खतरनाक‌ ‌हैं‌ ‌स्त्रियाँ‌?

Acharya Prashant

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खतरनाक‌ ‌हैं‌ ‌स्त्रियाँ‌?

प्रश्नकर्ता: उस तक जाने का रास्ता वही बताए, उसी ने शायद मुझे आपसे मिलवा भी दिया। साक्षात्कार के दौरान आपने कुछ ग्रंथों के पढ़ने के लिए कहा था जिनमें अष्टावक्र गीता, विवेक चूड़ामणि मुख्य थे। उनका पठन मैंने कर लिया है और आजकल रामकृष्ण परमहंस जी की कथामृत पढ़ रही हूँ। कबीर ग्रंथावली के भी कुछ अंश पढ़े हैं। यूँ तो इन ग्रंथों को पढ़ने के बाद, जो जिज्ञासु मन है वह शांत ही है। इधर-उधर के प्रश्न नहीं कर रहा है। पर एक प्रश्न है जो हमेशा से मेरे लिए प्रासंगिक रहा। वह प्रश्न आज आपके साथ साझा करना चाहती हूँ- बार-बार ज्ञानी जनों ने अलग-अलग स्थानों पर कहा है कि "स्त्रियों से दूर रहो! वह तुम्हारे लिए अति हानिकारक हो सकती हैं।" क्या आचार्य जी ऐसा विशेष रूप से स्त्री के पक्ष में ही कहा गया है? या फिर स्त्रियों के लिए भी पुरुष हानिकारक उतने ही हैं?

आचार्य प्रशांत: देखिए! भारत के और पूरब के समस्त प्राच्य दर्शन में लिंग की विशेष महत्ता नहीं है। किन तत्वों की बात की जाती है? कौन से तत्व आधारभूत माने गए हैं सब दर्शन में? मन! जिसको अनेकों नामों से संबोधित किया गया है। सत्य! जिसे पुनः अनेकों नामों से संबोधित किया गया है और मन और सत्य के मध्य की सच्ची-झूठी दूरी जिसे कभी माया कहा गया, कभी प्रकृति कहा गया, कभी अविद्या कहा गया। बाकी अध्यात्म के शब्दकोश में आपको जितने भी शब्द मिलें, वो समझ लीजिएगा कि इन्हीं दो-तीन मूल आधारों के या तो पर्याय हैं या जोड़-घटाव हैं। इन्हीं दो-तीन मूल शब्दों को लेकर के एक पूरा आध्यात्मिक जगत, एक समुच्चय, एक यूनिवर्सल सेट खड़ा हो जाता है। ठीक है? उसमें जीव की बात तो होती है, आदमी-औरत की बात नहीं होती। अच्छे से समझिए! जीव की बात तो होती है औरत-मर्द की, स्त्री-पुरुष की बात नहीं होती।

अध्यात्म की दृष्टि में आप में और आप में(सामने बैठे शिविर के दो प्रतिभागियों की तरफ ईशारा करते हुए) ये अंतर नहीं है कि आप शारीरिक रूप से स्त्री हैं और ये पुरुष हैं। अध्यात्म की दृष्टि से, आप में और आप में अंतर बस इस बात का है कि आप माया की ओर कितनी आकर्षित हैं? आपके जीवन के चुनाव कैसे हैं? और इनके जीवन के चुनाव कैसे हैं? और दोनों में समानता बल्कि एकता कहाँ पर है? की मूल रूप से दोनों एक हैं और चुनाव चाहे जो कुछ भी कर रहे हों, जैसे भी कर रहे हों, सब चुनावों का प्रकट-अप्रकट ध्येय एक ही है- जिसको सत्य भी कहते हैं, आत्मा भी कहते हैं, मुक्ति भी कहते हैं। बात समझ रहे हैं? तो ये तो अजीब बात हो गई एक ओर तो प्रश्न में ये कहा गया है कि बहुत सारे ग्रंथों में, बहुत सारे संतों ने भी स्त्री को नर्क का द्वार तक बता दिया, पुरुषों को कहा है उसी से दूर रहो और इस तरह की तमाम बातें। कई-कई जगह पर तो बड़े विस्तार से कही गई हैं। है न? और दूसरी ओर यहाँ ये वक्ता हैं (अपनी ओर इशारा करते हुए) जो कह रहे हैं कि अध्यात्म में स्त्री नाम की किसी इकाई को विशेष महत्व दिया ही नहीं जाता है। जब शारीरिक स्त्री को विशेष महत्व दिया ही नहीं जाता तो फिर वो कौन-सी स्त्री है जिसके बारे में संत जन कहते रहे हैं कि भैया! इससे बच के रहना।

वो कौन-सी स्त्री है? वो प्रकृति है! वो प्रकृति है!

भूलियेगा नहीं कि सांख्य दर्शन ने समस्त भारतीय दर्शन को बहुत गहराई से प्रभावित किया है। यहाँ तक कि सांख्य की छाया वेदांत के ऊपर भी दिखाई देती है। श्रीमद्भागवत गीता में जब श्री कृष्ण, अर्जुन को समझाते-सिखाते हैं तो सर्वप्रथम सांख्य योग ही, अध्याय-दो और सांख्य योग बात करता है प्रकृति और पुरुष के संदर्भ में। अब जब पुरुष कह दिया तो वहाँ पर आम मन में शंका, दुविधा, भ्रम ये हो जाता है कि पुरुष तो हम किसको कहते हैं मर्द को भी कहते हैं लेकिन पुरुष से आशय शारीरिक पुरुष नहीं है। लिंग के आधार पर बात नहीं करी जा रही है। लेकिन जब आपने पुरुष अर्थात चेतना का वो तत्व जो सत्य की ओर आकर्षित है उसको शारीरिक पौरुषता के समतुल्य मान लिया बल्कि शारीरिक पौरुषता के बराबर ही, शारीरिक पौरुषता का पर्याय ही मान लिया तो फिर प्रकृति आपको क्या माननी पड़ेगी? अगर पुरुष माने आदमी हो गया तो प्रकृति माने क्या हो जाएगा? औरत हो जाएगा न। तो ये थोड़ा-सा घपला हो गया है और कोई बात नहीं है।

संतों की जो सीख है कि स्त्री से बचो। अरे भाई! संत तो वो है जो पूरी दुनिया का कल्याण चाहता है- आदमी-औरत छोड़ दो, बच्चा-बूढ़ा भी छोड़ दो, वो तो पशु-पक्षियों का भी कीट-पतंगों का भी कल्याण चाहता है। घास के तिनके को भी क्षति नहीं पहुँचाना चाहता है। वो तो नदियों-पहाड़ों-पत्थरों के आगे भी सर झुकाता है। उसे तो कण-कण में देवत्व दिखाई देता है। जिसको कण-कण में देवत्व दिखाई देता होगा, जो गाय की, पीपल की, पत्थर की आराधना कर लेता होगा, वो औरतों को हेय या निंदनीय बताएगा क्या? साधारण बुद्धि की बात है। लेकिन बड़ा बवाल मचा हुआ है। सब दर्शन की बल्कि दर्शन से ज्यादा धर्म की बड़ी निंदा है कि धर्म ने तो स्त्रियों का शोषण करा है, उनको दबा कर रखा है, सब धर्म ही नारी के प्रति उपेक्षा ही नहीं हिंसा से भरा हुआ है। कुछ पहुँचे हुए लोग तो कह जाते हैं कि भारत का धर्म मिसोजिनिस्ट रहा है। मिसोजिनिस्ट समझते हैं? नारी पीड़क।

