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खोखली नैतिकता और उथली संस्कृति || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: नमन, आचार्य जी। मेरे दिमाग में कुछ-कुछ शब्द जो हैं, वो कौंध से गए हैं। जैसे सबसे पहला कौंधा- नैतिकता। मुझे अभी तक भी नहीं समझ में आता कि वास्तविक नैतिकता क्या होती है।

एक उदाहरण देता हूँ, नैतिकता के मारे अगर मैं अपने पिताजी से कहूँ कि भंडारा करवा दीजिए। तो वो करवा देंगे। ठीक है। उसमें भी वो उन्हीं लोगों को खिलाएँगे, जिनका पेट पहले से ही भरा हुआ है।

नैतिकता क्या है, असल में मुझे ख़ुद नहीं समझ में आया। और जहाँ तक है, मैं उसके विरुद्ध ही हूँ। अभी तक जितना भी मैं अपनेआप को जान पाया, जितना ज़िन्दगी जी पाया हूँ, उसके क़ायदे में कहूँ, तो नैतिकता छोड़कर के या नैतिकता उसमें कम ही रही होगी। नैतिकता मतलब कि दूसरे का दिखावा कम ही रहा होगा, जो मुझे सही लग रहा था, वो मैंने करा।

आचार्य जी, कुछ और उदाहरण हैं जो मैं बोल रहा हूँ। जैसे कि नैतिकता के मारे हम अपने पिताजी के साथ ज़्यादा बैठते नहीं थे। उनसे उतना घुलना-मिलना नहीं था। अगर मैं याद करूँ तो शायद मैं जब कमाने लगा, तो घर-वर बन रहा था तो पिताजी के बगल में मैं जाकर बैठा। वो बगल में बुलाए-बिठाए बोले, घर बनना है, कुछ व्यवस्था करो और सब। तो शायद तब उनसे थोड़ी खुलकर बात हो पाई।

मेरे पिताजी के लिए महसूस होता है, वो तो चलिए उनकी ज़िन्दगी जो थी, वो पूरी हो गयी। कुछ साल पहले ये मुझे भी महसूस होता था कि ये अनैतिक है, क्यों ही ज़्यादा जानना जाकर के? क्या करेंगे जानकर के? जो बूढ़ापन वाला सोच था, वो मेरे अंदर पूरा-का-पूरा था। और वो पूरा-का-पूरा बना इसलिए था क्योंकि वो मुझे अनैतिक-सा लगता था।

अगर जो कुछ नई चीज़ जाननी हुई, जब तक कि उसमें वित्त संबंधी न जुड़ी हो, जैसे कि गाना हुआ, नाच हुआ, खेलकूद तो फिर भी मन कर दिया तो कर लिया लेकिन ये सारी चीज़ों में मुझे अजीब-सा ही लगता था। वो मुझे ख़ुद महसूस होता था। अब धीरे-धीरे वो चीज़ें बदलनी शुरू हो गयी हैं, जब से मैं नैतिकता के पीछे या खाँचे में नहीं बैठा हूँ।

जो क्षेत्र सबसे ज़्यादा गुलाम किए गए, उनमें ये भावना बहुत ज़्यादा बैठी हुई थी। जैसे उत्तर भारत की बात करें तो क्या ये क्षेत्र की वजह से है? मतलब मैं पूरा समझना चाहता हूँ कि आख़िर इसके पीछे क्या है, जो नैतिकता है? जैसे की कोई भी गुरु हैं, तो वो जीन्स पहनकर आ जाएँगे तो उनका तो यूँ ही मज़ाक उड़ जाएगा कि गुरु जी जीन्स पहनकर…।

आचार्य प्रशांत: मैं आ रहा हूँ न, कल पहनकर। धन्यवाद!

