खुफ़िया अनुभव, जो सिर्फ़ खास लोगों को होते हैं || आचार्य प्रशांत (2021)

Acharya Prashant

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खुफ़िया अनुभव, जो सिर्फ़ खास लोगों को होते हैं || आचार्य प्रशांत (2021)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जो अनुभव आपको नहीं हैं, वो किसी और को कैसे हो सकते हैं, ये कहीं ऐसा तो नहीं, आपका कोई पूर्वाग्रह है?

आचार्य प्रशांत: नहीं, क्या है? खोलकर बताओ बात, क्या कह रहे हैं? किसका अनुभव? एनलाइटनमेंट का?

प्र: आचार्य जी, अगर एनलाइटनमेंट नहीं होता है, कोई ऐसी घटना नहीं घटती है, तो जितने भी सन्त-महात्मा महापुरुष इत्यादि रहे हैं, सबने कुछ-न-कुछ कहानी क्यों गढ़ी? तो लॉजिकली (तार्किक रूप से) क्या इस पॉसिबिलिटी (सम्भावना) को शत-प्रतिशत नकारा जा सकता है कि आपके निजी जीवन में या अनुभव क्षेत्र में एनलाइटनमेंट जैसा कुछ नहीं है। इसीलिए वो फंडामेंटली (मूल से ही) इस बात को नकार रहे हैं?

आचार्य प्रशांत: बात ये नहीं है कि किसी को अनुभव हुआ, किसी को अनुभव नहीं हुआ। बात ये है कि क्या हम समझते भी हैं कि अनुभोक्ता एक्सपीरियंसर कौन है? एक बार आप ये समझ लोगे कि एक्सपीरियंसर कौन है, फिर आपके दिमाग से ये बात उतर जाएगी कि एक्सपीरियंस किसी पार की वस्तु का हो सकता है।

ये जो अनुभोक्ता है न जो अनुभव करता है, ये कौन है आपके भीतर? कौन है जो अनुभव कर रहा है?

श्रोता: मैं।

आचार्य: हाँ, वो कौन है और ज़रा खुलकर समझो तो। जो एक्सपीरियंसर है न, वो अनुभव करता है हमेशा किसी ऐसी ही चीज़ का जो दुनिया की है। जो थ्री डाइमेंशनल है, त्रिआयामी। जिसके बारे में कुछ कहा जा सकता है, जिसके बारे में कुछ सोचा जा सकता है।

और वो हमेशा एक ‘चीज़’ होगी, चीज़ से मेरा अर्थ है, एक्सपीरियंसर से अलग कोई चीज़। ठीक है? ये एक्सपीरियंसर है हमारा। अब अगर कोई कहता है कि उसने एनलाइटनमेंट का अनुभव करा है, मैं इनकार नहीं करता कि अनुभव हुआ होगा।

जो मैं कहता हूँ वो आप शायद ठीक से समझ नहीं पा रहे हैं। मैं इनकार नहीं कर रहा कि कुछ अनुभव हुआ होगा। ऐसा हो सकता है कुछ अनुभव हुआ हो, लेकिन जो भी अनुभव हुआ है, वो तो सांसारिक ही होगा, लौकिक ही होगा। क्योंकि आपका जो एक्सपीरियंसर है वो किसी और चीज़ को अनुभव करने के लिए कन्फ़िगर्ड (संस्कारित) ही नहीं है।

हमारा जो अनुभोक्ता है, वो हमारे मस्तिष्क से एकदम गुथा हुआ है। अगर आपके मस्तिष्क पर चोट कर दी जाए हथौड़े की, आपके सारे अनुभव एकदम गायब हो जाते हैं। एक ज़ोरदार अनुभव होता है और उसके बाद कोई अनुभव नहीं होता। ऐसा ही है न?

तो ये जो मस्तिष्क है मटीरियल , पदार्थ; इससे उठने वाला जो एक्सपीरियंसर है वो भी सिर्फ़-और-सिर्फ़ पदार्थ का ही अनुभव कर सकता है, मटीरियल का ही अनुभव कर सकता है। तो आपको जो भी अनुभव हुआ है वो एक मटीरियल अनुभव है। आप उसको पैरामटीरियल (पदार्थ से आगे का) क्यों कह रहे हैं? आप उसको ट्रांसेंडेंटल (पारलौकिक) क्यों कह रहे हैं?