ऐसा नहीं है। तो जब कहीं पर कोई संत जन कहें कि स्त्री से बचो! तो वो सीख पुरुष को ही नहीं स्त्री को भी दी जा रही है। जिसको आप आदमी कहते हैं या मर्द कहते हैं, उसके भीतर भी पुरुष और प्रकृति हैं और जिसको आप नारी या महिला या स्त्री कहती हैं उसके भीतर भी पुरुष और प्रकृति हैं। ये बात ध्यान से समझिएगा- बात यहाँ शारीरिक, जिस्मानी तौर पर नहीं हो रही है। बात सूक्ष्म है पर अगर बुद्धि सूक्ष्म नहीं है तो सूक्ष्म बात को भी हम क्या बना लेते हैं? मोटी बात, स्थूल बात। तो कोई आदमी है, आदमी से हमारा क्या अर्थ है? मैन, मर्द। उसके भीतर भी क्या है? पुरुष और प्रकृति और प्रकृति को ही क्या कहा गया है? स्त्री। क्योंकि भाई, पुरुष का जोड़ा किसके साथ बनता है? स्त्री के साथ। अब सांख्य ने पुरुष का जोड़ा बना दिया है प्रकृति के साथ। तो नतीजा ये निकला है कि पुरुष और स्त्री साथ चलते हैं। पुरुष और प्रकृति को साथ कर दिया तो प्रकृति ही किसका पर्याय हो गयी? स्त्री का पर्याय हो गयी। इसीलिए पुरुष के साथ लगा भी दिया जाता है कौन सा लिंग? पुल्लिंग। और प्रकृति के साथ कौन सा लिंग लगा दिया जाता है? स्त्रीलिंग। तो जिसको हम मर्द बोलते हैं उसके भीतर भी पुरुष और प्रकृति हैं और जिसको हम औरत बोलते हैं उसके भीतर भी पुरुष और प्रकृति हैं। ये सीख दोनों को दी जा रही है कि प्रकृति अर्थात स्त्री से बचकर रहना।

तो अब समझे कि ये जो कहा जा रहा है हर जीव के भीतर पुरुष और प्रकृति हैं, इससे आशय क्या है? प्रकृति है वो सब कुछ जो बिल्कुल यंत्रवत है। जो बस चल रही है। जिसको अपने चलने से कोई वास्तव में आपत्ति नहीं है, जिसकी सारी व्यवस्था मात्र चलते रहने की है। जो एक चक्र में घूम रही है और उसे उस चक्र से बाहर आने की कोई लालसा नहीं है। अर्थात प्रकृति वो जिसे मुक्ति की कोई आकांक्षा नहीं है। बात समझ रहे हैं? तो हम क्या हैं? जीव। और हमारे भीतर बहुत कुछ ऐसा है जिसे मुक्ति की कोई आकांक्षा नहीं है। आपके भीतर जो कुछ भी ऐसा है, आपकी व्यवस्था में जो कुछ भी ऐसा है जो मुक्ति कभी माँगता ही नहीं, जिसको जीवन के ढर्रों से कोई आपत्ति होती ही नहीं, वो अधिक से अधिक ये कहता है कि मुझे और ज़्यादा सुविधाजनक और सुखद ढर्रे दे दो। उसको कहते हैं प्रकृति। वो मुक्ति नहीं माँगता। वो अधिक से अधिक क्या माँगता है? सुख। अधिक से अधिक। उसे आगे नहीं जाना उसे अधिक से अधिक ये करना है कि वो जहाँ है, वहीं उसे गोल-गोल चक्रवत घूमते रहना है। उसे क्या बोलते हैं? प्रकृति। अच्छे से समझियेगा।

अब आप मुझे बताएँगे कि हमारी व्यवस्था में प्रकृति के उदाहरण क्या-क्या हैं? हमने प्रकृति को कैसे परिभाषित किया? वो जो जिस तल पर है, वो जो जिस दायरे, जिस चक्र के भीतर है, उस चक्र के भीतर ही संतुष्ट हैं, उसे बाहर नहीं आना, उसे मुक्ति की कोई आकांक्षा नहीं। हाँ, उसको तकलीफ सिर्फ तब होती है जब उसे उसके चक्र के भीतर रोका जाता है, बाधित किया जाता है। उसे उस चक्र में घूमते रहना है। बताइए हमारे भीतर ऐसा क्या है?

प्र: पूरा शरीर ही।

आचार्य: तो मैं कहूँगा कि एक बहुत अच्छा उदाहरण हैं- आँत। हम में से किसकी-किसकी आँत को मुक्ति चाहिए भाई? या दाँत। किसकी आँत को? किसके दाँत को मुक्ति चाहिए? लेकिन दर्द होता है- आँत में भी और दाँत में भी। पर क्या ये वैसा ही दर्द है जैसा किसी वैज्ञानिक को अपने प्रयोग के असफल होने पर होता है? हीर को राँझा से बिछुड़ने पर होता है? संत को अपनी साधना के अपूर्ण रह जाने पर होता है? क्या आँत और दाँत का दर्द ऐसा होता है? आँत और दाँत में दर्द होता तो है, निष्प्राण नहीं है वो। लेकिन उन्हें दर्द अधिक से अधिक किस बात का होता है? किस बात का होता है?

प्र: साईकल से हटने का।

आचार्य: बिल्कुल सही! इन्होंने कहा साईकल से हटने का। उनका चक्र नहीं टूटना चाहिए। दाँत एक जगह पर आ कर टंग गया है। अब वो जैसा टँगा हुआ है मसूढ़े में, जबड़े में जैसा घुंसा हुआ है, धंसा हुआ है, वो वैसा ही धंसा हुआ रहे और ये जो माँस में धंसा हुआ दाँत है इसको अगर कोई मुक्का मारकर के उखाड़ दे तो दांत को बड़ी जोर का दर्द होता है। आँत को क्या चाहिए? आँत को भी अपने ढर्रे चाहिए। एक प्रकार का भोजन मुझ में आता रहे, मैं उसमें कोई कुछ रासायनिक-जैविक क्रिया करती रहूँ, उसमें से जो कुछ भी पचाने योग्य है उसको सोख लूँ और जो कुछ पचाने योग्य नहीं है उसको आगे निकाल दूँगी। भैया! उत्सर्जित करो। ये आँत का काम है। आँत को दर्द कब होगा? जब उसमें कुछ ऐसा पहुँच जाए जिसके लिए उसकी रचना ही नहीं हुई है या उसमें जो पहुँचा है वो आगे बढ़ने की जगह अटक जाए। अब आँत को दर्द हो जाएगा।