प्र: तो ऐसे मैं धर्म के क्षेत्र में भी, धर्म के क्षेत्र में, शिक्षा के क्षेत्र में भी मैं ये थोड़ा-सा वह करना चाह रहा हूँ कि मान लो अभी कोई कहे कि, आचार्य जी डांस करने भी जाते हैं तो वो बिलकुल हजम नहीं होगी लोगों को बात। शायद स्क्वैश वाली बात तो थोड़ी बहुत हजम भी हो जा रही हो। लेकिन अगर जो कोई कह दे कि ऐसे ही… तो वो नैतिकता की सीमा को तोड़कर आप बाहर जा रहे हो, ऐसा कुछ होता है।

और शायद ये सिर्फ़ एक परिवार को देखा जाए न, तो सबसे बड़ी जो बेड़ी है एक परिवार के लिए, वो सबसे बड़ी बेड़ी तो मुझे यही लगती है। अगर जो मैं अपनी मम्मी से फ़ोन करूँ, तो अस्सी प्रतिशत जो भाभी से संबंधित बातें होंगी, वो नैतिकता से ही संबंधित होंगी। तो जितने भी कलह के मूल हैं, वे भी नैतिकता के हैं।

जब से मैंने नैतिकता का आवरण हटाकर चीज़ों को समझना शुरू किया है तब से मैं पिता जी से कुछ पूछता भी हूँ और जाँचता भी हूँ। पहले तो वो मुझे उडण्डी समझते थे पर अब समझदार समझने लगे हैं कि जो करूँगा अपनी समझ से करूँगा तो कुछ नहीं कहते। पर वह समझदारी तब दिखी जब नैतिकता की सीमा को हटाया। तो इस नैतिकता को कैसे समझूँ क्योंकि ये मुझे जड़ लगती है बुढेपन की?

आचार्य: एक समूह अपने लिए आचरण के अच्छे-बुरे का जो निर्धारण करता है, उसको नैतिकता कहते हैं। तो समाज ने निर्धारित करा कि इस नीति पर चलेंगे, ये नीति होनी चाहिए, वो नैतिकता। अंग्रेज़ी में मोरेलिटी। और मॉर्स (लोकाचार) का संबंध होता है संख्या से, जनमत से कि ज़्यादातर लोग क्या चाहते हैं, उससे। तो मोरेलिटी माने वो नीतियाँ जिनको ज़्यादातर लोग सही समझते हैं या ग़लत समझते हैं।

अब आप किसी चीज़ को सही मानना चाहते हो, किसी चीज़ को ग़लत मानना चाहते हो, ये ठीक है कि आपकी रुचि है ये समझने में कि क्या सही क्या ग़लत। उसमें समस्या ये है कि समाज अपने हिसाब से चलता है, समाज के भीतर जो जाग्रत लोग हैं, जो बुद्ध हैं, जो मुक्त हैं, उन पर नहीं चलता। तो समाज अपने लिए जो नियम-क़ायदे निर्धारित करता है, वो बहुधा समाज के अपने होते हैं।

हमने तय कर लिया कि ये ठीक है, ये नहीं। उसमें संतों, ऋषियों, ज्ञानियों द्वारा दी गयी सीख या सलाह नहीं होती। उसमें बहुमत का बस ज़ोर रहता है। ज़्यादातर लोगों को लगता है कि ये ऐसे ठीक है, तो ऐसे ही चलेंगे। ये उस समाज की मोरेलिटी हो गयी। और इसीलिए अलग-अलग समाजों में, नैतिकता-अनैतिकता के अलग-अलग मापदंड होते हैं।

एक चीज़ जो आपके लिए नैतिक है, हो सकता है दूसरे शहर में नैतिक न हो, दूसरे देश में नैतिक न हो। और एक चीज़ जो आपको आज घोर अनैतिक लगती है, हो सकता है आपके ही शहर में, आपके ही घर में, वह चीज़ तीन सौ साल पहले नैतिक मानी जाती थी।

तो चूँकि नैतिकता-अनैतिकता का निर्धारण समाज स्वयं ही कर लेता है, अपनी चाल के अनुसार तो इसलिए नैतिकता-अनैतिकता बदलती भी ख़ूब रहती है। एक जगह पर कुछ और चल रहा है, दूसरी जगह कुछ और चल रहा है। और एक जगह की नैतिकता, दूसरी जगह की नैतिकता के बिलकुल विपरीत हो सकती है। उनमें लड़ाई हो जाएगी आपस में। और हम कह रहे हैं, एक जगह पर जो आज नैतिक है, वह कल नैतिक नहीं माना जाएगा। यही है नैतिकता।

