खून तो खून है || आचार्य प्रशांत (2020)

Acharya Prashant

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खून तो खून है || आचार्य प्रशांत (2020)

प्रश्नकर्ता: मेरा पक्षियों, जानवरों से बहुत जुड़ाव हो गया है। अब मेरा घर से बाहर निकलना मुश्किल होता जा रहा है क्योंकि अगर कभी कोई कसाईघर या माँस की दुकान दिख जाती है तो मेरी नज़र सीधे मासूम पक्षियों और जानवरों की आँखों पर जाकर टिक जाती है और फिर मैं बहुत गहरा दुख अनुभव करता हूँ, बेबस हो जाता हूँ।

आचार्य प्रशांत: इस बेबसी से तो तुम्हें गुजरना पड़ेगा, इस बेबसी से मैं भी बहुत गुज़रा हूँ, गुज़र ही रहा हूँ। बहुत छोटा था, दो साल-चार साल का, तब से इस विवशता का अनुभव होना शुरू हो गया। मैंने स्कूल जाना कानपुर में शुरू किया था तो जब एकदम छोटा था, रिक्शे में बैठकर स्कूल जा रहा होता था। तो एक जगह से होकर गुज़रते थे जहाँ लोग सुअरों के बाल नोच रहे होते थे और जब उनके बाल नोचे जा रहे होते थे तो वो बहुत मर्मभेदी तरीके से चिल्लाते थे। वो चिल्लाते थे तो मैं बिलकुल तड़प जाता था, रोने लग जाता था।

डर था, सहानुभूति थी पता नहीं क्या था? पर जो भी था बहुत तीव्र था। और ये सिलसिला चलता रहा। फिर लखनऊ का एक दिन याद है मुझे; साइकिल से लौट रहा था स्कूल से तो मैंने पहली बार अपनी आँखों के सामने मुर्गे को कटते देखा फिर उसके बाद उसके बालों को नोचते देखा। मैं साइकिल रोककर के खड़ा हो गया और चेतना पर एक ज़ोरदार झटका सा लगा; शॉक ! मैंने किसी से कुछ कहा नहीं तब पर वापस लौटकर गये, खाना नहीं खाया। दो-चार दिन एकदम चुप रहा।

एक ही तरीका है कि मानिए कि ये हमारे ऊपर कर्ज़ है उन सब जानवरों का जो प्रतिपल कट रहे हैं। कर्ज़ है कि जितना ज़्यादा, यथाशक्ति हम कोशिश कर सकते हैं करें, उनको बचाने की। ज़्यादा-से-ज़्यादा संख्या में बचाने की। और बचाने का तो एक ही तरीका है उनको कि जो उनको मार रहे हैं उनकी चेतना में बदलाव लाया जाए, उन तक कुछ जानकारियाँ पहुँचाई जाएँ, उन्हें समझाया जाए। बातचीत करनी पड़ेगी, संवाद करना पड़ेगा और बहुत जान लगानी पड़ेगी।

आज आदमी जितना माँस खा रहा है, इतिहास में उसने इतना कभी नहीं खाया। और इतिहास तो ऐसा लगता है कि हज़ार-लाख साल पहले की बात हो रही है। पिछले पचास साल में ही दुनिया में माँस की खपत कई गुना बढ़ गयी है इसलिए नहीं कि दुनिया की आबादी बड़ी है, प्रति व्यक्ति माँस की खपत भी कई गुना बढ़ गयी है।

ये जो दुनिया के पास आर्थिक सुदृढ़ता आयी उसका बहुत बड़ा खामियाज़ा, शायद सबसे बड़ा खामियाज़ा जानवरों को ही भुगतना पड़ा है। आज से सौ-सवा-सौ साल पहले तक माँसाहार इतना प्रचलित नहीं था। भारत में भी नहीं था, अमेरिका-यूरोप में भी नहीं था। इतने जानवर मारे जाने लगे हैं इंसान की बढ़ती हुई आर्थिक ताक़त के कारण।

