प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी! मैं आपका धन्यवाद करना चाहता हूँ कि जो आप और आपकी संस्था काम कर रही है वो मेरे जैसे व्यक्तियों के लिए बहुत ज़रूरी है। आपको सुना तो पता लगा कि जो मेरे अंदर से आवाज़ आ रही है वो ग़लत नहीं है। मुझे नहीं पता क्या ग़लत है, लेकिन कुछ-न-कुछ ग़लत है तो इसका बहुत धन्यवाद करना चाहता हूँ। क्योंकि मैंने लोगों को देखा है, लोग भाग जाते हैं, वो किसी की सहायता नहीं करते, वो सिर्फ़ अपना हित देखते हैं। जैसे बहुत सारे गुरु भी हैं, वो भी।
आप भी हो सकता था कि बाहर जाकर बहुत अच्छा जीवन जी सकते थे लेकिन आप रुके हमारे जैसे लोगों की मदद कर रहे हैं इसलिए बहुत धन्यवाद आपका! और मेरी एक जिज्ञासा था कि आपने कहा था कि आप मुश्किल से यहाँ पर समय निकालकर आते हैं।
तो मुझे नहीं पता मुझे पूछना चाहिए कि नहीं पर फिर भी जिज्ञासा थी, मैं पूछना चाहता हूँ कि आप ऐसा क्या करते हैं कि यहाँ पर आने के लिए आपको मुश्किल से समय निकालना पड़ता है। धन्यवाद!
आचार्य प्रशांत: चलो, इसमें थोड़ा मज़ा लगाते हैं। क्या नाम था आपका?
प्र: लोकेश।
आचार्य: लोकेश। मैं इसमें सबसे अंत में बोलूंँगा, मेरा समय जिनके साथ बीतता है, जिनके साथ मैं काम करता हूँ वो ही बता देंगे कि मैं क्या करता हूँ, मेरा समय कहाँ जाता है।
वैसे मैं शुरुआत तुम्हें ये बताने से भी कर सकता हूँ कि अभी तुम्हारा ये आधे घंटे का ब्रेक हुआ था तो मैं उसमें क्या कर रहा था तो वो एकदम सामने की बात होती। जिनके हाथ में माइक है वही शुरू करे मैं क्या करता हूँ।
संस्था के कार्यकर्ता: देखिए, काम ही चल रहा था।
आचार्य: देखिए, और तो कुछ नहीं काम, ये फाइनेंस संभालते हैं। ठीक है? अब उसमें इनके आधे काम सिर्फ़ तब होते हैं जब याद दिलाया जाए या ग़लती बतायी जाए। कोई खोट की बात नहीं है। उन्होंने भी कभी सोचा नहीं था कि वो ये काम कर रहे होंगे जो ये अभी कर रहे हैं। तो छोटी-छोटी चीज़ में भी इन्हें पूछना पड़ता है या मुझे बताना पड़ता है। इसके अलावा ये कोई फुल टाइम फाइनेंस नहीं देखते हैं। ये पाँच काम और भी करते हैं।
इनके साथ के लोग यहाँ आए होंगे। कौन-कौन हैं जो लोग शुभंकर जी से संपर्क में रहते हैं? तो अब मैं आपको बता दूंँ थोड़ासा — यहाँ ये खड़े हैं, ये उनके बगल में और संजय खड़े हैं, परिणय खड़े हैं; आपको क्या लगता है इनमें से प्रत्येक व्यक्ति आप जैसे कितने लोगों के संपर्क में है?
जैसे आप उनसे बात करते हो या आपसे बात करते हैं, इनका फ़ोन आता हो, कभी आप इन्हें फ़ोन करते हो तो इनमें से हरेक को कितनों से बात करनी होती है। अभी पहले किसी ने बोला, हाथ खड़ा करके बोलिए।
श्रोता१: पचास।
आचार्य: पचास।
श्रोता२: दो सौ।
आचार्य: दो सौ।
श्रोता३: हज़ार
आचार्य: हज़ार। थोड़ा सोच-समझकर बोलिए, हजार! (श्रोतागण हँसते हैं) कितने से एक दिन में बात करते हैं?
