खुद को हराना सीखो || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2022)

Acharya Prashant

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खुद को हराना सीखो || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2022)

प्रश्नकर्ता: चरण स्पर्श आचार्य जी। आज विवेकचुड़ामनी मैं पढ़ा रहा था आदि शंकराचार्य जी की। तो उसमें दमन-शमन को लेकर बताया गया है। तो पहले क्या होता था मैं आपको करीब दो साल से ज़्यादा से सुन रहा हूँ तो लास्ट टाइम (पिछली बार) जब मैं आया था तो मैंने बताया भी था कि काफ़ी सुकून आ गया सबकुछ। तो बीच में क्या हुआ डेढ़ साल तक सारी चीज़ें बहुत अच्छी चलीं और उसके बाद क्या हुआ कि फिर दमन-शमन कम हुआ। मैंने सोचा एक-दो दिन थोड़ा मज़े कर लिए जाएँ मतलब मन हुआ मेरा।

तो एक-दो दिन जैसे मैंने एक दिन थोड़ी सी ड्रिंक (शराब पीना) कर ली। तो मेरे को लगा एक दिन करी है फिर छूट जाएगी। तो जिन दिनों में मैं ये सब करता था तो उन दिनों में मैं आपके वीडियो नहीं सुनता था। उन दिनों में मैं वो ओशो जी कि वो वाले विडियोज लगा देता था जिसमें वो बताते हैं कि दमन करने से, दमन करना सही नहीं है। उससे अन्दर एक ज़हर पैदा हो जाता है।

तो वो इसलिए मैं सुन लेता था क्योंकि मन को एक सान्त्वना मिल जाती थी की ओशो जी कह रहे हैं तो ठीक ही कह रहे होंगे। तो सान्त्वना देने के लिए कर लेता था जबकि पता था क्योंकि ये सब पहले कर चूका था। तो फिर हुआ क्या एक दिन ड्रिंक हुई, फिर दो दिन हुई और फिर क्या हुआ लाइफ़ एकदम वैसी ही पहुँच गयी। जैसी मतलब जिससे निकलकर आया था। तो मेरे को समझ में आया कि दमन-शमन तो.., अच्छा! आप बोलते हैं कि दमन-शमन ज़रूरी है, उसकी भी अपनी एक ज़रूरत है। तो फिर मैंने थोड़ा उनको ये वाली वीडियो उनके कम किये, मैंने दोबारा से फिर आपको सुनना चालू किया।

इसलिए बीच में मैं आ भी नहीं पाया। क्योंकि मैंने कहा कि जितना खुराफ़ात करना चालू कर दिया है। तो ऐसे में मैं आपके सामने कैसे आएँ। तो अभी फिर से मैंने दोबारा से स्टार्ट (शुरू) किया आपको सुनना और फिर से थोड़ा दमन चालू किया। मतलब संगत-वंगत छोड़ी। फिर मैंने रामकृष्ण परमहंस जी को भी सुना। तो उन्होंने बोला कि जैसे काजल की कोठरी में रहोगे तो दाग तो लगेगा ही। संगत पर वो भी बोलते हैं और आप भी बोलते हैं। तो फिर जैसे आज पढ़ा तो मेरे को पता लगा कि दमन-शमन ज़रूरी है। कुछ चीज़ों में ओशो जी से हमको फ़ायदा भी मिला ऐसा नहीं है। लेकिन कुछ चीज़ों को मैं उनके वीडियोज़ को अपने सपोर्ट (सहारा) के तौर पर लेता था। क्योंकि आप उनके अगेंस्ट (विरोध) में कुछ चीज़ें बोल देते थे।

तो अभी क्या है कि चीज़ें फिर से ट्रैक (सही दिशा) पर आ गयीं हैं, चीज़ें फिर बेहतर हो गयीं हैं। बीच में तो बहुत मार-पीट वगैरह ड्रिंक करके चालू कर दी थी फिर से। तो अभी फिर से वापस से ट्रैक पर आ गया हूँ। लेकिन होता क्या है जैसे अभी मैं वीगन के तौर पर मैं कोशिश करता हूँ। तो पन्द्रह-बीस दिन बिना दूध के रहा और जैसे साथ में जो घर पर भी लोग हैं, पापा-मम्मी तो पूरा सपोर्ट (समर्थन) करते हैं।