हमें लगता है, ये ठीक है, तो ठीक है। क्यों लगता है ठीक है? क्योंकि हमारे पिताजी को भी यही चीज़ ठीक लगती थी। उनको क्यों ठीक लगती थी? क्योंकि उनके पीछे की परम्परा है। नैतिकता अक्सर परम्परा का एक प्रवाह जैसा होता है। लेकिन वह परम्परा भी बदलती रहती है, जब उस पर सुख और सुविधा के तमाम प्रभाव पड़ते हैं, तो बदल भी जाती है।

हम जिन चीज़ों को आज नैतिक-अनैतिक बोलते हैं, ज़रूरी नहीं है कि अगले दस साल बाद भी वैसे ही बोलेंगे। पर हमारी वो राय इसलिए नहीं बदलेगी कि हमें रोशनी मिल गयी है या सच का ज्ञान हो गया है; हमारी राय इसलिए बदलेगी क्योंकि जिन चीज़ों को आप आज नैतिक मान रहे हो, उनको दस या बीस साल बाद भी नैतिक मानना महँगा और कठिन हो जाएगा। तो आप चुपके से कह दोगे, ‘नहीं-नहीं, कोई आवश्यक नहीं है इस बात को नैतिक मानने की।

जिन चीज़ों को आप आज अनैतिक मान रहे हो, उनको अनैतिक मानते रहना अगर आज से बीस साल बाद बहुत महँगा हो गया तो आप उनको नैतिक मान लोगे। तो नैतिकता-अनैतिकता बदलती भी रहती है। लेकिन वो बदलती भी इसलिए नहीं है कि कोई बुद्ध आया और आपको समझा गया कि ‘तुम्हारी नैतिकता खोखली है।’ तो आपने-अपना पूरा मापदंड बदल ही दिया। नहीं, वो भी नहीं बदलते। वह बदलती भी है सुख-सुविधा के लालच तले या काल के आघात तले। तो फिर बदल जाती है फिर वो।

तो एक अँधी-सी चीज़ है नैतिकता। यहाँ जितने लोग बैठे हैं, सब मिलकर बोल दें, फ़लाना काम सही है, तो वो नैतिक हो गया। सब मिलकर बोल दें, फ़लाना काम ग़लत है, वो अनैतिक हो गया। और इससे बड़ा ऑडिटोरियम एक नीचे है। वो कुछ और ही बोल रहे हों तो उनके हिसाब से वो नैतिक-अनैतिक है। आप कुछ बोल रहे हैं, आपके हिसाब से वो नैतिक-अनैतिक है। और एक ही समय पर आप भी बाहर निकल जाएँ, वो भी बाहर निकल जाएँ, तो इन दोनों दलों में लड़ाई भी हो जाएगी भयानक। और आपके हिसाब से वो नीचे वाले पापी हैं। उनके हिसाब से आप अनैतिक हैं। समझ रहे हो?

तो समाज की अपनी एक निम्न तल की बुद्धि से ये सब नैतिकता-अनैतिकता की बातें निकलती हैं। हालाँकि समाज ने बुद्धि यही सोचकर लगाई होती है कि नैतिक-अनैतिक जो सोचेंगे, उससे हमारा कल्याण होगा, सही-बुरे का भेद कर पाएँगे। समाज ने अपनी ओर से इच्छा यही रखी होती है लेकिन इच्छा से क्या होता है? जब बोध ही नहीं है, तो कल्याण की इच्छा मात्र से कल्याण थोड़े ही हो जाएगा।

जब आप ज़िन्दगी को समझते ही नहीं तो बस ये सोचने भर से कि, 'मैं अपने बच्चों को सही-ग़लत का प्रशिक्षण दे देता हूँ। ये मोरल है, ये इम्मोरल है। ये नैतिक है, ये अनैतिक है। ये अच्छा है, ये बुरा है। मैं बच्चों को बता देता हूँ क्योंकि मैं बच्चों की भलाई चाहता हूँ।' उससे बच्चों की भलाई थोड़ी हो जाएगी। आप समझते ही नहीं हैं वास्तव में क्या अच्छा है क्या बुरा है, बच्चों को क्या सिखा दोगे?