बिलकुल हो सकता है कि आपको कोई मूर्ति दिखायी दे गयी हो, आपने ऑंख बन्द की हो; ऐसे हवा में कुछ तैर गया हो। आपके कानों में घंटियॉं बज गयी हों, आपको कुछ भी लगने लगा हो, ऐसा लगने लगा हो कि मैं ज़मीन से ऊपर उठ गया या मैं शरीर छोड़कर बाहर आ गया।

या कि सब रंग मिट गये हैं, सिर्फ़ एक रंग का आकाश है या कुछ विशेष ध्वनियाँ आपको सुनायी देने लग गयीं। बिलकुल हो सकता है ऐसा अनुभव हुआ हो। लेकिन अनुभव तो सब अनुभव होते हैं।

सब अनुभवों के केन्द्र में आप ही तो अनुभोक्ता हैं, आप ही तो बैठे हुए हैं। आप तो बचे ही रह गये न अनुभव लेने के लिए? तो ये कोई बहुत बड़ी बात नहीं है, इसमें कुछ विशेष नहीं हो गया। और इससे इतना और पता चलता है कि अभी जो वो अनुभवों का प्यासा अनुभोक्ता था, एक्सपीरियंसर था, वो एकदम शेष था, बचा ही हुआ था।

चूँकि वो अनुभवों का प्यासा होता है, तभी तो हम बार-बार कहते है न कि अहंकार की प्यास मिटाये नहीं मिटती। वो जीवन भर तरह-तरह के अनुभव लेता रहता है। वो कभी कहता है मॉरिशस घूम आते हैं। कभी कहता है फ़लाने व्यंजन का अनुभव ले लें। कभी वो कहता है सेक्स का अनुभव ले लें। कभी उसे पैसे का अनुभव चाहिए। कभी बहुत बड़ी शानदार गाड़ी का अनुभव चाहिए।

वो अनुभव के लिए ही तो बिलकुल मरा रहता है न, व्याकुल रहता है। अब अपने अनुभवों की श्रृंखला में उसने एक और ख़ास दिव्य अनुभव जोड़ लिया कि घंटियॉं बजने लग गयीं, बारिश होने लग गयी, एक गूॅंज सुनायी देने लग गयी, कुछ और होने लग गया, शरीर हल्का प्रतीत होने लग गया।

उसने एक और अनुभव जोड़ लिया। ये अनुभव जोड़कर के वो यही कर रहा है न कि जो उसकी अपनी दशा है, उस दशा को ही क़ायम रख रहा है, उस दशा के ही फलस्वरूप को इस तरह की बातें कर रहा है। तो अनुभोक्ता तो बचा ही हुआ है। इसमें विशेष क्या हो गया? समझ रहे हैं?

तो बिलकुल ऐसा हो सकता है कि आपका मन साफ़ होने लग जाए, आपकी दशा बदलने लगे तो आपको कुछ अलग और विचित्र तरह के अनुभव होने शुरू हो जाऍं, बिलकुल हो सकते हैं। आपको लगने लगे समय थम गया; हो सकता है, लगने लग जाए। लेकिन वो कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। उसका इतना शोर क्या मचाना, ढिंढोरा क्या पीटना? और उसको ये क्यों कह देना कि ये एनलाइटनमेंट है?