जैसे कभी कहा कि आज पिज्जा खाने का मन है, खुद का ही हो जाता है तो आस-पास वाले तुरन्त राजी हो जाते हैं कि अरे अरे! एक पिज्जा में क्या होता है, खाओ-खाओ। तो फिर एक पिज्जा खा लिया। तो फिर बीस दिन किया। तो यही है कि जैसे बीच-बीच में मन होता है फिर जो चीज़ कर रहा होता हूँ तो एक दिन के लिए टूटती है फिर से वापस से लग जाता हूँ अगले दिन से। फिर से कोशिश करता हूँ। अभी कम हो गया, अभी फिर से ठीक हो गया है। जो बीच-बीच में मैं चाहता हूँ की वो चीज़ें भी कैसे क्या खत्म हो क्योंकि वो लोग काफ़ी सपोर्ट करते हैं। मेरा भी बीच-बीच में मन तो होता रहता है।

आचार्य: आज क्या हाल है?

प्र: आज बढ़िया है सर। अभी चार-पाँच महीने बिना दमन के लाइफ़ चल रही थी। लेकिन उसमें बड़ा खराब था। अभी फिर चार महीने से फिर मैं आपको ही सुन रहा हूँ और अभी सब ठीक चल रहा है। अभी घर पर ही सबने बोला जाओ, पापा ने भी बोला। जैसे थोड़ा सा वाइफ़ बोलती थी कि तुम आचार्य जी को सुनते तो रहते हो तो बीच में जब गड़बड़ हुआ मामला तो पापा ने बोला कि उनको, उनके (आचार्य जी) लिए मना नहीं किया करो, वो एक तरह से दवा है इनकी, पापा ने ही बोला। तो अभी सबलोग समझ गये हैं कि आप दवा हो मेरे लिए।

आचार्य: देखो, पूरी बात नहीं समझोगे अगर तो आसान है ऐसा सोच लेना कि कोई अगर कहे कि दमन ईत्यादि ठीक है। तो वो इंसान पुराने ढर्रे का है और मज़ेदार नहीं है। और अगर कोई आकर सिखा दे कि ये सब तो बेकार है दमन-शमन,सप्रेशन। ये सब बेकार चीज़ें होती हैं। तो वो हमें बहुत कूल (स्वभाविक) लगता है न, लगता है न कि ये हुई बढ़िया बात।

आज तक अध्यात्म बताता रहा कि हमारे भीतर निश्चित रूप से कुछ ऐसा है, जिसे हमारे समर्थन की नहीं बल्कि हमारी सावधानी की और विरोध की ज़रूरत है। उसी को भीतर की पाशविक वृत्ति कहते हैं, वही भीतर की माया है, वही भीतर का जंगल है, वही हमारा दुख है मूल। और ये बात समझाने वालों ने सदा से समझाई है। वास्तव में धर्म के केन्द्र में यही तथ्य बैठा हुआ है कि तुम समझो कि तुम बहुत बड़े दुश्मन हो अपने। हम अपना दुश्मन अपने साथ लेकर पैदा होते हैं। इसी बात को अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग युगों में अलग-अलग तरीकों से समझाया गया है।

और अगर तुम्हारा दुश्मन तुम्हारे भीतर बैठा हुआ है तो क्या करोगे? प्रोत्साहित करोगे उसको, उसके साथ बैठकर जाम छलकाओगे? खेल ही सारा यही है कि खुद को जीतना है। अगर बात यही है आत्मविजय की।

आत्मज्ञान, आत्मविजय से अलग कुछ नहीं होता। अगर खेल ही सारा स्वयं को जीतने का है तो दिख नहीं रहा कि दोस्तों को थोड़े ही जीता जाता है, दुश्मनों को ही जीता जाता है।