इसके अलावा आप जो भी सिखाओगे, वो बच्चों के स्वयं जानने के मार्ग में बाधा भी बनेगा। क्योंकि आप उनके ऊपर बस एक बाहरी नैतिकता थोप दोगे। वो स्वयं जीवन को समझ पाएँ, आप इसकी न तो उनको क्षमता दोगे और न ही आज़ादी। बल्कि अगर वो अपनी ही दृष्टि से निर्धारित करने लगें कि क्या पाप है क्या पुण्य, तो आप बहुत क्रोधित हो जाओगे। बहुत क्रोधित हो जाओगे। आप कहोगे, जो चीज़ हमने जान ली कि पाप है, जान ली न, अब तू क्या नया हमको पाठ पढ़ाएगा? बस हमें पता है, यही पाप है।

वो बच्चा पूछेगा, पर ये बात ग़लत कैसे है, पाप कैसे हो गयी? आपके पास कोई उत्तर नहीं होगा। आप कहेंगे, अरे! पूरा मोहल्ला मानता है ये बात ग़लत है तो ग़लत ही होगी न। बस कुल मिलाकर के नैतिकता का आधार यही है, पूरा मोहल्ला कहता है तो…।

और ये सोचने की कोई ज़रूरत नहीं कि दूसरा मोहल्ला ही बगल वाला, कुछ और कहता है। कि उत्तर भारत के मोहल्ले जो बात कह रहे हैं, दक्षिण भारत के ही मोहल्ले उस बात को मानते नहीं हैं। वहाँ दूसरा एक नैतिकशास्त्र चल रहा है। कृष्ण कहते हैं, ‘कर्तव्य उनके लिए हैं, जिनके पास बोध नहीं होता।’

और कर्तव्य तो फिर भी थोड़ा आगे की बात है, नैतिकता और पीछे की चीज़ है। नैतिकता उनके लिए है, जिनके पास विवेक नहीं होता। विवेक होता है जो आपको बताता है, शुभ-अशुभ का भेद, ग्राह्य-अग्राह्य का भेद, नित्य और अनित्य का भेद, वो विवेक बताता है। जब विवेक नहीं होता तो आपको नैतिकता चाहिए होती है।

विवेक में आपको प्रयोजन होता है नित्यता से। नित्यता माने कौनसी चीज़ असली है, कौनसी चीज़ कालातीत है। और अनित्य माने कौनसी चीज़ है जो बस ऐसे ही है, वो आज है कल नहीं है, वो अनित्य है। खेद की बात ये है कि इस देश में हमें नित्यता से ज़्यादा नैतिकता की परवाह है।

और नैतिकता भी है सस्ती। हमने कहा, अभी बदल जाए बीस साल में। हमारी नैतिकता पर जब बाज़ार की चोट पड़ती है और सुख-सुविधाओं के प्रलोभन आते हैं तो नैतिकता तत्काल बदल जाती है। बदल जाती है कि नहीं बदल जाती है? तो उसको हम बदल भी देते हैं पर हम बदलते तभी हैं, जब लालच आ रहा हो कहीं से। बोध के कारण नहीं बदलते हम नैतिकता को, लालच के कारण फिर भी बदल देते हैं।

आप जिस घर, जिस गली, जिस मौहल्ले, जिस वातावरण में पैदा हुए, पले-बढ़े; कहीं और होते तो क्या उन्हीं बातों को सही-ग़लत मान रहे होते, जिनको आज मानते हो? लोग आते हैं बड़े गौरव से बोलते हैं, आचार्य जी, हम तो शाकाहारी हैं। तुम शाकाहारी भी कोई अपने चुनाव से, अपने विवेक और बोध से नहीं हो। तुम शाकाहारी भी इसीलिए हो क्योंकि घर ऐसा था। जैन घर में पैदा हो गए थे या ब्राह्मण घर में पैदा हो गए थे या जहाँ भी हुए थे, वहाँ नहीं खाया जाता था माँस तो तुमने नहीं खाया। तुम्हारे विवेक ने थोड़े ही तुमको बताया है कि हिंसा क्या होती है। तुम्हारी नैतिकता, आयातित नैतिकता ने तुमको बता दिया है। और जिस नैतिकता के कारण तुम कह रहे हो कि माँस नहीं खाते, ठीक उसी नैतिकता के कारण तुम इंसानों की हत्या करने को तैयार हो जाते हो। पशु का माँस नहीं खाना है लेकिन फ़लाने धर्म के लोगों को, मौक़ा मिले तो मार ज़रूर देंगे।