और क्या है हमारे भीतर? जो चलते तो रहना चाहता है पर इतना कभी नहीं चलना चाहता कि चलते-चलते दूर ही निकल जाए, आगे ही निकल जाए, पार चला जाए। चलता तो खूब है, जैसे दाँत चलता है, जैसे आँत चलती है, जैसे पलक झपकती है, जैसे दिल धड़कता है और क्या है हमारे भीतर जो निरंतर चलता है? लेकिन चलता अपने चक्र में ही है, बाहर नहीं जाना उसे।

प्र: रक्त, मन।

आचार्य: रक्त, इन्होंने कहा बहुत बढ़िया और अब इन्होंने थोड़ी सूक्ष्म बात कर दी इन्होंने कहा मन। हमारे मन में बहुत कुछ ऐसा है जो संतुष्टि पाता है पुराने ढर्रों में, अतीत के संस्कारों में, वो सब कहलाएगा प्रकृति। उसी को नाम दे दिया गया है स्त्री भी। ठीक है? समझ में आ रही है बात? लोगों को देखा है न? वो सोचते तो हैं, हर समय सोचते रहेंगे, जैसे बीमारी हो गई हो सोचना। लेकिन एक ही तल पर और एक ही चक्कर के बीच में सोचेंगे। इतना ही नहीं एक ही विचार उन्हें दो-दो घंटे में पलट-पलट के आएगा। अरे भाई! यही बात सोचनी थी तो सोच तो लिए अभी दो घंटे पहले भी यही सोचा था। अब कुछ जरा आगे का…? आगे का कुछ नहीं। ये जो है, जो पलट-पलट कर जीने में, उतार-उतार कर पहनने में, दो कदम दाएँ जाने में और फिर दो कदम बाएँ जाने में ही यकीन रखता है, वो हमारे भीतर विद्यमान हैं उसको कहते हैं- प्रकृति।

पूरा शरीर ही एक तरह से प्रकृति है। ये उंगलियाँ, ये आँख, ये नाक, ये सब बहुत ही संस्कार बद्ध तरीके से चलते हैं, इनके जैविक संस्कार हैं। जिसे हम मन कहते हैं उसके संस्कार जैविक भी हैं और सामाजिक भी हैं। कुछ तो वो शारीरिक रूप से वो वृत्तियाँ लेकर आता है जन्म के साथ ही और बाकी वो सबकुछ कहाँ से पाता है? समाज से, दुनिया से, शिक्षा से, यहाँ से... लेकिन जहाँ से भी पाता हो चाहे शरीर से पाया हो, चाहे समाज से पाया हो, रहता वो अपने चक्र के भीतर ही है। जो कुछ भी अपने चक्र के भीतर संतुष्ट है और चक्र के भीतर ही नाचने-गाने में तृप्त है, उसको कहते हैं- प्रकृति या फिर आम बोलचाल की भाषा में- स्त्री।

तो फिर हमारे भीतर का पुरुष कौन हुआ? कुछ ऐसा भी है हमारे भीतर जो हमें इस शिविर में ले आता है। अब ये शिविर आपके ढर्रों का हिस्सा तो नहीं है। आप कुछ नहीं जानते, यहाँ क्या होने वाला है। लोग अज्ञात की खोज में न जाने कैसे-कैसे खतरे उठा लेते हैं? जान गँवाना तो छोटी बात है वो अपना पूरा व्यक्तित्व, अपनी पूरी अस्मिता तक गँवा डालते हैं न जाने क्या पाने के लिए? भीतर हमारे कुछ ऐसा बैठा है जो किसी सीमा के भीतर रहकर संतुष्ट हो नहीं पाता। उसे कुछ और चाहिए वो अपनी अभिव्यक्ति कभी करता है संसार के खोजी के रूप में। जब वो संसार के खोजी के रूप में अपनी अभिव्यक्ति करता है तो वो वैज्ञानिक इत्यादि बन जाता है। जब वो स्वयं को उद्घाटित करके अपनी अभिव्यक्ति करता है तो वो कलाकार, लेखक, चित्रकार आदि बन जाता है। जब वो शारीरिक तौर पर सब सीमाओं को तोड़कर कहीं निकल जाना चाहता हो तो वो पर्वतारोही बन जाता है, अंतरिक्ष यात्री बन जाता है, गहरे समुंदर का गोताखोर बन जाता है। ये सब क्या करा जा रहा है? ये सब वो करा जा रहा है, जो करने के लिए प्रकृति आपको कभी प्रेरित नहीं करती।

हमको देखो, हमारे शरीर को देखो, हमारी प्रकृति हमसे कभी कहेगी कि जाकर के एवरेस्ट पर चढ़ जाओ? कहेगी? तो कौन बैठा है हमारे भीतर? जो सारे खतरे उठाकर भी हमसे कहता है- जा चढ़ जा तू! चढ़ जा! हिमालय पर चढ़ जा! क्या मिलना है वहाँ पर? आँत से पूछो कभी, हिमालय जाना है? आँत कहेगी "पगला गये हो क्या? खाना लाओ! खिलाओ! हम भी सोएँ! तुम भी सो जाओ!" दांत से पूछो कि चढ़ना है, बिल्कुल हिमशिखर पर? वो कहेगा "मैं तो बजूंगा, मेरा वहाँ इतना-ही काम है कि मैं दन-दना कर बजूंगा। मुझे काहे परेशान कर रहे हो वहाँ ऊपर चढ़ा करके? ये सब नहीं ठीक।" हृदय से पूछो, हृदय माने वो सूक्ष्म हृदय नहीं, ये (अपने सीने की ओर इशारा करते हुए) जो मांसपेशियों का लोथड़ा बैठा हुआ है छाती में। इससे पूछो कि क्या भाई! चढ़े ऊपर? ये कहेगा "देखो दादा! ऑक्सीजन होती है वहाँ कम और हमें करना पड़ेगा बहुत श्रम! तो वहाँ नहीं चढ़ने का।" फेफड़ों से पूछो तो वो कतई विद्रोह कर देंगे, वो कहेंगे "पगला गए हो? यहाँ अच्छा चल रहा है मामला। सब ठीक है! नहीं जाना ऊपर।" घुटनों से पूछो, वो कहेंगे "हम तो वैसे ही? ज़िद्द तुम्हारी और झेलेंगे हम? इस पूरे शरीर का वजन हम हीं पर आना है।" शरीर तो पूरा इंकार ही कर देगा और ये तो अभी मैं बात कर रहा हूँ बस एवरेस्ट की। अब बात अगर करे चंद्रमा पर जाने की, मंगल ग्रह पर जाने की, अरे किसी और आकाशगंगा तक पहुँच जाने की, तो ये शरीर क्या बोलेगा? क्या बोलेगा? नहीं! और बात करूँ अगर किसी धर्म युद्ध की? तब भी शरीर क्या बोलेगा? ज़रूरत क्या है यार? क्यों फालतू के पंगे ले रहे हो? ये क्या धर्मयुद्ध! धर्मयुद्ध! जो हो रहा है चलने दो, शांति से घर में बैठो न ठंड बहुत है! राड़ा नहीं करने का!