आईने में जब खुद को देखते हो, तो बहुत जल्दी प्रसन्न या मस्त या फ़िदा मत हो जाया करो। जिसको तुम देख रहे हो, वो काया ही शत्रु है तुम्हारी। तुम स्वयं को नहीं देख रहे हो दर्पण में, तुम अपने कारागार को देख रहे हो। ये तुम नहीं हो जो सामने दिखाई दे रहा है प्रतिबिंब में, ये कैद है तुम्हारी जो दिख रही है। ये कैद है तुम्हारी। तो तुमको फिर ये सब देना है अपनेआप को या ये कुल्हाड़ी चाहिए अपने खिलाफ़। लेकिन हमको बड़ा अच्छा लगता है कोई आकर ज़रा फूलों की बात करे, ज़रा शायरी करे बड़ा अच्छा लगता है। वो होती हमेशा से ऐसी आयी है।

अगर वो धर्म के नाम पर भी होने लग जाए की कोई मिल गया ऐसा जो श्लोकों की जगह गजल और ये सब बातें चल रही हैं। और आप बड़े प्रसन्न हुए जा रहे हैं कि हाँ यही तो हम सुनना चाहते थे। तो सुनने को मिल गया। और सुनने को मिल ही नहीं गया उस पर अब अध्यात्म का ठप्पा भी लग गया, तो मन एकदम बाग-बाग हो जाता है। मैं किसी व्यक्ति विशेष की बात नहीं कर रहा। ये हम अपनी वृत्ति की बात कर रहे, हम हैं ऐसे।

कोई हमारा दोस्त-यार हो, कोई हमारे घर में हो, वो वैसी ही बातें कर दे जो हम सुनना चाहते हैं हम बिलकुल गदगद हो जाते हैं। खुद से लड़ना भारी पड़ता है, चोट लगती है, दाम चुकाना पड़ता है, भीतर-बाहर दोनों जगह लहू बहता है। तो बड़ी सुविधा हो जाती है कि कोई आकर हमें ये छूट दे दे कि न, न स्वयं विरुद्ध संघर्ष की ज़रूरत है, न आत्मविजय का कोई अर्थ है। तुम तो वो सबकुछ करो जो तुम्हारी वृत्तियाँ तुमसे करवाना चाहती हैं।

तुम नाचो, तुम खेलो, तुम हँसो, तुम कामवासना को पूरी तरह से खोल-खोलकर देखो। काम की अन्धी गुफा में प्रविष्ट हो जाओ और जितनी दूर तक जाना है जाते जाओ। और उसी गुफा के अन्त में तुमको रोशनी मिलेगी। इस तरह की बातें अगर हमें सुनने को मिलती हैं, तो ये तो प्राकृतिक बात है कि बड़ा अच्छा लगता है। यही बातें हमें हमारा मीडिया बता रहा है। अक्सर यही बातें हमारा परिवार हमको बताता है। बाज़ार इन्हीं बातों से भरा हुआ है न, कि लो हम तुम्हारे लिए ये खास किस्म का कपड़ा लेकर आये हैं। अगर तुम हमारा कपड़ा पहन लोगे तो जीवन सफल हो जाएगा तुम्हारा।

लो ये नयी गाड़ी लॉन्च (प्रमोचन) हुई है, तुम ये गाड़ी भोगने लगो, खूब भोगो इस नयी गाड़ी को। और फिर देखो कि जीवन में आनन्द उतरता है कि नहीं। बाज़ार यही करता है न और इसलिए बाज़ार चलता है। यहाँ ऋषिकेश में आये हैं आप, आप देखिएगा कि यहाँ पर रेस्तरां,कैफे, होटल ज़्यादा भरे हुए हैं या आश्रम ज़्यादा भरे हुए हैं।

यहाँ पर तथ्य इस वक्त ये है कि आश्रम बिक रहे हैं और उन पर होटल बन रहे हैं। क्योंकि शिव की नगरी में भी हमें भोग चाहिए भोग। होटल जितने हैं सब चकमक चमक धमक रहे हैं। और आश्रमों की दुर्दशा देखिए। उनकी दीवारें गिर रही हैं, अन्दर उन्हें कोई पूछने वाला नहीं है। हम ऐसे ही रहे हैं सदा से। भारत में ही नहीं पूरे विश्व में। सनातन धर्म में ही नहीं सब धाराओं में। इंसान है ही ऐसा। हम जंगल से आये हैं न, जानवर हैं। और जानवर क्या करता है? मुक्ति का प्रयत्न करता है जीवनभर या बस भोगता रहता है? बोलो।