'हम नैतिक आदमी हैं देखो! और हमारे संस्कार ये हैं कि शुद्ध शाकाहारी, प्याज़ और लहसुन भी नहीं खाते। किसी जानवर को कोई चोट नहीं पहुँचाएँगे लेकिन वो फ़लाने लोग हैं, कोई मिल गया न मौक़ा एक किसी दिन, तो एक-आध को मार ज़रूर देंगे हम।’ ये नैतिकता है, इसका कोई केंद्र नहीं होता। आपकी नैतिकता के जो अलग-अलग बिंदु होते हैं, उनमें कोई हार्मनी नहीं होती, कोई परस्पर सामंजस्य उनमें नहीं होता।

आप अगर कहते हो कि आप जानवर का माँस नहीं खाते, तो आपको कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है कि उसी जानवर पर आप अन्य तरीक़ों से अत्याचार कर रहे हो। माँस नहीं खाते पर अन्य तरीक़ों से कर रहे हो। कहीं मैं पढ़ रहा था, वो बोल रहे थे, हाँ बिलकुल, गौ वध नहीं करना चाहिए लेकिन सिर्फ़ जो हमारी A2 देसी गाय है, उसका।

बोल रहे हैं, ये जो जर्सी सूअर होता है, ये तो गाय है ही नहीं। ठीक यही शब्द थे, जर्सी सूअर। जर्सी गाय को लिख रहे हैं, ये जर्सी सूअर है, इसको मार दो, हमें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। ये नैतिकता है, इसका कोई केंद्र नहीं होता। ये कह रही है, एक प्रजाति की गाय तो गौ माता है और दूसरी गाय को, वह तो सूअर है, उसको मार दो, हमें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। ये नैतिकता होती है।

और नित्यता आपको कहती है कि अगर अहिंसा है, तो है। फिर सिर्फ़ गाय के प्रति नहीं, और गाय में भी सिर्फ़ एक के प्रति नहीं। फिर मुर्गे को भी बचाना है मुझे और बकरे को भी बचाना है मुझे। और फिर पेड़ और पौधों के प्रति भी हिंसक नहीं रह सकता मैं। ये नित्यता का तकाज़ा होता है।

फिर आप ये नहीं कह पाएँगे कि, ‘मैं माँस तो नहीं खाता लेकिन चमड़े की चप्पल पहनता हूँ।’ फिर आप ये नहीं कह पाएँगे कि, ‘माँस तो नहीं खाता, पर दूध-दही छक कर खाता हूँ।’ आप माँस नहीं खाते, लेकिन दूध-दही छक कर खाते हो, तो आप सिर्फ़ नैतिक हो। कोरी नैतिकता है, संस्कार हैं बस, उसमें बोध और अध्यात्म कहीं नहीं है, विवेक कहीं नहीं है।

और यही वजह है कि वो नैतिकता खट से टूट जाती है। यही देसी आदमी है, जब अमेरिका जाकर पाँच-सात साल गुज़ार लेता है तो मस्त होकर के बीफ़-बर्गर खाता है। यहाँ से निकले थे, और बिलकुल ये नैतिक आदमी थे और फिर कहते हैं, 'अब तो जैसा देश वैसा भेष।' अमेरिका में तो यही चलता है बीफ़-बर्गर , तो वो खाने लगता है वहाँ जाकर।

अगर आध्यात्मिक होती आपकी नीति, तो आप भारत क्या, अमेरिका में क्या, आप चाँद पर होते, मंगल में होते, आप कहते, मर जाऊँगा, माँस नहीं खाऊँगा। पर हमारी नैतिकता तो अवसरवादी होती है, ऑपर्च्युनिस्ट। जहाँ मौक़ा मिला, वहाँ बदल भी जाती है।

मौक़ा क्या मिला, भारत से अमेरिका जाने की भी ज़रूरत नहीं है, मंगल से बुध होने दो। मंगल को नहीं खाते हैं, बुध को खाते हैं। गज़ब नैतिकता है, जो मंगल को माँस नहीं खाती पर बुध को खाती है। और लाज भी नहीं आती, छाती चौड़ी करके चलते हैं, कहते हैं, हम संस्कारी आदमी हैं।