किसी भी शराब पीने वाले से पूछ लो, वो बहुत ख़ास तरह के अनुभव बता देगा, तो क्या हो गया? और बहुत सारे आध्यात्मिक लोग साइकेडेलिक्स की तरफ़ मुड़ ही इसीलिए जाते हैं क्योंकि वहाँ उनको विशेष अनुभव होने लग जाते हैं। और अनुभवों की इसी प्यास के कारण फिर ऐसे भी गुरु लोग हो गये हैं ज़बरदस्त, जिन्होंने कहा है कि इस एनलाइटनमेंट की खोज में साइकेडलिक्स का सहारा लिया जाना चाहिए। उन्होंने कहा, इसमें कोई ग़लत बात नहीं है, क्योंकि एनलाइटनमेंट में भी तो अनुभव ही तो होते हैं ज़बरदस्त।

अब तुम्हें अगर भॉंग, गॉंजा, वीड, धतुरा, कोकीन इन सब का इस्तेमाल करके अगर वैसे ही अनुभव हो रहे हैं तो क्या बुराई है? और ये बात उन्होंने बहुत ज़ोर देकर, बड़े तर्क के साथ कही है कि ले-देकर आध्यात्मिक यात्रा तुम इसीलिए तो करते हो न कि एक दिन तुमको कुछ ख़ास अनुभव होने लगे?

तो इतना तुम परेशान क्यों हो रहे हो, आओ अब हम तुमको वो ख़ास अनुभव करा ही देते हैं। एक शॉट लगाऍंगे और मज़ेदार अनुभव होने शुरू हो जाऍंगे। काहे बीस साल की साधना करोगे? तो अनुभवों के फेर में न रहें, अनुभवों की ही तलाश ने हमें भी कहीं का नहीं छोड़ा है, पृथ्वी को भी कहीं का नहीं छोड़ा है।

हर आदमी विशेष अनुभव के लिए ही तो व्याकुल है। आप कहीं बाहर से घूमकर आते हैं, तो लोग पूछते हैं कैसा रहा एक्सपीरियंस (अनुभव)? आप डेट से आते हैं, डेटिंग कर रहे हैं, वहॉं से भी आते हैं तो आपके दोस्त क्या पूछते हैं? कैसा रहा एक्सपीरियंस ?

कोई दुकानदार आपको ललचा रहा है आने के लिए, तो कह रहा है, ‘आपको ऐसा ख़ास एक्सपीरियंस देंगे न, आप भूल नहीं पाऍंगे!’ आप देख रहे हैं, एक्सपीरियंस ही वो चूहेदानी है जिसमें आप फॅंसे हुए हैं? और उसी चूहेदानी में आपको फसाने के लिए पनीर का एक टुकड़ा और टॉंग दिया गया है जिसका नाम है एनलाइटनमेंट। कि आओ-आओ एनलाइटनमेंट का एक्सपीरियंस कराऍंगे।

ये कुछ नहीं है ये एक्सपीरियंसर अनुभोक्ता की, अपने ही ऊपर खेली गयी चाल है कि मुझे कोई ऐसा एक्सपीरियंस हो गया जो बहुत-बहुत ख़ास है। और बहुत-बहुत ख़ास क्यों है? अब तो सैकड़ों-हज़ारों लोग ऐसे हो गये हैं जो बोलने लग गये हैं कि हम भी एनलाइटेंड हैं; हमें भी ख़ास अनुभव हुआ। तो ल्यो अब एनलाइटनमेंट भी ख़ास नहीं रह गया। वो भी जो एलीट क्लब था, ओवर क्राउडेड हो गया है, बहुत भीड़ हो गयी।

जिसको देखो वही एनलाइटेंड है, हमें भी हुआ, हमें भी हुआ। और ले-देकर होता सबको लगभग एक ही तरह का है क्योंकि एक ही तरह का नहीं होगा तो माना ही नहीं जाएगा कि एनलाइटनमेंट है।

किसी को पुराना जन्म याद आ जाता है, किसी को कुछ हो जाता है, कुछ-कुछ हो जाता है। किसी के कान में शंख बजने लग जाता है। किसी के बाल खड़े हो जाते हैं। यही सब शुरू हो जाता है।

क्योंकि आम आदमी अध्यात्म समझता नहीं इसीलिए उसको बेवकूफ़ बनाना आसान है। तो इस तरह की कहानियाँ गढ़ दी जाती हैं। आप समझदार हो जाऍं, आपके सामने कोई आएगा ही नहीं ये बोलने कि मैं एनलाइटेंड हूँ। और मुझे ऐसे अनुभव हुए, वैसे अनुभव हुए। इनमें से निन्यानवे प्रतिशत फ़र्ज़ी हैं। जो एक प्रतिशत वास्तव में ऊॅंची चेतना के लोग थे, उनके एनलाइटनमेंट पर नहीं, उनके काम पर ध्यान दीजिए।