तो हमारे भीतर जो जानवर बैठा है वो यही चाहता है- कुछ खाने को मिल जाए, कहीं सोने को मिल जाए, कहीं मौज करने को मिल जाए बस इतनी इच्छा है उसकी।

अब अध्यात्म सदा से क्या करता आया है? हमारे भीतर के जानवर को बाँधता आया है, हमारे भीतर के जानवर को रूपान्तरित करता आया है। रूपान्तरित ही नहीं जैसे कोई मूल अन्तरण हो रहा हो, जैसे उसका केन्द्र ही बदला जा रहा हो, जानवर को इंसान बना दिया जा रहा हो। ऊपर-ऊपर से नहीं अन्दर से। ये अध्यात्म का काम रहा है। लेकिन अध्यात्म चूँकि ये काम करता है इसीलिए कभी बहुत प्रचलित नहीं हो पाया।

आप अगर देखेंगे कि बाज़ार और अध्यात्म के बीच सदा एक कश्मकश रही है। तो उस कश्मकश में बहुमत तो बाज़ार के साथ ही रहा है। रहा है कि नहीं? आप सौ लोगों को विकल्प दीजिए कि बाज़ार जा सकते हो या मन्दिर जा सकते हो। कितने लोग मन्दिर को चुनेंगे? कहिए।

अब यदि मैं एक गुरु हूँ और मुझे भी बड़ी अपने इर्द-गिर्द व्यवस्था खड़ी करनी है तो मेरे लिए आवश्यक हो जाता है कि मैं वही बातें करूँ जो बाज़ार करती है। और ये काम पिछले सौ सालों में बहुत हुआ है। क्यों हुआ है वो भी समझो। भारत के इतिहास में पहले ऐसा कभी नहीं हुआ या बहुत कम हुआ कि भारतीय गुरुओं ने भारत से बाहर की यात्राएँ करी हों।

ये काम शुरू ही हुआ पिछली शताब्दी के उत्तरार्ध में। और जब ये काम शुरू हुआ, उस समय भारत की आर्थिक स्थिति बड़ी दयनीय थी। आज भी हम शेष विश्व की अपेक्षा कुछ गरीब ही हैं। पर आज से सौ साल पहले की सोचो भारत की क्या हालत थी। और उस समय पर भारतीय गुरुओं ने विदेश जाना शुरू किया। उनमें से कुछ तो ऐसे थे जिनकी नीयत बिलकुल साफ़ थी पवित्र बिलकुल जैसे स्वामी विवेकानंद। ठीक?

1893 याद होगा, वो बाहर इसलिए नहीं गये थे कि बाहर उनको समृद्धि और प्रसिद्धि कमानी थी। वो बाहर गये थे एक मिशनरी (धर्म-प्रचारक) बनकर। उन्हें काम करना था। लेकिन उनके पीछे-पीछे बहुत सारे गुरुओं को ये दिख गया कि बाहर जाकर हर तरीके की सत्ता कमाई जा सकती है डॉलर ही डॉलर है। भारत में क्या रखा है। ये गरीब,नंगे,भूखे,कंगाल लोग। ये अगर आपके पीछे आ भी गये, अगर आपको सुनने भी लग गये तो आपको क्या मिल जाएगा। भीड़ लगा लेते हैं आ जाते हैं भारतीय, देने को उनके पास कुछ होता नहीं।

गुरुओं को तुरन्त बात समझ में आ गयी, अमेरिका। अमेरिका जाना है अमेरिका। तुम्हें क्या लग रहा वो अमेरिका किस लिए गये थे? ये जो इतनी बड़ी भीड़ है गुरुओं की जो अमेरिका ही जाकर बैठती रहती है, उनके पास तुम्हें क्या लग रहा है क्या वजह है? सौ में से एक-दो होंगे जिनके इरादे साफ़ होंगे। बाकी किसलिए जा रहे हैं वहाँ? उनको अगर मानवता का ही उत्थान करने की इतनी फ़िक्र है तो अफ्रीका क्यों नहीं जाते। वहाँ तो और ज़्यादा ज़रूरत है उत्थान करने की। बोलो, अमेरिका में ही क्या खास है? अमेरिका में यही खास है, वहाँ डॉलर है।