श्रोता४: सात से दस लोग।
आचार्य: तो महीने के तीन सौ। देखा, अंदर वाले नहीं बोलेंगे। (श्रोतागण हँसते हैं) मैं इधर को मुँह कर लेता हूंँ। आप सबसे अलग-अलग पूछ लीजिए कि इनमें से हर आदमी कितने लोगों के संपर्क में है उसे हम अपने यहाँ पर बोलते हैं – पी.एल. , पर्सनल लिस्ट।
चलिए, आपको लगे न कहीं कि मैं अतिशयोक्ति कर रहा हूँ। अनू (संस्था के सदस्य से), कान में बता दो संख्या ताकि ये इनकी गवाही रहे और तुम उनके कान में बता दो ताकि वो गवाही रहे और फिर दोनों का मैच कर लेते हैं। ठीक है, करा जाए?
तुम इनके कान में बता दो संख्या। ठीक है, तीनों खड़े हो जाइए जिनके कान में बताई गई है। हांँ, बताइए।
श्रोता६: साढ़े चार हज़ार।
आचार्य: उन्होंने कहा — साढ़े चार हज़ार।
श्रोता७: चार से पाँच हज़ार।
आचार्य: चार से पाँच हज़ार। चार से पाँच हज़ार — शुभंकर पाँच हज़ार लोगों के संपर्क में हैं फ़ोन से, पाँच हज़ार लोगों के। और साथ में संस्था का एक-एक रुपया इनकी निगाह से होकर गुज़रता है चाहे आने वाला, चाहे ख़र्च होने वाला। आप जितने लोग हैं अभी आपने डोनेशन करी, ये आपको अस्सी जी सर्टिफिकेट चाहिए, वो ये इशू करते हैं।
सीए से सारा कॉर्डिनेशन (तालमेल) ये करते हैं और साथ में पाँच हज़ार लोगों के संपर्क में रहते हैं। आप मेरा काम समझ रहे हैं क्या है? इतना काम तो नहीं करते होंगे। न ये करते हैं, न ये करते हैं, वो सब कौन करता है? कौन करता है?
जी और अभी काम सोचने दो और क्या काम होता है ये सबसे पहले खड़े थे तो इसलिए बता दिया। हांँ, ये सामने खड़े हुए हैं। दिन में कितने लोगों को ब्रॉडकास्ट आते हैं? (जिन्हें ब्रॉडकास्ट जाता है वो हाथ उठाते हैं) ठीक है। दिन में वो ब्रॉडकास्ट आपको क्या लगता है, कैसे आते हैं? तीन-तीन ब्रॉडकास्ट हैं और तीनों इतने बड़े-बड़े होते हैं, कैसे होते हैं?
और वो आपके पास ऐसे ही आ जाते हैं? वो आपके पास आने के लिए पहले उन्हें यहाँ इंटरनली सब के पास जाना होता है फिर वो भेजते हैं वो ब्रॉडकास्ट आपके पास कैसे आते हैं? वाट्सएप पर आते हैं? आपको मालूम है न, वाट्सएप पर ब्रॉडकास्ट की सीमा होती है? तो एक व्यक्ति पाँच हज़ार लोगों को कैसे भेजता होगा, कैसे?
