आचार्य प्रशांत: “घूॅंघट के पट खोल रे तोहे पिया मिलेंगे।” मन के कुछ सिद्धान्त हैं जो इससे एकदम सामने आते हैं उनको समझ लेना है। पहला, प्रत्येक प्राणी प्रेमी है प्राण माने प्रेम; अज्ञान में प्रेम की ही ऊर्जा कुछ और बन जाती है। कुछ और क्या? कामना, भय, ईर्ष्या, ममत्व, भुभुक्षा, भोगने की आतुरता, कामना कितनी भी विकृत हो उसका शुद्धतम रूप प्रेम ही होता है। ये पहला सूत्र है।
दूसरा, जिससे प्रेम है उसको पाने में प्रेमी का होना ही अड़चन है। मतलब, बाधा जो साध्य है उसकी ओर से नहीं है, जिससे प्रेम है उसकी ओर से कोई शर्त या बन्दिश नहीं है। जो वस्तु ढूॅंढी जा रही है वो कोई सूक्ष्म या गुप्त या दुष्प्राप्य नहीं है, सारी दिक्क़त ढूॅंढने वाले की ओर से है।
तो जिससे प्रेम है वो नहीं मिल रहा तो वजह जो प्रेमी है वो स्वयं है, और नहीं कोई वजह है। पिया कहीं छुपकर नहीं बैठे हैं।
जो ढूॅंढ रही है पिया को उसने अपने वजूद पर घूॅंघट डाल रखा है या उसने घूॅंघट को ही अपना वजूद बना रखा है। पहला सूत्र कहता है कि प्रेम तो है ही है, अगर साॅंस ले रहे तो प्रेमी हो, चेतना है अगर तो प्रेमी हो। कोई बहुत सड़ी-गली कामना भी करते हो तो भी हो तो प्रेमी ही। वैर में, ईर्ष्या में जले-फुॅंके जा रहे हो तो भी प्रमाणित तो यही होता है कि भीतर प्रेम है।
बहुत हिंसक हो रहे हो उससे भी यही पता चलता है कि भीतर प्राण हैं माने प्रेम है; बस वो जो प्रेम की ऊर्जा है उसने अज्ञान की अन्धेरी दिशा ले ली है, प्रेम की ऊर्जा ही जब ज्ञान का प्रकाश या ज्ञान का मार्गदर्शन जब वो नहीं पाती है, तो वो बहके हुए रास्तों पर चल पड़ती है।
तो ऊर्जा तो हमेशा प्रेम की होगी लेकिन उसको रास्ता चाहिए होता है ज्ञान से, और ज्ञान की रोशनी, ज्ञान का रास्ता न हो तो प्रेम की ऊर्जा बड़े विकृत और विनाशकारी रास्तों पर निकल पड़ती है।
तो पहली बात तो ये कि हो तो प्रेमी हो, और दूसरी बात ये कि अगर हो, तो पिया मिल नहीं सकते, तुम्हारा होना ही अड़चन है; ये तो सब फॅंस गया, अब क्या करें? पहली बात हमने क्या कही? अगर हो तो प्रेमी हो, ये नहीं हो सकता कि आप हो लेकिन प्रेमी न हो। हो तो हवा तो माॅंगोगे, साॅंस तो लेनी है, खाना तो माॅंगोगे, जीना है न! कोई इतनी भी अगर कामना कर रहा है, एकदम साधारण स्तर की, तो वो कामना भी प्रेम की ही सूचक है।
तो हो तो प्रेमी हो; और फिर हम कह रहे हैं कि लेकिन अगर हो, तो जिससे प्रेम है वो नहीं मिलेगा। अब तीसरी लिखिए; कह रहे हैं, “घूॅंघट के पट खोल रे!” जो पहली दोनों बातों में जो अड़चन आ गयी है, वो तीसरे से सुलझेगी — कह रहे हैं, “घूॅंघट के पट खोल रे!” यहाँ से कुछ इशारा मिलता है; इशारा मिल रहा है, चुनने की शक्ति का।
आपका घूॅंघट अगर ऐसी चीज़ होती, दीवाल जैसी; बिना दरवाज़े की दीवाल जो हट ही नहीं सकती, जिसमें से कोई मार्ग निकल ही नहीं सकता, तो फिर कुछ नहीं होता। लेकिन घूॅंघट है, और हमें कहा जा रहा है कि हमारी इच्छा से डला हुआ है।
हमारी इच्छा से नहीं डला होता तो हमें प्रेरित नहीं किया जा सकता था, घूॅंघट को हटाने के लिए। तो तीसरा सूत्र ये है कि ये जो अज्ञान है; ये एक चुनाव है। मज़बूरी नहीं है, क्या है? चुनाव है। विरह की स्थिति अनिवार्यता नहीं है, विकल्प है, चुनना है तो चुनो, नहीं चुनना तो मत चुनो।
चुनाव किन दो चीज़ों के बीच में है? या तो घूॅंघट को चुन लो या पिया को चुन लो। चुन सकते हो! चुन नहीं सकते होते तो सारा खेल यहीं ख़त्म हो जाता, आगे कोई बात समझायी नहीं जाती; ये सीख, ये भजन आगे ही नहीं बढ़ता।
