खुद को ही क्यों नहीं खा जाते? || आचार्य प्रशांत (2021)

Acharya Prashant

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खुद को ही क्यों नहीं खा जाते? || आचार्य प्रशांत (2021)

आचार्य प्रशांत: कुर्बानी, बलि, माँसाहार, इसको लेकर पिछले दिनों मैंने एक बात-चीत शुरु करी है, वो बढ़िया आगे बढ़ रही है। तो उसमें बहुत लोगों के सवाल आये हैं, आपत्तियाँ भी आयीं हैं। और एक सजीव ज़ोरदार चर्चा चल रही है। मैं समझता हूँ ऐसे संवाद बहुत ज़रूरी हैं गम्भीर मुद्दों पर, तो कुछ जो बातें उठी हैं उनको मैं अभी लेता हूँ।

प्रश्नकर्ता: सत्य तो ये है कि "जीव जीवस्य भोजनम्"। और वनस्पतियाँ भी तो प्राणवान हैं। माँस और वनस्पति बस दो अलग-अलग नाम हैं। सत्य यही है कि दोनों एक प्रकार से एक से जीव ही हैं।

आचार्य: "जीव जीवस्य भोजनम्"। कह रहे हैं, ‘जीव जीव का भोजन बनता है।’ पहली बात तो इन्होंने ये कही, और दूसरा कह रहे हैं, ‘वनस्पतियों में, पेड़-पौधों में भी तो जान होती है तो पेड़-पौधे हों या पशु-पक्षी हों, सब एक बराबर हैं क्योंकि सब जीव हैं।’ ‘जीव, जीव का भोजन बनता है और सब जीव एक समान ही होते हैं’ तो तुम भी तो एक जीव हो न, और तुम्हारा भाई भी एक जीव है, सब इंसान भी जीव हैं, माँ-बाप भी जीव हैं, हमारे बच्चे भी जीव हैं, सब जीव हैं उनको क्यों नहीं खा जाते? अगर बात इतनी सीधी होती कि एक जीव दूसरे जीव का आहार है। और सब जीव बराबर हैं तो कोई भी जीव फिर खाया जा सकता है।

मैं कह रहा हूँ, पहला जीव तो तुम खुद ही हो खुद को क्यों नहीं खा जाते? खुद को खाकर बोलो "जीव जीवस्य भोजनम्"। एक जीव ने स्वयं को ही खा लिया है। जीव ने जीव को खा लिया। "जीव जीवस्य भोजनम्" क्यों नहीं बोलते? क्योंकि बात इतनी सीधी नहीं है कि "जीव जीवस्य भोजनम्"। तुम देखते हो कौनसा जीव खाने लायक है, कौनसा जीव खाने लायक नहीं है। तुम चुनाव करते हो, तुम कहीं पर एक सीमा खींचते हो कि साहब ये जो जीव है ये मैं खाऊँगा और ये जो जीव है ये मैं नहीं खाऊँगा।

ये जो चुनाव की बात है न चुनना, किसी चीज़ को ‘हाँ’ बोलना और किसी चीज़ को ‘न’ बोलना। ये चेतना का काम है, कॉन्शियसनेस (चेतना) का। वो जानवरों में नहीं पायी जाती, वो तुममें पायी जाती है इसलिए तुम्हें उसका इस्तेमाल करना होता है। हर चीज़ तो तुम नहीं खा जाते न, या हर जीव को तो नहीं खा जाते न? बैक्टीरिया भी जीव है खा क्यों नहीं जाते? और जब कोरोना वायरस आकर के इतने लोगों को खाये जा रहा है तो तुम उसको क्यों मारना चाहते हो? वो भी यही बोलेगा, "जीव जीवस्य भोजनम्"। ‘मैं एक जीव हूँ और मैं तुम जैसे बहुत सारे जीवों को खा रहा हूँ। इंसानों को खा रहा हूँ मैं।’ पर नहीं, तुम ये नहीं होने दोगे तुम वहाँ पर अपनी चेतना का उपयोग करोगे। उसी चेतना का उपयोग करो भाई।

हर वो चीज़ जो खायी जा सकती है उसे खाया नहीं जाना है। आगे लोग हैं जिन्होंने कहा है, ‘देखिए हमारे दाँत हैं वो इस तरह बने हैं कि वो माँस को चबा सकते हैं।’ तुम्हारे दाँत तो इस तरह बने हैं कि वो अपना माँस भी चबा सकते हैं, वो अपने बच्चे का माँस भी चबा सकते हैं; क्या उसे खा जाओगे? तो हर वो चीज़ जो तुम खा सकते हो उसे खा नहीं जाना है। लोग कह रहे हैं, ‘देखिए अगर माँस खाना गलत ही होता तो माँस हमें पचता ही नहीं।’ पच तो तुम्हें बहुत कुछ जाएगा, वो तुम खा लोग क्या? चोरी का माल भी पच जाता है उसे क्यों नहीं खाते फिर?