उनकी महत्ता इसलिए नहीं है कि उन्होंने बता दिया कि एक दिन पेड़ के नीचे बैठे और हम पर बूॅंद टपक गयी, उनकी महत्ता इसलिए है क्योंकि फिर उन्होंने जो आपको बात बतायी है, वो बहुत ज़बरदस्त है, आपके काम की है, करोड़ों लोगों के उद्धार का कारण बन रही है।

लेकिन हम मानेंगे नहीं। हम चूॅंकि ख़ुद एक्सपीरियंस के भूखे लोग हैं, तो सामने कोई साधु-सन्त भी आ जाता है तो उससे सबसे पहले यही पूछते हैं, ‘तुम्हारा एनलाइटनमेंट हुआ क्या? कि तुम्हें क्या ख़ास मिला है? भाई, मुझे आज ख़ास ये मिला कि आज घर में कढ़ी बनी थी, उसका अनुभव बहुत स्वादिष्ट था। अब तुम अपना अनुभव बताओ। मुझे कढ़ी का हुआ है, तुम भगवान का बताओ।’ लेकिन ले-देकर बताना अनुभव ही है। ले-देकर अनुभव ही क्यों?

क्योंकि अनुभव भोगने की चीज़ होती है न, आप अनुभव का कंज़म्प्शन करते हो, भोग करते हो। करना भोग ही है, उसके आगे नहीं बढ़ना है। और इसमें एक बहुत बेईमानी की चाल भी है वो चाल भी समझना। आप ये स्वीकार ही नहीं करना चाहते कि आन्तरिक सुधार एक सतत और अनन्त प्रक्रिया है। आप ये मानना ही नहीं चाहते कि यये ज़िन्दगी भर का काम है जिसका कभी अन्त ही नहीं होना। क्यों नहीं मानना चाहते? क्योंकि आपको ये काम लगता है उबाऊ। जो चीज़ अच्छी लगती है आदमी उसको चाहता है कभी ख़त्म न हो। ठीक? पर आत्मोद्धार या आत्म-सुधार की प्रक्रिया आपको लगती है बोरिंग उबाऊ; तो आप चाहते हो जल्दी-से-जल्दी कहीं पर आकर हो जाए ख़त्म। और उसी ख़त्म होने के बिन्दु को आप नाम देते हो एनलाइटनमेंट। कि इन्होंने साधना की, साधना की, साधना की और फिर ऐसा दिन आया जब इन्हें साधना की अब ज़रूरत नहीं पड़ेगी ये एनलाइटेंड हो गये।

ठीक वैसे ही, जैसे आप ख़ुशी मनाते थे, जिस दिन परीक्षाऍं ख़त्म होती थीं। जिस दिन परीक्षाऍं ख़त्म होती थीं, आप क्या करते थे? ये किताबें उछाल रहे हैं, चाट खा रहे हैं, पिक्चर देखने चलो! टाई वाई खोल दी; ये सब कर दिया, ये सब चलता था न?

वही रवैया हमारा आन्तरिक साधना के प्रति है क्योंकि वो हमें बोझ की तरह लगती है, हमें उससे प्यार नहीं है। वो हम बस किसी तरह से मन मारकर ढो रहे हैं। तो हमारी बड़ी तमन्ना रहती है कि यार साल दो साल कर ली, तीन साल कर ली, चलो पॉंच साल कुछ कर लिया, अब एक दिन ऐसा आये न कि बोला जाए कि एग्ज़ाम्स ओवर (परीक्षा समाप्त) और उसमें रिज़ल्ट कार्ड आ जाए जो बता दे कि यू आर नाउ... स्कूल में आता था यू आर प्रोमोटेड ऑर पास्ड। और स्पिरिचुअलिटी (अध्यात्म) में आ जाए, यू आर नाउ एनलाइटेंड और जैसे ही रिज़ल्ट कार्ड डिक्लेयर हो गया, फिर तो पूछो नहीं।