वो भी दिन में तीन-तीन बार अलग-अलग ब्रॉडकास्ट कैसे भेजता होगा, कैसे भेजता होगा? दिमाग लगाइएगा एक-एक ब्रॉडकास्ट भेजने में घंटे-घंटे से ऊपर लगता है वो भी तब भी जाता नहीं, फिर-फिर भेजा जाता है। आपके पास आ जाता है, आप शायद पढ़ते भी न हों, सोचकर कि ये तो ऐसे ही आ गया है।
वो बहुत मेहनत से पहले लिखा गया है, फिर भेजने में भी बराबर की मेहनत लगी है। और अब आते हैं उस काम पर जो मुझसे रोज़ करवाया जाता है। मुक्तसर कहाँ है? यहाँ है। ये मेरे बॉस हैं और देवी जी कहाँ हैं देवी जी, ये मेरी सुपर बॉस हैं।
तो जितने वीडियोज हैं जो प्रकाशित होते हैं, पहले उनका ट्रांस्क्रिप्शन होगा, पाँच-छह विडियोज़ आएँगे मेरे पास; उनकी ट्रांस्क्रिप्ट पढ़ो, उसमें जो अशुद्धियांँ हैं, मिटाओ जो चीज़ उसमें से एडिट-आउट (काँट-छाँट) होनी है उसको एडिट-आउट करो।
जो वीडियो एक-दूसरे से मिलने को मिला। ये रोज़ का बता रहा हूंँ क्योंकि वीडियोज़ रोज़ आते हैं।
उसके बाद उनकी टाइटलिंग (शीर्षक) करो, उसके बाद ये उनका थंबनेल बनाएँगे। उसको ठीक करो तब जाकर के वो आप तक पहुँचता है। ऐसा नहीं है कि यहाँ रिकॉर्डिंग हो रही है, कोई जाकर अपलोड कर देगा, ऐसा नहीं मैं वापस जाऊंँगा तो ये मुझे करना होता है।
फिर होता है समबडी गो एंड वेक अप आचार्य जी ( कोई जाओ आचार्य जी को उठाओ) कि सो नहीं सकते, पहले काम करके दीजिए क्योंकि सुबह होगा नहीं वरना पब्लिश। हमें वो सहूलियत नहीं है कि हम तीन दिन में एक वीडियो आसानी से पब्लिश कर दें।
पिछले महोत्सव के विडियोज़ अभी तक पब्लिश नहीं हो पाए हैं और उसके अलावा बहुत सारे भी पड़े हुए हैं पब्लिश होने के लिए और अंड-बंड कोई सामग्री पब्लिश कर नहीं सकते तो वो पब्लिश होने से पहले जितना हो सके ठीक-ठाक होना चाहिए।
कौन-कौन लोग मुझे रिपोर्ट भेजते हैं डेली ? वो बताएंँगे न, मैं क्या करता हूंँ। वो खड़े हुए हैं, पीछे वो। ये फेसबुक, इंस्टाग्राम ये सारा काम करते हैं। आपको क्या लग रहा है, मैं उन्हें अनुमति दे सकता हूँ कि कुछ भी छाप दो?
तो जो पोस्टर बनता है वो नब्बे प्रतिशत पहले आता है कि देख लीजिए अप्रूव करिए और जब पहली बार आएगा तो होगा ये एकदम ऐसा कि मैं ही न देखना चाहूँ। (श्रोतागण हँसते हैं)
फिर वो दोबारा, तिबारा, चौबारा बनेगा फिर जाएगा, फिर कुछ होगा अशुद्धियांँ होंगी, कुछ होगा पचास चीज़ होती है। न देखो तो हो जाती है ग़लती। अभी आपको जो कैलेंडर है बाहर, उसमें भाषा की चार-पाँच त्रुटियांँ थीं, नहीं देखो तो होंगी ही।
किसका काम बोलूंँ, किसका नहीं बोलूंँ! मतलब जो भी काम है सारा वो और कौन कर रहा होता है बैठकर? वो काम भी ये करें, ये डिज़ाइन करना पड़ता है कि काम करो, इस तरीक़े से काम करो तुम। और फिर ट्रेन (सीखाना) करना पड़ता है। ऐसे करो उसके बाद नहीं करते हैं तो ठीक करना पड़ता है अगर करते हैं तो रिव्यू करना पड़ता है और ये रोज़ करना पड़ता है।
क्योंकि समय कम है, जल्दी है। और कौन है। मैं कोई कोई समय खाने वाला काम भूल रहा हूँ क्या? और कौन है? शक्ल तो दिखा दो मेरे मालिकों, लोग पूछ रहे हैं मैं काम क्या करता हूँ।
