खा गया हमें हमारा खाना || आचार्य प्रशांत, बातचीत #veganism (2021)

Acharya Prashant

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खा गया हमें हमारा खाना || आचार्य प्रशांत, बातचीत #veganism (2021)

प्रश्नकर्ता: थैंक यू सो मच आचार्य प्रशांत फॉर जॉइनिंग (जुड़ने के लिए आपका बहुत धन्यवाद आचार्य प्रशांत) सर, आपके व्यूज़ वीगनिज्म (शुद्ध शाकाहार) के बारे में काफ़ी लोगों को पता हैं, आपने बहुत सारे प्लेटफार्म्स पर, बहुत सारे वीडियोज में ऐसा बोला है कि वेगिज को आपने सपोर्ट करा है।

लेकिन मैं वो क्वेश्चन फिर से रिपीट नहीं करुँगी, मैं आपसे यह जानना चाहती हूँ कि आप साइंस और स्प्रिचुअलिटी दोनों की बात करते हैं, तो विगनिज्म (शुद्ध शाकाहार) जो है, वो साइंस (विज्ञान) से और स्प्रिचुअलिटी (आध्यात्मिकता) से यानि कि विज्ञान और अध्यात्म से, दोनों से कैसे कनेक्टेड (जुड़ा हुआ) है?

आचार्य प्रशांत: देखिए, अध्यात्म से शुरू करते हैं, तो अहिंसा एकदम मूल में बैठा हुआ है, आध्यात्मिक है। जो सनातन धारा के मूल और सबसे प्राचीन ग्रंथ हैं वेद, अहिंसा की बात उन्हीं में से शुरू हो जाती है। उपनिषदों में कही गयी है। वेदों में, उपनिषदों में अहिंसा की बात है।

और उपनिषदों के बाद ये तो हमें पता ही है कि गौतम बुद्ध ने, महावीर ने, दोनों ने अहिंसा को कितनी ऊँची जगह दी और अध्यात्म हो नहीं सकता अहिंसा के बिना। उसमें अगर आप थोड़ी गहराई में जाएँगे तो पता चलेगा कि ये जो मूल विभाजन होता है अहंकार का, संसार का, वही हिंसा है।

तो कोई इंसान अपनेआप को आध्यात्मिक कहे और साथ ही हिंसा में लिप्त रहता हो, ये हो नहीं सकता और यही वजह है कि भारत में बाक़ी विश्व की तुलना में जानवरों के प्रति और पेड़ो के लिए और नदियों और पहाड़ों के लिए ज़्यादा सम्मान रहा है, ज़्यादा अपनापन रहा है, क्योंकि भारत में अध्यात्म ज़्यादा रहा है।

चूँकि अध्यात्म रहा है इसलिए अहिंसा रही है और इसीलिए। हिंसा, क्रूरता यहाँ भी हुई है — लेकिन बाक़ी दुनिया की अपेक्षा कम हुई है। तो यह तो हुआ आध्यात्मिक पक्ष, जिसमें मैं साफ़-साफ़ कह रहा हूँ कि हिंसा के साथ कोई अध्यात्म हो नहीं सकता। अगर कोई व्यक्ति ऐसा है जो किसी भी तरह की हिंसा में लिप्त है। स्थूल हिंसा, सूक्ष्म हिंसा, इंसान को मारना, चाहे जानवर को मारना, नहीं भी मारना तो उसको इसी तरीके से शोषण करना, वो इंसान अपनेआप को ध्यानी, योगी, भक्त, साधक कुछ भी अगर बोले तो यह पाखंड है।

यह अध्यात्म वाला पक्ष हो गया। आप विज्ञान पर आयें तो विज्ञान की तरफ़ से दो बातें हैं — पहली बात तो आप जो खा रहे हैं उसका आपको क्या असर होता है। दूसरा जो खा रहे हैं उसका संसार पर और पर्यावरण पर क्या असर होता है।

तो आप जो खा रहे हैं, उसका आप पर कितना घातक असर होता है अगर आप माँसाहारी हैं, ये तो आप किसी भी काबिल डॉक्टर से या रिसर्चर से पूछें तो वो आपको बताएगा कि माँसाहार कितनी ही बीमारियों का मूल कारण है और बहुत सारी तो बीमारियों का इलाज ही यही होता है कि माँस खाना छोड़ दो। बहुत सारी बीमारियों का इलाज ये होता है कि दूध पीना छोड़ दो।

दुनिया की आबादी का एक बहुत बड़ा प्रतिशत है जो लेक्टोस इंटॉलरेंट (दुग्ध और उससे बने खाद्य का न पचना) है, कैंसर के प्रमुख कारणों में है मीट कंजम्शन (माँस का सेवन), ख़ासतौर पर जो रेड मीट बोला जाता है और भी दुनियाभर की समस्याएँ हैं जो माँस के और पशुओं से आ रहे पदार्थों के सेवन से इंसानों को होती हैं।