और अगर आप अमेरिका जा रहे हो तो वहाँ बातें आपको वही बोलनी पड़ेंगी जो अमेरिकन लोग स्वीकार कर लेंगे। आप उनसे त्याग की बात नहीं कर सकते। तो आपको फिर कहना ही यही पड़ेगा कि अरे ये दमन-शमन, त्याग, समर्पण इत्यादि बेकार की बातें हैं चलो! नाचो, भोगो, खाओ, खेलो। ये कोई दर्शन नहीं है, ये बाजारू मजबूरी है इस तरह की बातें करना। इस तरह की बातें नहीं करोगे तो डॉलर नहीं आयेगा।

मैं फिर कह रहा हूँ मैं किसी एक व्यक्ति की बात नहीं कर रहा हूँ। ये रुझान बन चुका है और सभी ने यही किया है। सभी यही करते हैं। तुम भारतीय गुरुओं को देखना वो अधिकांश समय अपना भारत से बाहर ही बिताते हैं। तुम पूछो तो अपनेआप से चल क्या रहा है। तुम कुछ नहीं पूछोगे क्योंकि तुम खुद अमेरिका के दीवाने हो।

अभी किसी गुरु की तस्वीर आ जाए की अमेरिका घूम रहे हैं। और तुम खुद प्रसन्न हो जाते हो, वाह! वाह! क्या बात है अमेरिका घूम रहे हैं। पूछते भी नहीं कि वहाँ कर क्या रहे हो? क्यों गये हो वहाँ? वो तुमको दिखाते हैं हमारे पास बहुत बड़ा हेलीकॉप्टर है। होना ये चाहिए कि तुरन्त प्रश्न उठे कि हेलिकॉप्टर आ कहाँ से गया। लेकिन तुम खुद मुरीद हो जाते हो, वाह! क्या बढ़िया हेलीकॉप्टर है, हमें भी बैठा लो।

अब अगर हेलिकॉप्टर में बैठना है और सत्तर लाख की बाइक पर घूमना है। तो वो तुमको त्याग थोड़ी सिखा सकते हैं। तुमको त्याग सिखाएँगे तो तुम पूछोगे कि महाराज आपने ये हेलिकॉप्टर नहीं त्यागा अभी तक। और तुम्हें ये बात समझ में नहीं आ रही है। खेल सारा डॉलर का चल रहा है।

और इसीलिए ये सब जो बातें हैं पिछले सौ साल में ही शुरू हुई हैं। तुम मुझे सौ साल से पहले कोई गुरु दिखा दो जो कहता हो कि नहीं, त्याग,दमन,शमन,संयम,उपरति,तितिक्षा बेकार की बातें होती हैं, मुझे दिखा दो। कोई गुरु दिखा दो। ये जब से दरवाज़े खुले हैं पश्चिम के, तब से ये सब बातें होनी शुरू हुई हैं। मैं कह रहा हूँ ये दर्शन नहीं है, ये एक बाजारू मजबूरी है। ये कहना पड़ेगा आपको।

और इसीलिए आप पिछले सौ सालों में देखते होंगे कि भारतीय गुरुओं के रंग-ढंग, वेशभूषा खुब बदली है। आप पहले जब कल्पना करते थे किसी गुरु की, सन्यासी की तो कैसी छवि उभरती थी, कैसा है वो? साधारण, सरल। और पिछले सौ वर्षों में क्या देखा है आपने? उन्होंने ये देखा है कि जितने उपभोक्तावादी आप होते जा रहे हैं, उससे ज़्यादा गुरु होता है। ये तो छोड़िए कि गुरु साधारण कपड़े पहनेगा, गुरु अब फैशन में भी ट्रेंड सेटर (वेशभूषा में प्रचलन लाने वाले) होता है, डिजाइनर कपड़े पहन रहा है। ये सब आपको समझ नहीं आता आप इतने भोले हो या जानबूझकर बेहोश रहना चाहते हो।