असली चीज़ — आप में से बीस लोग भी यहाँ नहीं बैठे होते अगर हम प्रमोशन नहीं करते होते तो। और सात जने हैं जो प्रमोशन में लगे होते हैं दिनभर। सात लोग पैसा खर्च करने में लगे होते हैं कि आप तक वो वीडियो पहुँच जाए नहीं तो यूट्यूब पहुंँचाएगा नहीं। और उसमें बेइंतहा खर्च होता है और ऐसा लगता है खून बह रहा है। और उसको देखते रहना पड़ता है। क्योंकि उसको नहीं देखो तो एक घंटे में ही जो यूट्यूब, फेसबुक इन सबका जो अलगौरिदम है वो अनाप-शनाप खर्च कर सकता है पिछले ही तो शिविर में था बस एक दिन मैं – वो मुस्करा रहे हैं वहाँ खड़े होकर। उन्हें पता है उन्होंने क्या किया था। उन्होंने रुपीज की जगह डॉलर्स की बिड लगा दी, जितना खर्च होना चाहिए था उससे अस्सी (एक डालर बराबर अस्सी रूपए) गुना हो गया।
अब मैं क्या करूँ? सज़ा भी क्या दे सकते हो आप ऐसे काम पर? कोई छोटा-मोटा, किसी ने कुछ करा हो तो सज़ा दे लो, किसी ने एक झटके में लाखों फूंँक दिए सज़ा भी क्या दोगे उसको? कुछ नहीं, माफ़ करो। ग़लती मेरी थी कि मैंने एक घंटे भी वहांँ से नज़रें हटा लीं। मैं एक घंटे को भी नज़र हटा लूंँ तो कहीं-न-कहीं आग लग जाएगी, गाड़ियांँ भिड़ जाएंँगी।
कहाँ है? अब इतनी लम्बी होती है मेरी टू. डू. लिस्ट (काम की सूची) हमेशा। और उसमें ध्यान कहीं नहीं होता है। वो जो कुछ भी कर रहा हूँ वो करने के लिए ध्यान चाहिए, ध्यान अपनेआप में कोई अलग कर्म नहीं होता। सही काम करो और सही काम को करने के लिए जो चाहिए उसे ध्यान बोलते हैं।
ध्यान नहीं होता कुछ भी कि पाँच काम कर रहे हैं उसमें से एक काम है – ध्यान। मैं तो रोज़ ध्यान करता हूँ, साधना कोई काम नहीं होता कि सुबह उठो तो पहले साधना करो, दिनभर सही काम करने को साधना बोलते हैं।
अब ये सब पाँच-छह लोग लगे हुए हैं कैमरे लेकर, आपको क्या लगता है ये प्रोफेशनल फोटोग्राफर हैं। वो कहाँ हैं निर्मल बहादुर? अब आप यहाँ आए हैं उससे एक रात पहले मैं इनको ट्यूटोरियल दे रहा था डीएसएलआर ऑपरेट कैसे करते हैं इसमें। आप पूछ रहे हो, ‘काम क्या होता है?’
और जो हम काम कर रहे हैं उसका कोई कोर्स तो होता नहीं न, कि 'कोर्स ऑफ स्परिचुअल मैनेजमेंट' ! तो जिसको जो सीखना है वो संस्था में आकर ही सीखता है, सिखाने वाला एक ही आदमी है।
और ऊपर से जो सबके अपने-अपने आंतरिक दबाव होते हैं, तनाव होते हैं, इधर-उधर के आकर्षण-विकर्षण होते हैं। सब जवान लड़के हैं, समझिए बात को। (श्रोतागण हँसते हैं) तो जब उधर-उधर को भटकते, छटकते, फिसलते हैं तो वो काम भी मुझे ही करना पड़ता है कि बेटा, आज अटेंडेंस लगाना, उसमें भी समय जाता है।
और ये जो सैकड़ों की तादाद में फोटोज़ खिंच रही हैं, आपको क्या लगता है ये ऐसे ही पब्लिश हो जाएंँगी, इस कैमरे से पाँच-सात हज़ार फ़ोटो और वीडियो सब ये सब जाएंँगे। आप तो यहांँ से घर जाओगे, उसके बाद इधर एक नया काम शुरू होगा। इनकी छटाई और वो छटाई कितना मुश्किल काम है जिसने करी होगी वो जानता होगा।
किताबें बन रही हैं, वो किताबें — ख़ैर उसमें तो मैं बहुत समय दे भी नहीं पाता — पर उनमें भी अशुद्धियाँ रहती हैं। अभी किताब नयी आ रही थी — 'माया'! आपमें से कुछ लोगों ने देखा होगा। वो अक्टूबर में लॉन्च होनी थी, नहीं हुई। कुछ लोगों ने पूछा भी कि जब बता दी अक्टूबर में आ रही है तो आई क्यों नहीं?