और ये कोई मान्यता की या विश्वास की बात नहीं है, इसके पक्ष में ठोस वैज्ञानिक सबूत उपलब्ध हैं। तो ये तो हो गयी हम पर जो व्यक्तिगत रूप से असर पड़ता है उसकी बात। अब आते हैं उससे भी ज़्यादा बड़ी बात पर कि आप जब माँस खाते हैं तो पूरी दुनिया पर क्या असर पड़ता है।

अभी बड़ी-से-बड़ी समस्या मानवता के सामने जो है वो क्लाइमेट चेंज (जलवायु परिवर्तन) की है। आज इस तारीख को हम ये बातचीत कर रहे हैं कल दिल्ली का तापमान औसत से सात डिग्री ज़्यादा था। सात डिग्री ज़्यादा औसत से।

ये नॉर्मल स्टैटिस्टिकल फ्लक्चुएशन (सामान्य सांख्यिकीय उतार-चढ़ाव) नहीं है। आप ये नहीं कह सकते कि कभी थोड़ा कम, कभी थोड़ा ज़्यादा। सामान्य से सात डिग्री ज़्यादा का मतलब होता है कुछ और ही चल रहा है, कोई और मूलभूत कारण है, अंडरलाइंग रीजन (अंतर्निहित कारण) है, जो इतना इसको फेंक रहा है।

हम भली-भाँति जानते हैं कि दुनिया में कुछ जगहें हैं जहाँ बारिश पहले की अपेक्षा दुगुनी, तिगुनी होने लग गयी है और बहुत सारी जगहें हैं जहाँ बारिश अब हो ही नहीं रही है, बहुत कम हो गयी है। चक्रवातों की साइक्लोंन (चक्रवात) की फ्रीक्वेंसी (आवृत्ति) बढ़ गयी है।

समुद्र का जल स्तर बढ़ रहा है और लेकिन हो ये रहा है कि ये सब चीज़ें ऐसा नहीं है कि आपको रोज़-रोज़ परेशान कर रही हों या आपके घर में घुसकर आपको परेशान कर रही हों। तो हमारे लिए थोड़ा आसान हो जाता है इनको नज़र-अंदाज़ करना।

जब कोई हमसे बोलता है —उदाहरण के लिए — कि सन् दो हज़ार पचास आते-आते कई तटीय शहरों को ख़तरा हो जाएगा जिसमें मुम्बई भी शामिल है, तो हमें ऐसा लगता है सन् दो हज़ार पचास तो अभी बहुत दूर है, तो हम उस पर ध्यान नहीं देते। लेकिन अभी हम जिस एंथ्रोपोजेनिक क्लाइमेट क्राइसिस (मानवजनित जलवायु संकट) के दौर से गुज़र रहे हैं, वो इतिहास में अपूर्व है। इससे पहले कभी नहीं थी।

मैं क्यों क्लाइमेट चेंज (जलवायु परिवर्तन) की बात कर रहा हूँ, सवाल तो विगनिज्म से है। क्योंकि इसका सीधा सम्बन्ध ग्रीनहाउस गैसों के एमिशन से है, उत्सर्जन से है। उसका बड़े-से-बड़ा कारण एनिमल एग्रीकल्चर है और एनिमल एग्रीकल्चर दोनों वजहों के लिए होता है — माँस के लिए भी, दूध के लिए भी।

फिर उससे बाक़ी चीज़ें भी निकल आती हैं — फर निकल आता है, चमड़ा निकल आता है, वग़ैरह-वग़ैरह और इंडस्ट्रियल प्रोडक्ट्स (औद्योगिक उत्पाद) होते हैं सब निकलते हैं। तो आप जो खा रहे हैं वही क्लाइमेट चेंज का नम्बर एक का कारण है।

और अब इससे ज़्यादा क्या कहा जा सकता है। हम अपनी थाली के स्वाद के लिए मानवता को ही ख़त्म करने पर उतारु हैं और ये बात इतनी दबाई जा रही है कि आम आदमी को ये बोलो तो समझ में ही नहीं आता कि क्लाइमेट चेंज और आपके आहार, आपकी डाइट के बीच में सम्बन्ध क्या है, बतायें। अरे! ऐसे कैसे हो सकता है, ऐसा तो हो ही नहीं सकता।

फिर वो प्रमाण माँगते हैं। और प्रमाण ऐसा नहीं है कि कोई बहुत जटिल है। लेकिन थोड़ा समझाना पड़ता है कि भई, तुम अगर जानवर खा रहे हो, तो उस जानवर के लिए तुम सोचो कि अन्न, आहार कहाँ से आया है, वो पैदा किया गया है। वो पैदा किया गया है, तो उसके लिए जंगल काट रहे हैं।

