खाने और कपड़ों के प्रति आकर्षण || आचार्य प्रशांत (2018)

Acharya Prashant

7 min
157 reads
खाने और कपड़ों के प्रति आकर्षण || आचार्य प्रशांत (2018)

प्रश्न:

कबिरा यह मन लालची, समझे नहीं गंवार। भजन करन को आलसी, खाने को तैयार।।

~ गुरु कबीर

आचार्य जी, मेरा मन तो खाने के साथ-साथ वस्त्रों आदि की ओर भी बहुत आकर्षित रहता है । वस्त्र खरीदती भी बहुत हूँ, पर कभी तृप्त नहीं होती । कृपया मार्गदर्शन करें ।

आचार्य प्रशांत जी: शरीर भी संसाधन है, धन भी संसाधन है, समय भी संसाधन है, वस्त्र भी संसाधन हैं। भोजन भी संसाधन है। ‘संसाधन’ माने – वो जिसका उपयोग किया जाये। किसी लक्ष्य की प्राप्ति हेतु आप जिसका उपयोग कर सको, वो ‘संसाधन’ है।

आपने इन्हीं तीन-चार चीज़ों की बात की है। भोजन – संसाधन है न, जिससे ऊर्जा मिलती है। वस्त्र खरीदती हैं, तो धन से खरीदती होंगी । तो वस्त्र क्या है? संसाधन। कपड़ा भी संसाधन है। उसको पहन करके, किसी काम के लिये तैयार हो पाते हो। समय भी संसाधन है, चाहे खाने-पीने की तैयारी करो, और चाहे कपड़ों की ख़रीददारी करो, समय तो उसमें लगता है।

तो सीमा जी (प्रश्नकर्ता) , प्रश्न यह है कि – इन संसाधनों का प्रयोग, किसकी सेवा में कर रही हैं? इन संसाधनों का प्रयोग, किसकी सेवा में कर रहीं हैं ? संसाधन लग रहे हैं, ये बात अधूरी है। प्रश्न ये है कि – किसके लिये लग रहे हैं? गौर करियेगा ।

*सब धरती कागज़ करूँ, लेखनी सब बनराये ।*सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाये ।

~ गुरु कबीर

अब देख रहे हो क्या कह रहे हैं कबीर साहब? वो कह रहे हैं कि सात समुद्र की तो स्याही बना देंगे। इतना बड़ा संसाधन, कर डाला इस्तेमाल ।

“ये फ़िज़ूलख़र्ची नहीं है? संसाधनों का देखो क्या किया जा रहा है”।

“क्या किया जा रहा है? दुरुपयोग किया जा रहा है। इतनी सारी स्याही बना डाली”।

और क्या कह रहे हैं? सारे पेड़ काटकर क्या बना दूँगा?

प्रश्नकर्ता: कलम।

आचार्य जी : कलम बना दूँगा । अरे बाप रे बाप! पर्यावरण का नाश कर दिया। और क्या कह रहे हैं?

“सारी धरती का कागज़ बना दूँगा”।

तुम बताओ, कि कोई लगा है, जो सारे समुद्रों का पानी इस्तेमाल कर देना चाहता है। सारी ज़मीन के सब संसाधन उपयुक्त कर देना चाहता है। सारे पेड़ काट देना चाहता है। ये किसी को बताओ, तो वो कहेगा, ” ये क्या विनाश है। ये बर्बादी है”। लेकिन जब कबीर साहब कह रहे हैं, तो कोई बात तो होगी। वो कह रहे हैं, “सारे संसाधन कर लो इस्तेमाल, अगर सही दिशा में कर रहे हो”।

किस दिशा में?

श्रोतागण: सही दिशा में ।

आचार्य जी: गुरु गुण लिखने के लिये, अगर सबकुछ भी तुम दाँव पर लगा दे रहे हो, सबकुछ फूँक डाला, तो भी कोई बात नहीं। तो बात ये नहीं है कि – फूँका या नहीं फूँका ? बात ये है कि – क्यों फूँका, किसके लिये फूँका?

सही दिशा मिल गयी हो, औचित्य मिल गया हो, लक्ष्य मिल गया हो, तो सब फूँक दो। कुछ बचाकर मत रखना।

कपड़े पहनने में कोई बुराई नहीं, कपड़ों पर ख़र्च करने में कोई बुराई नहीं। अगर कपड़ों पर ख़र्च करके तुमको शांति मिल जाती हो, तो मैं कहता हूँ, अपना आख़िरी रुपया भी कपड़ों पर खर्च कर डालो।

अगर उससे ……..

श्रोतागण: शांति मिलती हो।

आचार्य जी: शांति मिलती हो तो।

रुपया क्या? संसाधन ही तो है। और सारे संसाधन किसलिये? शांति के लिये। वरना क्या रुपया बाँधकर मरोगे? मृत्यु का तो मतलब ही यही है कि – समय भी ख़र्च हो जाना है, और रुपया साथ नहीं जाना है। तो ये सब इसीलिये हैं न कि इनका सदुपयोग हो सके। और एक ही सदुपयोग होता है।

क्या?