क्योंकि लॉन्च होने से ठीक पहले मुझे उसका एक सैंपल दिया गया कि ये है अप्रूव कर दीजिए और मैंने उसको देखा और सिर पीट लिया। उसकी तीन हज़ार प्रतियाँ पब्लिशर ने छापकर तैयार कर दी थीं। वो हमने जलवाई और फिर उस किताब को बैठकर दोबारा बनाया है, मैंने ही बनाया है।
ऐसा नहीं कि उन्होंने कोई बहुत ही बेहूदा काम कर दिया था; अपनी समझ से जो कर सकते हैं करा था। वो नहीं ठीक था तो उसको, पूरी किताब को दोबारा बनाया। अब वो फिर आएगी, फरवरी-मार्च पता नहीं कब आएगी।! जलाया और जितनी छप गई थीं उनका भुगतान किया।
तो ये सब रहता है, अब इसमें काम और क्या बताया जाए आपको! किसने पूछा था? मुझे बहुत विचित्र लगता है जब कोई बाहर वाला आकर के कहता है कि आप लोग के काम में ये कमी या ये खोट है, मैं कहता हूँ खोट हैं तो ठीक करो आ करके, बाहर से बता क्या रहे हो?
यहाँ शिविर में भी कुछ लोगों को — ये चीज़ ठीक नहीं है, वो चीज़ ठीक नहीं है। तो तुम्हारी चीज़ है, तुम ठीक करो न! हम ठीक क्यों करें! यहाँ कोई दुकान लगी है क्या? तुम ग्राहक हो कि तुम आए और कह रहे हो कि देखिए, फ़लाना माल ठीक नहीं है। ठीक नहीं है तो तुम ठीक करो।
जो कुछ भी ठीक नहीं लग रहा, कर दो न ठीक! शिकायत क्या कर रहे हो? मैंने बीटेक के बाद सॉफ्टवेयर में भी करा है और मैनेजमेंट के बाद तीन अलग-अलग इंडस्ट्रीज़ में भी करा है। कंसल्टेंसी फर्म्स छोटी होती हैं और बिलकुल टॉप नौच उनका जॉब माना जाता है उसमें भी करा है और बहुत बड़े मीडिया हाउस में भी करा है।
जितना डाइवर्स एक्सपीरियंस ले सकता था — बिलकुल एक देसी कंपनी में भी करा है और दुनिया की सबसे बड़ी एमएनसी (बहुत से देशों में फैला हुआ उद्योग) में भी करा है। कहीं पर भी उतना दबाव और उतना तनाव नहीं होता जितना हमारे यहांँ होता है।
जिस दिन से संस्था बनी है, उस दिन से आज तक मजाल है कि संडे जैसी कोई चीज़ किसी की ज़िंदगी में रही हो। न रही है, न कोई मानता है। हम सोच भी नहीं सकते, कैसे सोचें? मजाल कि छुट्टी जैसी कोई चीज़ रही हो!