घूँघट क्या है? हमारा होना। हमारा होना हमेशा बहुत एक डरी हुई चीज़ होता है, हमारा होना एक ऐसी कमज़ोर चीज़ होता है जिसको बचाने के लिए बड़ी शर्तें पूरी करनी पड़ती है; तो हमारा होना एक बड़ी भारी शर्त होता है, शर्त। जो चीज़ जितनी कमज़ोर होती है — आप देखिएगा, उसको बचाने के लिए उतनी शर्तें पूरी करनी पड़ती हैं, कोई हट्टा-कट्टा आदमी हो उसको क्या खिलाना है? ‘अरे! कुछ भी बना दो सब खा लेता है, पत्थर भी पचा जाएगा, बहुत सोचना नहीं पड़ता।
बीमार आदमी है उसके लिए क्या करना पड़ता है? बड़ी शर्तें पूरी करनी पड़ती है, इतने बजे खाएगा, इतना ही खाएगा, इतनी-इतनी चीज़ें खाएगा, और इतनी-इतनी चीज़ें बिलकुल नहीं खाएगा, ठीक इतने बजे सो जाएगा और इतने बजे उसको उठा भी देना, और उठाने के एक घंटे बाद थोड़ा दलिया दे देना।
दिन में पाॅंच बार उसको गोलियाँ देनी हैं वो भी अलग-अलग तरीक़े की तो लिखकर के एक भारी पर्चा टाॅंग दिया जाता है ताकि याद रहे क्या देना है, कितने बजे देना है; कितनी शर्तें! फिर महीने में पाॅंच अलग-अलग डॉक्टरों को दिखाना है, फेफड़े का अलग है, ऑंख का अलग है, किडनी का अलग है, दिल का अलग है, वो भी शर्तें पूरी करो।
इस दिन ये, इस दिन ये, इस दिन ये। कोई वहॉं मनमर्ज़ी थोड़े ही चलेगी कि नहीं दिखाया या ये थोड़े ही करोगे कि फेफड़े वाले दिन किडनी वाले के पास पहुँच गये, सब शर्तें पूरी करो। बच्चा कई बार छोटा होता है एकदम; वो बड़ा कमज़ोर होता है — बाप रे! कितनी शर्तें पूरी करनी पड़ती हैं, वो शर्तें पूरी न करो तो बच्चा बचेगा ही नहीं।
अहंकार एकदम एक कमज़ोर प्राणी है, शर्तों के बैसाखी पर किसी तरह वो ज़िन्दा रहता है। उसको ज़िन्दा रखना है तो वो सब जो उसके अपने नियम-क़ायदे हैं उनको मानना पड़ेगा, नहीं तो अहंकार फिर अपनी शर्तों के अनुसार ही चलता है, वो अपनी ही शर्तों के अनुसार जी सकता है, उसकी ये शर्तें टूटी तो वो मर जाएगा। यही घूॅंघट है। उसको पिया चाहिए भी तो अपने हिसाब से माने अपनी शर्तों के अनुसार, और पिया तो चाहिए और किसके लिए वो बैचेन रहता है?
अहंकार होने का मतलब ही है, अपूर्णता। अपूर्णता का मतलब ही है, कामना। अहंकार होने का मतलब ही यही है कि वो प्रेम करेगा-ही-करेगा क्योंकि मूल कामना तो पूर्णता की ही है। हाँ, जब उस कामना को आप अपनी शर्तों के अनुसार पूरा करना चाहते हो, तो फिर वो कामना दिशाभ्रमित होकर के दुनिया की ओर मुड़ जाती है और सौ उल-जलूल चीज़ों को पकड़ने लगती है अन्यथा मूल कामना तो पूर्णता की ही है।
शुद्धतम प्रेमी तो अहंकार ही है, मूल अहंकार। बहुत शुद्ध प्रेमी है वो; क्योंकि वो क्या माॅंगता है? पूर्णता। पूर्णता की माॅंग रखना ही — मैं जैसा हूँ वैसा न रहूँ, मेरे सब विकार, मेरे सब दोष, सब मिट जाऍं, यही पूर्णता की कामना है, यही मूल प्रेम है।
तो अहंकार मूलतः एक प्रेमी है, लेकिन अड़ियल प्रेमी है, टेढ़ा प्रेमी है। क्या बोलता है? पिया तो चाहिए लेकिन अपने हिसाब से चाहिए, अपने हिसाब से चाहिए। और उसके हिसाब-किताब इतने हैं कि पिया कहते हैं, ‘हम इन्तज़ार कर लेंगे।’
कहीं चले नहीं जाते, पूर्णता के लिए कहीं सम्भव ही नहीं है न कहीं चले जाना? क्यों नहीं जा सकती? क्योंकि पूर्ण है। तो वो कहीं जाकर छुप नहीं सकती न, पूर्ण कहाँ जाकर छुपेगा? आप घर में चीज़ें छुपा सकते हो, घर को कहाँ छुपाओगे? हुआ है कभी? ‘अरे! किसी ने मेरा घर छुपा दिया, घर नहीं मिल रहा!’ तो ये घर तो बहुत छोटा सा है; सोचो, पूर्ण! अनन्त! वो कहाँ जाकर छुपेगा बेचारा?