अगर बात इतनी सी ही होती कि वो सबकुछ खा लो जो पच जाता है। तो कुछ चुराकर भी खा लो वो भी पच जाएगा। कहीं इंसान की लाश पड़ी हुई है उसको भी खा लो वो भी पच जाएगी। और लाश तो लाश होती है, मैं कह रहा हूँ माँसाहारियों को माँसाहारी कहना ही नहीं चाहिए। उनको लाशाहारी कहना चाहिए। तुमने कभी सुना है ये कहते हुए कि वहाँ पर एक मूली की लाश पड़ी हुई है? लेकिन तुमने ये ज़रूर सुना होगा कि वहाँ पर एक कुत्ते की लाश पड़ी हुई है। कुत्ते का शव ‘शव’ कहा जाता है मूली का शव ‘शव’ नहीं कहा जाता। तो जीव और जीव बराबर नहीं होते कुत्ता और मूली एक नहीं होते कि तुम बोलो कि देखो कुत्ता खाओ कि मूली एक ही बात है।

किसी ने आज तक कहा ‘मूली की लाश’? लेकिन कुत्ते की लाश होती है। तो क्यों लाशाहारी बनना चाहते हो भाई? समझ में आ रही है बात? ‘वनस्पतियों में भी तो जान है, तो सेब खाएँ या भैसा मारकर खा जाएँ, एक ही बात है।’ नहीं, एक ही बात नहीं है, क्यों कुतर्क कर रहे हो? थोड़ा सा भी अगर अध्यात्म में घुसोगे तो भी समझ जाओगे कि एक ही बात नहीं है और थोड़ा सा अगर विज्ञान कि तरफ़ जाओगे तो भी समझ जाओगे कि एक ही बात नहीं है। बस कब तुम्हें समझ में नहीं आएगा कि एक ही बात नहीं है? जब तुम न विज्ञान की सुनोगे, न अध्यात्म की सुनोगे। तुम सिर्फ़ अपनी ज़वान की सुनोगे, ‘स्वाद बहुत आता है। आहा हा! बड़े का माँस, छोटे का माँस, स्वाद बहुत आता है।’

ये कौन सी ज़िन्दगी है यूनुस, जिसमें न तुम अध्यात्म कि सुनना चाहते, न विज्ञान कि सुनना चाहते हो, बस तुम अपनी ज़वान की सुनना चाहते हो? और उस ज़वान की स्वाद के खातिर तुम यहाँ पर आकर के संस्कृत भी बता रहे हो, "जीव जीवस्य भोजनम्"।

सब जीव ही हैं तो जितने जीव हैं उनको जीव ही बोला करो उनको नाम भी मत दिया करो। अपनी पत्नी को बोलना, ‘हे! जीव इधर आ।’ अब वो भी जीव है, तुम भी जीव हो। "जीव जीवस्य भोजनम्" खा जाओ उसको। नहीं तो मुझे समझाओ कि इंसान इंसान को क्यों नहीं खाता? जिस सिद्धान्त, जिस प्रिंसिपल के कारण इंसान इंसान को नहीं खाता, मैं कह रहा हूँ, उस प्रिंसिपल को समझो और उसी के चलते ऐसे प्राणियों की हत्या से बचो जिनमें चेतना है।

पेड़-पौधों में चेतना का स्तर कम है। उनको भी मारने में हिंसा है। मैं बिलकुल स्वीकार करता हूँ लेकिन उनको मारने में हिंसा कम है, न्यूनतम है, और उतनी हिंसा करना तुम्हारे शारीरिक निर्वाह के लिए ज़रूरी है। उतनी भी नहीं करोगे तो जी नहीं पाओगे लेकिन मैं उसमें भी कहता हूँ कि पेड़-पौधों को भी कम-से-कम क्षति पहुँचाए बिना जितना तुम खा सकते हो खाना चाहिए। अब फल खाते हो उसमें तो कोई पेड़ मरता भी नहीं है। चावल है, गेहूँ है इनके पौधे तो वैसे ही फसल के बाद खत्म हो जाने होते हैं। तो वहाँ भी तुम नहीं कह सकते कि हमने यहाँ पर हत्या करी है, लेकिन फिर भी होती तो है ही। प्याज़ हो, आलू हो, मूली हो, गाजर हो इनको हम जड़ से ही उखाड़ लेते हैं तो वहाँ भी हिंसा होती है। लेकिन वो हिंसा बहुत-बहुत कम है। तुलना में उस हिंसा के जो होती है जब तुम मुर्गा, बकरा, सुअर, गाय, भैंस कुछ काटते हो। वो बहुत बड़ी हिंसा है।

अब तुम कहो, ‘देखिए, हिंसा तो हिंसा होती है’ तो ये तो ऐसी ही बात हो गयी कि अपराध तो अपराध होता है। अपराध तो अपराध होता है, तो फिर पान का गुटका बेचने की भी तुमको वही सज़ा दे दी जाए जो अट्ठारह हत्या करने वालों को दी जाती है और ये कह दिया जाए कि अपराध तो अपराध होता है और हर अपराध कि फिर एक ही सज़ा है। साहब, अपराध अपराध होता है लेकिन अपराधों के स्तर में अन्तर होता है न? तभी तो किसी को दो महीने की कैद मिलती है, और किसी को उम्र कैद मिलती है बामशक्कत! वैसे ही हिंसा और हिंसा के स्तर में अन्तर होता है।

कम-से-कम हिंसा करो भाई! कम-से-कम। वैसे ही हम इतने गुनाहों का बोझ लेकर अपने सिर पर चलते हैं, बोझ और क्यों बढ़ा रहे हो? ज़िन्दगी इसलिए तो नहीं मिली है न कि पापों की गठरी और भारी कर लो। ज़िन्दगी इसलिए मिली है कि जितना हो सके अपना बोझ हल्का करो और गुनाहों से तौबा करो। उसकी जगह तुम लाशाहारी बनकर कितने ही जीवित पशुओं की, पक्षियों की आँखों से रोशनी बुझाकर अपनी ज़बान का स्वाद ले रहे हो, अपना पेट भर रहे हो। ये बात कैसे सही हो सकती है? इसमें तुम्हें इंसाफ़ दिखता है?

YouTube Link: https://youtu.be/xJthAYI_eS8

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