पूछा करो न, ‘पर क्यों?’ वेदान्त ने मेरा दिल इसीलिए जीत लिया था। उत्तर ही नहीं मिलते थे, सिर्फ़ सवाल मिलते थे- 'क्यों?' कुछ सामने रखो कि ऐसा है तो वो कहते, है? मैं कहूँ, ऐसा है। तो जवाब आता था, है और आगे प्रश्नचिन्ह- है?। सचमुच ऐसा है या बस तुम्हें ही लग रहा है? ऐसा है तो किसके लिए? कहीं ऐसा तो नहीं सिर्फ़ तुम्हारे ही लिए, तुम्हें ही लगता हो? सत्य है या कल्पना है, नित्य है कि अनित्य है?

और वेदान्त का नैतिकता से कोई लेना-देना नहीं। इसीलिए जो आम नैतिक और संस्कारी आदमी हैं, ये आध्यात्मिक लोगों से बहुत चिढ़ते हैं। कर्मकांडियों को सबसे ज़्यादा चिढ़ अगर होती है तो ज्ञान प्रेमियों से। वो सारे कर्मकांडी अनुष्ठान करेंगे, उनसे ज्ञान की बात कर दो, एकदम बौखला जाएँगे। क्योंकि उनके कर्मों का, उनके फैसलों का, उनकी नैतिकता का कोई आधार नहीं है, कोई जड़ नहीं है, बस यूँ ही है। ‘पापा ने करा, तो हम भी कर रहे हैं। और सवाल मत पूछना क्योंकि जवाब हमारे पास है नहीं। सवाल मत पूछना।’

और वेदान्त कहता है, सिर्फ़ सवाल पूछना, मान मत लेना। और सावधान रहना क्योंकि भीतर एक दुश्मन बैठा है, जो मानने पर ही चलता है और वह कहता है, जानने का श्रम कौन करे, जल्दी से मान्यता बना लो। और वेदान्त कहता है, सतर्क रहो, वह मानने वाली माया बैठी है। मानना नहीं है, बाल की खाल निकालो, गड़े मुर्दे उखाड़ो। जो मुद्दे लगता था कि सुलझे हुए हैं, खोजो कि कहीं उनमें भी तो उलझाव शेष नहीं है। जहाँ लगता है सब ठीक है, वहाँ भी जाँच-पड़ताल करो। ये वेदान्त है। बल्कि कहता है, जहाँ लगता है सब ठीक है, वहाँ ज़्यादा जाँच-पड़ताल करो।

दोहराते हैं बात को। क्या ठीक है क्या नहीं, ये पता होना बहुत अच्छी बात है। नैतिकता भी यही बताने का प्रयास करती है कि क्या ठीक है क्या नहीं। फिर नैतिकता में समस्या क्या है?

नैतिकता सही और ग़लत का फ़ैसला करती है, जनमत के आधार पर। वह समाज का एक सामूहिक और परम्परागत निर्णय होता है। वह एक सामूहिक निर्णय होता है, उसमें व्यक्ति नहीं निर्धारित कर सकता, क्या नैतिक, क्या अनैतिक। वो एक पूरी भीड़ ने तय कर रखा है पहले ही कि क्या ठीक है क्या ग़लत।

तो पहली बात वो सामूहिक होती है। और दूसरी बात, वो समूह ने भी सोचा नहीं होता है, उसने परम्परा से उधार ले लिया होता है। ऐसा भी नहीं कि यहाँ सौ लोग बैठ गए और सब ने बैठकर के चिंतन-मनन, विचार-विमर्श करा, बातचीत करी और बातचीत करके निर्धारित किया कि क्या ठीक है क्या ग़लत है। ऐसा भी नहीं होता। तो नैतिकता सामूहिक होती है और समूह ने भी बस परम्परा से ले लिया होता है, तो परम्परागत होती है। इसलिए वहाँ समस्या है।

