कौन परम को पाता है?

Acharya Prashant

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कौन परम को पाता है?

आचार्य प्रशांत:

"नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन। यमेषैव वृणुते तेन लभ्यस्तस्येष आत्मा विवृणुते तनसवाम।।"

~मुण्डकोपनिषद

बड़ी ज़बरदस्त बात बोल गए ऋषि। “नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो”- प्रवचन सुन–सुन कर आत्मा नहीं मिलेगी। "नायमात्मा" न यम आत्मा, न यह आत्मा, न अयम आत्मा, "प्रवचनेन लभ्यो", प्रवचन से नहीं मिलती। “न मेधया”- दूसरे से प्रवचन सुन कर नहीं मिलेगी, और अपनी मेधा से नहीं मिलेगी, अपनी बुद्धि से नहीं मिलेगी। “न बहुना श्रुतेन”- सुनलो कितना सुन सकते हो, नहीं मिलेगी। सारी श्रुतियाँ पढ़ डालो तो भी नहीं मिलेगी।

किसको मिलती है? उसको जिसको ये चुनती है। दूसरे टीकाकारों ने इसका ये अर्थ किया है- उसको जो सिर्फ इसे चुनता है, और दोनों ही अर्थ एक ही बात कह रहे हैं। दो अलग–अलग अर्थ चलते हैं। एक अर्थ है कि आत्मा का लाभ सिर्फ़ उसे होता है जिसे आत्मा चुने। दूसरा अर्थ है- आत्मा का लाभ सिर्फ़ उसको होता है जो 'सिर्फ़' आत्मा को चुने। ये 'सिर्फ़' शब्द महत्त्वपूर्ण है।

दोनों बातें एक ही हैं, पर समझना इनको। पहली बात, तुम्हारे अपने किए होगा नहीं कुछ। दूसरी बात तुम जा-जा करके, स्वेच्छा से, सुन लो कितने प्रवचन सुनने हैं। तुम जा-जा करके चुनलो कितने गुरू चुनने हैं। तुम तो प्रवचन अपने द्वारा ही चुने हुए लोगों से सुनोगे न, कुछ नहीं होगा। तुम पढ़ लो तुम्हें कितने ग्रंथ पढ़ने है। “न बहुना श्रुतेन”- तुम तो अपने द्वारा ही चुना गया मसाला पढ़ोगे। नहीं होगा! आत्मा का लाभ सिर्फ़ उनको होता है जो बाकी सब छोड़ कर के आत्मा को चुनते हैं। सत्य सिर्फ़ उसको मिलता है जो बाकी सबकुछ छोड़ करके सत्य को चुनता है। अभी तुमने कुछ भी ज़रा सा और इधर–उधर मन लगा रखा है, तो तुम जाओ। ज़रा सा अभी तुम्हारा ध्यान अगर इधर–उधर है तो सत्य तुम्हारे लिए नहीं है, तुम जाओ। तुम्हारे लिए अभी दरवाज़े बन्द हैं। या ऐसे कह लो कि तुमने खुद ही बंद कर लिए है।

दो बातें हैं, पहली–तुम उसे नहीं चुनोगे। जब तुम उसे चुनना बन्द कर दोगे तब हो सकता है वो तुम्हें चुन ले। तुम्हारे चुने वो तुम्हें नहीं मिलेगा, तुम जब ये सब चुनना-चुनाना बन्द कर दोगे, तब हो सकता है वो तुम्हें चुन ले। पर तब तुम वो रहोगे नहीं जो चुनता था। और दूसरी बात–कुछ ना चुनने का अर्थ ही होता है उसे चुनना; जब तुम बाकी सब छोड़ देते हो तब समझ लो तुमने उसे चुन लिया। जिसे तुम सन्यासी या त्यागी कहते हो... इसीलिए मैं बार-बार कहता हू़ँ कि माया छोड़नी नहीं सत्य पाना है। यह दृष्टि ही गलत है कि उसने (सन्यासी ने) इधर–उधर को छोड़ा है। तुम उससे (सन्यासी से) जाकर के पूछोगे, तो वो कहेगा, "छोड़ना तो छोटी बात है, बड़ी बात ये है कि पाया क्या है! हमने पाया है, उस पाने में कुछ इधर–उधर छूट गया तो छूट गया। फ़र्क़ किसे पड़ता है?" वही बात यहाँ कही जा रही है, जब सबकुछ छोड़ कर के आत्मा का, सत्य का, ब्रह्म का, जो भी नाम देना है, वरण करते हो, तब मिलता है।

