कीचड़ का सानिध्य तुम्हारे रोम-रोम से महकेगा || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2015)

Acharya Prashant

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कीचड़ का सानिध्य तुम्हारे रोम-रोम से महकेगा || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2015)

परनारी काराचणौ, जिसकी लहसण की खानि। खूणैं बेसिर खाइय, परगट होई दिवानी।।

~ कबीर

वक्ता: कबीर ने बहुत बोला है इस बारे में। कबीर ने स्त्रियों के दो प्रकारों पर बोला है जिसको लेकर भ्रांतियाँ बहुत हैं। एक तो कबीर ने ‘सती’ पर बहुत बोला है, दूसरा कबीर ने ‘परनारी’ पर बहुत बोला है। और इसको लेकर बड़ी गलत ग़लतफ़हमियाँ रहती हैं।

जब कबीर सती की बात करते हैं, तो लोग सोचते हैं कि वो पतिव्रता की बात कर रहे हैं। ‘पतिव्रता’ पर भी कबीर ने बहुत बोला है।जब कबीर ‘पतिव्रता’ कहते हैं, तो उससे कबीर का आशय बिल्कुल भी ये नहीं है कि – जो औरत अपने इस सांसारिक पिया के प्रति पूरी तरह समर्पित है, वो ‘पतिव्रता’ कहलाती है।

कबीर के लिए ‘पति’ सिर्फ ‘एक’ है, और कोई नहीं है। दूसरे पति को तो कबीर गिनते ही नहीं। जब कबीर ‘पतिव्रता’ कहते हैं, तो वो स्त्रियों की बात नहीं कर रहे हैं। हम सबका एक ही ‘पति’ है, कौन? वो। तो जब कबीर कहते हैं, “पतिव्रता मैली भली,” तो इससे उनका मतलब ये नहीं है कि वो जो गृहणी है, वो मैली भी है, तो काम चलेगा। पर उसका अर्थ यही किया जाता है।

कबीर ये कह रहे हैं कि – जो ‘उसको’ समर्पित है, उसका शरीर कैसा भी है, फ़र्क नहीं पड़ता। शरीर पर मैल आ भी जाए, तो कोई फ़र्क नहीं पड़ता, मन ‘उसको’ समर्पित होना चाहिए। ठीक उसी तरीके से, कबीर जब ‘परनारी’ कहते हैं, तो उससे उनका अर्थ, ‘सौतन’ नहीं है, कि मन में ये छवि आए कि – एक है पतिव्रता, सती, और एक है उसका पति, और पति परनारी के पीछे जा रहा है। कबीर का ज़ोर ‘पर’ पर है, ‘पर’ पर। और जब कबीर कहते हैं ‘नारी’, तो कबीर का अर्थ है – ‘प्रकृति ’।

‘पर’ माने पराया, ‘पराया’ माने दूसरे का भेद। ‘पराया’ का अर्थ हुआ कि अभी योग नहीं हुआ है, अभी प्रकृति से योग नहीं हुआ है, अभी तुम कुछ और ही समझते हो उसको। ‘परनारी’ से अर्थ हुआ – वो सबकुछ जो तुम्हें आकर्षक लगता है, जिसको तुम पाना चाहते हो – संसार। प्रकृति का वो सबकुछ जो तुम्हें आकर्षक लगता है, जो पाने की तुम्हारी आकाँक्षा है।

तो इसीलिए ये बात वो पुरुषों को संबोधित करके नहीं कह रहे हैं कि – “अरे परनारी के पीछे मत जाना।” ये बात वो पुरुषों से ज़्यादा स्त्रियों से कह रहे हैं कि – “परनारी के पीछे मत जाओ।” क्योंकि स्त्रियों को ही संसार की वस्तुएँ आकर्षक लगती हैं, उनका चित्त कुछ ऐसा होता है। जो ही कोई प्रकृति से आकर्षित हो, जो ही कोई अपने-पराये का भेद करे, उसको ही कबीर संबोधित करके कह रहे हैं कि – “परनारी के पीछे मत जाओ।”

एक संत थे, तो उनसे किसी ने पूछा, “क्या परस्त्री से प्रेम पाप है?” तो उन्होंने कहा “बिल्कुल है।” तो उसने कहा, “ठीक, मुझे भी यही लगता था।” उन्होंने कहा, “पहले बात पूरी सुनो। परस्त्री से प्रेम, पाप इसलिए है, क्योंकि तुमने उसे पहले पराया समझा, ‘परस्त्री’ बोला, इसलिए पाप है।” प्रेम पाप नहीं है, परायापन पाप है। ‘परस्त्री’ बोला, पाप तभी हो गया, क्योंकि जहाँ तुमने किसी को ‘परस्त्री’ बोला, वहाँ तुमने किसी एक स्त्री को अपना बोला। ये जो तुमने भेद किया, अपने-पराये का, ये पाप है।