वरना जो नैतिकता का प्रयास है, वह प्रयास तो अच्छा ही है। क्या प्रयास है नैतिकता का? सही और ग़लत में भेद कर पाना, नीति और अनीति में भेद कर पाना। वह तो ठीक है, अच्छी बात है। लेकिन वो जो भेद है, वो तुम बेहोशी में थोड़ी कर लोगे। सिर्फ़ ऐसे थोड़ी भेद कर लोगे कि पिताजी करते थे तो हमने भी कर लिया। वो भेद करने के लिए क्या होना चाहिए? बोध होना चाहिए, उसी को विवेक कह रहा हूँ।

नैतिकता में ये समस्या है, उसमें मनुष्य के विवेक के लिए कोई जगह नहीं होती। बल्कि मनुष्य के विवेक से चिढ़ती है वह। क्योंकि मनुष्य तो एक इकाई होता है स्वतंत्र, और नैतिकता होती है सामूहिक। और जब मनुष्य समूह से अलग खड़ा होता है, अपने विवेक, अपने बोध, अपने डिस्क्रीशन को लेकर तो समूह घबरा जाता है कि देखो! एक बाग़ी हो गया, विद्रोही हो रहा है। तो समूह में खलबली मच जाती है। तो फिर नैतिकता विवेक की, बोध की दुश्मन बन जाती है। नैतिक आदमी हत्या भी कर सकता है, आध्यात्मिक आदमी की। और नैतिक लोगों ने आध्यात्मिक लोगों की हत्याएँ ख़ूब करी हैं।

क्या सही है क्या ग़लत, इसका फ़ैसला न समाज करेगा, न परम्परा; इसका फ़ैसला सिर्फ़ और सिर्फ़ आपका अपना जागरण कर सकता है। किस राह चलना है किस राह नहीं, ये सिर्फ़ आपकी आन्तरिक जाग्रति, अंदरूनी ज्योति तय कर सकती है। समझ में आ रही है बात?

‘पर आचार्य जी, ऐसे तो समाज में अनाचार फैल जाएगा। एनार्की (अराजकता) हो जाएगी। भगदड़, केऑस मचेगा। सब अपनी-अपनी चलाएँगे।’ ये डर तुम्हें सिर्फ़ तब तक लग रहा है, जब तक तुम्हारी अपनी आँखें खुली नहीं हैं। तुम्हें डर लग रहा है कि, ‘अरे! अगर अपने विवेक पर सब चलने लगे तो क्या होगा, क्या होगा, क्या होगा?’ कुछ नहीं होगा। अच्छा होगा।

दो स्थितियाँ दे रहा हूँ, उनमें तुलना करिएगा। एक स्थिति है… ब्राउनियन मोशन (किसी तरल के अन्दर तैरते हुए कणों की टेड़ी-मेढ़ी गति) कितने लोग जानते हैं? ब्राउनियन मोशन। किसी भी फ्लुएड में, चाहे वह लिक्विड हो या गैस हो, इसमें जो मॉलिक्यूल्स होते हैं, वो रेंडम मूवमेंट करते रहते हैं, अलग-अलग दिशाओं में और अलग-अलग गति से। उनकी कोई एक निश्चित दिशा नहीं होती, कोई एक निश्चित गति नहीं होती। गति भी शून्य से लेकर इंफिनिटी (अनन्त) तक कितनी भी हो सकती है। उसका अपना एक नॉर्मल कर्व (सामान्य वक्र) होता है। और जितनी भी दिशाएँ संभव हैं, हर दिशा में वो गति करते हैं। और अरबों-अरब की संख्या में होते हैं, सिर्फ़ इसमें (कप दिखाते हुए)। इतने में न, अरबों-अरब से ज़्यादा क्या हैं? अणु-परमाणु हैं। और वो सब ऐसे-ऐसे… तो वो आपस में क्या करते रहते हैं? सब भिड़ते रहते हैं। वो क्यों भिड़ते रहते हैं? सब अन्धे हैं, सब अन्धे हैं, सब अन्धे हैं। ठीक?