तो पूर्ण तो उपलब्ध रहता है वो कहीं छुप-वुप नहीं जाता, लेकिन समस्या यही है वो अनन्त है, अनन्त माने उस पर कोई शर्त नहीं लग सकती। शर्तें सब छोटी चीज़ होती हैं और अनन्त माने अनन्त। कोई शर्त इतनी बड़ी होती ही नहीं कि अनन्त को बाॅंध सके; तो अनन्त खड़ा होकर इन्तज़ार करता है जैसे कि प्रेम आपको हाथी से हो, और छुपे आप चुहिया के बिल में हो क्योंकि वहाँ आपकी आदत है और आपका अनुभव है और आपको सुरक्षा है।
वो चुहिया के बिल में आपकी बहुत मीठी-मीठी चीज़ें रखी हैं, शक्कर के दो दाने रखे हैं, पुराना गुलाबी रिबन रखा है, बचपन की चार तस्वीरें रखी हुई हैं, और प्रेम किससे है? गजराज से। और घुसे कहाँ हुए हैं? चुहिया के बिल में। प्रेम पूरा है, प्रेम की कोई समस्या नहीं। शर्त क्या लगा दी फिर? ‘अप्पू (हाथी) अन्दर आओ।’
अब अप्पू की मज़बूरी ये है कि वो अनन्त है, वो आपके चुहिया के बिल में आ नहीं सकता। तो वो उपलब्ध तो रहता है पर इन्तज़ार करता है — वो कहता है, ‘जिस दिन तुम अपना घूॅंघट हटा दो, बिल से बाहर आ जाओ, हम मिल जाऍंगे; जा कहीं नहीं रहे, यहीं खड़े हैं पर अब तुमको वो अपना दो इंच का बिल ही प्यारा है तो वहीं बैठे रहो!’
वो अपना वो कह रही है, ‘यहीं पैदा हुए थे, मेरी माँ ने अपने प्यारे हाथों से ये बिल खोदा था, पुश्तैनी हमारा ये बिल है, क्या यहाँ खुशबू उठती है प्यारी-प्यारी, खानदानी। यहाँ से बाहर आकर के क्या करना है और एक बार एक साॅंप आया था, उससे जान भी कैसे बची थी, खट से इसी बिल में घुस गये थे। तो अतीत भी यही गवाही दे रहा है कि इस बिल में सुरक्षा बहुत है। ये बिल इतनी अच्छी जगह है लेकिन ये अप्पू बड़ा अड़ियल है। ये बाहर बुला रहा है, इसको पता नहीं कि हम बाहर आ गये तो कितनी तकलीफ़ होगी हमको।’
अब बाहर तो कैसे तकलीफ़ होगी, बाहर तो अप्पू है? अप्पू छोटा लगता है, गजराज! बाहर तो गजराज है, तकलीफ़ कैसे होगी? लेकिन आग्रह पूरा है और आत्मविश्वास पूरा है कि हम तो जानते हैं, हमारे लिए क्या सही है। तो वहीं अपना छुपकर बैठ गये हैं, बाहर नहीं आ रहे हैं। समझ में आ रही है बात ये?
अपनी पूरी हस्ती को ही अपनी शर्तों से बाॅंध लिया है। प्रेम तो है पर प्रेम से ज़्यादा महत्व अपनी शर्तों और सुरक्षा को दे दिया है, यही घूॅंघट है। जिसने शर्तें लगा दीं उसको प्रेम नहीं मिल सकता। उसका प्रेम फिर विकृत होकर के कोई नष्ट-भ्रष्ट कामना बन जाएगा या फिर उसका प्रेम पाखंड बन जाएगा।
कामना कैसे बन सकता है, कामना ऐसे बन सकता है कि अब गजराज तो बाहर खड़े हैं, चुहिया बाहर आ ही नहीं रही तो एक चूहा मिल गया, और उसकी शक्ल देखी ध्यान से तो थोड़ी-बहुत हाथी जैसी थी; तो चुहिया ने कहा, ‘यही तो है और ये मेरी सारी शर्तें भी मान रहा है, ये आ जाता है बिल के अन्दर।’ तो चुहिया ने उसी को पकड़ लिया और बोला, ‘बस यही है गजराज, यही तो गजराज है।’ असली को पाने का दम नहीं तो जो मिले उसी को असली घोषित कर दो।
जो मिल गया उसी को बोल दो, ‘यही तो है वो पिया जिसकी हमें जन्म-जन्मान्तर से तलाश थी।’ जो मिल गया उसी को बोल दो, यही है। और जो मिल गया वो कैसे मिल गया? वो अपनी शर्तों के मुताबिक मिल गया इसलिए वो ठीक है। वो कोई सस्ती चीज़ था उसने कहा, ‘ठीक है भाई, आपने जो भी नियम-क़ायदे बताये हैं, आपने जो भी मूल्य वगैरह निर्धारित किया है वो सब हम स्वीकार करते हैं तो आपका-हमारा फिर चलेगा।’ बोले, ‘अच्छा ठीक है।’
या पाखंड उसमें से पैदा हो सकता है कि खड़े हैं गजराज बाहर ही, लेकिन एक इतनी सी मूर्ति बना ली उनकी जो बिल में समा जाए और मूर्ति से प्रेम करना शुरू कर दिया। अब चुहिया मूर्ति को रखकर उसके सामने रोज़ नाचती है और मूर्ति को देखकर भाव विह्वल हो जाती है, चुहिया की आँखों से अश्रुधार बहने लग जाती है और मूषक समाज में चुहिया बहुत बड़े भक्त के नाम से प्रसिद्ध हो रही है अब।
चुहिया की भक्ति की ख़बरें चारों दिशाओं में फैल रही हैं, चुहिया से बड़ा भक्त नहीं देखा आज तक। एक उसने गजराज की मूर्ति रख ली है, उसी को सजाती है, सॅंवारती है, कपड़े पहनाती है; कौनसे कपड़े? चूहों के कपड़े। गजराज को चूहों के कपड़े पहनाती है क्योंकि उसे जो करना है, करना तो है अपने हिसाब से, तो जो भी उसका पसन्दीदा कपड़ा है, और जो भी उसका पसन्दीदा रंग है वही वो गजराज को भी पहना देती है।
गजराज का मुॅंह भी उसने थोड़ा-थोड़ा चूहे जैसा बनाया है, काहे कि वो अगर चुहिया है और उसको चुहिया ही बने रहना है तो गजराज को भी क्या होना पड़ेगा? चूहा ही होना पड़ेगा। तो उसने गजराज की मूर्ति में गजराज को चूहे ही जैसा बना दिया थोड़ा-बहुत, पूॅंछ बहुत लम्बी कर दी गजराज की, वो मूर्ति बनायी इतनी सी, मूर्ति इतनी सी, पूॅंछ इतनी! (हाथों से इशारा करते हुए) क्यों?