किसी को अपने घर जाना होता है तो वो घर जाता है छुट्टी नहीं लेता, घर जाता है। छुट्टी नहीं लेता इसका मतलब समझ रहे हैं घर जाओगे तो काम करते रहोगे छुट्टी नहीं हुई है, छुट्टी किसी की हो ही नहीं सकती।
ये त्यौहार वग़ैरा ये सब आप लोगों की छुट्टियांँ होती हैं, संस्था में किसी की कभी छुट्टी नहीं होती। आप लोगों का कोई समय होता है कि अब काम रुक गया, हमारे यहाँ किसी समय काम नहीं रुकता। और चूँकि किसी समय काम नहीं रुकता इसलिए मुझे हर समय सुपरविजन करते रहना होता है।
लोगों का अध्यात्म में आने के बाद बड़ा कल्याण हो जाता होगा, शांति मिल जाती होगी उनको। कहते होंगे कि अब सुकून हो गया है, मेरा उल्टा हुआ है। संस्था बनी थी उससे पहले मुझे गर्व रहता था कि मैं बचपन से ही बहुत गहरी नींद सोता हूँ और घर वाले भी ऐसे ही बोलते थे, ऐसे कहते थे कि जिस करवट लेट जाता है सुबह उसी करवट उठता है, रात में करवट भी नहीं बदलता। इतनी इसकी शांत और गहरी नींद होती थी।
और दूसरी चीज़ ये होती थी मुझे कभी सपने नहीं आए, कभी-भी नहीं। मैं लेटता था, सो जाता था। जैसे सोता था, वैसे उठ जाता था सपने जैसी कोई चीज़ ही नहीं। और अभी पिछले पाँच सालों से ज़रा-सी मेरी आँख लगती है और वो सपने भी नहीं होते वो विचार होते हैं, वो लगातार चलने शुरू हो जाते है।
उसमें यही होता है — कहाँ क्या गड़बड़ रही है, कहाँ क्या हो रहा है, कहाँ क्या। हर दो-तीन घंटे में नींद खुल जाती है। जल्दी से कम्प्यूटर या फ़ोन वग़ैरा देखता हूँ, कहाँ क्या चल रहा है, कहाँ क्या हो रहा है। तो पता नहीं किन लोगों को मौन और शांति और समाधि लगती है!
वो सब चीज़ — इसलिए बोलता हूँ ईमानदारी से, कि — वो सब चीज़ चाहिए हो तो मेरे पास मत आइएगा। मेरे ही पास नहीं है, मैं आपको कैसे दे दूंँगा? यहाँ आपमें से कई ऐसे बैठे हुए हैं जिन्होंने इच्छा ज़ाहिर करी है संस्था में काम करने की, तो उनको मैं पहले ही चेतावनी दे दे रहा हूँ, एकदम भट्टी है अंदर। बहुत ज़्यादा काम है और कोई शुक्रिया नहीं अदा करेगा कि अरे! आप तो इतना करते हैं। वाह! वाह! बढ़िया आदमी हैं। थैंकलेस जॉब है। शिकायतें और आती हैं कि ये नहीं किया, वो नहीं किया, ऐसा नहीं है, वैसा नहीं है।
कैंप में हमारी ठीक से सेवा नहीं हुई है। हमारा, देखिए, आप डोनेशन रिफण्ड (वापस) कर दीजिए। हुए हैं, इस शिविर में भी हुए हैं। चूँकि ये सब क्यों है, मूलतया क्यों है? क्योंकि हम एक ऐसा काम कर रहे हैं जो समाज को बदलना चाहता है इसीलिए समाज हर तरीक़े से हमारा विरोध करने की कोशिश करता है, जितने तरीक़े से संभव हो सकते हैं, ये है बात, जितनी दिशाओं से।
और साथ-ही-साथ ये भी है कि कुछ लोग हैं जो बात को समझते है, उन्होंने कम-से-कम आर्थिक रूप से, पीछे से बिलकुल टिका के रखा हुआ है। तो समाज का ही एक छोटासा वर्ग है जिससे फिर एक सहारा भी आता है। बात को समझने वाले और साथ लगने वाले लोग एकदम मुट्ठी भर हैं और जिन्हें विरोध वग़ैरा करना है वो बाक़ी सारे हैं।
जो हमारा समर्थन करते हैं और जो मुट्ठी भर लोग हैं उनके घर पर बवाल हो जाता है। लेकिन ये सब मैं आपको इसलिए नहीं बता रहा हूँ कि आपको लगे कि हम बहुत कष्ट में काम कर रहे हैं, ये सब सुनकर के आपको सोचना चाहिए कि यदि स्थितियांँ इतनी प्रतिकूल हैं और फिर भी ये लोग ये काम करे जा रहे हैं तो ज़रूर इस काम में कोई बात होगी, कहीं कोई छुपा हुआ आनंद होगा तो ज़रूर। नहीं तो कोई कठिनाई वग़ैरा सहकर के क्यों करे ये सब?
