खुद को सज़ा देना सीखो || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

Acharya Prashant

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खुद को सज़ा देना सीखो || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

आचार्य प्रशांत: कई बार अपनेआप को एक चुनौती भरा लक्ष्य दे देना सहायक हो जाता है। पर जो भी कुछ जीवन में लाओ तो इतना चुनौतीपूर्ण, इतना आवश्यक, इतना अपरिहार्य होना चाहिए कि उसके आगे पुराना सबकुछ फीका लगे, तब तो पुराने से मुक्ति मिलेगी, नहीं तो नहीं मिलेगी। सतही और कृत्रिम बदलाव बहुत गहरे नहीं जाते, दूर तक भी नहीं जाते। अपनेआप को एक बड़ा लक्ष्य दो। बड़ा लक्ष्य भी देने भर से काम नहीं चलता, बड़े लक्ष्य को न पाने की पेनल्टी , क़ीमत, दंड भी बड़ा होना चाहिए। नहीं तो, फिर तो भीतर जो हमारे बन्दर बैठा है उसके लिए आसान हो गया न, अपनेआप को बड़ा लक्ष्य देते रहो बार-बार, बार-बार और हासिल उसे कभी करो मत। बेशर्म बन्दर है, फ़र्क उसे पड़ता ही नही। वो कह देगा, ‘हाँ, मैने फिर लक्ष्य बनाया और फिर मात खायी, कोई बात नहीं।’

लक्ष्य भी बड़ा हो और लक्ष्य से प्रेम इतना हो, लक्ष्य का महत्व इतना समझ में आता हो कि लक्ष्य को न पाने का विचार ही बड़ा डरावना हो।

साफ़ पता हो कि जीवन बड़ी पेनल्टी लगाएगा अगर जो लक्ष्य बनाया है, उसको पाया नहीं तो। हम लोग यही भूल कर जाते हैं। संकल्प तो बड़े बना लेते हैं पर बड़ा संकल्प बनाने से काम नहीं चलता, अपनेआप को सज़ा भी देनी पड़ती है अगर संकल्प पूरा न हो तो।

संकल्प पूरा नहीं कर पाए और अब अपनेआप को सज़ा नहीं दी तो फिर क्या है, फिर तो मौज है! ऊँचे-ऊँचे संकल्प बनाने का श्रेय भी लेते रहो और आलसी रह गए, निखट्टू रह गए, ढीले रह गए, कोई दृढ़ता नहीं दिखायी, इसकी कोई सज़ा भी मत भुगतो। नहीं, सज़ा तुम्हें अपने लिए स्वयं निर्धारित करके रखनी पड़ेगी पहले से।

आमतौर पर सबसे बड़ी सज़ा तो प्रेम ही होती है। कुछ अगर ऐसा लक्ष्य बनाया है जिसके प्रति बड़ा समर्पण है, बड़ा प्रेम है तो यही अपनेआप में सज़ा बन जाती है कि जिससे प्रेम था उसे पाया नहीं। एक बार निगाहें कर ली आसमान की ओर और ललक उठ गयी किसी तारे की, उसके बाद ज़मीन में खिंची हुई लक़ीरें, ज़मीन में उठी हुई दीवारें, मिट्टी में बँधे हुए ढर्रे फिर किसको याद रहते हैं, वो अपनेआप पीछे छूट जाते हैं, और यही विधि है। लेकिन पहले किसी तारे की ललक उठनी चाहिए।

ललक उठनी चाहिए और न मिले तारा तो दिल टूटना चाहिए। जिनके दिल नहीं टूटते उनके लिए जीवन में कोई प्रगति सम्भव नहीं है। जो अपनी असफलता को भी चुटकुला बनाए घूमते हैं, जिन्हें लाज ही नहीं आती, उनके लिए जीवन में कोई उन्नति, उत्थान सम्भव नहीं है।

इंसान ऐसा चाहिए जो लक्ष्य ऊँचा बनाए और लक्ष्य फिर न मिले तो एक गहरी पीड़ा, एक गहरी कसक बैठ जाए जीवन में। ताकि दोबारा जब वो लक्ष्य बनाए तो उसे हासिल न कर पाने की धृष्टता न कर पाए। नहीं तो हमने ये बड़ा गन्दा रिवाज़ बना लेना है अपने साथ, लक्ष्य बनाओ मात खाओ, लक्ष्य बनाओ मात खाओ, लक्ष्य बनाओ मात खाओ।

और मात क्यों खाओ, इसलिए नहीं कि स्थितियाँ या संयोग प्रतिकूल थे, मात इसलिए खाओ क्योंकि हम आलसी थे, हममें विवेक, श्रम, समर्पण, साधना सबकी कमी थी। लक्ष्य बनाओ मात खाओ, लक्ष्य बनाओ मात खाओ और जितनी बार मात खाओ उतनी बार बेशर्म की तरह बस मुस्कुरा जाओ। न, ऐसे नहीं! जिसको मात खाने पर लाज नहीं आएगी, वो बार-बार मात ही खाएगा।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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