गजराज की तो पूॅंछ बहुत छोटी है, ये मूर्ति में गजराज की पूॅंछ इतनी लम्बी कैसे हो गयी? क्योंकि चूहों की बड़ी लम्बी होती है। तो अपनी शर्त, अपनी सुविधा, अपनी मान्यता के हिसाब से चुहिया ने गजराज को भी क्या बना दिया? चूहा। और उसके बाद अब वो बड़ी भक्तन बन गयी है और उसकी भक्ति का कोई अन्त ही नहीं है, दिन-रात भक्ति करती है वो, उन्हीं को पहले खिलाती है, फिर खिलाती भी क्या है उनको? जो चूहे खाया करते हैं, वही उनको भी खिला देती है।
उनको खिलाती है थोड़ा सा, वो क्या ही खाऍंगे, उसके बाद सारा ख़ुद खा जाती है। समझ में आ रही है बात ये? प्रेम को जब शर्तों से प्यार होता है तो उससे पाखंड का जन्म होता है। चुहिया को अगर सचमुच गजराज चाहिए होते, तो वो तो उपलब्ध ही थे, जहाँ चुहिया की काल्पनिक सुरक्षा समाप्त होती थी ठीक वहीं गजराज खड़े हुए थे, मिल ही जाते। पर चुहिया ने कहा मुझे चाहिए अपने वजूद की हद में, अपने अस्तित्व की सीमा और सुरक्षा के भीतर, वहाँ फिर पाखंड शुरू हुआ।
हम जैसे हैं, अपने ही घर में एक छोटी सी जगह अपने इष्ट के लिए भी बनवा लेंगे, और उसमें अपने अनुसार उनको रूप-रंग देकर के, अपने अनुसार उनकी कथा-कहानी बनाकर के, अपने अनुसार उनकी पूजा-अर्चना करके, अपने अनुसार उनको भोग लगा देंगे। ये वो प्रेम है जो कभी हिम्मत नहीं दिखा पाया, प्रेम तो है ही, नहीं तो इतना स्वाॅंग भी कोई क्यों करे?
बड़ा समय लगता है नाटक करने में। सच्चा कर्म तो स्वतः स्फूर्त होता है उसमें बल्कि कम समय लगता है। खट से हो गया न, सहज होता है। पर स्वाॅंग बड़ा समय माॅंगता है, किसी से आपको सहज ही जाकर कुछ कह देना है आप कह देंगे, क्या समय लगा? पर अगर तैयारी के साथ जाना है तो तैयारी फिर छ: घंटे भी हो सकती है।
क्या बोलना है, ये पहले से तैयार करो फिर उसका अभ्यास करो। फिर क्या पहनना है, इसके आठ-दस तरीक़े के विकल्प पहले सोचो, फिर उनको पहन-पहनकर दर्पण में अपनेआप को देखो, फिर पाॅंच लोगो से पूछो ये पहनकर कैसे लग रहे हैं, वो पहनकर कैसे लग रहे हैं, पचास बातें। तो छ:-छ: घंटे इसमें लग सकते हैं, लगते ही हैं। हिम्मत की कमी रह गयी, है न?