अब एक भीड़ भरे मैदान की आप कल्पना करिए। एक मैदान है, जिस पर बहुत भीड़ है। कभी देखा है, मेला जैसे लगा हो मान लो, देखा है? और वहाँ पर भी मान लीजिए पचास हज़ार लोग मौजूद हैं। पचास हज़ार लोग मौजूद हैं, उनमें से कितने लोग आपस में भिड़ रहे होते हैं? कितने लोग भिड़ रहे होते हैं? बहुत कम न।

और वो एक मैदान है। वहाँ पर ऐसा नहीं कि, आपने सड़क बना रखी है या ट्रैक (रास्ता) बना रखे हैं या कदम-कदम पर निर्देश दे रखे हैं कि, इस पर ही चलना है, इस पर नहीं। खुला मैदान है, कोई कहीं भी चल सकता है। ठीक वैसे-जैसे इसमें (कप में) खुला मैदान है। कोई भी मॉलिक्यूल किसी भी दिशा को जा सकता है। पर क्या मेले में लोग एक-दूसरे से भिड़ रहे होते हैं? क्यों नहीं भिड़ रहे होते? वो किसी बाहरी दिशा-निर्देश पर नहीं चल रहे, फिर भी आपस में भिड़ क्यों नहीं जाते? क्योंकि हर व्यक्ति एक स्वतंत्र इकाई है, जो जाग्रत है। और वह अपनी जाग्रति के अनुसार निर्णय ले रहा है, ऐसे बढ़ना है और दिखे कोई सामने से तो ऐसे मुड़ जाना है।

पर हमें डर लगता है। हम कहते हैं, जब तक हम सबको बैठाकर के एक नैतिक ट्रेनिंग नहीं दे देंगे, तब तक तो लोग आपस में भिड़ जाएँगे न। कोई भिड़ता है? मेले में लोग भिड़ रहे होते हैं एक-दूसरे से? और उन्हें कोई ट्रेनिंग नहीं दी गयी है। उनकी आँख, उनका अपना प्रकाश काफ़ी है उन्हें भिड़ने से बचाने के लिए। ये होता है विवेक, इंडिविजुअल डिस्क्रीशन , पर्याप्त है। समझ में आ रही है बात? सोचिएगा।

बहुत बड़ा, अब पचास हज़ार भी नहीं, उसमें दो लाख लोग मौजूद हैं। ऐसा भी होता है, दो-दो लाख लोग हैं। वो क्या भिड़ जाते हैं आपस में? हाँ, अब कोई अपवाद स्थिति हो, उसमें भगदड़ मच जाए, ये सब हो जाए, वो अलग है। पर सामान्यता उनकी अपनी नज़र, उनका अपना निर्णय पर्याप्त होता है। होता है कि नहीं होता है? हाँ तो फिर डरना क्या इतना?

माँ-बाप क्यों इतना डर रहे हैं कि बच्चों को अगर छोड़ दिया कि ज़िन्दगी के फैसले सोच-समझकर ख़ुद ही ले लो, तो बच्चे न जाने कहाँ जाकर भिड़ जाएँ, गिर जाएँ। क्यों डर लग रहा है इतना? बच्चों में क्षमता विकसित करो न, उनकी आँखों को रोशनी दो - अंदरूनी आँखों की बात कर रहा हूँ - और देखो फिर वो अपना ले लेंगे निर्णय। कहीं नहीं भिड़ जाते।

मुद्दा स्पष्ट है? कुछ अभी इसमें अटक रही है बात?

देखो! अपना निर्णय लेना और - पूर्ण बोध तो किसी को हो नहीं जाता - अपना निर्णय लोगे तो उसमें संभव है कि कोई कमी, खामी, खोट रह जाए। अपना निर्णय लो और ग़लती कर बैठो, चोट खा जाओ, वो फिर भी ठीक है। लेकिन उधार का, समाज का, परम्परा का निर्णय लो और सुरक्षित बने रहो, वो भी ठीक नहीं है।

अपनी ज़िन्दगी अपनी रोशनी के अनुसार चलकर चोट खाना भी सही है, बजाए उधार के निर्णयों पर सुरक्षित रह जाने से। उधार के निर्णय कर लिए और उसमें सुरक्षा मिल गयी, तो भी मौत ही मिल गयी। और अपने हिसाब से चले, उसमें ऊँच-नीच हो गयी, ग़लती हो गयी - इंसान हो ग़लतियाँ तो करोगे ही - कोई बात नहीं।

ठोकर खाना कहीं बेहतर है, मुर्दा हो जाने से न!

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