ग्रेजुएशन सेरेमनी देखी है न कॉलेजों की, कैसी होती है? वो अपनी टोपियाँ उछाल रहे होते हैं, फ़ोटो खिंचती है इस पर, ये हो रहा है, वो हो रहा है। वैसे ही तुम्हारा है कि बड़ी साधना किया करते थे, खाना-वाना कम खाते थे, संयम रखते थे। अब जल्दी से रिज़ल्ट आ जाए। उसके बाद जैसे ही एनलाइटेंड होंगे, दबादब-दबा-दबा! कि अब तो ओवर हो गया ना एग्ज़ाम। अब मज़ा आ गया। तो इसलिए हमारे मन में बड़ी चाह है एक अन्तिम दिन की।

अन्तिम का मतलब समझते हो? कि अन्त कर दिया, किसका अन्त कर दिया तुमने? तुमने साधना का अन्त कर दिया। तुमने साधना का अन्त कर दिया क्योंकि उससे तुम्हें, फिर दोहरा रहा हूँ, कभी प्यार नहीं था।! तुम्हें अच्छा ही नहीं लग रहा, जीवन सच्चाई को अर्पित करके जीना।

तुम कह रहे हो कि साधना का मतलब होता है कि किसी के सामने सर झुकाकर जियो। अपने अहंकार को संयम में, अनुशासन में रखकर जियो; ये सब बड़ा बोझिल लगता है। कौन करता रहे? एक दिन कोई आकर के हमें बोल दे कि अब तुम मुक्त हो गये। अब तुम्हें अहंकार को नियन्त्रण में, अनुशासन में रखने की कोई ज़रूरत ही नहीं है। अब तुम एनलाइटेंड हो गए और हम खुश हो जाऍं कि चलो, अब किसी तरह के डिसिप्लिन की कोई ज़रूरत नहीं बची, मज़ा आ गया, वाह, वाह, वाह।

क्यों आ जाए भई वो दिन, काहे को आ जाए? “राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय”, नहीं चाहिए! नहीं चाहिए! राम भी बुला रहे हैं तो नहीं चाहिए। जो सुख साधु संग में सो बैकुंठ न होए। होगा कोई बैकुंठ, हमें नहीं चाहिए। हम तो इतनी सही और इतनी मस्त ज़िन्दगी जी रहे हैं कि प्रीत लग गयी है। हम अन्त क्यों करना चाहें इसका?

हमें कोई खुजली नहीं हो रही है कि अन्त हो जाए और फिर हम जाकर दुनिया में चिल्लाऍं, नगाड़ा बजाऍं हमारा एनलाइटनमेंट हो गया, ये हो गया, वो हो गया। समझ में आ रही है? तो एनलाइटनमेंट के जितने भी क़िस्से हैं, मैं आपसे निवेदन करूॅंगा कि उनमें ये भी देखिए कि कितने क़िस्से असली लोगों ने ख़ुद बताये और कितने दूसरे लोगों ने, उनके बारे में फैलाये।

जितने भी ऐसे लोग होंगे जो अपने मुॅंह से बोल रहे हैं कि मेरे साथ ऐसा हुआ, मेरे साथ वैसा हुआ, बड़ी रंगीन कहानी सुना रहे हैं अपने एनलाइटनमेंट की, ऐसा है, वो सोना-चॉंदी, बरस पड़ा ऊपर से, हीरे-जवाहरात गिर पड़े, फिर बारिश हो गयी, फिर भूचाल आ गया और फिर मैं एनलाइटेंड हो गया, टन-टन-टन! ये अधिकांशत: नकली लोग होंगे। और असली लोगों के बारे में जो कहानियाँ प्रचलित हैं वो ज़्यादातर उन्होंने ख़ुद कभी कहीं नहीं। वो उनके चेले-चपाटों ने फैलायी।