काश! ऐसा हो पाता कि ये प्रेम नाम की चीज़ ही हमारी हस्ती से मिट जाती, वो हो नहीं पाएगा। चेतना का स्वभाव हम कहते हैं, मुक्ति है। दूसरे अर्थों में कह सकते हो, “चेतना का स्वभाव प्रेम है।” मुक्ति से ही तो प्रेम किया जाता है और क्या है प्रेम? तो प्रेम ऐसी चीज़ नहीं है कि वो आपके हाथ की है कि अभी उसको मुट्ठी खोलेंगे, फेंक देंगे।
वो स्वभाव है। माने वो आपके होने में ही है, आप हो तो वो है, आप अगर हो और चाहो कि प्रेम न हो, ये सम्भव ही नहीं है। ये नियम विरुद्ध है आप कर ही नहीं पाओगे, दिल इसलिए नहीं धड़कता कि आपके शरीर में जगह-जगह खून पहुँचता रहे, बिलकुल सच्ची बात है कि दिल धड़कता है क्योंकि प्यार है। कोई शायरी नहीं, कोई मुहावरा नहीं, यथार्थ; और अगर जीवन प्रेम से एकदम शून्य हो सकता किसी तरह तो दिल का धड़कना भी बन्द हो जाता।
अगर साॅंस चल रही है तो अभी वो पिया की आशा में ही चल रही है, अगर आप उस आशा का गला घोंटने में सफल हो पायें पूरी तरह, तो साॅंस का चलना भी बन्द हो जाएगा।
घड़ी टिक-टिक कर रही है इसलिए नहीं कर रही कि आपको समय बता दे, आप जाकर इन्तज़ार कर रहे हो कि सात बजे छोले-भटूरे मिलते हैं, घड़ी को देख रहे हैं, जाना है जल्दी से; वो घड़ी इसलिए चल रही है कि आपको समय मिला रहे प्रेम पाने के लिए; और इसलिए जो पा लेते हैं उनकी घड़ी बन्द हो जाती है, बाहर-बाहर लगता है चल रही है, भीतर घड़ी चलनी बन्द हो जाती है। समय से बाहर निकल जाते हैं।
यहाँ जो कुछ भी है जीवन में वो जीने के लिए ही नहीं है, वो प्रेम को पाने के लिए है, जीवन अपनेआप में कोई मूल्य नहीं रखता, जीवन का मूल्य जीवन के लक्ष्य में है और जो लक्ष्यहीन जीवन जी रहा है वो मूल्यहीन जीवन जी रहा है।
नहीं तो बड़ी विचित्र, बहुत एब्सर्ड बात हो जाएगी, एक जीव पैदा हुआ है, वो पलकें झपकाता है, वो साँस लेता है, इधर-उधर चलता-फिरता है, खाता-पीता है — यही करते-करते मर जाता है, ये क्या है? एब्सर्डिटी (विचित्रता), कुछ रखा नहीं है इसमें, अर्थहीन बात बिलकुल! फिर जियें ही क्यों?
इंसान जन्म लेता है ताकि जैसा जन्म लिया है, वैसा जीवन न जिये, जैसा वो जन्म के समय है, जीवन में शनै-शनै उस स्थिति से मुक्त होता चले, जीवन इसलिए है।
नहीं तो फिर खाना-पीना ऐसा है जैसे कि कोई पावर प्लांट हो जो बस इतनी ही बिजली पैदा करता है कि उससे पावर प्लांट में रोशनी हो जाती है।
किसी गाड़ी का इंजन हो जो ईंधन खूब खाता हो और ईंधन खा-खाकर इतनी ही ऊर्जा पैदा करता हो कि इंजन चलता रहे, गाड़ी नहीं चलेगी कहीं, लेकिन इंजन चलता रहेगा और वो अतिरिक्त ऊर्जा इतनी भी नहीं दे रहा कि उससे पहिये घूम सकें।
आप खाते हो इसलिए थोड़े ही कि खाया तो उससे ऊर्जा मिली, तो चल पड़े और चल पड़े तो कहाँ तक पहुॅंचे? खाने की दुकान पर, वहाँ और खाया।
कमाया, कमाकर क्या करा? खाया। खाकर क्या मिली? ऊर्जा। उससे क्या किया? और कमाया। और कमाकर क्या किया? खाया। खाने से ऊर्जा मिली तो क्या किया? और कमाया। हाॅं तो क्या, जी क्यों रहे हो फिर? ये कहानी जा किधर को रही है? अच्छा सवाल है न? तो आज अपनी कहानी लिखिएगा उसका शीर्षक यही लिखिएगा, ये कहानी जा किधर को रही है?
दुकान पर जाते हैं वहाँ माल बेचते हैं, किसलिए? ताकि अगले दिन फिर दुकान पर आ सकें, उस माल को बेचने से और तो कुछ लाभ मिल नहीं रहा है, इतना ही लाभ मिल रहा है कि दुकान चल रही है। वो न बिके माल तो दुकान बन्द हो जाएगी। आपके जीवन में क्या परिवर्तन आ रहा है, बताइए तो?
नौकरी पर जाते हैं वहाँ तनख़्वाह मिलती है, उस तनख़्वाह से क्या होता है? नौकरी पर दोबारा वापस आ जाते हैं, तो नौकरी के चलने से क्या मिला? नौकरी चलती रही, ये मिला। नौकरी, नौकरी के लिए, तो आपके लिए फिर क्या है, आपको क्या मिल रहा है उससे?
हाँ, नौकरी से तनख़्वाह न मिलती तो नौकरी ज़रूर बन्द कर देते आप। ठीक? नौकरी से तनख़्वाह मिली तो उससे नौकरी को लाभ हो गया, नौकरी करी उससे कुछ पैसे मिले जब पैसे मिले तो आपने क्या करा? आपने नौकरी चालू रखी।
बोले, ‘ठीक है, पैसे मिल रहे हैं चालू रखो!’ तो नौकरी चालू रही; तो नौकरी आपको सैलरी देती है ताकि नौकरी चलती रहे। ठीक है, आपको क्या मिला, नौकरी चलती रही न? आपको क्या मिला? वो जो पैसे थे सारे वो किसके काम आ गये? वो तो नौकरी के ही काम आ गये, आपको क्या मिला? आपकी कहानी कहाँ को जा रही है?
