किन लोगों को आदर्श बना लिया? || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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किन लोगों को आदर्श बना लिया? || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। जिज्ञासा यह है कि अगर जीवन का असली लक्ष्य भगवान ओशो, भगवान बुद्ध, कृष्णमूर्ति, स्वामी विवेकानंद की तरह परमात्म सत्य को पाना है, तो जो महापुरूष समाज में हुए जैसे— शिवाजी, महाराणा प्रताप, बाबासाहेब अम्बेडकर, अब्दुल कलाम इत्यादि, इनके जीवन का क्या सार है? मैंने ओशो को कहते सुना कि ये जो तुम्हारे तथाकथित महापुरूष हैं, जो हाथ में तलवार लिए हुए खड़े है, जिनके पुतले तुम पूजते हो, इन्होंने कुछ नहीं बस अपने अंहकार को ही पूरे जीवन में विस्तार दिया है। अगर ऐसा है आचार्य जी, तो क्या किसी क्रूर शासक के ख़िलाफ़ साम्राज्य खड़ा करना, यह भी अंहकार ही हैं?

आचार्यः देखो, पहली बात तो जो तुमने छवि बनायी है पहली कोटि के नामों की उस छवि को थोड़ा ठीक करो, ध्यान दो क्या छवि बना रहे हो। तुमने दो कोटि के नाम लिए हैं, एक तुमने कोटि बना दी है, संतो-महापुरूषों की और दूसरी तुमने बना दी है, योद्धाओं की राजाओं की और समाज द्वारा सम्मानित वैज्ञानिकों इत्यादियों की।

पहली कोटि के लोगों के लिए तुमने कहा है कि ये तो सत्य को जानने वाले लोग थे, इत्यादि, इत्यादि। सत्य को जानने वाला कोई नहीं होता। हाँ, कुछ लोग होते हैं जो ये फ़ैसला करते है कि उन्हें झूठ में नहीं जीना। हमारा यथार्थ, हमारा ज़मीनी यथार्थ झूठ हैं। तो हमारा जो भी कर्म होगा;वो भी झूठ के ही समर्थन में; या झूठ के ख़िलाफ़ होगा।

सत्य तो आसमानों का हैं उसकी हमको क्या ख़बर। हम ये ज़रूर कर सकते हैं कि हमे अपने भीतर और आस-पास जो झूठ दिख रहा हो, हम उसके अस्वीकार में खड़े हो जाए। तो तुमने पहली कोटि में जिन लोगों का नाम लिया है वो, वो थे जिन्हें झूठ का अस्वीकार करना था।

अब आते हैं दूसरी कोटि के लोगों पर, ये वो लोग हैं जिन्होंने समाज में कुछ ऐसे काम किये जिसका लाखों लोगों पर असर पड़ा। कोई राजा बना, किसी ने युद्ध लड़े इत्यादि, इत्यादि। युद्ध दो वजहों से लड़े जा सकते हैं: एक तो सत्य की रक्षा के लिए और दूसरा अहम् के विस्तार के लिए। और दिखने में तो दोनों युद्ध दूर से एक जैसे ही लगेंगे। गोलियाँ चल रही हैं, जहाज बम बरसा रहे हैं, या तलवारें लड़ रही हैं।

जो लोग लड़े हैं उनके जीवन को बहुत ग़ौर से देखना होगा और ये जानना होगा कि वो किसी सच्चाई के लिए लड़ रहे थे या अपने अंहकार के लिए ही। तीन तल हैं जिन पर लड़ाई होती हैं: पहला तल है, वस्तुओं का। आदमी इस तल पर लड़ लेता है; सोना चाहिए, चाँदी चाहिए, ज़मीन जीतनी है;तो दो राजा लड़ गये आपस में— ये तल जानवरों का है। जानवर भी चीज़ों के लिए आपस में लड़ जाते हैं।

दूसरा जो तल होता है, वो विचारों का आदर्शों का होता है। आइडियल्स (आदर्शों) का होता है— उस पर भी लड़ाईयाँ होती हैं। वहाँ पर ये होता है कि मेरा मज़हब, तेरे मज़हब से श्रेष्ठ है, दो लोग लड़ गये आपस में। या मैं साम्यवादी हूँ, तू पूँजीवादी है, दो देश लड़ गये आपस में।