दूसरी बात जानवर जो खाता है वो फिर मिथेन छोड़ता है, कार्बन डाई ऑक्साइड छोड़ता है, तो ये सब बातें इंट्यूटिवली (स्वयं समझने योग्य) साधारणतया दिमाग़ में अपनेआप आती नहीं हैं, उसको बताना पड़ता है।

कोई ये नहीं सोचता कि आप बीफ़ के लिए जिस भैंस को काट रहे हो, उस भैंस के शरीर से बहुत ज़्यादा ग्रीन हाउस गैसेज़ निकल रही हैं। तो आपने अगर उस भैंस को खड़ा ही किया है अपने खाने के लिए, जो कि ये होता है एनिमल एग्रीकल्चर में, तो आपने पृथ्वी का जो कार्बन लोड है वातावरण का, वो कितना ज़्यादा बढ़ा दिया। ये बात इंट्यूटिवली हमें समझ में आती नहीं है, लेकिन अब है।

इसी तरीके से डिफोरेस्टेशन (वनों की कटाई) का सबसे बड़ा कारण मीट कंजम्शन है, क्योंकि आपको जानवर को खाना है तो जानवर को चारा कहाँ से आएगा। उसके लिए खेत निकालना पड़ेगा न, खेत कहाँ से निकलेगा। वो जंगल काट कर निकलता है।

लेकिन वो जंगल हमारी आँखों के सामने नहीं काटा जा रहा है, तो हमें लगता है कि जानवर है, जानवर तो कुछ भी खा लेता है। बकरी है वो इधर-उधर कुछ भी फेंक दो, वो खा लेती है। लोगों को लगता है फिर जंगल थोड़े ही कट रहा है। लेकिन सकते में आ जाते हैं लोग, जब उनको बताया जाता है कि दुनिया में जितना भी अन्न पैदा किया जा रहा है, वो दो तिहाई से ज़्यादा जानवरों के लिए पैदा किया जा रहा है, और जानवरों को इतना क्यों खिलाया जा रहा है; क्योंकि तुम्हें जानवरों को खाना है।

तो अगर आप आध्यात्मिक हैं तो आध्यात्मिक कारणों से आपको माँस और दूध ये सब छोड़ना होगा और अगर आप आध्यात्मिक नहीं भी हैं, अपनेआप को एथीस्ट नास्तिक एगनोस्टिक (अनिश्वरवादी) कुछ भी बोलते हैं। तो या तो अपनी सेहत के लिए साहब आप वीगन हो जाएँ और अगर अपनी सेहत के लिए नहीं हो सकते तो कम-से-कम दुनिया पर रहम करें।

आपके घर में बच्चे होंगे उन्हें इसी पृथ्वी पर रहना है। तमाम तरह की बीमारियाँ और आपदाएँ हम पृथ्वी पर ला रहे हैं। कोविड भी उन्हीं में है। तो और ये सब क्यों, क्योंकि मुझे साहब मीट पसन्द है, मैं तो खाऊँगा।

आप वनों का नाश करेंगे, वनों में घुस-घुसकर के, तो वहाँ जितने भी छिपे हुए जीवाणु, विषाणु हैं उनसे भी तो आप सम्पर्क में आएँगे न। आप जंगल में घुस रहे हो, उस जंगल में न जाने कितने तरह की प्रजातियाँ हैं।

ये जो अभी नोवेल कोरोना वायरस है सारस टू , इसका संक्रमण भी तो हमें ऐसे ही लगा है न, वरना ये वायरस तो जंगलों में हज़ारों-लाखों साल से रहा होगा, पर अब आपको जंगल में घुसना है, आपको चमगादड़ वाली गुफ़ा में घुसना है।

तो फिर आप आबादी बढ़ाये जा रहे हो, आबादी बढ़ेगी तो आपको प्रकृति का और नाश करना ही पड़ेगा और जंगल काटने पड़ेंगे, उससे तमाम तरीके के। तो मतलब कुल मिला-जुलाकर के कोई विकल्प नहीं है।

और जिन लोगों को लगता है कि विकल्प अभी उपलब्ध है, हम तो अभी प्रकृति के नाश और जानवरों के शोषण पर आधारित जीवनशैली जी सकते हैं। उन लोगों को बहुत जल्दी, दो हज़ार पचास तक इंतज़ार नहीं करना पड़ेगा, बहुत जल्दी, आगामी — मैं समझता हूँ — दो साल, पाँच साल, दस साल के अन्दर-अन्दर ही मजबूरन अपनेआप को बदलना पड़ेगा।

भई, पिछले साल तक हम सोच सकते थे क्या, कि मास्क हमारे सार्वजनिक जीवन का इतना बड़ा हिस्सा बन जाएगा। यह बात अकल्पनीय थी। लेकिन आज आप सड़क पर नहीं निकल सकते बिना मास्क के। आज आप आमने-सामने बहुत समीप होकर बैठ भी नहीं सकते, मजबूरी सब कुछ करा देती है न, वरना कौन मानता है कि आपको बाहर निकलना है तो मास्क पहनना है या कि बैठना है तो इतने फिट की दूरी रखनी है।