चुहिया ने घर बहुत सजा लिया अब, ऑनलाइन ऑर्डर करती है मस्त, वो आकर उसके बिल के दरवाज़े पर वहीं से डिलीवर कर जाते हैं। ये सब करने के बाद भी वो चुहिया क्या है? चुहिया ही है और क्या है। चुहिया तो चुहिया ही है, उसका क्या हुआ? नौकरी आगे बढ़ गयी है तो अब वो ज़ारा के कपड़े पहनने लग गयी है। गजराज बाहर अपना खड़े हुए हैं, मुस्कुरा रहे हैं मन्द-मन्द।
डिलीवरी वाले अब गजराज से ही पूछते हैं, ‘वो जो एड़ी चुहिया है उसका बिल देखा है आपने?’ वो बोलते हैं, ‘यही है, इधर ही है, मैं बता रहा हूँ, यही है, जब माल मॅंगाना होता है तो डिलीवरी वालों को नियरेस्ट लैंडमार्क (नज़दीकी सीमाचिन्ह) में गजराज का पता देती है — बोलती है, ‘जब माल देने आना तो जहाँ कहीं एक हाथी खड़ा देखना बड़ा भारी, वहीं पर ढूॅंढ लेना, वहीं बिल है हमारा। तो गजराज का इस्तेमाल भी उसने किसके लिए किया? अपनी छोटी-छोटी कामना पूरी करने के लिए।
चुहिया का नाम पड़ गया है, ‘हाथी वाली चुहिया।’ और चुहिया के आनन्द का और गर्व का पारावार नहीं है, बोले, ‘देखा! नाम हमारा जुड़ गया न, सब जानते हैं मैं कितनी बड़ी भक्त हूँ, नाम ही पड़ गया है हाथी वाली चुहिया।’ हाथी वाली लेकिन? चुहिया। वो शर्त नहीं त्यागनी है, हाथी वाली भी हो जाऊँगी लेकिन रहूॅंगी चुहिया ही।
अब प्रश्न ये है कि अगर प्रेम की पूर्णता में बाधा बनती है साहस की कमी, तो जहाँ से प्रेम आता है स्वत: ही वहीं से साहस भी स्वत: ही क्यों नहीं आ जाता? सारी समस्या ही सुलझ जाए कि जब प्रेम आया है तो साहस भी आ जाए। उसी साहस से फिर ज्ञान आता है, ठीक है न? ज्ञान भी क्यों नहीं होता क्योंकि हम देखने भर से घबराते हैं, तथ्य दिख भी गया तो उसे अपनेआप से छुपाते हैं। वो इसलिए नहीं आता क्योंकि वो आवश्यकता पड़ने पर ही उद्घाटित होता है।
प्रेम तो अपना अहसास स्वयं ही करा देता है, साहस अपना अहसास स्वयं नहीं कराएगा। उदाहरण से अभी समझेंगे — प्रेम है आपको, ये बात तो आपको पता चल ही जाएगी, अपूर्णता का एहसास है वो आपको खलेगा वो पता चल जाएगा। आप अगर भीतर से आधे-अधूरे हैं, तो आप यहाँ बैठे भी हुए हैं तो लगातार भीतर एक बेचैनी बनी रहेगी। उस बेचैनी को कोई बाहरी स्थिति नहीं चाहिए प्रकट होने के लिए, वो बेचैनी हर स्थिति में रहती है, यहाँ तक कि सोते समय भी रहती है।
लेकिन आप बैठे-बैठे यहाँ साहसी अनुभव नहीं कर सकते, वो बात विचित्र हो जाएगी कि आपसे कोई पूछे कि अभी क्या अनुभव हो रहा है? आप कहें, साहस! वो अनुभव ऐसे नहीं आता। साहस कितना है स्वयं में, वो पता सिर्फ़ तब चल सकता है जब ख़तरे को आमन्त्रण दिया जाए, सिर्फ़ तब साहस जगता है, प्रकट होता है अन्यथा है कि नहीं है, कुछ उसका अनुमान लगेगा नहीं।
आपसे अभी कहें कि यहाँ पर एक शेर आ जाए खुला, तो आपकी क्या प्रतिक्रिया होगी? आपके लिए अनुमान लगाना बहुत मुश्किल है, ज़्यादातर लोग कहेंगे, ‘अरे! हम डर जाऍंगे, हम भागेंगे।’ हो सकता है ऐसा हो भी, कुछ दो-चार वो भी हो सकते हैं जो कहें, ‘नहीं, हम डरेंगे नहीं, भागेंगे नहीं, हम कुछ उपाय खोजेंगे।’ हो सकता है ऐसा हो, हो सकता है ऐसा न भी हो।
एकाध तो ये भी हो सकते हैं जो कहें कि अरे! हम तो भिड़ जाऍंगे शेर से। हो सकता है हो, हो सकता है न हो। सचमुच क्या होगा वो तभी पता चलेगा जब आप ये नौबत आने देंगे कि कभी शेर जैसा ख़तरा जीवन में आये भी, नहीं तो आप बस आप अनुमान करते रह जाऍंगे। आपके भीतर यदि साहस है भी तो वो सोता ही रह जाएगा, बात समझ रहे हो?
