किस बात पर ध्यान देता है मन? || आचार्य प्रशांत (2020)

Acharya Prashant

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किस बात पर ध्यान देता है मन? || आचार्य प्रशांत (2020)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। सवाल ये है कि मन हर चीज़ को अंकित क्यों करता है, कि किसी ने किस नज़र से देखा, क्यों हँसा, क्यों आवाज़ हुई। कहीं तो मन में भी कुछ हो जाता है।

आचार्य प्रशांत: हर चीज़ को नहीं अंकित करता मन। इतनी सामर्थ्य ही नहीं मन की कि हर घटना, हर संवेग उस पर चिन्हित हो जाएँ। मन अहम् का ग़ुलाम होता है। अहम् ने जो अपना नाम रखा होता है, अहम् ने जो अपनी पहचान तय करी होती है, मन उसके अनुसार काम करता है। तुमने जो कुछ भी अपना नाम-पता अपनेआप को बता रखा है, उसी के अनुसार घटनाएँ और प्रभाव तुम्हारे मन पर अंकित होते हैं; सबकुछ नहीं मन पर आता।

इस जगह का ही उदाहरण ले लो, अभी बहुत कुछ है जो हो रहा है। तुम अगर ध्यान ही देना चाहो, तो यहाँ इतने लोग बैठे हैं, किसी पर भी ध्यान दे सकते हो। दीवारें हैं, उपकरण हैं, रोशनियाँ हैं, खिड़कियाँ हैं, दरवाज़े हैं, फ़र्श है, छत है; कितनी चीज़ें हैं न जो मन पर अंकित हो सकती हैं? वो अंकित हो रही हैं क्या? नहीं हो रहीं न? इसलिए क्योंकि इस समय अहम् का नाम क्या है? 'मैं जिज्ञासु हूँ।' अहम् ने अपना अभी क्या नाम रखा हुआ है? 'मैं जिज्ञासु हूँ। सवाल किया है मैंने, मैं सवाली हूँ।‘

ठीक है न?

अगर जिज्ञासु हो तुम, तो इस समय मन पर क्या अंकित होगा? जवाब। इसलिए मन पर अभी बाकी चीज़ें ज़रा भी रंग नहीं छोड़ रहीं, असर नहीं छोड़ रहीं। जो तुम्हारा नाम होता है, उसके अनुसार मन दुनिया से प्रभाव वगैरह ग्रहण करने लगता है, और मन दुनिया से जो कुछ ले रहा होता है, मन के अनुसार बस दुनिया वैसी ही होती है।

इस समय मैं तुमसे पूछूँ कि तुम्हारा संसार कैसा है, तो क्या तुम कहोगे कि दो खिड़कियों के बीच में दरवाज़ा है या इस समय यहाँ पर इतने लोग मौजूद हैं? मैं इस वक़्त पूछूँ कि तुम्हारा संसार कैसा है, तो तुम कहोगे, ‘मैं जो बातचीत कर रहा हूँ, वैसा ही है मेरा संसार। मेरे संसार में एक ही चीज़ है। ये जो भी बातचीत की घटना घट रही है, इसके अलावा कुछ और है ही क्या इस दुनिया में!’

देख लो, तुम्हारी पहचान ने, तुम्हारे नाम ने तय कर दिया कि तुम्हारी दुनिया कैसी होगी, क्योंकि तुम्हारी पहचान तय कर देती है कि तुम दुनिया से क्या ग्रहण कर रहे हो। जो तुम ले रहे हो दुनिया से, दुनिया बस उतनी ही है। जितनी तुम्हें दिखाई दे रही है दुनिया, दुनिया उससे ज़्यादा कुछ है ही नहीं तुम्हारे लिए। तो अलग-अलग लोगों के संसार इसलिए अलग-अलग होते हैं क्योंकि अलग-अलग लोगों ने अपने नाम-पते अलग-अलग तय कर रखे होते हैं।

आ रही है बात समझ में?

तुम कुछ और हो जाओ, तुम्हारी दुनिया अलग हो जाएगी। तुम कुछ और हो जाओ, तुम्हें कुछ अलग ही दिखाई देने लगेगा। ठीक उसी जगह खड़े होओगे जहाँ थोड़ी देर पहले खड़े थे, और तुम पाओगे कि जो कुछ तुम देख रहे हो, सुन रहे हो, वो सर्वथा भिन्न हो गया है।

एक चौराहे पर खड़े हो जाओ बेटा बनकर, तुम्हें कुछ दिखाई देगा; उसी चौराहे पर खड़े हो जाओ छात्र बनकर, तुम्हें कुछ और दिखाई देगा; उसी चौराहे पर खड़े हो जाओ लफंगे बनकर, तुम्हें बिलकुल कुछ और दिखाई देगा। खड़े तुम ठीक उसी चौराहे पर हो, वही समय है, वही शरीर है, वही यातायात है, वही आते-जाते लोग हैं, लेकिन मन को जो दिख रहा होगा वो पूरी तरह बदल जाएगा; क्योंकि तुम कुछ और हो गए न!