ये बात कोई नहीं मानने वाला था, आज माननी पड़ती है हमको। इसी तरीके से हमें मजबूर होकर के अपनी दिनचर्या में कुछ बदलाव करने ही पड़ेंगे। पर जो काम स्वेच्छा से किया जा सकता है, उसको मजबूरी से क्यों किया जाए। बेहतर है कि ख़ुद ही समझ जाओ, ख़ुद ही सम्भल जाओ। बहुत तकलीफ़ झेल करके और दुनिया को बहुत तकलीफ़ देकर के फिर सम्भले तो क्या सम्भले।

प्र: सही बात है। तो जैसे आप बोल रहे हैं आम आदमी के बारे में, कि आम आदमी को यह समझ में नहीं आता है अब हम टॉक , अगर हम बात करते हैं जी सेवन लीडर्स (समूह सात अगुआ) के बारे में, वो बहुत ही मतलब, अभी उन्होंने रीसेंटली (हाल ही में) जब जी सेवन मीट (जी सेवन सम्मेलन) हुई थी तो उन्होंने बारबेक्यू और स्टीक की पार्टी करी थी और प्लेन्स उड़ाए थे।

तो क्या आपको लगता है कि एक लेवल (स्तर) पर, बहुत हाई लेवल पर भी डिस्कनेक्ट है। लोग समझ नहीं पाते हैं कि वो क्या एक्चुअली (वास्तव में) कर रहे हैं और उनके मिशन्स…।

आचार्य: नहीं, मैं उन्हें हाई लेवल का मानता ही नहीं। देखिए, जी सेवन हो, जी टू हो, कोई ग्रुप हो, ले-देकर जनतंत्र द्वारा चुने गये नेता हैं और जैसा जन होता है वैसा ही जन नेता होता है।

तो जब लोग ही एक तरीके के हैं और एक तरीके का व्यवहार कर रहे हैं, एक तरह की उनकी आदतें हैं तो उनके नेताओं का व्यवहार, आचरण और आदतें उनसे बहुत अलग नहीं हो सकतीं सामान्य जनता से। क्योंकि लोगों ने उन नेताओं को चुना है।

तो मैं नहीं समझता कि कोई राजनैतिक नेता इसमें बहुत दूरदर्शिता दिखा सकता है या इसमें नेतृत्व दे सकता है कि हमें कैसे रहना चाहिए, क्या खाना चाहिए या जीवनशैली में क्या बदलाव लाने चाहिए। यह सब परिवर्तन राजनैतिक नेतृत्व की तरफ़ से नहीं आने वाले, क्योंकि ये थोड़ी सी कड़वी गोली है और जनतंत्र ये सहूलियत देता नहीं है कि जो नेता है, वो जनता को कड़वी गोली खिला पाये, उसको वोट नहीं मिलेंगे।

तो ये जो परिवर्तन है, तो मैं समझता हूँ कि राजनैतिक नहीं बल्कि सामाजिक और आध्यात्मिक दिशा से आएगा। सामाजिक संस्थाएँ, आध्यात्मिक आंदोलन, ये हैं जो समाज में कुछ सार्थक बदलाव ला पाएँगे, ये नेताओं से नहीं होने का।

प्र: अच्छा जैसे हम बात करते हैं दूध की, इंडिया में डेरी कंजम्शन बहुत हाई है और मतलब लोग ऑलमोस्ट डिपेंडेंट हैं दूध के ऊपर, हर घर में दूध का बहुत ज़्यादा कंजम्शन है।

तो दूध एक ऐसी चीज़ हो जाती है जो कि न केवल खाने में बल्कि पूजा-पाठ में भी लोग इस्तेमाल करते हैं। तो इस माइंडसेट को हम कैसे बदल सकते हैं कि आप नॉर्मल दूध देने की गाय या भैंस के साथ, द्वारा निकले हुए दूध को छोड़कर आप प्लांट मिल्क की तरफ़ मूव करें।

इनफैक्ट आपने सुना ही होगा अभी रीसेंटली एक बड़ी डेयरी कंपनी की एक कंट्रोवर्सी हुई है एक एनजीओ के साथ में। तो आपको क्यों लगता है कि मतलब इंडियन्स क्यों इतने अगेंस्ट (विरोध में) हैं इस चीज़ के, क्यों डेरी नहीं छोड़ना चाहते?