और जो तीसरा तल होता है, वो सत्य का होता है। वहाँ पर भी लड़ाईयाँ होती है। वहाँ पर भी खूब हुई हैं, वहाँ पर भी सेनाएँ लड़ी हैं। तलवारें चली हैं और कई बार तलवारें नहीं चली हैं, तो भी घनघोर संघर्ष रहा है; आंतरिक संघर्ष रहा है। इन तीनों में से सम्मान के क़ाबिल कौन है योद्धा, ये तुम्हें समझ में आना चाहिए।

क्योंकि दूर से देखोगे, तो जैसा मैंने कहा, 'लगेगा यही की एक ही जैसी तो लड़ाई हो रही है।' जबकि वो लड़ाई दिखे एक जैसी भले पर हो तीन भिन्न-भिन्न तलों की सकती है। दो सेनाएँ आपस में लड़ गयीं क्योंकि दोनों, किसी तीसरे देश पर कब्ज़ा करना चाहती थी। जो दो विश्व-युद्ध हुए हैं, उनमें एक बड़ा कारण ये भी था। उपनिवेश थे, कॉलोनीज़ (उपनिवेश), उनका दोहन और शोषण कौन करेगा? ब्रिटेन करे ले रहा था, जर्मनी ने कहा, 'हम काहे को पीछे रहे?' बहुत कारण थे पर ये भी एक कारण था। भारत की दौलत जब लुटनी ही हैं तो जापान ने कहा कि अंग्रेज़ ही काहे को लूटेंगे हम भी तो लूट सकते हैं न, भारत को। जापानियों ने कहा कि हम पूरब की दिशा से घुसेंगे भारत में। अंग्रेज़ आये थे पश्चिम की दिशा से।

तो अब अंग्रेज़ और जापानी लड़े हुए हैं और उस लड़ाई को लेकर के भी सूरमायीं की बड़ी कहानियाँ हैं। कोहिमा में ये लड़ाई हो रही है, बर्मा में ये लड़ाई हो रही है, इम्फाल में ये लड़ाई हो रही है;है न, खूब लड़ाईयाँ। लेकिन वो जो पूरी लड़ाई है; वो सबसे निचले तल की हैं। अंग्रेज़ो का क्या उद्देश्य था कि भारत पर हम ही राज करेंगे क्योंकि भारत को हमें लूटना हैं।

और जापानी कहाँ से घूसे आ रहे थे? पूरब से। जापानी बोले, 'अरे! भारत को लूटने पर बस अंग्रेज़ों का ही हक़ हैं, हम भी तो लूट सकते हैं भारत को।' तो जापानी और अंग्रेज़ भिड़ गये। जापानी और अंग्रेज़ भिड़ गये हैं। और बहुत सारे लोग जो युद्धों के इतिहास के बड़े शौकिन हैं, बड़े विद्वान हैं, वो अंग्रेज़ों और जापानियों के भी युद्धों की बड़ी सुनहरी और गौरवशाली गाथायें बताते हैं:

'एक लड़ाई हुई थी उसको कहते थे, ‘टेनिस कोर्ट’ की लड़ाई। जहाँ पर अंग्रेज़ो और जापानियों के बीच में उतनी ही दूरी थी, जितनी एक टेनिस कोर्ट की लंबाई होती है। वो टेनिस कोर्ट ही था। उसके एक तरफ़ बैठे हुए थे जापानी और दूसरी तरफ़ बैठे हुए थे अंग्रेज़ों ने अपनी खंदके बना ली थी। और जापानी हथगोले फ़ेकते जा रहे है, फ़ेकते जा रहे हैं और अंग्रेज़ डटे हुए है, हट नहीं रहे हैं बिलकुल।' फिल्में बन जाती हैं, ‘द ब्रिज ऑन रिवर क्वाई’ और ये सब जब गौरवमयी शौर्य हमारे सामने झिलमिला रहा होता है, हमें प्रभावित कर रहा होता है, तो हम ये सवाल पूछना बिलकुल भूल जाते है कि ये लड़ाई हो किस आधार पर रही थी? ये जो आप शौर्य के इतने सुनहरे किस्सें हमको बता रहे हैं इस शौर्य के पीछे उद्देश्य क्या था भाई?