जो तुम्हारा नाम है, वैसा ही तुम्हारा संसार है; नाम क्या है तुम्हारा?

अगर तुम कह रहे हो कि मन बहुत सारी चीज़ों को अंकित कर लेता है अपने ऊपर, तो इसका सम्बन्ध भी तुम्हारे नाम से ही है। अगर हमने कहा कि जैसा मन होगा वैसा ही मन का माहौल होगा, हमने कहा कि जो अहम् का नाम होगा उसी के मुताबिक मन की सामग्री होगी, तो हम उल्टा भी देख सकते हैं न? अगर हम ये देख लें कि मन की सामग्री क्या है, तो इससे हमें ये भी पता चल जाएगा कि हमारा नाम क्या है। कर सकते हैं न ऐसा?

तो अगर तुम कह रहे हो कि तुम्हारे मन में अनाप-शनाप सामग्री सेंध लगाती रहती है — जैसा कि तुमने कहा कि कोई भी चीज़ होती है, मन पर छाप छोड़ जाती है — तो अगर तुम्हारे मन में अनाप-शनाप सामग्री सेंध लगाती रहती है, तो तुम्हारा नाम क्या हुआ? ‘अनाप-शनाप।‘ क्योंकि तुम्हारे नाम के अनुसार ही काम हो रहा है। क्या नाम हुआ तुम्हारा?

प्र: ‘अनाप-शनाप।‘

आचार्य: तुम्हारा नाम हुआ — 'मैं वो हूँ जिसकी बड़ी रुचि है व्यर्थ की चीज़ें इकट्ठा करने में, कबाड़ी।'

कबाड़ियों के ठेले में तुम्हें क्या चीज़ें दिखाई देती हैं?

प्र: कबाड़।

आचार्य: तो मन अगर कबाड़ के ठेले जैसा पड़ा हुआ है, तो तुम अपना नाम भी ख़ुद ही जान लो। और वो नाम, याद रखना, वो नाम तुमने ख़ुद को दिया है, किसी और ने तुम्हें नहीं दिया है।

बिलकुल ये तुम्हारी स्वतंत्रता की बात होती है कि तुम अपना क्या नाम रखना चाहते हो। अभी हमने कहा न, एक चौराहे पर तुम खड़े हो सकते हो बेटा बनकर भी, दोस्त बनकर भी, छात्र बनकर भी और आशिक़ बनकर भी; बिलकुल जो तुम्हें दृश्य दिखाई दे रहा होगा, जो बातें सुनाई दे रही होंगी, वो अलग-अलग हो जाएँगी। तुम्हारे हाथ में है कि तुम क्या बनकर दुनिया में खड़े रहना चाहते हो। तुम जो बनकर दुनिया में खड़े होना चाहते हो, तुम्हारी दुनिया तुम्हारे लिए वैसी ही खड़ी हो जाएगी।

तो दुनिया कोई वस्तुगत चीज़ नहीं होती, कोई ऑब्जेक्टिव चीज़ नहीं होती है; भौतिक तौर पर होती है, मानसिक तौर पर नहीं होती। (काग़ज़ की ओर इशारा करते हुए) भौतिक तौर पर सबके लिए, हम सबके लिए ये सिर्फ़ काग़ज़ है, है न? मानसिक तौर पर इस काग़ज़ के अर्थ हम सबके लिए बहुत अलग-अलग हैं, बहुत अलग-अलग हैं।

तो दुनिया मानसिक तौर पर हमारे लिए बिलकुल वैसी ही होती है जैसा हमने अपनेआप को नाम दिया है; तुम क्या नाम दे रहे हो अपनेआप को? बेकार चीज़ें तुम्हारे पास आ रही हैं, तो तुमने कोई बेकार का नाम दे दिया होगा ख़ुद को। नाम बदल दो; इधर-उधर के, व्यर्थ के, फुटकर प्रभाव मन पर छपना बिलकुल बन्द हो जाएँगे।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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