उन्होंने बोला, अरे! किसी से पीछे काहे को रहें? जब सबका एनलाइटनमेंट है तो हमें तो बताना पड़ेगा कि इनका भी हुआ था, तो उन्होंने बाद में बड़े विस्तारपूर्वक और रंग भर-भरकर और मसाला छोंक लगा-लगाकर बताया है कि फिर ऐसा हुआ, फिर वैसा हुआ कि गुरु जी जा रहे थे जंगल में अजगर आया, अजगर ने आदमी की आवाज़ में बोला, अजगर ने मुॅंह खोला, उसमें से मणि निकली। अजगर ने बोला ये मणि आप अपने मस्तक पर धारण कर लो और उन्होंने जैसे ही धारण किया वो अन्दर घुस गयी और गुरु जी का एनलाइटनमेंट हो गया। हम काहे को पीछे रहें, जब सबका हो रहा है तो हम भी कहानी बना सकते हैं, हम काहे नहीं बनाऍंगे! तो ये दो तरह के आपको मिलेंगे क़िस्से, समझ रहे हैं?

एक जो लोगों ने अपने मुॅंह से बताया है कि मेरा ऐसा मेरा वैसा। मैं आपसे सविनय कह रहा हूँ कि ये ज़्यादातर फ़र्ज़ी हैं। और दूसरा जहाँ लोगों ने; चेले-चपाटों ने क़िस्से उड़ा दिये हैं कि यहाँ पर भी आप देखिएगा कि उन्होंने ख़ुद तो बोला नहीं। तो दूसरे लोग उनके बारे में क्यों इतना क़िस्सा उड़ा रहे हैं? आपको एक भयानक बात बताता हूँ!

बहुत सारे ये जो आश्रम वगैरह चल रहे हैं न, ख़ासतौर पर आज जो सबसे बड़ी-बड़ी फाउंडेशन (संस्था) चल रही हैं, उनमें ये खुली बात है, कि जो ज़्यादातर वहाँ वॉलंटियर (स्वयंसेवी) बैठे हैं, उनको ये लालच दिया गया है कि तुम यहाँ काम करोगे तो तुम्हारा एनलाइटनमेंट करवा देंगे। इतनी घातक चीज़ है ये एनलाइटनमेंट का कीड़ा। आप वहाँ पहुॅंच जाइए फिर बोल दिया जाता है कि मैं जब चाहूॅं, तब तुम्हें एनलाइटेंड करवा सकता हूँ, लेकिन पहले बीस साल मेरे यहाँ मुफ़्त में काम करो और फिर मैं तुमको एनलाइटेंड कर दूॅंगा।

और हज़ारों, अब उनको नादान कहूँ, मूर्ख कहूँ या बेईमान कहूँ, पता नहीं। नादान भी हैं, मूर्ख भी हैं, बेईमान भी हैं, सब हैं और बिलकुल पढ़े-लिखे लोग, ऊॅंची शिक्षा वाले लोग, ऐसे खींचे चले जाते है कि हाँ ठीक है! हमारी पूरी ज़िन्दगी ले लीजिए, हमारा पूरा पैसा ले लीजिए, पर हमें एनलाइटेंड कर दीजिए।

और सुनिए चुटकुला! बीच-बीच में हर साल एक-आध दो करे भी जाते हैं। काहे कि अगर कोई नहीं हो रहा होगा तो बाक़ियों की उम्मीद टूट जाएगी। कहेंगे, ‘कोई होता तो है नहीं, हम ही क्यों यहां पड़े हुए हैं।’ तो हर साल, एक-दो को घोषित किया जाता है विधिवत कि ये फ़लाने हैं, अब ये एनलाइटेंड हो गये। और ये जो एनलाइटेंड हो गये हैं, इनका मुॅंह देखो! इन चक्करों में मत फॅंसिए।