लोगों को समझाना पड़ेगा कि तुम्हारे पास जो पैसा आ रहा है वो इसलिए आ रहा है ताकि तुम अपनी भलाई करो। और जानवरों को मारने में जानवर का तो जो हश्र होता है सो होता है तुम्हारी अपनी भी कोई भलाई नहीं है। बल्कि माँसाहार इस समय आदमी के सामने खड़ी सबसे बड़ी समस्या और बीमारी है।

यही वज़ह है कि आपकी संस्था बहुत समय लगाती है और प्रयास करती है कि शाकाहार को और शाकाहार से भी आगे शुद्ध शाकाहार को प्रोत्साहित किया जाए। लोगों को प्रेरित किया जाए, उसके फ़ायदे समझाए जाएँ और माँसाहार से होने वाले जो भीषण दुष्परिणाम हैं इससे लोगों को परिचित कराया जाए।

वीगनिज़्म को मैं शुद्ध शाकाहार बोलता हूँ। उसके लिए शायद अभी हिंदी भाषा में कोई शब्द नहीं है, तो वीगनिज़्म ही बोल देते हैं पर उसके लिए उचित होगा ‘शुद्ध शाकाहार’ क्योंकि वीगनिज़्म में जानवरों से आने वाले किसी भी उत्पाद के लिए कोई जगह नही होती। फिर चाहे वो दूध-घी ही क्यों न हो, फिर चाहे वो उनका चमड़ा ही क्यों न हो।

तो चमड़े के जूते, चमड़े की बेल्ट , चमड़े के वॉलेट , ये सब भी उपयोग में क्यों लाये जाएँ। और इन सब का बड़ा रिश्ता है; एक ही जानवर होता है, उसका पहले दूध लिया जाता है फिर माँस फिर चमड़ा। इस तरीके से जानवर का हम पूरा शोषण कर लेते हैं और इस तरीके से जानवरों से मिलने वाले जितने उत्पाद होते हैं उनकी कीमतें कम रहती हैं। पूरा-का-पूरा उसको हम निचोड़ लेते हैं। उसके खाल, दूध, खून, अस्थि, पिंजर, हड्डी, मज्जा, एक-एक चीज़ को हम बिलकुल चूस डालते हैं।

तो आपको ये जो संवेदना होती है उसकी सही अभिव्यक्ति यही होगी कि आप बिलकुल तन-मन से जूझ जाएँ शाकाहार को और हो सके तो शुद्ध शाकाहार को आगे बढ़ाने में। जितने तरीके से हो सके ऐसी संस्थाओं की और ऐसे लोगों की मदद करें जो इस काम में अग्रणी हैं और ऐसे बहुत लोग हैं, ऐसी बहुत संस्थाएँ हैं। मैं बस प्रशांत अद्वैत फाउंडेशन का ही नाम नहीं ले रहा और भी लोग हैं आप उनका समर्थन करें, उनका काम बहुत कठिन है क्योंकि खेद की बात है कि दुनियाँ में इस वक्त माँसाहारी ही ज़्यादा हो गए हैं। और बड़े-से-बड़े दुर्भाग्य की बात है कि भारत में भी वो हालत आ गयी है कि माँसाहारी ही बड़े बहुमत में हो गए हैं। तो जो लोग माँसाहार के विरुद्ध एक लड़ाई में हैं उनको आपके समर्थन की बहुत ज़रूरत है। उनका समर्थन करें, उनका हौसला बढ़ाएँ; इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं।

बदलाव निश्चित रूप से आ सकता है। एक बदलाव इंसान की चेतना और आदतों में ये आया आज से सौ-सवा-सौ साल पहले कि अचानक उसने तेजी से माँसाहार का पक्ष लेना शुरू कर दिया और माँस का अतिशय भोग करना शुरू कर दिया। अगर वो बदलाव आ सकता है तो ये बदलाव भी लाया जा सकता है कि लोग माँसाहार के बुरे अंजामों को समझें और उसको छोड़ें। लेकिन कोशिश करनी पड़ेगी और जी-तोड़ कोशिश करनी पड़ेगी। तो हम वो कोशिश कर ही रहे हैं; साथ आइए, लगिए, हाथ बटाइए।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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