लेकिन सूरमा होते हैं, जो जान भी रहे होते हैं कि जान जाएगी तो भी जान-बूझकर जान गवाँने को तैयार हो जाते हैं। ये कौन बैठा है हमारे भीतर? जो शरीर की परवाह नहीं करता, जिंदगी की परवाह नहीं करता, हाथ तो नहीं है, फेफड़ा भी नहीं है, नाक भी नहीं है, समाज प्रदत्त संस्कार भी नहीं है, प्रकृति प्रदत्त संस्कार तो बिल्कुल ही नहीं है, ये क्या, चीज़ क्या है हमारे भीतर? जो कुछ ऐसी अतृप्त है कि उसे कुछ बहुत दूर का चाहिए और उसे वो दूर की चीज़ न मिले तो बेचैनी रहती है। उसको कहा गया है- पुरुष।

ये जो पुरुष है न ये बड़ी बीच की स्थिति में होता है, जैसी फंसी हुई हालत में। इसके एक तरफ तो है इसका ध्येय- जिसको कहा गया है मुक्ति और इसकी दूसरी तरफ कौन है? प्रकृति जिसको कहा गया है स्त्री और ये फंसा हुआ है। समस्त अध्यात्म इस पुरुष को ही संबोधित करता है। सारा अध्यात्म पुरुष मात्र के लिए है। मुक्ति के लिए नहीं है अध्यात्म क्योंकि जो मुक्त हो ही गया है वो अध्यात्म का क्या करेगा? और प्रकृति के लिए भी नहीं है अध्यात्म क्योंकि प्रकृति तो जिस हालत में है वो उस हालत में ही तृप्त है। प्रकृति और मुक्ति के बीच में कौन बैठा है? पुरुष। और उसके लिए दोनों दिशाएँ संभव है। कौन-सी दिशा? वो या तो इधर को खिंच जाए या उधर को खिंच जाए।

तो जितनी सीख है सब धर्म ग्रंथों की, सब ज्ञानी जनों की, उसमें किसको संबोधित किया जा रहा है? पुरुष को। पुरूष माने आदमी या मर्द नहीं। पुरुष माने आपकी चेतना का वो तत्व जो मौजूद तो है पर मौजूद नहीं होना चाहता। जो अधूरा तो है पर अधूरा नहीं रहना चाहता, उसको पुरुष कहा जाता है। पुरुष माने मेल नहीं होता अध्यात्म की भाषा में- एम ए एल ई। जब अध्यात्म में पुरुष की बात हो तो उसको मेल नहीं समझ लेने का। वो कोई और बात हो रही है। समझ में आ रही है बात?

तो पुरुष, स्त्री के भीतर भी बराबर का मौजूद है। स्त्री माने महिला। पुरुष, महिलाओं के भीतर भी बराबर का ही मौजूद है। महिलाओं को नहीं झंझट होता? कहाँ फँस गए? नहीं होता? झंझट न होता तो आप यहाँ शिविर में काहें को होती? चाहे कामकाजी महिला हो, चाहे गृहस्थ महिला हो, खीजती नहीं है? अगर कामकाजी है, दफ्तर जाती है या अपना व्यवसाय चलाती है, तो भी चिढ़ नहीं जाती? कहाँ फंसी हुई हूँ? और अगर घर में ही रहती है, तो नहीं कहती है? चूल्हा-चौकी! इसी के लिए पैदा हुए थे? यही करना है बस? पति का खाना, बच्चों के कपड़े, यही चलता रहेगा जिंदगी भर? उसके भीतर भी कुछ बैठा है जो माँग रहा है- मुक्ति। ये जो मुक्ति माँग रहा है इसी का नाम है- पुरूष और जो मुक्ति नहीं माँग रहा है उसका नाम है- प्रकृति। ये बात याद रहेगी? हमारे भीतर क्या हैं? दोनों- हमारे भीतर कोई है जिसे मुक्ति बिल्कुल नहीं चाहिए, वो बहुत सारा है। कितने किलो है आपका वज़न? अगर आपका वजन है सत्तर किलो तो आपके भीतर सत्तर किलो ऐसी सामग्री है जिसे मुक्ति बिल्कुल नहीं चाहिए। लेकिन आपके भीतर कोई है, जिसका कोई वजन तो नहीं है, पर ताकत उसमें बहुत है- उसे मुक्ति चाहिए। उसको कहा गया है- पुरुष।

ये जो भीतर पुरुष और स्त्री का जो जोड़ा है। इसमें स्त्री बड़ी मोटी-तगड़ी है, सारा वज़न उसी का है और पुरुष बहुत दुबला-पतला है, उसका कोई वजन ही नहीं है। बात समझ में आ रही है? जितना वजन है किसका है? स्त्री का और पुरुष का कोई वजन है ही नहीं, वो चेतना मात्र है। पुरुष तो स्त्री को देखता है, "तुसी मोटे-मोटे हो!" वही है, सारा वजन उसी का है। आपके माँस का आखिरी ग्राम भी क्या है? प्रकृति। उसी को स्त्री भी बोला गया है। तो हम ऊपर से लेकर नीचे तक क्या हैं? स्त्री। यहाँ तक कि आपकी मूँछे भी क्या हैं? स्त्री हैं। ये क्या हो गया? मूँछे भी स्त्री हैं? जी मूँछे भी स्त्री हैं। एक छोटा बच्चा पैदा होता है, अरे! छोटा बच्चा क्या, बड़ा भी हो गया है, भले वो लड़का पैदा हुआ है, आगे चलकर के वो जवान आदमी बन गया है, तब भी उसके शरीर की एक-एक कोशिका क्या है? स्त्री है। भले ही वो पुरुष है लेकिन उसकी दाढ़ी भी स्त्री है। भले ही वो पुरुष है लेकिन उसके अंडकोष भी स्त्री हैं। ये बात समझ में आ रही है?

तो हम सब क्या हैं? स्त्री। इसी बात को, भक्ति मार्ग वालों ने ऐसे भी कह दिया कि-"दुनिया में जितनीं हैं सब स्त्रियाँ ही स्त्रियाँ हैं, पुरुष तो एक ही है।" कुछ अब बात समझ में आई? क्यों उन्होंने कह दिया कि जितनीं हैं सब औरतें हैं? क्योंकि भाई हम जैसे हैं ऊपर से लेकर नीचे तक- नाखून माँग रहा है मुक्ति? माँग रहा है क्या? आँख माँग रही है क्या? आँख तो प्रसन्न हो जाती है इधर-उधर दिख गया कुछ, हाँ, बढ़िया है! अच्छा है! ठीक! खाल मुक्ति माँग रही है? मॉइस्चराइजर दे दो, मुक्ति क्या करना है? और साबुन-वाबुन बता दो। लेकिन आप मोटे हों कि पतले हों, नाटे हों कि लंबे हों, बच्चे हों कि बूढ़े हों और आदमी हों चाहे औरत हों, हम सब में अनिवार्य रूप से पुरुष भी मौजूद है। और वो पुरुष बड़े झंझट की चीज है। उसी पुरुष की बेचैनी को संबोधित करने के लिए, उसी को शांत करने के लिए, सब अध्यात्म की रचना की गयी है। प्रकृति के किसी काम का नहीं है अध्यात्म। सारा अध्यात्म उस झंझटी पुरुष के लिए ही है। ठीक है? बात आई समझ में?

