होगा कि आपको लगातार एक दर्द बना रहेगा। वो दर्द ही बताएगा कि आप ईमानदार आदमी हो। और आप एक मिलावटी विधि में मज़े मारना शुरू कर दो, तुम्हें पता चलेगा कि तुम्हारा उद्देश्य ही था मज़े मारना।

प्र३: प्रणाम आचार्य जी। वैसे तो थोड़ा स्पष्ट हो चुका है, लेकिन फिर भी करना चाहूँगी कि जैसे जिस इंस्टीट्यूशन में काम कर रहे हो और आप करप्टेड (भ्रष्ट) नहीं होना चाहते। तो अगर आप नहीं भी कर रहे हो करप्शन (भ्रष्टाचार) तो आप उसको रोक नहीं सकते, अगर लोग करेंगे। और वो तो उस पैसे का मिस यूज (दुरुपयोग) ही करेंगे। तो अगर हम करके उसको सही डायरेक्शन (दिशा) में लगायें उस पैसे को, क्योंकि वो रुक तब भी नहीं रहा है।

आचार्य: देखो, अपने-अपने तल पर हर व्यक्ति संघर्ष करता है और चुनाव करता है कि किस तल पर संघर्ष करना है। आप एक साधारण सी सरकारी नौकरी में एक जगह पर नियुक्त हों, वहाँ आप कह दो कि भई, मैं अपने विभाग के भ्रष्टाचार को तो कम नहीं कर सकती, लेकिन कम-से-कम जो पैसा मेरे हाथ में है, उसमें घपला नहीं होने दूँगी। ठीक है, आपने कुछ तो करा। दूसरे लोग होंगे, जिनकी अभीप्सा भ्रष्टाचार से और गहराई से लड़ने की होगी। वो किन्हीं और तरीक़ों को अख़्तियार करेंगे। कोई और होगा जो कहेगा, ‘नहीं, मुझे भ्रष्टाचार को एकदम ही मूल से उखाड़ना है’, वो फिर और कोई तरीक़ा लेगा।

तो ये चयन आपको करना पड़ता है कि आप किस तल पर गन्दगी से बचना चाहते हो और अगर आप ये कहो कि मैं एक अपने बहुत छोटे से ही तल पर गन्दगी से बचना चाहता हूँ, तो वो चीज़ अपनेआप में गन्दगी है।

बात समझ रहे हो?

वो फिर ऐसी सी बात है कि रहना तो मुझे कसाइयों के साथ ही है, पर मेरे घर में प्याज नहीं आती। ठीक है, कुछ अन्तर पड़ जाएगा। हो सकता है आप नहीं खायें तो एकाध मुर्गे, एकाध बकरे की जान बच जाए। लेकिन कसाईवाड़े का व्यापार तो जैसा चलता है वैसा चलता ही रहेगा।

समझ में आ रही है बात?

तो मैं ये भी नहीं कह सकता कि आपने कुछ नहीं करा। शायद आपने दो-चार मुर्गों की, दो-चार बकरों की जान बचा दी। लेकिन मैं ये भी नहीं कह सकता कि आपने कुछ सार्थक करा। आप वहाँ बैठे हुए हैं और आपके चारों ओर क़त्लख़ाने में खून वैसे ही बह रहा है, तो आपने क्या करके दिखा दिया?

तो अब हर व्यक्ति को ये चुनना पड़ेगा कि अगर उसको अन्धेरे और भ्रष्टाचार से लड़ना है तो किस तल पर लड़ना है। ज़्यादातर लोग तो परेशान ही नहीं होते ऐसा कोई चुनाव करने के लिए। वो कहते हैं, ‘हमें लड़ना ही नहीं है, हम तो क़त्लख़ाने में शामिल हैं, लड़ाई कौनसी!’

लेकिन जो लोग साफ़-सुथरा जीवन जीना चाहते हैं, मैं उनसे बात कर रहा हूँ। मैं कह रहा हूँ, ये जो व्यक्तिगत शुचिता का सिद्धान्त रहा है भारत में, इसने हमारा नुक़सान ही करा है।

व्यक्तिगत शुचिता समझते हो? सड़क गन्दी पड़ी है, घर बहुत साफ़ है। भारत में यही चलता है न। पूरा मोहल्ला गन्दा पड़ा है, घर बिलकुल पाक-साफ़ है। वहाँ बिलकुल सफ़ाई-वफ़ाई कर दी, मक्खी नहीं बैठने देंगे, गंगाजल छिड़केंगे, और घर के ठीक बाहर कूड़े का ढेर है। ठीक है, घर के अन्दर सफ़ाई है, ये बात बुरी तो नहीं है, अच्छी बात है। लेकिन ये बात मुझे नहीं जँचती। घर भी गन्दा कर लो, उससे अच्छा है कि घर साफ़ है। लेकिन सिर्फ़ अपना घर साफ़ करके क्या मिल जाएगा।

जवाब नहीं मिला होगा, पर इससे ज़्यादा साफ़ कोई जवाब नहीं हो सकता।

प्र३: धन्यवाद आचार्य जी।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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