चुहिया न सिर्फ़ चुहिया है, उसको भरोसा पूरा है कि अगर वो बाहर आयी तो समाप्त हो जाएगी, आत्मविश्वास से भरी हुई है वो। उसने पहले ही अनुमान लगा लिया है कि अगर उसने अपनी शर्तें छोड़ दीं तो उसका कुछ अनिष्ट हो जाएगा; और साहस तब तक जगेगा नहीं, साहस का तब तक परीक्षण नहीं हो सकता, जब तक आप अपनी शर्तें छोड़ न दें।
साहस का परीक्षण तो तभी होता है न जब ख़तरा सामने आता है, जब तक आप अपनेआप को ख़तरे में डालेंगे नहीं आपको कैसे पता कि आप सचमुच कमज़ोर हैं? हो सकता है कि आप कभी भी इतने कमज़ोर थे ही नहीं, बस आपने आत्मविश्वास में भरकर बोल दिया था कि मैं तो चुहिया हूँ, मैं तो कमज़ोर हूँ, मैं बाहर निकली तो मैं बर्बाद हो जाऊँगी; ये भी बड़े आत्मविश्वास की बात है न? कमज़ोरी भी बड़े कॉन्फिडेंस (आत्मविश्वास) से निकलती है।
‘मुझे पूरा भरोसा है कि अगर मैं बाहर निकली तो अब बचूॅंगी नहीं, आज का दिन आख़िरी दिन है मेरा। ये कितने आत्मविश्वास की बात है, ‘मुझे पूरा भरोसा है, आज तो बर्बाद ही हूँ।
तो तुमने जब ख़तरा ही अपने सामने आने ही नहीं दिया, तो तुम्हें कैसे पता तुममें कितना साहस है जो सोया पड़ा है? जो ख़तरे को अपने सामने नहीं आने देंगे, उनके पास तो बस खोखला आत्मविश्वास होगा और आत्मविश्वास ये क्या बोल रहा है? ‘तुम छोटे हो, तुम कमज़ोर हो, तुम चुहिया हो, कभी बाहर मत चले जाना।’
हाथी का प्रेम पुकारता भी है तो बोलते हो, ‘अरे! प्रेम तो ठीक है हाथी मिल भी गया तो हाथी को पाने वाला कौन होगा, जब हम ही नहीं बचेंगे?’ चुहिया कह रही है, ‘हाथी तो मिल जाएगा चुहिया कहीं नहीं दिखायी देगी; पाना तो ठीक है, पाने वाला भी तो कोई होना चाहिए।’
चुहिया वेदान्ती हो गयी — बोली, ‘देखो, ऋषियों ने क्या बताया था, ये मत देखो क्या हो रहा है, ये देखो किसके साथ हो रहा है; जिसके साथ होना है वही नहीं बचने वाली, पूरा भरोसा है, बाहर निकली नहीं कि वो जो पुराना साॅंप है रगड़ू काला! उसी ने दौड़ाया था मुझे बचपन में, वही अभी भी बाहर बैठा होगा, बाहर निकली नहीं कि वो फट से खा लेगा मुझको।’
अब ये अलग बात है कि वो कालू कबका सन्यासी हो गया, चूहों के साथ तो बैठकर भजन करता है अब; पर चुहिया अतीत में जी रही है। इतनी सी थी उसको साॅंप ने दौड़ा लिया था तबसे बिल में घुसी हुई है, बाहर नहीं आने की। साॅंप के डर से गजराज को भी उसने अब दूर-ही-दूर कर दिया है। डर साॅंप का और दूरी गजराज से, ये गजब तर्क है!
साॅंप का क्या बिगड़ा? कुछ भी नहीं, और अपनी जानते में वो रोज़ बहुत ख़ुश होती है; कहती है, ‘वो साॅंप है न बाहर बैठा हुआ है वो मंसूबे लगाकर के कि अभी बाहर निकलूॅंगी, मेरा नाश्ता करेगा। आज फिर छका दिया बच्चू को! अपनेआप को बहुत साणाॅं समझता है, बाहर बैठा हुआ है घात लगाकर कि बाहर निकलूॅंगी और खा जाएगा। आज मैंने फिर इसकी उम्मीद नहीं पूरी होने दी।’
अरे! बाहर साॅंप नहीं बैठा अब, बाहर गजराज बैठा है। पर तुमने वही अतीत के अपने कुछ अनुभवों को लेकर के, और सुनी-सुनायी बातों को लेकर के; ऐसे ही वो चुहिया की अम्मा हुआ करती थी, उसने पूरा एक शास्त्र ही लिख रखा था, तरह-तरह की उसमें उसने बातें लिख रखी थीं और संस्कृत की बड़ी ज्ञाता थी वो।
संस्कृत में जो भी कुछ लिख दो, हमें लगता है बड़ी महान बात है! तो उसने पूरा शास्त्र बता रखा था कि किस तरह जितनी भी सभ्य, शालीन और सुसंस्कृत, चुहिया हों उनको कभी अपना घूॅंघट नहीं हटाना चाहिए और इस तरीक़े के सन्तों-ज्ञानियों से दूर रहना चाहिए जो बोलते हैं “घूॅंघट के पट खोल रे”, ये सब चुहियों को निर्लज्ज बना रहे हैं, घूॅंघट हटा रहे हैं।
तो चुहिया उसको रोज़ पढ़ती है। वो कहती है, ‘बिलकुल ठीक है’, उसके बाद वो फिर से वो जो वहाँ उसने वो लम्बी पूॅंछ वाली मूर्ति कर दी है, उसके सामने नाचती है थोड़ी देर तक; कहती है, ‘देखा भक्ति कर तो रही हूँ।’ भक्ति में वो बार-बार क्या बोलती है? वो ताने देती है; बोलती है, ‘अगर तुम्हें मुझसे प्रेम होता तो तुम मेरे बिल में न आ गये होते? हम तुम्हें इतना पुकारते हैं, तुम कभी आते क्यों नहीं?’