लेकिन फिर बात ये भी है कि जो जैसा चाहता है, उसको वैसा मिल जाता है। इस तरह की बातें भी, इस तरह के गुरु भी बाज़ार का ही उत्पाद हैं। जिस चीज़ की माँग बहुत होती है न, बाज़ार उस चीज़ की आपूर्ति शुरू कर देती है। डिमांड (माँग) बढ़ जाएगी तो सप्लाई (आपूर्ति) तो होगी न।

आपको ऐसे ही गुरु चाहिए क्योंकि आप खुद पगलाए हुए हो कि बस किसी तरीके से और, और, और, और कंज्यूम (भोगने) करने को मिल जाए। अब अगर आप थोड़ी सी बुद्धि चलाएँगे तो आपको इस पूरी चीज़ में और पिछले कई दशकों से जो क्लाइमेट कटेस्ट्रॉफी (जलवायु विनाश) छा रही है, उसका सम्बन्ध भी दिख जाएगा।

ये जो दर्शन है जो कहता है कि कंज्यूम मोर एंड मोर। जो कहता है कि नहीं, अध्यात्म में कोई आवश्यकता नहीं है मर्यादा की, तप की, त्याग की, संयम की कोई आवश्यकता नहीं है। इसके मूल में क्या है? उपभोक्तावाद। और क्लाइमेट क्राइसिस (जलवायु संकट) के मूल में भी क्या है? उपभोक्तावाद, मुझे और चाहिए मुझे और चाहिए, मुझे और चाहिए।

कौन बचाएगा पृथ्वी को यदि गुरु लोग ही सिखाने लगे आपको कि खाओ, नोचों-खसोटो, खाते चलो, भोगते चलो। भोग में ही तो योग है। अरे! भोगने से यदि योग हो जाता तो सब जानवर तर गये होते। वो उम्र भर भोगते हैं।

आ रही बात समझ में कुछ?

अब दूसरी बात समझिए। दमन-शमन कोई ओल्ड फैशन्ड (पुराने ज़माने का) और अनकूल (बेकार) चीज़ें नहीं हो गयीं। दम और शम आवश्यक इसलिए हैं ताकि आप छोटे सुखों में फँसकर न रह जाएँ। अध्यात्म सुख का विरोधी नहीं है, वो आपको बड़े-से-बड़े, ऊँचे-से-ऊँचे सुख की ओर ले जाना चाहता है। अगर आपके सामने ये छवि प्रस्तुत की जा रही है कि देखो जो पुराना धर्म था, वो तो सुख का विरोधी था। और अब हमको एक नयी विचारधारा, नये दर्शन के साथ एक नूतन धर्म प्रणीत करना है। तो ये बिलकुल बेकार की बात है।

धर्म प्रसन्नता का विरोधी नहीं होता,धर्म ओछी प्रसन्नता का विरोधी होता है। क्योंकि आपका अधिकार है आनन्द।

बात समझ रहे हैं?

कोई ये न सोचे कि आध्यात्मिक हो गये तो हमारे जीवन से सब सुख विदा हो जाएँगे। लोग डरते हैं। अगर हम अध्यात्म की ओर आ गये, तो फिर मज़े कैसे करेंगे। अध्यात्म गहरे-से-गहरे मज़े की ओर भेजता है आपको। लेकिन गहरा मजा तो तब कर पाएँगे न, जब उथले मज़ों से फ़ुरसत मिलेगी।

तो इसलिए कहा जाता है कि ये जो छोटी-छोटी बल्कि टुच्ची चीज़ें हैं ज़िन्दगी की, अरे! इनको ज़रा किनारे रखो। तो फिर ज़रा बड़े वाले मज़े की ओर बढ़ें, उच्चतर सुखों की ओर बढ़ें, हाईयर हैप्पीनेस (उच्चतर खुशी) की ओर। आनन्द तो स्वभाव है। आनन्द विरोधी थोड़े ही होता है अध्यात्म। सुख ज़रूर आत्मघाती होता है बहुत बार और आत्मघात कोई अच्छी बात तो नहीं न। आप चाहते तो नहीं न आप दुःख में जिएँ।