जान गंँवाना और ज़िंदगी बर्बाद करना किसी को पसंद नहीं होता; हमें भी नहीं है। तो तमाम तरह की कठिनाइयों के बाद भी हम ये करते हैं तो कोई तो इसमें रस होगा। वो रस है इसलिए कुछ भी हो जाए, काम आगे बढ़ता रहता है।
प्र: प्रणाम, आचार्य जी! जब भी शिविर होते हैं तो संस्था के लगभग सभी वालेंटियर्स यहीं होते हैं, आप भी यहीं पर होते हैं तो एक तरह से चार-पाँच दिन या फिर ज़्यादा दिनों के लिए भी संस्था का काम रुक जाता है। तो क्या आपको व्यक्तिगत रूप से अफ़सोस होता है कि सब लोग यहीं पर दिनभर लगे हुए हैं तो काम तो रुक ही रहा है?
आचार्य: काम नहीं रुक रहा। यहांँ तीन शिफ्ट चलती थीं, अब चार शिफ्ट चलती हैं। काम कहाँ रुका? काम नहीं रुकने देते। यहांँ का जो काम है वो भी करते हैं, फिर रातभर जो हमारा नियमित काम है वो भी करते हैं।
आप जाकर जब सो जाते हैं तो यहांँ के लोग सब अपना काम शुरू करते हैं, जो नियमित काम है। रातभर वो करते हैं। फिर सुबह आपको वहांँ बीच पर मिलते हैं। और जब बीच पर आने में एक-आधे घंटे की देर हो जाती है क्योंकि वो सुबह सोए ही छह बजे थे तो आप में से कई लोग शिकायत करते हैं कि हमारी सेवा ठीक से नहीं की जा रही।
ये नहीं होने देते हम कि काम रुक जाए। बोधस्थल में एक समय पर छ:, कितने लोगों को एक साथ कोविड हुआ था? तीन लोगों को छोड़कर सबको कोविड था एक समय पर। काम हमने तब नहीं रुकने दिया, शिविर में क्या रुकने देंगे!
पूरे बोधस्थल में तीन को छोड़कर सबको था और उसमें से दो ऐसे थे जिनके फेफड़ों में पहुँच चुका था, हमने तब भी नहीं काम रुकने दिया। काम अगर रुक गया तो आप शोक सन्देश लेकर आ जाइएगा, काम रुकने का एक ही मतलब होगा।
काम नहीं रुकने देंगे। अफ़सोस इस बात का नहीं होगा कि काम रुक जाएगा; हाँ, काम मुश्किल हो जाता है इन दिनों में; ठहर-ठहरकर होता है, धक्का दे-देकर होता है, चिड़-चिड़ाकर होता है, पर होता है।
अफ़सोस दूसरी चीज़ का होता है। अफ़सोस इस चीज़ का होता है कि जो चीज़ मुझे सबसे ज़्यादा व्यक्तिगत रूप से प्यारी थी वो इस संस्था के आने के बाद से ज़रा दूर हो गई। मुझे पढ़ने का समय नहीं मिलता। मेरे लिए सबसे शांत क्षण होते हैं जब मैं किसी किताब के साथ होता हूँ।
और चुपचाप मौन अकेले में पढ़ रहा होता हूँ वो मुझे समय नहीं मिल पाता करने का। तो उसका अफ़सोस ज़रूर रहता है। पढ़ नहीं पाता, लिख नहीं पाता। काम तो नहीं रुकेगा वैसे बाक़ी जो भी व्यक्तिगत चीज़, जैसे खेल नहीं पाता, खेलना मुझे बहुत पसंद है। खेल नहीं पाता।
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