तो ये सब बहुत बचकानी बातें हैं कि अरे! अरे! देखो! संत-ऋषि वगैरह तो औरतों के खिलाफ थे। ये सब बातें वही करेंगे जिन्हें अध्यात्म का 'अ' नहीं पता और हास्यास्पद बात ये है, मस्त चुटकुला ये है कि ऐसे लोग अक्सर अपने आपको बुद्धिजीवी बोलते हैं, ऐसों ने बड़ी-बड़ी किताबें लिख दी हैं। पचासों किताबें हैं इस विषय पर कि "देखो, धर्म ने और अध्यात्म ने औरतों के साथ कैसा भेदभाव किया है!" उन्हें कुछ पता ही नहीं है। न उन्होंने दर्शन पढ़ा है, न शास्त्र कभी खोलकर देखे हैं, वो अपनी भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं किसी ऐसे वाक्य का अर्थ निकालने के लिए जो उनकी भाषा में लिखा ही नहीं गया है। बात समझ में आ रही है? जैसे कि कोई अंग्रेजीभाषी हो और उससे तुम बोलो 'कम' तुम्हें अंग्रेजी नहीं आती, उसको हिंदी नहीं आती पर तुमने उससे बोल दिया- 'कम' तो वो ये थोड़े-ही कहेगा कि मुझे समझ में ही नहीं आया कि क्या बोला? वो सोचेगा तुमने बोला है सी ओ एम ई 'कम' और तुम बोल रहे हो 'है कम!' 'है कम!' कम है भाई! और वो सोचेगा तुम कह रहे हो- "हे कम!" वो पगले को ये समझ में ही नहीं आएगा कि भाषा अलग-अलग है। वो जो बात सोच रहा है, वो बात कही ही नहीं जा रही।

प्र: आचार्य जी, जैसे आपने बोला कि जो वजन है- वो स्त्री का ज्यादा है और पुरुष का कोई वजन ही नहीं है। तो यहाँ पर जैसे फ्रेम ऑफ रिफरेंस महत्वपूर्ण है कि आप मैटेरियलिस्टिक वर्ल्ड में अगर आप देखें तो स्त्री का बहुत वजन है और अध्यात्म के नजर से देखें तो पुरुष का वजन बहुत ज्यादा है। ऐसा कह सकते हैं?

आचार्य: नहीं, अध्यात्म पुरुष के लिए ही है। पुरुष के अलावा कौन है जो चित्कार कर रहा है? पुरुष के अलावा कौन है जो छटपटा रहा है? एक बात बताइए- पशु होते हैं। पशुओं के लिए कभी आवश्यक रहा है क्या कि उनको किसी तरह की आध्यात्मिक-धार्मिक शिक्षा वगैरह दी जाए? नहीं न। क्यों? क्योंकि पशुओं के भीतर वो तत्व ही नहीं जो मुक्ति माँगता हो और अगर वो तत्व मौजूद भी है तो बहुत क्षीण शक्ति के साथ मौजूद है। कोई पशु कभी बेचैन होता नहीं इसीलिए किसी पशु को, किसी अध्यात्म की कभी जरूरत पड़ती नहीं। आदमी बहुत उदास, दुःखी, अतृप्त, अपूर्ण रहता है। बुद्ध का पहला आर्ष वचन याद करिये- "जीवन दुःख है।" ये बात आप किसी बंदर को, या गधे को, या शेर को, या सूअर को नहीं कह सकते। वो कहेगा जीवन दुःख है? ऐसी तो कोई बात है नहीं अपने साथ। भाई अपनी तो लाइफ कूल चल रही है। हटो सामने से, अमरूद है उधर पेड़ पर। कैसे दुःख है जीवन? लाइफ कूल!

आदमी अकेला है जिसके लिए जीवन दुःख है। तो जब जीवन दुःख है और लोग दुखी हैं तो लोगों के दुख को देखकर ऋषियों ने करुणावश कुछ शोध किया, कुछ सीख दी, कुछ बातें बतायीं, उसी को कहा जाता है- अध्यात्म। आप परेशान न होइए तो अध्यात्म का आपके लिए कोई उपयोग, कोई मूल्य बिल्कुल भी नहीं है चूँकि आप परेशान हैं इसलिए आपकी परेशानी को दूर करने के लिए अध्यात्म है और यहाँ पर स्पष्ट करना जरूरी है कि अध्यात्म आपकी उन परेशानियों को दूर करने के लिए नहीं है जिनका संबंध प्रकृति और मात्र प्रकृति से है। प्रकृति के दायरे में भी बहुत परेशानियाँ होती हैं उदाहरण के लिए बंदर जिस बाग में रहता था, इस बार वहाँ अमरुद नहीं फले, अब बंदर परेशान हैं। इस परेशानी को अध्यात्म बिल्कुल नहीं दूर कर पाएगा। तो जिन परेशानियों का संबंध प्रकृति मात्र से है उन परेशानियों में अध्यात्म का उपयोग मत करने लग जाएगा। बहुत लोग करते हैं बल्कि ज़्यादातर लोग यही करते हैं कि- जाएँ जरा हनुमान जी को लड्डू चढ़ा आएँ तो लड़का पैदा हो जाएगा या परीक्षा में नंबर आ जाएँगे या पैसे मिल जाएँगे। इन सब बातों का संबंध मुक्ति की छटपटाहट से है क्या? तो धर्म का और अध्यात्म का क्षेत्र सिर्फ उतना है जितने में आप मुक्ति के लिए तड़प रहे हैं। जहाँ पर आप प्रकृति के लिए तड़प रहे हैं वहाँ धर्म कुछ नहीं कर पाएगा आपकी मदद। बिल्कुल नहीं! आप जाएँ कहीं, मेरी शादी नहीं हो रही है, गणेश जी मेरी शादी करा दो तो ये धर्म नहीं है, ये मूर्खता है। कोई गणेश जी, इसमें आपकी कोई मदद नहीं करने वाले। उनका ये काम ही नहीं है। कुछ बात समझ में आ रही है? घुटने में दर्द रहता है, कह रहे हैं जाकर फलाने पेड़ के पांच चक्कर मार लो तो घुटने का दर्द ठीक हो जाएगा। अरे भाई! यह अध्यात्म का काम नहीं है घुटने का दर्द ठीक करना। वजन बढ़ गया है वजन कम करने के लिए लोग कह रहे हैं कि हम योग करते हैं। अरे! योग का काम वजन घटाना थोड़े ही होता है? वजन घटाने की अपनी अहमियत है लेकिन वो अहमियत अध्यात्म के क्षेत्र में नहीं आती।

प्र: तो फिर ये चीज इर्रेलेवेंट (गैर महत्वपूर्ण) ही हो गई अध्यात्म में कि स्त्री को प्रकृति क्यों बोल दिया और पुरुष को ऐसा क्यों बता दिया?