तो इसलिए अध्यात्म आपसे बोलता है कि अपने सुख की गुणवत्ता पर ध्यान रखो। अगर उथले किस्म का सुख है तुम्हारा, अगर निकृष्ट कोटि का सुख है तुम्हारा तो ये तुम्हें लाभ नहीं देगा। इस उथले, टुच्चे सुख का तो तुम करो दमन। क्यों करो? ताकि तुम उपलब्ध हो पाओ ऊँचे सुख के लिए। अब वही साधारण सी बात ये (ग्लास) यहाँ पर है। इसमें अगर कोई छोटी और गन्दी और सस्ती चीज़ ही भरी हुई है। तो इसमें मैं कैसे रस भर पाऊँगा और कैसे अमृत भर पाऊँगा। तो इसलिए कहा जाता है इसको (चित्) साफ़ करो। जो पुराना और मैला पकड़ रखा है उसको हटाओ, उससे मुक्ति पाओ। ताकि आपको वो मिल पाए जो आपका जन्मसिद्ध अधिकार है, जिसके लिए आप पैदा ही हुए हैं — आनन्द, मुक्ति।

बात समझ रहे हैं?

डर मत जाया करिए। आज भी मैं सुबह आ रहा था तो हममें से ही कुछ लोग मार्ग में मिल गये। यही बोले, बोले डर लग जाता है। डर सिर्फ़ इसलिए लग जाता है क्योंकि छोटी चीज़ की पुरानी आदत पड़ी हुई है और कोई बात नहीं है। तो लगता है ये छोटी चीज़ अगर छूटी तो सब कुछ ही छूट जाएगा। ये छोटी चीज़ भले ही छोटी हो पर परिचित है। हम इसको जानते तो हैं न।

और नया क्या मिलेगा इसका कुछ भरोसा नहीं आता, तो डर लगता है, शंका होती है कि ये जो हाथ में है उसको भी छोड़ दिया और कुछ आगे मिला नहीं तो फिर क्या होगा। थोड़ा भरोसा रखो न और भरोसा नहीं रख पाते तो प्रयोग करके देख लो। कौन कह रहा है कि एक झटके में ही सब कुछ त्याग दो। गौतम बुद्ध हो जाओ। थोडा सा कदम बढ़ाकर तो देखिए। प्रयोग करने में क्या जाता है, प्रयोग करने में क्या जाता है। और फिर इसमें एक बात और है जो जोड़नी ज़रूरी है।

देखिए, समझाने वाले समझाने के लिए अलग-अलग लोगों से अलग-अलग तरह की बातें करते हैं। उनकी बातों में से वही चीज़ मत उठा लिया करिए जिससे आपको सहूलियत रहती है। कि शराब पीने का मन करा तो फ़लाना ऑडियो लगा लिया जिसमें मयखाने और मधुशाला की बात हो रही है। और इस तरह के ऑडियो बहुत उपलब्ध हैं। है न? कि ये तो मधुशाला है। और बिलकुल उस समय ही चुनकर लगा लिया जिस समय यारों की महफ़िल सजी है। और जाम छलकाने का मन है और फिर कह दिया ये तो मैंने जाम इसलिए छलकाएँ हैं क्योंकि उन गुरु जी ने बोला था कि जीवन क्या है?

जीवन तो मधुशाला है, उन्होंने तो और भी बहुत बातें सिखाई हैं। और बहुत अच्छी-अच्छी और बहुत ऊँची-ऊँची बातें भी सिखाई हैं। उन अच्छी और ऊँची बातों को क्यों नज़रअन्दाज कर देते हो,अपने अहंकार की सुविधानुसार बस वही चीज़ें उठाओगे जिनसे तुमको मज़े मिलते हों।

तो न ऐसा काम करना चाहिए और न अपने स्वार्थ के लिए किसी को नाहक बदनाम करना चाहिए। किसी व्यक्ति ने सौ बातें बोली हैं, उसमें से दो बातें जो भोग सम्बन्धी हैं, उनको ही क्यों सुन रहे हो बाकी अट्ठानवे बातें भी तो उपलब्ध हैं, उनको कौन देखेगा।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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