उद्देश्य ये था कि भारत की अपनी तो कोई सेना थी नहीं। भारत तो ऐसे, जैसे की अबला नारी। लूटे ले रहे थे उसे अंग्रेज़, जापानियों को भी लार आ गयी। बोले, ‘तू अकेले-अकेले लूटेगा इसको, हमें भी लूटना हैं।‘ अब ये दो लूटेरे आपस में लड़ रहे हैं और आज भी कई भारतवासी हैं, जो अंग्रेजों के शौर्य की बड़ी दाद देते है, कहते हैं, 'वाह! क्या लड़े थे वो जापानियों से!' क्यों भूल जाते हो कि बात क्या थी?

इसी तरीक़े से जिन राजाओं का आपने नाम लिया अपने प्रश्न में, देखिए कि वो किस तल के लड़ाका थे? किस लक्ष्य के लिए लड़ रहे थे, उद्देश्य क्या था उनका? ज़मीन के लिए लड़ रहे थे? ज़मीन के लिए लड़ रहे थे, तो जानवरों से बेहतर नहीं है। आदर्शों के लिए लड़ रहे थे, तो जानवरों से थोड़ा बेहतर हुए। और अगर सच के लिए लड़ रहे थे, तो फिर इंसान हुए, मानव हुए बल्कि अतिमानव हुए।

तो लड़ने भर में गौरव मत मान लेना। लड़ने भर में शूरता नहीं हैं। किस बात पर लड़ रहे हो। घटिया उद्देश्य के लिए लड़ते हुए तुम अगर जान भी दे दो, तो दे दो जान, तुम्हारी जान कोई क़ीमत की नहीं, बेकार, घटिया। बहुत लोग रोज़ मरते हैं, तुम भी मर गये, तो? अपनेआप को बहुत बड़ा शहीद मत मान लेना। अपनेआप को बहुत गर्व से मत देखने लग जाना। क्योंकि जिस उद्देश्य के लिए तुमने जान दी है वो उद्देश्य ही घटिया है।

और जो पहले तल की, उच्चतम तल की लड़ाई होती है, सच के लिए उसमें बहुत बार तलवारें नहीं चलती। क्योंकि जो सच का सूरमा होता है, ‘वो अधिकांशतः तलवार उठाता नहीं। तलवार उठाने से उसे कोई परहेज़ नहीं है। बहुत बार उसने तलवार उठायी भी है, लेकिन आवश्यक नहीं है कि वो तलवार उठाये।‘ वो कई तरीक़ो से युद्ध करता है। लेकिन हमारी तो युद्ध की परिभाषा ही यही है कि जब कोई जान लेने-देने पर उतारू हो जाए, गोलियाँ वगैरह चला दे तो ही युद्ध हैं। युद्ध के मैदान पर ख़ून बहे, तो हम कहते हैं, ’वाह! क्या शौर्य है!’ और ‘क्रॉस’ पर जीसस का ख़ून बहे, तो उसमें हमे शौर्य नहीं दिखायी देता। लड़ाई हिटलर और चर्चिल और स्टालिन और मुसोलिनी ने भी करी थी और लड़ाई सिख गुरूओं ने भी करी थी।

लड़ाई-लड़ाई में अन्तर होता है। गुरू गोबिंद सिंह लड़े या गुरू तेग बहादुर साहब लड़े तो एक बात हैं। और चर्चिल और हिटलर लड़ रहे हैं, तो वो वही बात नहीं हैं। देखना पड़ेगा कि अगर गुरू लोग लड़े थे, तो धर्म की रक्षा के लिए लड़े थे। और हिटलर और स्टालिन भिड़ गये थे, तो ज़मीन के लिए। सब लड़ाईयाँ एक सी नहीं होती हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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