वो बाहर खड़े होकर कह रहे हैं, और कैसे आऊँ, बिल में नहीं घुस सकता? और घुसने का एक ही तरीक़ा है कि तेरा बिल तोड़-फोड़ दूँ; और वो करुँ तो उसमें भी तुझे ऐतराज़ हो जाएगा, कर तो मैं एक बार अभी टाॅंग उठाकर के सारा काम ठीक कर दूँ तेरा, रोज़ नीचे से तेरे भजन की आवाज़ आती है। वहाॅं वो बाहर खड़े हुए हैं, देखते हैं क्या है, भजन रोज़ यही होता है कि तुम तो बड़े ही निर्मम, निर्मोही, बेदर्दी निकले! हे पिया परमेश्वर हम तुमको रोज़ पुकारते हैं, और तुम कभी आते नहीं।
ज़्यादातर भजन हमारे ऐसे ही होते हैं जो ये; मैं सन्तों के भजनों की नहीं बात कर रहा, ये जो आम घरों में और इधर-उधर और जागरण वगैरह में भजन गाये जाते हैं वो ऐसे ही तो रहते हैं और क्या रहते हैं? कि इन्तज़ार करते-करते हमारे प्राण निकल गये, हे ईश्वर! कब दर्शन दोगे?
और ईश्वर वहीं जागरण में सबसे पीछे वाली कुर्सी पर बैठे हुए, ऐसे कर रहे हैं (आचार्य जी सर खुजाते हैं) कह रहे हैं, ‘मैं तो यहीं बैठा हुआ हूँ, तुम्हें फुरसत मिले इस नौटंकी से तो न तुम्हें इधर दिखायी दे।’
ऐसे ही गजराज भी सुन रहे हैं, उन्हीं को लेकर के गाने गाये जा रहे हैं कि निर्मोही, निर्मम, बेवफ़ा! अगर तू मुझसे प्यार करता तो बिल में आ जाता। किसी-किसी दिन तो गजराज सोचते हैं कि आ ही जाता हूँ अब। फिर कहते हैं, ‘रहने दो! बेचारी का अपना गुलदस्ता है, घोंसला है, घुसी हुई है उसमें, जाने क्या इस पर बीतेगी अगर यही टूट-टाट गया मैं अगर घुस गया तो! कुछ समझ में आ रही है बात या बस मनोरंजन है?
ज़िन्दगी कुछ दिखायी दे रही है? साल में हर महीने दो बार वो मनाती है, हाथी पूर्णिमा। एक पूर्णिमा, एक अमावस्या, और वो जो सामने ही खड़ा है उसको नहीं देख पाती है। ये सब न होता तो उसको नहीं कहा जाता, “घूॅंघट के पट खोल रे तोहे पिया मिलेंगे।” शुरुआत ही आग्रह से हो रही है, घूँघट हमारी ओर से है भाई! और दुष्टता हमारी ये है कि हमने ऐसे कर रखा है कि सत्य तो बहुत छिपी हुई चीज़ होता है। हाँ, सत्य लुका-छिपी खेलने ही तो आया है हमारे साथ।
सत्य न हुआ, चार साल का बच्चा हो गया, कुर्सी के पीछे छिपा हुआ है, मिल नहीं रहा, सत्य कहाँ है, खाली गमले में जाकर बैठ गया था, तो मिला नहीं दिन भर। अपने सिर पर स्कूल का बस्ता रख लिया था तो छुप गया पता ही नहीं चला। यही रहता है न? यही सुना है न कि सच को आज तक कौन जान पाया है। सत्य दुर्बोध होता है! ये कह रहे हैं, “घूँघट के पट खोल रे, तोहे पिया मिलेंगे।” कोई शर्त नहीं है सत्य की ओर से, सारी शर्तें तुम्हारी ओर से हैं।
अन्यत्र कहते हैं सन्त कबीर कि नाचन निकली बापुरी, घूँघट कैसा होय। तुम हो जो सौ शर्तें रखकर चलते हो कि नाचना भी है खुलकर और घूॅंघट भी रखना है, अब कैसे हो पाएगा ये कि घूँघट भी है और नाच भी रहे हो, पटापट गिरोगे; और फिर कहोगे ये तो, फिर कहेंगे, “नाच न आवे ऑंगन टेढ़ा!” कहोगे, ‘आँगन टेढ़ा है या कुछ और हो गया है किसी ने तेल गिरा दिया क्या?’ और घूॅंघट कोई विवशता नहीं है, चुनाव है; घूँघट हटाया जा सकता है। घूँघट कैसे हटाया जाएगा? अपनी ओर दृष्टि करके।