अध्यात्म बहुत सीधी, सरल, साफ़, चीज़ है। ये दंद-फंध, जादू-टोना, जन्तर-मन्तर, हु-हा ये सब नहीं होता अध्यात्म। आत्म-जिज्ञासा, सेल्फ़ इन्क्वायरी , मैं परेशान हूँ! कौन है जो परेशान है? वास्तव में परेशानी चीज़ क्या होती है? मैं कहाँ से उठता हूँ, मेरी परेशानियाँ कहाँ से उठती हैं, इन सवालों पर ग़ौर करिए! सर्कस नहीं बनाना है कि उसमें एक जोकर भी घूम रहा है, एक कलाबाजियाँ मार रहा है, एक हाथी आ रहा है दोनों हाथ ऊपर उठाकर के, सॉंप उड़ रहे हैं, इसीलिए फिर धर्म का नाम ख़राब होता है, जब धर्म के नाम पर आप गंडा-ताबीज़ शुरू कर देते हो, सॉंप उड़ाना शुरू कर देते हो और अगले-पिछले जन्म की कहानियाँ उड़ाना शुरू कर देते हो।

तो फिर जो भी समझदार लोग होते हैं, वो धर्म से कहते हैं, ‘हटाओ, धर्म में तो सब बेवकूफ़ भरे हुए हैं। हटाओ धर्म ही ख़राब चीज़ है।’ मैं नहीं कह रहा हूँ जितने लोग धर्म से हट जाते हैं वो सब समझदार हैं, मैं कह रहा हूॅं समझदार लोग भी हट जाते हैं।

इस समय दुनिया में क़रीब एक तिहाई लोग ऐसे हैं जिन्होंने विधिवत घोषित कर रखा है कि हम किसी धर्म में यक़ीन नहीं करते, नॉन रिलिजियस। उनके पास कई वजह है और एक वजह ये भी है, वो कहते हैं, ‘धर्म बेवकूफ़ों का अड्डा है। ये ऐसी-ऐसी बातें करते हैं और ऐसे-ऐसे काम करते हैं कि कोई बेहोश आदमी ही कर सकता है या फिर कोई नशेड़ी ही कर सकता है।’

अभी दक्षिण भारत में हुआ, बहुत पढ़े-लिखे, एक प्रोफ़ेसर थे शायद या क्या थे, प्रोफ़ेसर दम्पति, पिता जी भी प्रोफ़ेसर और माता जी भी कहीं अच्छी जगह पर काम करती हैं। दोनों एकदम समाज के उच्च तबके से और वहीं दक्षिण भारतीय के किसी गुरु जी की वो शरण में चले गये थे। उन्होंने बता दिया था कि मुर्दा भी मारकर जिलाया जा सकता है। गुरु जी का मुर्दों में बहुत इंटरेस्ट (रुचि) है, तो उनकी दो लड़कियाँ थी जवान, माँ-बाप ने दोनों जवान लड़कियों की, हथौड़े से मार-मारकर हत्या कर दी। एक ख़ास दिन, एक ख़ास मुहूर्त पर। क्योंकि उन्हें बताया गया था कि इस दिन इस ख़ास मुहूर्त पर जो मरता है, वो मर ही नहीं सकता; वो अमर हो जाता है।

पुलिस पहुॅंची तो दोनों हॅंस रहे हैं मियाँ-बीवी, बोले रहे हैं, अरे! आप क्यों फ़ालतू आ गये, अभी तो हमने इनको यूॅंही मार दिया। अभी हम इन्हें ज़िन्दा कर देंगे। और ये अब इनकी आत्माऍं गयी हैं, फ़लाने किसी ख़ास लोक में, वहॉं से विशेष सिद्धियाँ लेकर लौटेंगी इनकी आत्माएँ, और अब इनको दोबारा ज़िन्दा किया जाएगा। काहे को ज़िन्दा हो लड़कियाँ, उनका तो सिर, हथौड़े से मार-मारकर तोड़ा गया है। तो फिर दोनों बोल रहे हैं, वो हमारे गुरुजी की तो बात ग़लत हो ही नहीं सकती। वो बीच में पुलिस वालों ने आकर के न पूरी प्रक्रिया थी, वो बाधित कर दी इसलिए लड़कियाँ ज़िन्दा नहीं हुईं।

अब कोई भी समझदार आदमी, धर्म से दूर न हो जाए, तो क्या करे? जब ये सब चल रहा है, अध्यात्म के नाम पर तो क्या करें, कोई भी समझदार आदमी हटेगा नहीं?

YouTube Link: https://youtu.be/bcDUmhMI2X0

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