आचार्य: बिल्कुल! देखिए उस हद तक ये बात रिलेवेंट या प्रासंगिक है, जिस हद तक ये बात आप की मुक्ति में बाधक बनती हो। समझाए देता हूँ। अब कोई लड़की है, युवा लड़की है, आज के समय की प्रगतिशील लड़की है, खुले विचारों की और वो जो लेफ्ट लिबरल किस्म की किताबें होती हैं, उनको पढ़-पढ़ कर अध्यात्म की ही विरोधी हो जाए, अध्यात्म की ही खिलाफत करने लगे कि- "देखो! सब ऋषियों और संतों ने तो स्त्रियों को बुरा-भला कहा है। तो मैं न गीता पढूंगी, न उपनिषद पढूंगी, ये सब तो स्त्री विरोधी हैं।" तब आवश्यक है कि वो ये जिज्ञासा करें, तब आवश्यक है कि इस तरह की जिज्ञासा सामने रखी जाए, बात प्रासंगिक है क्योंकि अगर ये जिज्ञासा सामने नहीं रखी गयी तो वो क्या करेगी? वो सब ग्रंथों को, ऋषियों को बिल्कुल रिजेक्ट कर देगी, एक तरफ सरका देगी। कहेगी मुझे इनसे कोई वास्ता ही नहीं रखना है तो इसलिए जरूरी है कि जब ऐसे सवाल उठें तो उनको पूछा जाए, सामने रखा जाए।

और बहुत दुष्प्रचार हुआ है, धर्म के साथ पिछले खासतौर पर पचास- सौ सालों में बड़ा दुर्व्यवहार हुआ है। विशेषकर भारत में। इतना दुष्प्रचार किया गया है- अध्यात्म और धर्म के खिलाफ कि धर्म स्त्री विरोधी है, धर्म जाति प्रथा का समर्थक है, धर्म रूढ़िवादी है, अंधविश्वास मूलक है, कि खास तौर पर जो नई पीढ़ी है ये करीब-करीब पूरे तरीके से धर्म से विमुख हो चुकी है और धर्म से विमुख होना उतनी बड़ी समस्या नहीं होती क्योंकि अगर कोई धर्म से पूरी तरह विमुख हो जाएगा तो उसे छटपटा कर वापस आना पड़ेगा और ज़्यादा बड़ी जो दुर्घटना हुई है वो ये है कि- लोग नकली धर्म की तरफ चले गये हैं। नकली धर्म जानते हैं क्या होता है? जहाँ पर अपने प्रकृतिगत उद्देश्यों की पूर्ति को नाम दे दिया गया है- अध्यात्म का। जहाँ बातें सब प्रकृति के दायरे की जा रही हैं लेकिन बैनर लगा हुआ है धर्म या अध्यात्म का। और वहाँ सब बातें यही चल रही हैं जो बिल्कुल पूरे तरीके से भौतिक हैं। मैंने कहा जिस भी चीज़ का वजन है वो किस क्षेत्र में आती है? प्रकृति के क्षेत्र में। अब बातें चल रही हैं कि- कौन-सी धातु की थाली में खाना खाया जाए? कितनी मालाएँ पहनी जाएँ? कौन-सी अंगूठियाँ धारण की जाएँ? ग्रहों की-नक्षत्रों की किस्से-कहानी, कल्पनाओं की बातें चल रही हैं और इन सब को नाम दे दिया गया है धर्म का। ये और बड़ी दुर्घटना हुई है।

तो अभी आमतौर पर दो तरह के लोग दिखाई देते हैं- एक वो जो कहते हैं साहब हमें धर्म से कोई लेना-देना नहीं और जब वो कहते हैं कि उन्हें धर्म से कोई लेना-देना नहीं तो उनका कहना होता है कि "हम ईश्वर में विश्वास नहीं करते।" अरे बाबा! धर्म कब कहता है कि तुम ईश्वर में विश्वास करो? धर्म तो ये कह रहा है कि तुम परेशान हो, तुम अपनी परेशानी दूर करो! ईश्वर का धर्म से क्या लेना-देना है? वेदांत तो साफ बोलता है कि अहं जब ब्रह्म को देखता है तो मायाग्रस्त होकर देखता है, वो ब्रह्म को ईश्वर समझ लेता है। वेदांत तो साफ बताता है कि आप जिसको ईश्वर या भगवान बोलते हो वो माया मात्र है। वेदांती ईश्वर की तो बात ही नहीं करता। ब्रह्म की, सत्य की, आत्मा की बात करता है और कहता है वो सब एक हैं। ईश्वर और देवी-देवता में यकीन रखना, भगवान की स्तुति-आरती-आराधना करना ये कब से मूल अध्यात्म हो गया? तो कुछ तो लोग इस तरीके के हैं जो कहते हैं हम ईश्वर में विश्वास नहीं करते, साहब हमारा धर्म से कोई ताल्लुक नहीं है, हम प्रगतिवादी हैं, हम रेशनलिस्ट हैं। ये एक तरह के मूर्ख हैं और इनसे बड़े मूर्ख वो हैं जो कहते हैं हम धर्म में विश्वास करते हैं और कहते हैं हमारा धर्म क्या है? वो हम इतने मुखी रुद्राक्ष पहनते हैं, पचास हज़ार की रुद्राक्ष की माला खरीदी है, ये हमारा धर्म है। उनके लिए धर्म का ये सब मतलब होता है- कर्मकांड, इधर-उधर की बातें दुनिया भर की, फलानी तारीख को जा करके फलानी नदी में डुबकी मार लो तो पुण्य मिलता है, फलानी दिशा में सर करके न सोया करो, इतने बजे से पहले खा लो, इतने बजे से पहले नहा लो, ये सब बातें, इनको वो समझते हैं कि ये सब धर्म की बातें हैं। अरे! ये धर्म की बातें नहीं है, ये तो रूढ़ियाँ हैं।

धर्म, रूढ़ियों को चुनौती देने का नाम है। धर्म जिज्ञासा है, धर्म वो ताकत है जो सब रूढ़ियों को, प्रथाओं को, जंजीरों को, तोड़ देती है। परंपराओं को आगे बढ़ाने का नाम धर्म नहीं होता। न ही संस्कृतिबद्ध होता है धर्म। ये और बहुत बड़ा लोगों के मन में भ्रम है कि धर्म का और संस्कृति का जैसे कोई मौलिक रिश्ता हो। तो संस्कृति में, कल्चर में, कुछ चीजें चली आ रही हैं लोग सोचते हैं यही धर्म है क्योंकि ये हमारी संस्कृति है।

धर्म एक खुली संस्कृति को जन्म जरूर देता है इसमें कोई संदेह नहीं लेकिन संस्कृति के पुराने ही तत्वों को आगे बढ़ाते रहने का नाम धर्म नहीं है।

प्र: आचार्य जी, फिर जो ये दुष्प्रचार हुआ वो जान बूझकर या नासमझी में होते चला गया।