आचार्य: देखिए जिस वजह से भारत में, दुनिया के सबसे ज़्यादा शाकाहारी लोग पाये जाते हैं। दुनिया में जितने भी शाकाहारी हैं, उनका सबसे बड़ा वर्ग भारत में है, बहुत बड़ा वर्ग। मैं समझता हूँ शायद आप आँकड़े देखें तो दुनियाभर के शाकाहारियों का सत्तर-अस्सी प्रतिशत तो भारत में ही है। जिस वजह से भारत में अधिकाँश लोग शाकाहारी हैं, उसी वजह से भारत में दूध को एक ऊँचा स्थान भी मिला हुआ है। अब आप या तो उस वजह से लड़ लीजिए या उस वजह का सदुपयोग कर लीजिए।

ये जो वीगन आंदोलन है वो आंदोलन भी कुछ नहीं है। अलग-अलग, छोटे-छोटे उसके द्वीप हैं या कह दीजिए छोटी-छोटी टोलियाँ हैं। जैसे होली में टोलियाँ निकलती है न। वो कुछ ऐसा नहीं है कि एक संगठित, सुगठित आंदोलन चल रहा हो और एक, ऐसा तो है भी नहीं उसमें।

ये कभी इस बात पर विचार ही नहीं करते कि भारत इतनी गहराई से शाकाहारी कैसे रहा आया। ये तो अभी पिछले दस-बीस साल में हुआ है कि ये जो नई पीढ़ी है यह बहुत तेजी से चिकन वग़ैरह की ओर जा रही है। वो भी हम नहीं हम विचार करते हैं कि क्यों जा रही है। कि पहले के लोग अपेक्षतया ज्यादा शाकाहारी क्यों थे।

भारत शाकाहारी इसलिए नहीं रहा है कि पहले कोई वेजिटेरियन मूवमेंट (शाकाहारी आंदोलन) चल रहा था। उसकी वज़ह दूसरी थी। भारत में कभी कोई ऐसा शाकाहारी आंदोलन वगैरह नहीं चला है। भारत का शाकाहारी होना, वेजिटेरियन एक्टिविज्म की वज़ह से नहीं था।

तो भारत का फिर, जिसको हम विगनिज्म के लिए एक नाम चलता है हम तो बोलना पसन्द करते हैं शुद्धशाकाहार, पर लोग उसको निर्वद्याहार बोलते हैं। तो वो अच्छा नाम है। तो भारत का वीगन होना भी किसी वीगनिज्म आंदोलन पर या वीगन एक्टिविज्म पर निर्भर नहीं करने वाला। भारत शाकाहारी रहा है अध्यात्म की वज़ह से। वही अध्यात्म अगर और गहराई पाएगा तो भारत दूध भी छोड़ देगा।

भारत जैसा सहिष्णु और उदार देश दुनिया में दूसरा हुआ नहीं है, आज भी नहीं है वास्तव में। हम भारत में बहुत सारे इल्ज़ाम लगा सकते हैं लेकिन यह नहीं कह सकते कि क्रूर है, आतताई है। कुछ सूक्ष्म तरीके से हिंसा हुई है यहाँ पर भी, उसमें मैं विवाद नहीं करना चाहता।

लेकिन फिर भी उदारता रही है, दया रही है यहाँ पर, कुछ ज़्यादा ही रही है। ममता की भावना बहुत रही है कि जानवर को लिया अपने बच्चे की तरह पाल लिया। इस तरह की कहानियाँ आपको भारत में ही ज़्यादा मिलेंगी।

वही अध्यात्म जिसने भारतीयों को शाकाहारी बनाकर रखा, सिर्फ़ वही अध्यात्म भारतीयों को एक क़दम आगे जाकर के जानवरों के प्रति और ज़्यादा करुणा दिखाने के लिए भी प्रेरित कर सकता है।

और उसको आप आगे बढ़ायें तो लोग विगन भी हो जाएँगे, लेकिन अगर आप एक विदेशी मुहावरे में बात करेंगे एक अनजानी भाषा में लोगों से बात करेंगे तो लोग वीगन होने से रहे।

और इसीलिए भारत में ये विगनिज्म जड़ें नहीं पकड़ पा रहा है, क्योंकि उसकी छवि ही ऐसी बन गयी है कि ये तो अंग्रेजों की और अमीरों की चीज़ है। विगनिज्म क्या है, यह अंग्रेजों और अमीरों का चोचला है। यह उसकी छवि बन गयी है। और मैं बहुत ज्यादा असहमत भी नहीं हूँ उस छवि से, बिलकुल वैसी ही बात है।

विगनिज्म को एक देसी चीज़ बनना पड़ेगा। भारत की मिट्टी में दया है, भारत की मिट्टी में शाकाहार है, तो विगनिज्म को भी इसी देशी मिट्टी से उठना पड़ेगा। लोग जब यहाँ पर — जानवरों पर जानते हैं दया करना, उनको भी जीव मानते हैं, घर का हिस्सा भी मानते हैं, रोटी खिलाते हैं — उनको अगर आप समझा दें कि उसी अहिंसा को और आगे बढ़ा दो और देखो कि ये जो तुम इतना ज़्यादा दूध का इस्तेमाल करते हो, वो शोषण है जानवरों का, तो लोग स्वेच्छा से छोड़ देंगे अपने आप।