ज़रा तुम्हें अभी कुछ और चाहिए कि, "नब्बे प्रतिशत तो सत्य ही चाहिए और दस प्रतिशत इज़्ज़त भी तो बची रहनी चाहिए। पूरी बेइज़्ज़ती में सत्य मिले तो... थोड़ा मतलब...!" नंगे तो हो जाएँगे, दुर्योधन की तरह, पर चड्डी पहने रहेंगे। तो फिर वही होगा पड़ेगी वहीं पर जहाँ चड्डी पहने थे। दुर्योधन की जो कहानी है चड्डी वाली वो उन्हीं के लिए है जो पूरा नंगा होने को राज़ी नहीं हैं। जो कहते हैं कि, "कितनी भी बड़ी घटना हो, माँ बोल रही हो चाहे महाभारत चल रहा हो, चड्डी तो...।"

पता है न कहानी क्या है? गांधारी ने बुलाया, कहा कि, "आँख हमेशा बन्द थी आज खोलूँगी ज़रा", और कथा कहती है कि उसकी आँखों में ज़रा दिव्यशक्ति थी। तो वो देख ले जिस भी चीज़ को वो बड़ी मजबूत हो जाती थी, अटूट हो जाती थी। तो दुर्योधन को तो चाहिए ही यही था, उसका गदा युद्ध है, कुछ लड़ाई चल रही है, तो उसने कहा, "बढ़िया माँ आज फायदा कराएगी।" तो गया माँ के पास, माँ ने कहा था पूरा नंगा हो कर आना, पर वो चड्डी पहन कर चला गया।

प्रश्नकर्ता: कृष्ण ने पहना दिया था।

आचार्य: (हँसते हुए) अच्छा कृष्ण ने पहना दी थी? ये नहीं पता था।

प्र: कृष्ण ने अपना कोई कपड़ा दे दिया था।

आचार्य: तो देख रहे हो न कृष्ण को? (हँसते हुए) कॉन्टेक्स्ट इज़ एवरीथिंग! (संदर्भ ही सब कुछ है!) कई बार करुणा में चड्डी पहनाई जाती है, और कई बार चतुराई में। दुर्योधन है तो अब करुणा तो अभी यही है कि इसको चड्डी पहना दो। तो चला जा रहा होगा नंगा, कृष्ण ने पहना दी। इतना ही सा रहा होगा, ज़रा सा, लंगोटा।

जो भी तुम छुपाओगे वहीं पर मार पड़ेगी। भीम ने बिलकुल वहीं पर दिया दबा के, ले! जीत ही गया था। महाभारत हार कर भी सबकुछ जीतने के कगार पर खड़ा था। पूरी लड़ाई खत्म, दुर्योधन हारा हुआ है, लेकिन वो गदा युद्ध जीत जाता तो सब वापस मिल जाता। एक प्रतिशत का भी घपला मत करना। सबकुछ छोड़ करके जो सत्य को चुनेगा, सत्य उसे ही चुनेगा।

सबकुछ छोड़ कर सुनिए, यहाँ तक कि सुनने वाले को भी छोड़ कर सुनिए। यहाँ कहा गया है कि, “ना बहुना श्रुतेन”, बहुत सुन–सुन कर नहीं मिलेगा। वहाँ कहा गया है, "सुनिए, दुःख-पाप का नाश।" दोनों बिलकुल एक बात हैं। तुम सुनते हो तो 'तुम' सुनते हो। वहाँ कहा गया है कि असली सुनने से दुःख-पाप का नाश।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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