आचार्य: दोनों बातें हैं। पहली बात तो मैं नासमझी को और बदनीयति को बहुत अलग-अलग नहीं समझता। आपने कहा जानबूझकर मतलब बदनीयति के साथ। आपने कहा नासमझी माने अनजाने में। मैं इन दोनों को बहुत अलग-अलग नहीं समझता।

प्र: आचार्य जी अगर जानबूझ कर ऐसा हुआ तो इसका मतलब कि उनको साफ पता था ।

आचार्य: साफ तो जिसको पता हो गया वो साफ हो गया। साफ इतना पता ही होता तो वो बचे ही क्यों रहते, वो भी साफ नहीं हो जाते? साफ पता-वता कुछ नहीं था, बात बहुत सीधी है- अध्यात्म मूलतः किसको चुनौती देता है? पुरुष की प्रकृति की तरफ खिंच जाने की, आकर्षित हो जाने की वृत्ति को। ये जो हमारे भीतर पुरुष बैठा है न जिसको मैं अभी मोटे तौर पर अहम कह दूँगा। उसमें बड़ी वृत्ति होती है, टेंडेंसी होती है, क्या? कि जाकर के प्रकृति से, माने स्त्री से लिपट जाए। उसका काम ही यही है जहाँ दिखी नहीं प्रकृति माने स्त्री, वो वहीं जाकर के लिपट गया। अब अध्यात्म समझाता है कि बेटा! एक तरफ तो तुम कहते हो कि मुक्ति चाहिए और दूसरी तरफ तुम लिपटते हो भुक्ति से। अब तुम चुन लो कि मुक्ति चाहिए कि भुक्ति चाहिए? भुक्ति माने भोग।

तो पुरुष अगर ऐसा है कि उसकी नियत मुक्ति की है तो वो ऐसे ऋषि की बात का एहसान मानेगा। मान लीजिए आप भुक्ति की ओर भगे जा रहे हैं, प्रकृति और स्त्री की ओर भगे जा रहे हैं और एक आता है ऋषि और ऋषि माने वो नहीं जो दाढ़ी बढ़ाए और सर में बांधे बाल को जटा और कमंडल वगैरह लेकर आपके पास आ गया है, कोई बूढ़ा आदमी, उसको मैं ऋषि नहीं कह रहा।

जो कोई भी अपने भीतर प्रकाश रखता हो, उसी का नाम ऋषि है।

उसकी उम्र से और उसके कपड़ों से और उसके बोलचाल, हाव-भाव से उसके ऋषित्व का कम लेना-देना है। तो वो आकर आपको बताए कि देखो तुम उधर को भाग रहे हो, ये ठीक नहीं है। अब अगर आपकी नियत मुक्ति की है तो आप तुरंत कहेंगे कि अच्छा हुआ आपने बता दिया, ऋणी रहूँगा आपका, एहसान मानूँगा आपका। ठीक है?

लेकिन अगर तुम्हारी नियत है भोगने की कि आज तो बढ़िया मसाला मिला है, आज तो भोगेंगे और बीच में कोई आकर के ऋषि तुम्हें टोक रहा है तो तुम क्या करोगे? उसे धिक्कार दोगे और वो बार-बार टोकता हो तो तुम उसके खिलाफ साजिश करोगे। तो ये जो धर्म को बदनाम किया गया है, ये अहंकार की साजिश है। अहंकार, भोगना चाहता है। बहुत जमीन की और चालू भाषा में कहूँ तो अहंकार को रंगरलिया मनानी हैं। अध्यात्म अहंकार को रंगरलिया मनाने से रोकता है। क्यों? क्योंकि अहंकार अगर रंगरलिया मनाएगा तो खुद ही दुख पाएगा। अध्यात्म को कोई आनंद नहीं आता किसी के सुख को बाधा दे करके। जब आप सुख की ओर भाग रहे हैं तो आप वास्तव में अपने दुःख की ओर भाग रहे हैं इसलिए कोई ऋषि आपको टोकता है, "ये जो तुम कर रहे हो तुम्हें भारी पड़ेगा।" लेकिन अगर आपकी नियत ही खराब है तो आप कहेंगे ये ऋषि टोकता मुझे बहुत है मैं इस ऋषि को हमेशा के लिए बर्बाद कर देता हूँ। वैसे भी ये तो मर चुका है, इसकी किताबे बची हैं। मैं उन किताबों का ऐसा अर्थ करूँगा और ऐसी-ऐसी दुष्प्रचार की बातें लिखूँगा इसकी किताब के बारे में कि दुनिया इसकी किताबों को पढ़ना ही छोड़ दे क्योंकि मुझे तो साहब रंगरलिया मनानी है, मुझे तो मौंज मारनीं है। अहंकार को तो अपनी अकड़ में रहना है और अध्यात्म सिखाता है समर्पण। तो जिनका भी अहंकार बहुत ऊँचा होता है, जो सर झुकाने को तैयार नहीं होते वो अध्यात्म के खिलाफ हो जाते हैं और अगर उस आदमी में बुद्धि है तो फिर वो अपनी बुद्धि का सारा इस्तेमाल, अपनी कलम का सारा इस्तेमाल, अध्यात्म को ही बदनाम करने के लिए कर देगा। ये बात समझ में आ रही है? तो इस तरीके से और इस कारण से अध्यात्म के खिलाफ दुष्प्रचार किया गया है।

भाई आप नहीं अगर अध्यात्म को मानते तो आप बहुत चौड़ में चल सकते हैं न? और आप कह सकते हैं मैं बताता हूँ! मैं जानता हूँ! लेकिन आध्यात्मिक होने का अर्थ होता है सर्वप्रथम विनीत भाव से स्वीकार करना कि मैं नहीं जानता। ये बात बुद्धिजीवी को बहुत अखरती है। बड़ी चोट देती है। उसकी तो पूरी हस्ती ही इस अकड़ पर आधारित है कि मैं बड़ा ज्ञानी हूँ! मैं बड़ा गुणी हूँ! मुझसे पूछो! मैं बताऊंगा! अध्यात्म उसको बहुत चुभता है, बड़ा कष्ट देता है तो फिर वो अध्यात्म को ही बदनाम कर देता है। ये किया गया है।

प्र: तो फिर ये अहंकार एक बहुत अच्छा माध्यम है स्त्री से लिपटने का पुरुष के लिए?

आचार्य: पुरुष जो स्त्री से लिपटने की ओर भाग रहा है, इस घटना को ही अहंकार कहते हैं। देखिए अहंकार शब्द के अलग-अलग संदर्भों में, अलग-अलग तरह के इस्तेमाल हैं। पर अहंता हीं है जो अपूर्ण होती है चूँकि वो अपूर्ण होती है इसलिए वो प्रकृति की ओर भागती है की प्रकृति से लिपट जाऊँ तो मुझे मिल जाएगी- पूर्णता। अहंता माने अपूर्णता। अब चूँकि वो अपूर्ण है तो वो इधर-उधर जहाँ कहीं, जो कुछ भी देखती है रुपया-पैसा, शोहरत, माल-मसाला वो उसी की ओर भागती है कि ये सब मुझें मिल जाए तो ज़रा तृप्ति हो जाएगी। स्पष्ट है बात?

प्र: जैसे आप अभी कह रहे हैं कि सब पदार्थ प्रकृति है और जो पदार्थ नहीं है वो मुक्ति खोज रहा है। तो क्या ये बस एक मॉडल (नमूना) है, हमें समझाने के लिए या फिर इसमें कुछ तथ्य भी है?

आचार्य: नहीं, ये मॉडल ही है और ये मॉडल इसलिए है क्योंकि शरीर अपने आप में ही एक मॉडल है। आप मॉडल से क्या समझते हैं? जो किसी चीज का प्रतिनिधित्व करें। जो कुछ भी आप सोच सकते हैं, अवधारणा बना सकते हैं वो बस एक मॉडल ही है क्योंकि अगर वो मॉडल नहीं है तो उसे सत्य होना पड़ेगा और ज़ाहिर-सी बात है कि वो सत्य नहीं है क्योंकि सत्य शारीरिक नहीं होता। तो जाहिर है कि हर एक शब्द, किसी न किसी चीज का मॉडल ही है। जब हम बोल भी रहे हैं, असल में हम मॉडलिंग ही कर रहे हैं। एक मॉडल और सिद्धांत मूल रूप से एक ही हैं। तो ये मॉडल तो है पर बहुत ज़्यादा लाभदायक मॉडल है। लाभदायक किसके लिए है शरीर के लिए? नहीं! पुरुष के लिए।

प्र: तो पुरुष अपने आप में एक मॉडल है।

आचार्य: पर फिर कोई है, जो असंतुष्ट है।

प्र: हम ये मान सकते हैं कि मन का ढांचा है, वो जो खुद ही उलझा हुआ है और हम इस तरह से मॉडलिंग कर रहे हैं, समझने के लिए।

आचार्य: हाँ, क्योंकि शब्दों के अलावा ऐसा और कुछ नहीं है जो मन तक पहुँच पाए और हर शब्द एक प्रयोग ही है मॉडलिंग में। तो हाँ ये मॉडल है, कोई शक नहीं इस बात में पर फिर इसके अलावा और क्या इस्तेमाल किया जा सकता है?

प्र: बल्कि हम मन को एक मेकनिज़्म , यंत्र-रचना मान सकते हैं।

आचार्य: जो कुछ भी आपके अंदर यंत्रवत है, वो प्रकृति है। ठीक है? और फिर कुछ है जो शरीर पर आश्रित है पर फिर भी शारीरिक या वस्तुगत चीजों से संतुष्ट नहीं है, जिसको पुरुष कहा गया है। वो पुरुष आत्मा नहीं है, वो पुरुष चेतना है। जो चेतना शरीर पर बहुत आश्रित है। अगर आपके सिर पर एक हथोड़ा मार दिया जाए तो चेतना को घात पहुँचेगा। है न? तो पुरुष की परिस्थिति ये है कि उसका शरीर के साथ रिश्ता तो है पर वो रिश्ता उसको कभी संतुष्ट नहीं करेगा। जैसे पति-पत्नी, आदमी-औरत का है। तो तुम्हारे लिए पत्नी पूरा शरीर ही है। मैं यहाँ कोई लिंग अभिधान नहीं लगा रहा हूँ पर ऐसा ही है। पूरा शरीर ही पत्नी है और फिर एक पति है जो निश्चित रूप से शरीर से ही आसक्त है। जैसा मैंने कहा कि अगर आप शरीर पर हथोड़ा चलाएँ तो चेतना को भी सहना पड़ेगा। ऐसा नहीं है कि सिर्फ दिमाग ही चोट सहेगा, चेतना भी सहेगी। लेकिन दिमाग तो चेतना नहीं है परंतु चेतना दिमाग पर आश्रित जरूर है। यहाँ एक रिश्ता है और चेतना मात्र दिमाग पर ही आश्रित नहीं है वो असल में सम्पूर्ण शरीर पर आश्रित है। अगर आपके घुटने पर भी हथोड़ा मारा जाए तब भी आपकी चेतना को फर्क पड़ेगा। है न? परंतु क्या घुटना ही चेतना है? चेतना घुटने में नहीं है, उसी तरह चेतना दिमाग में भी नहीं है। परंतु उसका रिश्ता है दिमाग के साथ और वो चेतना ही मुक्ति चाहती है।

सारा अध्यात्म दिमाग को नहीं, परन्तु चेतना की उसी मुक्ति की चाह को संबोधित करता है। इसलिए जो लोग सिर्फ अपने दिमाग का इस्तेमाल करते हैं, आध्यात्मिक बातों को समझने के लिए, निश्चित ही गलत मतलब निकाल लेते हैं क्योंकि जो लोग तुम तक अध्यात्म लेकर आ रहे हैं वे आपके दिमाग से बात नहीं कर रहे हैं, आपकी चेतना से बात कर रहे हैं। दिमाग और चेतना में क्या अंतर है? दिमाग, वो जो अपने पुराने बंधे-बंधाये ढर्रों के हिसाब से समझता है। दिमाग एक सिस्टम है, एक मैकेनिज़्म है, एक पैटर्न है, एक विशेष तरीका है। चेतना, पुराने ढर्रों के पार जा सकती है। अध्यात्म आपके लिए कुछ नया लाता है। जिसको दिमाग अपने पुराने ढर्रों के साथ समझ नहीं सकता। पर चेतना समझ सकती है हालांकि उसके लिए चेतना का विस्तार करना होता है- वास्तव में वो समझने के लिए जो जानने वाले आपसे कह रहे हैं, चेतना को बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है, परंतु फिर भी उपनिषदों का वो चाबुक खाना (चेतना द्वारा) चेतना की क्षमता में होगा। दिमाग उसको जान नहीं पाएगा। ज़्यादा से ज़्यादा उसका अनुवाद कर लेगा, एक कंप्यूटर की तरह उसकी व्याख्या कर लेगा। क्या एक कंप्यूटर समझ सकता है? नहीं! आप जितना चाहे आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस या ऐसा कुछ ले आयें परंतु क्या कभी भी एक मशीन या प्रक्रिया या सिस्टम कुछ समझ सकता है? समझना तो चेतना का काम है उसका नहीं जिसका कोई वजन होता है या जो शारीरिक या वस्तुगत है।

प्र: अगर एक जगे हुए मन पर हथौड़े से प्रहार होता है तो क्या वो सब कुछ भूल जाएगा? विवेक?

आचार्य: हाँ, जो कुछ भी स्मृति के परिधि में है, वो भूल जाने को उन्मुख है। क्योंकि स्मृति भी काफी हद तक शारीरिक है। स्मृति कोशिका में वास करती है, स्मृति भी वस्तुगत (पदार्थ) ही है। तो आप एक जगे हुए आदमी के दिमाग पर हथौड़े से प्रहार कर सकते हैं और वो जो स्मृति की परिधि में था, सब चला जाएगा।

इधर-उधर के काल्पनिक जादू-टोनों पर विश्वास न करें कि कुछ भी नहीं होगा। अगर आप एक जगे हुए आदमी को गोली मार देते हैं तो उसका भी खून निकलेगा, यही प्रकृति है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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