लेकिन हमारा जो गृहस्थ मन है, वो अपनी ही नैतिकता के अनुसार सुनता है संतों के वचन भी। तो जब जैसे ही कबीर बोलेंगे, ‘पतिव्रता’, वैसे ही सारे पुरुष बिल्कुल खुश हो जाएँगे। कहेंगे, “देखो किसी और के पास मत जाना, कबीर ने भी पतिव्रता को इतना ऊँचा स्थान दिया है।”

कोई बड़ी बात नहीं है कि सतीप्रथा के जितने समर्थक थे, उनको कबीर बहुत पसंद आते होंगे। “अरे कबीर ने सती के इतने गुण गाए हैं, चल तू भी सती हो जा। मैं मरने ही वाला हूँ।” वैसे ही, जो थोड़ा ईर्ष्यालु किस्म की औरते होंगी, वो ये पढ़ कर बड़ा खुश हो जाएँगी। जिन्हें अपने पतियों पर अक्सर शक रहता होगा। वो यही कहेंगी, “ये देखो, कबीर ने भी चेतावनी दी है कि परनारी के पीछे मत जाना। तुम बहुत जाते हो।”

कबीर तुम्हारे पति को नहीं, तुमको चेतावनी दे रहे हैं। कबीर तुमसे कह रहे हैं कि – ये जो तुम सांसारिकता के प्रति इतने आकर्षित हो, ये लहसुन के खाने के बराबर है। इससे तुम्हारा रोम-रोम गंधाएगा। तुम किसी को ना बताओ, लेकिन फिर भी इसकी दुर्गन्ध तुम्हारे एक-एक कृत्य से, तुम्हारे एक-एक विचार से निकलेगी। जैसे लहसुन एक बार खा लो, फिर छुपाना बड़ा मुश्किल होता है ना? मुँह खोलते नहीं हो, पता चल जाता है कि लहसुन खा कर आए हो, ठीक उसी तरीके से।

जिसके मन में आसक्ति भरी हुई है, आकर्षण भरा हुआ है, लालच भरा हुआ है, वासना भरी हुई है – और वासना यही भर नहीं होती कि किसी औरत को पा लूँ। किसी भी चीज़ को जकड़ कर रखना, अपनेआप को छोटा समझना, और कुछ पाने की इच्छा करना, यही वासना है – उसके एक-एक कृत्य के दुर्गन्ध निकलेगी।

कबीर कह रहे हैं, “तुम्हारा रेशा-रेशा प्रमाण देगा इस बात का कि तुम्हारे मन की ये हालत है। सब प्रकट हो जाएगा। ये मत सोचना कि छुपा रहेगा। तुम्हारे ही जैसे जो हैं, उनके सामने भले छुपा रह जाए, लेकिन संत की आँखें तो पहचान ही लेंगी। वो सब पढ़ लेती हैं। साफ़ दिख जाएगा कि दिल का मौसम कैसा है आजकल।

श्रोता १: एक तरह से सर, किसी को अपनेआप को बिल्कुल बेकार व्यक्ति भी नहीं समझना चाहिए।

वक्ता: आप अपनेआप को कुछ भी समझोगे वो पागलपन ही है। बात ये नहीं है कि – मैंने अपनेआप को ये समझा या वो समझा। आपने अपनेआप को ‘कुछ’ भी समझा ना? आपने जो भी समझा, वो आपकी एक पहचान बन गयी। ये बातें नैतिकता की नहीं हैं। नैतिकता और आध्यात्मिकता को जोड़ कर मत देखा करिये।

नैतिकता आप से कहती है, “विनय रखो, विनम्रता रखो।” आध्यात्मिकता नहीं कहती है, “विनम्र बनो।” आध्यात्मिकता में विनम्रता के लिए कोई जगह नहीं है, नैतिकता में है विनम्रता के लिए जगह।

श्रोता २: सर, ये ‘दीवानी’ शब्द का क्यों प्रयोग किया गया है?

वक्ता: यहाँ पर ‘दीवाने’ के अर्थ है – पागल। तुम्हारा पागलपन नाच-नाच कर बोलेगा। और पागलपन उस अर्थ में नहीं जैसे मीरा का पागलपन था, यहाँ पर ‘पागलपन’ माने विक्षिप्तता, ‘दीवानापन’ माने विक्षिप्तता, पागल।

~ ‘शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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