अभी तो लोगों को सूचना ही नहीं है, जानकारी नहीं है कि दूध आपके घर तक पहुँचाने की पूरी प्रक्रिया में कितनी हिंसा हो जाती है, लोगों को नहीं पता ये बात। वो बात लोगों के आप सामने लायें और देसी भाषा में सामने लायें, देसी मुहावरे में सामने लायें।

कबीर साहब के इतने दोहे हैं उदाहरण के लिए जो पशुओं पर क्रूरता के ख़िलाफ़ है, माँसाहार के ख़िलाफ़ हैं, उनका इस्तेमाल करके सामने लायें। हमारे शास्त्रों में न जाने कितने श्लोक हैं — जो जितने भी जीव हैं सबका कल्याण हो ऐसी कामना करते हैं। और कहते हैं कि अगर तुम एक जीव पर हिंसा कर रहे हो तो समझ लो अपने ही ऊपर हिंसा कर रहे हो — उनका इस्तेमाल करके सामने लायें तो जैसे भारत इतने व्यापक रूप से शाकाहारी रहा है वैसे ही भारत वीगन भी हो जाएगा।

लेकिन अगर यह वीगनवादियों को अध्यात्म से एलर्जी है तो ये वीगन आंदोलन सफल होने से रहा। मैं पहले से बता देता हूँ और ये है। क्योंकि भारत में जो वीगनिज्म है, आमतौर पर जो युवा वर्ग है उसी में ज़्यादा प्रचलित है और ये युवा वर्ग विगनिज्म को प्योरली एथिकल ग्राउंड्स (शुद्ध रूप से नैतिकता के आधार) पर आगे बढ़ा रहा है, नॉट ऑन स्प्रिचुअल ग्राउंड (अध्यात्मिकता के आधार पर नहीं), इसीलिए वीगनिज्म भारत में असफल हो रहा है।

समझ रहे?

क्योंकि भारत में जो एथिक्स हैं, वो सीधे-सीधे अध्यात्म से आते हैं। आप, एथिक्स से मेरा मतलब है नैतिकता, आप एक अलग एथिकल कोड देंगे अगर, तो यहाँ कोई स्वीकार नहीं करने का, क्योंकि पहले से ही यहाँ पर एक सशक्त एथिकल कोड मौज़ूद है। तो हमें क्या करना है, हमें लोगों को बताना है कि हम जिस एथिकल कोड का पालन कर रहे हैं विगनिज्म उसी से कंपेटिबल है और उसी की पैदाइश है। वो उससे बिलकुल संगत में है, मेल में है, तब लोग सुनेंगे, मानेंगे। फिर बहुत आसान हो जाएगा।

लेकिन अगर हम कहेंगे कि नहीं-नहीं, नहीं आई एम विगन बट नॉट स्प्रिचुअल (मैं शुद्ध शाकाहारी हूँ लेकिन आध्यात्मिक नहीं), तो फिर आप वीगन भी बहुत दिन तक रह नहीं पाओगे। अभी भारत में एक वीगन एक्टिविज्म (शुद्ध शाकाहार सक्रियता) में एक बड़ा नाम है और वो बहुत कोशिश करता है, युवक है, जवान लड़का है।

तो उससे बात चलाई होगी किसी ने कि जैसे आप मुझसे बातचीत कर रहीं हैं, वैसे आकर बातचीत करे। वो घबरा गया बिलकुल। बोलता है, ‘नहीं-नहीं, मैं बहुत रेस्पेक्ट (सम्मान) करता हूँ आचार्य जी की, मैं फॉलो करता हूँ, मुझे पता है कि वो जानवरों के हक़ में और विगनिज्म के समर्थन में कितना काम कर रहे हैं, सब बहुत अच्छी बात है लेकिन मैं उनसे बात कैसे कर सकता हूँ, वो तो आध्यात्मिक हैं। यह लिखकर भेजा उसने। अब यही जो मूर्खता है न, ये भारी पड़ रही है विगनिज्म को।

आपको लग रहा है कि स्प्रिचुअलिटी और विगनिज्म दो अलग-अलग चीज़ें हैं। मैं आपसे बोल रहा हूँ कि विगनिज्म सफल हो ही नहीं सकता बिना स्प्रिचुअलिटी के। यह बात नहीं समझ में आ रही। यहाँ पर गड़बड़ हो रही है।

जिस धार्मिक अनुष्ठान के लिए दूध चढ़ाया जाता है प्रतिमा पर या लिंग पर, अगर लोगों को यह समझा दिया जाए कि जिस ईश्वर को प्रसन्न करना चाहते हो तुम, उसी ईश्वर के वो जीव हैं, जिनका दूध दूह रहे हो, और प्रतिमा पर चढ़ा रहे हो, ईश्वर को नहीं अच्छा लगता। तो लोग नहीं दूध चढ़ाएँगे।

बात समझ में आ रही है?

भई, ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए तो दूध चढ़ा रहे हैं, अगर लोग ये समझ जाएँ कि ईश्वर नहीं प्रसन्न होंगे बल्कि ईश्वर को कष्ट होता है, ईश्वर श्राप और देते हैं उन लोगों को, जो ईश्वर के ही बनाये निरीह, बेजुबान जानवरों का शोषण करते हैं। तो लोग नहीं चढ़ाएँगे।

फिर लोग ये पूछेंगे लेकिन ये सब जो दूध-वूद चढ़ाने की परम्परा है, ये सब तो बहुत पुरानी है। तो क्या हमारे पूर्वजों ने ग़लती करी थी? तो फिर उनको अध्यात्म की ही भाषा में समझाना पड़ेगा कि देखो, एक चीज़ होती है कालधर्म।

सत्य अटल, अचल होता है, वो बदलता नहीं, लेकिन धर्म काल के अनुसार बदलता रहता है, धर्म हमेशा काल सापेक्ष होगा। सच नहीं बदलता लेकिन सच की ओर जाने वाली जो राह होती है, सच तक पहुँचने के लिए जो आचरण करना होता है, वो प्रत्येक क्षण बदलता रहता है, वो कालाश्रित होता है।

तो काल धर्म तब ये रहा होगा कि चलो घर में गाय है उसका आपने दूध चढ़ा दिया, ठीक है। आज घर में नहीं गाय होती, कितने लोग अपनी घर का गाय का दूध पीते हैं? तब यह होता रहा होगा कि घर की जो गाय है उसको आप अपनी माँ समान मान रहे हैं, और वो बूढी भी हो गयी है तो उसे आप घर में रखे हो। आज आपको पता भी है बूढ़ी गायों का क्या होता है, ठीक है।

तो काल बदल गया है। उस काल में शायद यह बात ठीक थी कि प्रतिमा पर दूध चढ़ा दिया, उस काल में आठ सौ करोड़ लोग भी नहीं थे न दुनिया में और उस काल में पर्यावरण का इतना पतन भी नहीं हुआ था न।

आज काल बदल चुका है, आज सबकुछ बदल चुका है। तो आज स्वयं ईश्वर ही नहीं चाहेंगे कि उनके ऊपर दूध चढ़ाया जाए। जब लोगों को इस भाषा में ही समझाया जाएगा, तब लोग दूध वग़ैरह का सेवन भी छोड़ेंगे और धार्मिक अनुष्ठानों के लिए उसका इस्तेमाल भी छोड़ेंगे।

लेकिन अगर आप उनसे जाकर कहोगे कि देखो, भई मेरा तो एक मॉडर्न एथिकल कोड (आधुनिक नैतिक संहिता) है जिसको मैं अभी सीधे-सीधे, ताजा-ताजा यूरोप से लेकर आया हूँ और मैं चाहता हूँ कि तुम भी इसका पालन करो। लेट्स गो विगन (शुद्ध शाकाहारी बनों)। लेट्स गो विगन और अब तो वीगन पिज्जा भी मिल रहा है साढ़े पांच सौ रुपए का एक स्लाइस। तो लोग बिलकुल भगा देंगे कि हटो यहाँ से निकलो। ये तुम क्या लूट मचा रहे हो विगनिज्म के नाम पर।

मुझे बड़ा ताज़्जुब होता है, मैं कहता हूँ — पिज्जा रखा हुआ है, उसमें से आपने चीज़ (मक्खन) निकाल दिया तो उसकी क़ीमत तीन गुना कैसे हो गयी? जिस पिज्जा में चीज मिला हुआ था, वो इतने का था और उसमें से आप चीज निकालकर उसको दूने, तिगुने दाम पर बेच रहे हो, ये क्या कर रहे हो। पर आप जाओ, आप वीगन पिज्जा खाने जाओ, वो मजाल है कि आपको साधारण पिज्जा के दाम पर मिल जाए।अब लोग चिढ़ेंगे नहीं विगनिज्म से तो क्या करेंगे।

प्र: तो मतलब आपको लगता है जैसे अभी जो इंडिया में जो मूवमेंट (आंदोलन) है, ये ज़्यादा प्रोडक्ट्स पर फोकस्ड ज़्यादा है विगनिज्म मूवमेंट (शुद्ध शाकाहार आंदोलन) और कम्पनियाँ भी आ रही है इसमें इनफैक्ट बहुत सारी ऐसी कम्पनियाँ…।

आचार्य: उथला है, गहराई नहीं है। शैलो मूवमेंट है, और ये बात मैं कोई उपहास उड़ाने के लिए नहीं कह रहा हूँ, बड़े दर्द के साथ कह रहा हूँ। क्योंकि मैं इस आंदोलन का शुभचिंतक हूँ, मैं चाहता हूँ कि ये सफल हो। पर मैं ये भी बताए देता हूँ कि जैसे इनके लक्षण हैं, ये सफल नहीं होने के।

वो है न एक — बेटा, तुमसे न हो पाएगा। तो वैसे ही ये सब जो घूम रहे हैं स्ट्रीट एक्टिविज्म करते हुए, कोई गाय बनकर घूम रही है कि मैं गाय हूँ, मेरा क्यों शोषण कर रहे हैं, और ये सब है। कैंडल -वेंडल जला रहे हैं। मैं इनकी भावना का सम्मान करता हूँ, लेकिन सफल नहीं हो पाएँगे। ऐसे नहीं होता।

प्र: या वो अपना ख़ुद का ही

आचार्य: बिल्कुल होम ग्रास रूट विगनिज्म। होम ग्रोन ग्रास रूट विगनिज्म (घरेलु ज़मीनी स्तर पर शुद्ध शाकाहार) तब वो सफल होगा। हिंदी में बात करो यार, देशी मुहावरे में बात करो, हमारे पास इतनी गहरी संस्कृति है उससे जोड़कर बात करो न।

हमारी इतनी पुरानी कहानियाँ हैं, पौराणिक कथाएँ हैं, आध्यात्मिक सूत्र हैं, उनसे जोड़कर बात करो न। वो भाषा हमारी मिट्टी में है, वो भाषा इस देश का आम किसान भी समझता। उस भाषा में बात करोगे, लोगों के दिलों से जुड़ पाओगे, तो लोग समझेंगे। इधर-उधर की बातें कोई नहीं समझेगा।

प्र: अच्छा, एक जैसे डेयरी के बारे में बात हुई तो आपको लगता है, कई बार ऐसा होता है कि मीट का सबको समझ में आता है कि मीट जानवर को मार के निकलता है, लेकिन डेयरी का और स्पेशली जो डेयरी कम्पनीज़ हैं इंडिया में, उनको लगता है वो ऐसा लोगों को बोलते हैं कि ये तो है हम भी अपनी गाय की यहाँ पर सब रिस्पेक्ट करते हैं।

तो लोगों को लगता है कि ये सच में ऐसा हो रहा है, और वो सोचते हैं कि जो वीगन्स बोल रहे हैं या जो इस मूवमेंट के लोग, जो इस मूवमेंट में जुड़े हुए लोग हैं, वो बोल लोग रहे हैं कि भाई, डेरी भी उतना ही ख़राब है जितना की मीट कंजम्शन है, तो आपको लगता है कि क्या ये, क्योंकि वो दिखता नहीं है सामने, उससे एक बहुत बड़ा…।

आचार्य: दिखता नहीं, देखिए, इसकी बात है कि हमने अभी तक सूचना ही नहीं दी है, जो इन्फॉर्मेशन डिसेमिनेशन है, वो प्रॉपर नहीं हुआ है। लोगों को पता ही नहीं है, और देखिए ये बात इंट्यूटिव (स्वयं समझ में आना) नहीं है कि अगर आप दूध पी रहे हो तो आप पशु पर अत्याचार कर रहे हो।

ये बात अगर किसी को आँकड़ों के साथ, तथ्यों के साथ, फैक्ट्स एंड फिगर्स के साथ बतायी नहीं गयी है, उसको ये नॉलेज नहीं दिया गया है तो उसको नहीं समझ में आने की है। तो वो तो पहले तो यही करना होगा कि डेयरी का और मीट इंडस्ट्री का आपस में कितना गहरा ताल्लुक है, यह सूचना जन-जन तक पहुँचानी होगी और ये सूचना आपने पहुँचा दी तो बहुत लोग तो अपनेआप ही डेरी छोड़ देंगे।

देखिए, ये सूचना अगर मेरे पास भी नहीं होती न, तो दूध, दूध होता और अभी हम दूध वाली चाय पी रहे होते यहाँ पर। क्योंकि दूध को देखकर के ऐसा लगता ही नहीं है कि ये तो खून है। जब तक कि आपको वो पूरा प्रोसेस , प्रक्रिया बतायी न गयी वो साफ़-साफ़, कि देखो ऐसे निकलता है, ऐसे होता है, ऐसे होता है, ऐसे होता है, फिर पूरे आँकड़े में बताए गये हों कि कोई संयोग नहीं है कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा बीफ निर्यातक है।

वो जो भैंसें कट रही हैं वो कहाँ से आ रही हैं। तब आदमी के खोपड़े में बत्ती जलती है — अच्छा! तो वो जो बीफ एक्सपोर्ट हो रहा है और ये जो दनादन खीर, दूध, लस्सी चल रही हैं इनमें आपस में कोई रिश्ता है! तब ये बात समझ में आती है। नहीं तो नहीं समझ में आती है। कौन इतना ध्यान दे। तो आम आदमी तक सबसे पहले वो सूचना पहुँचानी होगी, एक

इंफॉर्मेशन कैम्पेन चलाना होगा, वो कैम्पेन अभी तक ठीक से चला नहीं है। वो उसको उसकी ज़रूरत है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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