शांति मिल जाये, सत्य मिल जाये। मुक्त हो जायें।

श्रोतागण: शांति मिल जाये।

आचार्य जी: शांति मिल जाये, सत्य मिल जाये। मुक्त हो जायें।

तुम जहाँ भी समय लगा रहे हो, चलो लगा दो। बढ़िया लगाया। हम तो बस एक ही सवाल पूछेंगे, “वो समय जहाँ लगाया, उससे शांति मिली या नहीं मिली? तुम्हें छत पर जाकर के कूदने से शांति मिलती हो, तो तुम दिनरात यही करो। हाँ, उससे ये बात पक्की होनी चाहिये कि उससे शांति मिली। फिर कोई बुराई नहीं।

शांति इतना बड़ा लक्ष्य है, फिर उसके सामने सारे संसाधन छोटे हैं। ये बात तुम्हें सुनने में अजीब लगेगी। पर इस पूरे ब्रह्मांड को फूँककरके अगर एक व्यक्ति भी, वास्तव में तरता हो, तो फुँक जाये ये ब्रह्मांड। कोई हैसियत नहीं इसकी।

तो कोई ये न बताये कि – “हमारे ख़र्चा हो जाता है”। कोई ये न कहे, “हमारे पैसे व्यर्थ लुट जाते हैं”। तुम लुटाओ पैसे, तुम करो ख़र्चा – कपड़ा, गहना, खाना-पीना, जहाँ तुम्हें ख़र्च करना है, करो। लुट तो वैसे भी जाओगे।

वो काले भैंसे वाला(यमराज) याद है न? उससे बड़ा लुटेरा, वो तो राख भी अपनी ही, साथ नहीं ले जाने देता। तुम कहो, “अपनी राख है। और कुछ हमारा था या नहीं था, राख तो हमारी है। चलो धन माना दूसरों से आया। साँस हवा से आयी। ये जो राख बची है अंत में, अस्थियों की, ये तो हमारी है”।

वो तो तुम्हें इतना भी साथ न ले जाने देगा। इतना बड़ा लुटेरा। तो लुट तो जाना ही है। तुम जीते जी लुटा दो। मैं तो कहता ही हूँ, क्यों संचय कर रहे हो? लुटाओ, सब लुटाओ। पर ऐसे लुटाओ न, कि बदले में कुछ पाओ।

तुम खाने पीने में लुटाना चाहती हो, लुटा दो। पर ये निश्चित कर लेना, कि प्याज़ के पकौड़े खाकर के, निर्वाण मिल गया। प्याज़ के पकौड़े खा-खा कर निर्वाण मिलता हो, तो मैं कहूँगा, कि तुम प्याज़ खेती करो। तुम प्याज़ ही बन जाओ, इतनी प्याज़ खाओ।

(हँसी)

समझ में आ रही है बात?

न कुछ अच्छा है, न कुछ बुरा है। मुक्ति अच्छी है, बाकि सब बुरा है। जो कुछ मुक्ति की ओर ले जाता हो, वो बुरा हो नहीं सकता। और वो अच्छी-से-अच्छी चीज़, जो तुम्हें मुक्ति न देती हो, बताओ वो अच्छी कैसे हुई?

इसीलिये, अध्यात्म में जो आदमी की चाल होती है, वो दुनिया के गणित के हिसाब से नहीं होती। व्यापारी जहाँ पर पैसा लगायेगा, उसका तर्क साफ़ होगा। तुम्हें दिख जायेगा कि इसने यहाँ पर पैसे लगाये हैं, क्योंकि इसको मुनाफ़ा चाहिये। वसूल लेगा।

आध्यात्मिक मन भी कहीं पर पैसे लगाता है, क्योंकि संसाधन तो देह के यही सब होते हैं न – तन, मन, धन, समय। आध्यात्मिक आदमी भी कहीं न कहीं इनका निवेश करता है। पर वो जहाँ निवेश करता है, वहाँ से बदला क्या आता है, ब्याज़ क्या आता है, ये वो किसी को समझा नहीं सकता।

व्यापारी दुकान पर बैठेगा, साफ़ दिखायी देगा कि छः घंटे दुकान पर बैठे, इतना लाभ हुआ। और भक्त भजन पे बैठेगा, तो वो तुम्हें समझा नहीं पायेगा, कि छः घंटे भजन में लगाये, तो लाभ क्या हुआ। लाभ, वो जानता है, क्या हुआ। और कौन जाने, उसे व्यापारी से ज़्यादा लाभ हुआ हो।

कबिरा सो धन संचिये, जो आगे को होये।

ऐसा धन रखो, जो चिता के पार ले जा सको। व्यापारी का धन, चिता के पार नहीं जाने वाला। जो भज रहा है, वो समय के ही पार चला जाता है, उसके लिये कौन-सी चिता बची। दुनिया की नज़र में आध्यात्मिक आदमी व्यर्थ फूँक रहा होता है अपने आप को। लोग उससे कहेंगे, “तू लुट रहा है। देख जवानी के दस साल तूने कहाँ लगा दिये”। वो कहेगा, “हम जानते हैं न, हमें क्या मिला”।

मैं तुमसे इतना अलग हूँ, तुम्हारी प्रेरणा से मेरी प्रेरणा इतनी भिन्न है,

जो तुम्हारे लिये विष है, वो मेरे लिये अन्न है।

“तुम धन कमाते हो ताकि तुम फँसे रह जाओ। और हम अपने आप को ख़र्चते हैं, ताकि हम आज़ाद हो जाएँ। अपनी तुम जानो, हम अपनी जानते हैं”।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories